Human Purpose (मानव प्रयोजन एवं लक्ष्य)

 

मानव सहज प्रयोजन

 *स्त्रोत = मानव व्यवहार दर्शन, संस २००९, अध्याय ४ 

 

पुस्तक में प्रयुक्त संकेत:

●    अनुभूतियाँ ।

::    परिभाषाएँ ।

  सम्बन्ध एवम् स्पष्टीकरण ।

○     विश्लेषण अनुभूतियों अथवा परिभाषाओं का ।

●    विश्राम के लिये ही इस पृथ्वी पर मानव अपने महत्व को जानने, पहचानने के प्रयास एवं प्रयोग में व्यस्त है ।

●    एक से अधिक मानव एकत्र होने को परिवार, समुदाय व अखण्ड समाज संज्ञा है । जागृत मानव परम्परा में सार्वभौम व्यवस्था पूर्वक अखण्ड समाज प्रमाणित होता है ।

 अकेले में मानव के जीवन में कोई कार्यक्रम, व्यवहार एवं उत्पादन सिद्घ नहीं होता है । इस पृथ्वी पर मानव अधिकतम विकसित इकाई है । इससे विकसित इकाई इस पृथ्वी पर परिलक्षित नहीं है। मानव इसीलिए विकसित इकाई सिद्घ हुआ है, क्योंकि :-

■          वह मनुष्येतर सृष्टि के उपयोग, सदुपयोग, शोषण एवं पोषण में सक्षम है ।

■          मानव तथा मनुष्येतर तीनों सृष्टि में पाए जाने वाले गुण, स्वभाव एवं धर्म का ज्ञाता मानव ही है ।

■          मनुष्येतर सृष्टि में न पाये जाने वाले स्वभाव, व्यवहार एवं अनुभूति को मानव में पाया जाता है ।

●    सामाजिकता से आवश्यकता; आवश्यकता से प्रयोग एवं उत्पादन; प्रयोग एवं उत्पादन से अर्थोपार्जन; अर्थोपार्जन से उपयोग, सदुपयोग व प्रयोजनशीलता; उपयोग, सदुपयोग व प्रयोजनशीलता से व्यवहारिकता; व्यवहारिकता से मानवीयता तथा मानवीयता से सामाजिकता है । अखण्ड सामाजिकता के अर्थ में सार्थक है ।

::    अखण्डता:-                     अखण्डता सार्वभौमता सहज सूत्र व्याख्या रूप में मानव का प्रयोजन ।

::    सामाजिकता:-                 सम्पर्क एवं संबंध का निर्वाह ही सामाजिकता है।

::    आवश्यकता :-     निर्वाह के लिए समुचित साधनों के प्रति (जो समझदार परिवार में निर्धारित होता है) तीव्र इच्छा ही आवश्यकता है । यह शरीर पोषण-संरक्षण समाज गति के अर्थ में ।

::    समुचित साधन :-            मानव की परस्परता, प्रयोग एवं उत्पादन को संतुलित, समृद्घ एवं जागृति पूर्ण बनाने के लिए प्रयुक्त आवश्यकीय साधनों की समुचित साधन संज्ञा है । शरीर पोषण, संरक्षण व समाज गति के लिए अर्पित, समर्पित वस्तुयें समुचित साधन हैं ।

::    प्रयोग :-                                     मानव की आवश्यकता के रूप में प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन पूर्वक उपयोगिता मूल्य व कला मूल्य को स्थापित करने हेतु सफल होते तक प्रयास ही प्रयोग है ।

::    उत्पादन :-                                  प्रयोग को सामान्यीकृत करने हेतु विकसित क्रिया पद्घति में श्रम नियोजन प्रक्रिया की उत्पादन संज्ञा है जिसमें बहुतायत उत्पादन की अथवा निर्माण की कामना सन्निहित रहती ही है ।

::    धनोपार्जन :-                   प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन से कला एवं उपयोगिता की सिद्घ मात्रा की धन संज्ञा हैं जिसके आदान से प्रदान तथा प्रदान से आदान का होना आवश्यक है । ऐसे धन के एकत्रीकरण क्रिया को धनोपार्जन संज्ञा है । धनोपार्जन की यह क्रिया-परक परिभाषा है। उपार्जन का अर्थ ही है उपाय द्वारा किया गया अर्जन ।

::    उपयोग :-                                   उत्पादन व सेवा के लिए प्रयुक्त अर्थ की उपयोग संज्ञा है ।

::    उत्पादन :-                                 उत्पादन दो भेद से होता है – सामान्य आकाँक्षा से अथवा महत्वाकाँक्षा से ।

::    सामान्य आकाँक्षा :- आहार, आवास एवं अलंकार में प्रयुक्त कार्यक्रम को सामान्य आकाँक्षा की संज्ञा है ।

::    महत्वाकाँक्षा :- दूरगमन, दूरदर्शन तथा दूरश्रवण के लिए प्रयुक्त कार्यक्रम को महत्वाकाँक्षा की संज्ञा है।

::    सदुपयोग :-                                परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी करते हुए तन, मन, धन रूपी अर्थ का नियोजन सदुपयोग है ।

::    प्रयोजन :-                                  जागृति पूर्णता पूर्वक अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में तन, मन, धन का नियोजन प्रयोजन है ।

::    व्यवहारिकता :-   मानवीयता पूर्ण आचरण की व्यवहारिकता है।

●    सामाजिकता का अध्ययन मानव के सामाजिक स्वभाव, विषय एवं दृष्टि के आधार पर ही है, जिसके संरक्षण हेतु सामाजिक व्यवस्था है ।

●    उपरिवर्णित आधार पर अध्ययन करने पर मानव समाज की कुल तीन प्रकार से गणना होती है :-

■ अमानवीयता,    ■ मानवीयता    ■ अतिमानवीयता ।

::    अमानवीय स्वभाव, विषय एवं दृष्टि का संरक्षण, संवर्धन एवं प्रोत्साहन देने हेतु की गई व्यवस्था अमानवीय अथवा पाशविक प्रवृत्ति व्यवस्था है ।

::    अमानवीय स्वभाव :-        हीनता, दीनता एवम् क्रूरता ही अमानवीय स्वभाव है ।

::    अमानवीय विषय :-          आहार, निद्रा, भय एवम् मैथुन ही अमानवीय विषय है ।

::    अमानवीय दृष्टि :-            प्रियाप्रिय, हिताहित एवम् लाभालाभ ही अमानवीय दृष्टि है ।

::    प्रिय :-   ऐन्द्रिय सुख सापेक्ष क्रिया की प्रिय संज्ञा है ।

::    हित :-   शरीर स्वास्थ्य वर्धन एवं पोषण क्रिया की हित संज्ञा है।

::    लाभ :-   श्रम से अधिक द्रव्य पाने की क्रिया को लाभ अथवा लघु मूल्य के बदले गुरु मूल्य आदाय ही लाभ है ।

::    हीनता :-            विश्वासघात ही हीनता है ।

::    विश्वासघात :-     जिससे जिस क्रिया की अपेक्षा है, उसके  विपरीत आचरण किया जाना ही विश्वासघात है ।

::    छल :-    विश्वासघात के अनन्तर भी उसका आभास न हो ऐसे विश्वासघात की छल संज्ञा है।

::    कपट :- विश्वासघात के अनन्तर उसके प्रकट या स्पष्ट हो जाने की स्थिति में विश्वासघात की कपट संज्ञा है ।

::    दम्भ :-   आश्वासन देने के पश्चात् भी किए गये विश्वासघात की दम्भ संज्ञा है ।

::    पाखण्ड :-           दिखावा पूर्वक किए गए विश्वासघात की पाखण्ड संज्ञा है ।

::    दीनता :-                        अपने दु:ख को दूसरों से दूर कराने हेतु जो आश्रय प्रवृत्ति है, उसकी दीनता संज्ञा है ।

 दीनता अभावजन्य या अक्षमताजन्य दो प्रकार की होती है।

::    अभाव :-            उत्पादन से अधिक उपभोग एवं उपयोग की इच्छा ही अभाव है। आलस्य, प्रमाद, अज्ञान, अप्राप्ति, प्राकृतिक प्रकोप तथा सामाजिक असहयोग अभाव के कारण हैं ।

::    अक्षमता :-          इच्छानुसार बौद्घिक एवं कार्य-व्यवहार क्रिया का संपादन न कर पाना ही अक्षमता है । अक्षमता का कारण अजागृति और रोग है ।

::    क्रूरता :-                         स्व-अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बलपूर्वक दूसरे के अस्तित्व को मिटाने में जो वैचारिक प्रयुक्ति है, उसे क्रूरता कहते हैं ।

  अपराध एवं प्रतिकार क्रूरता के दो भेद हैं ।

 अपराधात्मक क्रूरता हिंसा के रूप में व्यक्त तथा प्रतिकारात्मक क्रूरता प्रतिहिंसा के रूप में व्यक्त है ।

●    मानवीय स्वभाव, विषय एवम् दृष्टि को संरक्षण, संवर्धन एवम् प्रोत्साहन देने वाली व्यवस्था मानवीय व्यवस्था है ।

::    मानवीय स्वभाव :-          धीरता, वीरता और उदारता दया, कृपा, करूणा ही मानवीय स्वभाव है ।

::    मानवीय विषय :-                        पुत्रेषणा, वित्तेषणा एवं लोकेषणा मानवीय विषय है ।

::    मानवीय दृष्टि :-               न्यायान्याय, धर्माधर्म एवं सत्यासत्य मानवीय दृष्टि है ।

 न्याय :-  मानवीयता के संरक्षणात्मक नीतिपूर्वक किये जाने वाले व्यवहार व्यवस्था ही न्याय है ।

●    अतिमानवीय स्वभाव, विषय एवं दृष्टि की जागृति के लिए समुचित अवसर एवं साधन को नियोजित करने वाली व्यवस्था एवं वैयक्तिक प्रयास को अतिमानवीय सामाजिक व्यवस्था कहते हैं। अखण्ड समाज, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था व हर मानव सहज प्रमाण परम्परा ही अतिमानवीय सामाजिक व्यवस्था है ।

::    अतिमानवीय स्वभाव :-    दया, कृपा और करुणा ही अति-भौतिकवाद  मानवीय स्वभाव है।

::    दया :-   जिनमें पात्रता हो, परंतु उसके अनुरूप वस्तु उपलब्ध न हो, ऐसी स्थिति में उसे वस्तु उपलब्ध कराने हेतु की गयी प्रयुक्ति ही दया है ।

::    कृपा :-   वस्तु समीचीन है पर उसके अनुरूप पात्रता अर्थात् मानवीयतापूर्ण नजरिया नहीं है, उनको पात्रता उपलब्ध कराने वाली प्रयुक्ति कृपा है।

::    करुणा :-जिनमें पात्रता न हो और वस्तु भी समीचीन न हों, उनको उसे उपलब्ध कराने वाली प्रयुक्ति ही करुणा है ।

::    अतिमानवीय विषय :-      सत्य (सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य)

::    अतिमानवीय दृष्टि :-                     मात्र सत्य ।

●    न्याय व अन्याय सहित लक्ष्य भेद से संपर्क सफल एवं असफल सिद्घ होता है, जिससे सामाजिकता का विकास व ह्रास सिद्घ होता है ।

::    सम्पर्क :-          जिस परस्परता में प्रत्याशाएँ  ऐ’िछक रूप में निहित है, ऐसे मिलन की संपर्क संज्ञा है।

ब    ऐहिक उद्देश्य (जीव चेतना वश) से संबंध नहीं है । संबंध आमुष्मिक उद्देश्य (विकसित चेतना, मानव, देव मानव दिव्य मानव सहज प्रमाण) पूर्वक ही हैं, जिनका निर्वाह ही जागृति है ।

::    संबंध :-  जिस परस्परता में प्रत्याशाएँ पूर्व निश्चित रहती हैं, ऐसे मिलन की संबंध संज्ञा है ।

●    सामाजिकता का निर्वाह कर्त्तव्य एवं निष्ठा से है, जिससे अखण्डता-सार्वभौमता रुप में सामाजिकता का विकास तथा अन्यथा से ह्रास है ।

::    निर्वाह :-            उपयोग, सद्उपयोग व प्रयोजनों को प्रमाणित करना अथवा परस्पर पूरक सिद्घ होना।

::    कर्त्तव्य :-            मानवीयता पूर्ण विधि से करने योग्य कार्य-व्यवहार एवं मूल्य निर्वाह क्रिया ही कर्त्तव्य है।

::    निष्ठा :-              कर्त्तव्य एवं दायित्व का निर्वाह की निरंतरता  ही निष्ठा है ।

 सामाजिकता के निर्वाह के लिये समाधान, समृद्घि आवश्यक है, मानव के पास इसके लिये बौद्घिक एवं भौतिक साधन अर्थात् समाधान, समृद्घि से है ।

::    साधन :-                                    साधक को अथवा साध्य के लिये आवश्यकीय वस्तु एवं पात्रता को साधन  संज्ञा है, जो हर साधक में अपेक्षणीय है ।

::    बौद्घिक साधन :- जागृति सहज क्षमता, योग्यता एवं पात्रता के रूप में बौद्घिक साधन है।

::    भौतिक समृद्घि :- सामान्य एवं महत्वाकाँक्षाओं के लिये आवश्यकीय रचना एवं वस्तु उत्पादन के रूप में भौतिक साधन हैं ।

 उपरोक्तानुसार वर्णित साधनों को प्रयुक्त करने हेतु जो प्रयत्न, प्रयास एवं व्यवसाय (उत्पादन क्रिया) है, उसमें इच्छा का होना आवश्यक है ।

●    जो जिसको पाने के लिये तीव्र इच्छा से संवेगित होता है, वह उसे पाये बिना तृप्त नहीं होता है।

 बौद्घिक एवं भौतिक साधनों की प्रयुक्ति के लिए इच्छा, किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही होती है । यह आवश्यकता स्वार्थ, परार्थ अथवा परमार्थ भेद से होती है ।

::    स्वार्थ :-सीमित एवं संकीर्ण अर्थ नियोजन योजना की स्वार्थ संज्ञा है । जो एक मानव अथवा परिवार तक ही सीमित रहती है अथवा वैयक्तिक या पारिवारिक इन्द्रिय सुख-सुविधा के लिये जो विचार एवं व्यवहार है वह स्वार्थ है।

::    परार्थ :-             दूसरों की सुख-सुविधा के लिये जो विचार एवं व्यवहार और इसकी पूर्ति के लिये अर्थ नियोजन की प्राथमिकता ही परार्थ है ।

::    परमार्थ :- जिस विचार एवं व्यवहार में समाधान सहित सर्वशुभ की उपलब्धि हो और समस्या का निराकरण हो और स्नेह का ही संबंध हो, इसे सर्व सुलभ कराने के लिये जो अर्थ नियोजन है, उसकी परमार्थ संज्ञा है ।

○    उपरोक्त नियम ही विभिन्न प्रकार की गठित सामाजिक इकाईयों के लिये भी लागू होगा । जिससे विभिन्नता समाप्त होकर, मानवीयता स्थापित होगी ।

 अर्थ मात्र तीन ही हैं :- मन (जीवन), तन, धन ।

●    बौद्घिक प्रयोग एवं प्रयास से बौद्घिक समाधान तथा भौतिक प्रयोग, प्रयास एवं उत्पादन से भौतिक समृद्घि की उपलब्धि होती है । बौद्घिक समाधान और भौतिक समृद्घि सामाजिकता के विकास के लिये सहायक हैं ।

 भौतिक समृद्घि के लिये प्राकृतिक वैभव का उपयोग एवं सदुपयोग अनिवार्य है । खनिज, वनस्पति और पशु-पक्षी प्राकृतिक वैभव है ।

 प्राकृतिक वैभव के उपयोग और सदुपयोग के लिये श्रम रूपी अर्थ का नियोजन आवश्यक है ।

○    अर्थ :-    तन, मन एवं धन का नियोजन, मानवीय तथा अतिमानवीय भेद से प्रयुक्त करने से सामाजिकता का विकास है ।

●    अमानवीय समुदायों के गठन के मूल में भ्रमित मानवों व बलवान जीवों अर्थात् क्रूरता का भय है ।

 इसी प्रकार मानव समुदाय गठन के मूल में प्राकृतिक भय, पाशवीय भय तथा मानव में निहित अमानवीयता के भय से मुक्त होना लक्ष्य है ।

●    मानव मात्र द्वारा समस्त प्रयास एवं प्रयोग तृप्ति अथवा सुख के लिये है ।

●    ऐन्द्रिय (संवेदना), बौद्घिक (वैचारिक समाधान), मूल्य मूलक (न्याय) और लक्ष्य मूलक (जागृति सहज प्रमाण) भेद से तृप्तियाँ अथवा सुख है।

 शॅब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धेन्द्रियों द्वारा आहार, निद्रा, भय और मैथुन से होने वाली सभी तृप्तियाँ ऐन्द्रिय है जो सामयिक होती है ।

 वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा से प्राप्त तृप्ति की बौद्घिक तृप्ति संज्ञा है जो दीर्घकालीन या दीर्घ परिणामी होती है ।

ॅ    संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति ही मूल्य मूलक विधि से जीने का प्रमाण है । जिसमें निरंतर सुख की संभावना दिखने लगती है ।

 मानव लक्ष्य (समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व) व जीवन लक्ष्य (सुख, शांति, संतोष, आनंद) के अर्थ में जीना ही लक्ष्य मूलक विधि से जीने का प्रमाण है, यही विश्राम अथवा निरंतर सुख है ।

::    वित्तेषणा :-                     सदुपयोग के अर्थ में न्याय दृष्टि पूर्वक धन-बल कामना ही वित्तेषणा है ।

::    पुत्रेषणा :-                      परिवार एवं समाज व्यवस्था के अर्थ में जन-बल कामना की पुत्रेषणा संज्ञा है ।

::    लोकेषणा :-         अखण्ड समाज व्यवस्था के अर्थ में न्याय, धर्म दृष्टि पूर्वक यश-बल कामना ही लोकेषणा है ।

::    समाधान:-                      कैसे और क्यों की पूर्ति (उत्तर) ही समाधान है ।

::    विश्राम :-                       जिसमेंं श्रम नहीं समाधान है, जिसके द्वारा श्रम नहीं होता है वह अनुभूति ही विश्राम है।

 इच्छानुसार द्रवित होने वाले अंग को इन्द्रिय, बोध करने-कराने वाले अंग को बुद्घि, सह-अस्तित्व में अनुभूति करने वाले जीवन के अंगभूत आत्मा, समस्त आत्माओं के आधारभूत सत्ता की अध्यात्म व परमात्मा संज्ञा है ।

○    आवश्यकता तथा उपयोगिता का निर्णय उपरोक्त चार तृप्तिकारक अथवा सुखकारक लक्ष्य भेद से निर्णय किया जाता है ।

●    ऐन्द्रिक तृप्ति क्षणिक, बौद्घिक तृप्ति दीर्घ परिणामी तथा अनुभव (लक्ष्य मूलक) तृप्ति नित्य अथवा अपरिणामी सिद्घ होती है ।

●    प्रियाप्रिय, विषय सापेक्ष; हिताहित, शरीर सापेक्ष; लाभालाभ, वस्तु व सेवा सापेक्ष; न्यायान्याय, व्यवहार सापेक्ष; धर्माधर्म, समाधान सापेक्ष तथा सत्यासत्य, सह-अस्तित्व सापेक्ष पद्घति से स्पष्ट होता है।

 प्रिय विषय प्राप्त होने पर क्षणिक तृप्ति होती है । अप्रिय विषय प्राप्त होने पर इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होती है ।

 हृदय के तृप्त होने पर हित तथा स्वास्थ्य लाभ होता है। हृदय के अतृप्त रहने पर अहित तथा स्वास्थ्य का लाभ नहीं होता है ।

●    इंद्रिय तृप्ति सामयिक प्रतिक्रिया है ।

::    तृप्ति :-                           आंदोलनों से मुक्त क्रिया ही तृप्ति है ।

::    आंदोलन :-                     शरीर पर्यन्त हृदय के सम्वर्धन तथा संरक्षण की अक्षुण्णता इसके क्रिया एवं गति के संतुलन से बनी रहती है, इस क्रिया एवं गति का घट जाना या बढ़ जाना ही आंदोलन है।

 इन्द्रिय तृप्ति से हृदय तृप्ति आवश्यक नहीं है, पर हृदय तृप्ति से इन्द्रिय तृप्ति होती है ।

●    लघु मूल्य के बदले गुरु मूल्य का आदाय (प्राप्ति) लाभ है ।

●    लघु मूल्य के बदले गुरु मूल्य का प्रदाय तीन परिस्थितियों में होता है :- (_) विवशता वश, (_) स्वेच्छा वश तथा (_) अज्ञान वश।

 विवशतावश लघु मूल्य के बदले गुरु मूल्य प्रदाय करने की क्रिया लाभ एवं संग्रह वृत्ति से मुक्त तथा शोषित होने की क्रिया से युक्त होती है।

 स्वेच्छा वश लघु मूल्य के बदले गुरु मूल्य प्रदाय करने की क्रिया से मानसिक संतोष की उपलब्धि होती है तथा यह प्रदाय, त्याग एवं उदारता की भावना से युक्त होता है ।

 अज्ञानवश लघु मूल्य के बदले गुरु मूल्य प्रदाय करने की क्रिया लोभ, लाभ एवं संग्रह की प्रवृत्ति तथा हानि से युक्त होती है तथा शोषण से युक्त होती है ।

●    गुरु मूल्य के बदले लघु मूल्य का प्रदाय चार परिस्थितियों में होता है:- (_) प्रलोभन वश (_) हीनता  वश (_) क्रूरता वश तथा (_) दीनता वश ।

 प्रलोभन वश गुरु मूल्य के बदले लघु मूल्य प्रदान करने की क्रिया शोषण, संग्रह और द्रोह से युक्त होती है ।

 हीनतावश गुरु मूल्य के बदले लघु मूल्य का प्रदान करने की क्रिया शोषण, संग्रह, द्रोह और विश्वास-घात से युक्त होती है ।

 क्रू रतावश गुरु मूल्य के बदले लघु मूल्य का प्रदान करने की क्रिया शोषण, संग्रह, द्रोह तथा हिंसा से युक्त होती है ।

 दीनतावश गुरु मूल्य के बदले लघु मूल्य का प्रदान करने की क्रिया अक्षमता एवं अभाव के कारण संपन्न होती है तथा ऐसी क्रिया केवल आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही सम्पन्न की जाती है ।

●    समस्त व्यवहार कुल छ: दृष्टियों में परिलक्षित है :-

(_) प्रियाप्रिय (_) हिताहित (_) लाभालाभ (_) न्यायान्याय (‘) धर्माधर्म और (_) सत्यासत्य।

 अमानवीयतापूर्ण दृष्टि से युक्त मानवों का व्यवहार मात्र तीन दृष्टियों यथा-प्रियाप्रिय, हिताहित और लाभालाभ के आश्रय में है ।

●    मानव के लिए आवश्यकीय व्यवहार न्यायपूर्ण नियमों का पालन है तथा आवश्यकीय विचार धर्मपूर्ण नियमों का पालन है ।

 उपरोक्त सूत्र के विपरीत नियमों का पालन ही मानव के लिये अनावश्यकीय व्यवहार एवं विचार है ।

 उपरोक्तानुसार समस्त जीव अर्थात् पशु-पक्षी, वैषयिक-सामुदायिक-प्राणी तथा मानव, न्यायिक-सामाजिक इकाई सिद्घ होते हैं ।

 सामान्यत: पशुओं की सामुदायिकता का भास भय की अवस्था में परिलक्षित हुआ है । किसी भी स्थिति में पशुओं की सामुदायिकता का भास अध्ययन, उत्पादन तथा व्यवस्था कार्य में परिलक्षित नहीं हुआ है  जबकि जागृत मानवों में सामाजिकता का मूल आधार समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में जीना है ।

 पशुओं में आहार, निद्रा, भय, मैथुन ये चार विषय ही प्रसिद्घ हैं, जबकि जागृत मानवों में सामान्यत: ईषणात्रय अर्थात् पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा पाई जाती है तथा विश्राम सहज रूप में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व में प्रमाण होना पाया जाता है ।

●    विश्राम ही दु:ख का उन्मूलन तथा भ्रम से मुक्ति ही मोक्ष है ।

●    सृष्टि का चरम लक्ष्य विश्राम है, इसका प्रमाण जागृत मानव परम्परा ही है। इसलिए हर भ्रमित मानव भी विश्राम के लिए व्याकुल रहता है । समाधान ही विश्राम है । यही अभ्युदय है ।

::    सह-अस्तित्व में चारों अवस्थाओं और चारों पदों का अपने-अपने लक्ष्य के लिए किया जाने वाला क्रियाकलाप ही सम्पूर्ण सृष्टि है ।

●    मनुष्येतर जीवों में जो ज्ञान उपयोग में आया है, उसे सामान्य ज्ञान संज्ञा है । मानव द्वारा जो व्यवहृत है, वह दो वर्ग में परिलक्षित है:-

(_) विवेक और (_) विज्ञान ।

●    विवेक और विज्ञान सम्पन्न होने के कारण ही मानव ने विश्राम को पहचाना है तथा इसके लिए समुचित प्रयोग भी किया है, जो सृष्टि के कार्य का उद्देश्य एवं फल भी है ।

●    भ्रमित मानव कर्म करते समय में स्वतंत्र तथा फल भोगते समय में परतंत्र है, जबकि पशु कर्म करते समय  भी और फल भोगते समय भी परतंत्र है । जागृत मानव कर्म करते समय स्वतंत्र तथा फल भोगते समय भी स्वतंत्र है।

●    कर्म की स्वतंत्रता के फलस्वरूप ही मानव को जितना उन्नतावकाश है, उतना ही अवनतावकाश भी है। फलत: मानव ने सामान्यत: क्रमश: विषयों, ईषाणाओं तथा मोक्ष के द्वारा विश्राम पाने का प्रयास किया है । मोक्ष का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान है, यही भ्रम मुक्ति है । इसे प्रमाणित करना ही जागृति है ।

 पूर्व में वर्णित किया जा चुका है कि विकसित इकाई में अविकसित इकाई के अथवा विकसित सृष्टि में अविकसित सृष्टि के सभी गुण, स्वभाव एवं धर्म विलय रुप में रहते ही हैं । तद्नुसार मानव गलती करने का अधिकार लेकर तथा सही करने का अवसर एवं साधन लेकर जन्मता है । क्योंकि परम्परा में हर मानव, मानव चेतना को पाया नहीं इसलिए सन् _००० तक जीव चेतना में जीया और जीव चेतना में गलती करता ही है । उदाहरणार्थ :-

एक अध्यापक कक्षा में गणित प$ढाता है । अध्यापक सही ही प$ढाता है और सबको समान रूप से संबोधित भी करता है, फिर भी विद्यार्थी गलती करते हैं । इससे यह सिद्घ होता है कि बालक के मन, मस्तिष्क में भ्रमवश गलती करने की प्रवृत्ति है ही । इसी के साथ यह भी सिद्घ होता है कि मानवीय वातावरण व अध्यापन अर्थात् अध्यापक के बोध कराने की क्षमता के आधार पर वही विद्यार्थी पुन: सही करने में भी समर्थ होता है । इससे यह सिद्घ होता है कि वातावरण तथा  अध्ययन प्रत्येक मानव को एक अवसर व आवश्यकता के रूप में मौलिकत: प्राप्त हैएवं जीव चेतना में जीते हुए सही करने की प्रवृत्ति का साक्ष्य है ।

●    मानव ने अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही उत्पादन कार्य एवं प्रयोग किया है । उत्पादन एवं प्रयोग का फल ही अर्थाेपार्जन है।

○    प्रत्येक मानव प्राप्त अर्थ की सुरक्षा एवं सदुपयोग चाहता है ।

●    अपने-अपने योग्यता, क्षमता एवं पात्रता अनुसार प्रत्येक भ्रमित मानव ने प्राप्त अर्थ के सदुपयोग एवं सुरक्षा की कामना से वैयक्तिक नीति निर्धारण किया जिससे मतभेद उत्पन्न हुआ । फलस्वरूप मानव ने सार्वभौम सिद्घांतपूर्ण व्यवस्था के संबंध में अन्वेषण किया जिससे एक मौलिक सिद्घांत उपस्थित हुआ, जो निम्नानुसार है :-

●    ”मानव सही में एक तथा गलती में अनेक है ।”

●    सिद्घांत ही नियति, नियति ही नियम, नियम ही, विज्ञान एवं विवेक, विज्ञान एवं विवेक ही ज्ञान तथा ज्ञान ही सिद्घांत है।

::    सिद्घांत :-           नियम, प्रक्रिया एवं उपलब्धि जिस समय भाषा के रूप में अवतरित होता है, उसे सिद्घांत कहते हैं । प्रक्रिया कार्य-व्यवहार के रूप में है जिसका फल-परिणाम फलित होता है ।

::    नियम :-                         क्रिया के संरक्षण एवं अनुशासन रीति ही नियम है।

●    मानवीयता के संरक्षण हेतु ही मानव सामाजिकता यथा मानवीयतापूर्ण संस्कृति, सभ्यता, विधि और व्यवस्था का अध्ययन, प्रयोग एवं पालन करना चाहता है, चूंकि यह चारों परस्पर पूरक हैं ।

●    विज्ञान एवं विवेकपूर्ण विचार, व्यवहार, अध्ययन, अध्यापन, उत्पादन, उपयोग, सदुपयोग, वितरण, प्रचार, विधि एवं व्यवस्था ही मानवीयता के संरक्षण के लिए मानव द्वारा अनुभूत संपूर्ण कार्यक्रम है ।

::    विचार :-            प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म तथा सत्यासत्य तुलनात्मक वृत्ति की क्रिया के फलस्वरूप निश्चित विश्लेषण ही विचार है ।

::    अध्ययन :-          अधिष्ठान अर्थात् आत्मा और अनुभव की साक्षी में अर्थ बोध पूर्वक स्मरण सहित किये गये प्रक्रिया एवं प्रयास ही अध्ययन है ।

::    अध्यापन :-         अनुभव मूलक विधि से अधिष्ठान की साक्षी में बोध और साक्षात्कार पूर्वक स्मरण सहित ग्रहण कराने योग्य सत्यतापूर्वक क्रियाओं को बोधगम्य बनाने योग्य प्रक्रिया ही अध्यापन है ।

::    प्रचार एवं प्रदर्शन :- इ’िछत वस्तु की सामान्य जन-जाति के मन-बुद्घि में अवगाहन कराने हेतु प्रस्तुत प्रक्रिया के भाषात्मक प्रयोग ही प्रचार है तथा कला एवं भाषा सहित प्रयुक्त प्रयास ही प्रदर्शन है ।

::    विधि :-              एक या अनेक व्यक्तियों द्वारा अखण्ड समाज व सार्वभौम व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने के उद्देश्य से व्यवस्था  प्रदान करने हेतु निर्णीत नियमपूर्ण पद्घतियों की विधि संज्ञा है ।

::    व्यवस्था :-          विधि के आशय को कार्यरूप प्रदान करने हेतु प्रस्तुत परंपरा ही व्यवस्था है ।

●    सह-अस्तित्व सहज परंपरा के बिना सामाजिकता का निर्वाह नहीं है ।

●    सह-अस्तित्व पूर्वक निर्विरोध, निर्विरोध पूर्वक जागृति, जागृति पूर्वक समृद्घि, जागृति-समृद्घि पूर्वक समाधान, समाधान पूर्वक सुख, सुख पूर्वक स्नेह, स्नेह पूर्वक विश्वास, विश्वास पूर्वक सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है व सह-अस्तित्व में प्रमाणित होना ही जागृति है।

::    सह-अस्तित्व :-    परस्परता में शोषण, संग्रह एवं द्वेष रहित तथा उदारता, स्नेह और सेवा सहित व्यवहार, संबंध व संपर्क का निर्वाह ही सह-अस्तित्व है ।

::    निर्विरोध :-                                न्याय एवं धर्म के प्रति निश्चय, निष्ठा एवं अभ्यास ही निर्विरोध है ।

::    समृद्घि :-                                    अभाव का अभाव ही समृद्घि है अथवा उत्पादन अधिक, अर्थात् आवश्यकता से अधिक उत्पादन ही समृद्घि है ।

::    सुख :-                                        न्यायपूर्ण व्यवहार एवं  धर्मपूर्ण विचार (समाधान) का फलन ही सुख है ।

::    स्नेह :-                                        न्यायपूर्ण व्यवहार में निर्विरोधिता का फलन ही स्नेह है । यह जागृत जीवन में वृत्ति से अनुरंजित मन की क्रिया है ।

::    विश्वास :-                                   जागृत परंपरा  में निहित प्रत्याशा के सार्थक निर्वाह क्रिया ही विश्वास है ।

::    सेवा :-                                       उपकार कर संतुष्ट होने वाली प्रवृत्ति एवं प्रतिफल के आधार पर किया गया सहयोग सहकारिता सेवा है ।

○    उपकार प्रधान सेवा में उपकार करने की संतुष्टि मिलती है । प्रतिफल प्रधान सेवा में केवल प्रतिफल आंकलित होती है ।

::    उपकार = समृद्घि एवं जागृति के लिए सहायता, प्रेरणा ।

○    जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, मानव ने प्रयोग एवं उत्पादन से प्राप्त अर्थ यथा तन, मन और धन के सदुपयोग एवं सुरक्षा की कामना किया है।

○    अर्थ का सदुपयोग एवं इसकी सुरक्षा केवल मानवीयता पूर्ण व्यवहार एवं विचार के आधार से ही संभव है । जिसके लिए मानव द्वारा विज्ञान एवं विवेक द्वारा व्यवस्था का निर्णय किया जाता है।

○    समस्त भ्रमित मानव परम्परा में दो प्रकार की व्यवस्थाएँ परिलक्षित होती हैं (_) धर्मनैतिक व्यवस्था और (_) राज्यनैतिक व्यवस्था।

●    सामाजिकता के संरक्षण के लिये दोनों व्यवस्थाओं का परस्पर पूरक होना अत्यावश्यक है ।

●    जागृत मानव परंपरा में हर परिवार में प्राप्त अर्थ का सदुपयोग धर्मनीति के रूप में तथा सुरक्षा राज्यनीति के रूप में प्रमाणित होता है । यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का आधार है ।

 इस प्रकार धर्मनैतिक व्यवस्था तथा राज्यनैतिक व्यवस्था का क्षेत्र बिल्कुल ही स्पष्ट है । जब यह दोनों व्यवस्थाएँ एक दूसरे की पोषक अथवा पूरक न होकर, एक दूसरे की शोषक या एक दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगती है तभी सामाजिक असंतुलन उत्पन्न होता है और अमानवीयतावादी विचार एवं व्यवहार को पुष्टि मिलती है। विकल्प के रुप में मानवीयता की आवश्यकता उदय होती है ।

●    अर्थ की सुरक्षा के लिए विधि एवं व्यवस्था पक्ष है । विधि आचरण में एवं व्यवस्था परस्परता में स्पष्ट है ।

○    विधि पक्ष की उपादेयता विवेक सम्मत वैयक्तिक एवं अखण्ड समाज अर्थ का पोषण, सद्व्यय परस्परता में तृप्ति के रूप में प्रमाणित होती है । उपरोक्तानुसार व्यवस्था की उपादेयता विधि के आशय को कार्यरूप प्रदान करने हेतु समझदार परंपरा को स्थापित करना है। विधि पक्ष का वैभव जागृत परंपरा में प्रमाणित होता है ।

●    संपूर्ण सृष्टि जड़ एवं चैतन्य भेद से परिलक्षित है ।

 चैतन्य पक्ष के अभाव में शरीर द्वारा किसी भी क्रिया का संपादन संभव नहीं है । मानव चैतन्य सृष्टि की विकसित इकाई है ।

●    चेतना व्यापक है । चेतना पारगामी व पारदर्शी है, निष्क्रिय है तरंग व दबाव मुक्त है ।) चेतना व्यापक होने के कारण इकाई सिद्घ नहीं होती । चेतना सृष्टि का मूल कारण सिद्घ नहीं होती । सह-अस्तित्व ही सृष्टि का मूल कारण है । चेतना में सम्पृक्त प्रकृति में ही परिणाम है । साम्य ऊर्जा मानव में, से, के लिए विकसित चेतना रुप में है ।

समस्त जड़-चैतन्य वस्तु ऊर्जा संपन्न रहने के लिए चेतना ही मूल कारण है । फलस्वरूप पदार्थ में क्रियाशील श्रम, गति, परिणाम पूर्वक विकासक्रम में सृष्टि बीज अर्थात् जीव-जगत (मनुष्येतर प्रकृति) के रूप में स्पष्ट हो चुकी है । इससे पदार्थ जगत में जीव-जगत का बीज रूप और फलरूप होना स्पष्ट हुआ। इसी के साथ मानव शरीर रचना और ‘जीवन’ में जागृति बीज होना सुस्पष्ट हुआ, क्योंकि हर मानव जागृत होना चाहता है। यही सह-अस्तित्व का प्रमाण है ।

○    सृष्टि की समस्त इकाईयाँ अपने पात्रता के अनुसार चेतना में सम्पृक्त हैं, यही प्रभाव है । इस प्रभाव का फल ही इकाईयों की अक्षुण्ण चेष्टा है । चेष्टा ही क्रिया के मूल में है और यही श्रम, गति और परिणाम स्वरूप ही जड़ प्रकृति विकास के क्रम में क्षमता, योग्यता एवं पात्रता को अर्जित कर चैतन्य प्रकृति (जीवन) के रूप में संक्रमित है। चैतन्य प्रकृति का मूल रूप गठनपूर्ण परमाणु है ।

○    एक मानव में बौद्घिक तथा भौतिक दोनों पक्षों का सम्मिलित रूप व्यवहार में पाया जाता है तथा शरीर के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली सभी क्रियाओं में यह दोनों अर्थात् बौद्घिक और भौतिक क्रियाएँ सम्मिलित पाई जाती हैं।

○    भौतिक पक्ष से तात्पर्य शरीर तथा उसके द्वारा की गई उत्पादन क्रियाएँ हैं । बौद्घिक पक्ष से तात्पर्य आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा  व प्रामाणिकता ज्ञान, विवेक, विज्ञान एवं इससे संबंधित प्रक्रिया है ।

::    आशा :-              आश्रयपूर्वक की गयी अपेक्षा की आशा संज्ञा है ।  शरीर के आश्रय पद्घति से और अनुभव के आश्रय पद्घति से आशयों का होना पाया जाता है ।

::    विचार :-            विश्लेषण पूर्वक किया गया स्वीकृतियाँ जो समाधान के अर्थ में प्रयोजन है ।

::    इच्छा :-                         आकार-प्रकार, प्रयोजन एवं संभावना का चित्र ग्रहण एवं निर्माण करने तथा गुणों का गतिपूर्वक नियोजन करने वाली क्रिया की इच्छा संज्ञा है । जीवन शक्तियाँ गुण, स्वभाव, धर्म (समाधान) के रूप में व्याख्यायित होती हैं ।

::    संकल्प :-            सम्यक प्रकार से की गई स्वीकृति की निरंतरता प्रदान करने  वाली बौद्घिक क्रिया ही संकल्प है ।

 मानव द्वारा सृष्टि में अपने महत्व को जानने  और पहचानने के क्रम में हर इकाई के गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता का अध्ययन करने का प्रयास विकल्प रुप में किया गया है।

●    उपरोक्त अध्ययन के क्रम में यह अनुभव में आया कि मूल इकाई जड़ परमाणु ही है, जिसने विकास पूर्वक चैतन्यता को प्राप्त किया है ।

::    गठन :-              एक से अधिक अंश के पहचानने-निर्वाह करने के नियम द्वारा अनुशासित एवं सीमाबद्घ निश्चित क्रिया को अक्षुण्णता प्रदान करने वाली प्रक्रिया ही गठन है।

::    आचरण :-           जिस क्रिया से मौलिकता का मूल्यांकन होता है, उसकी आचरण संज्ञा है । यही नियम है ।

::    जड़ :-                विचार पक्ष से रहित इकाई, जिसका कार्य क्षेत्र उसके लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई तक ही सीमित है ।

::    चैतन्य :-             जिस इकाई का कार्य क्षेत्र उसकी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई से अधिक हो तथा जिसका विचार पक्ष सक्रिय हो ऐसी इकाई की चैतन्य संज्ञा है ।

●    ऐसी विशेष सक्रियता प्राप्त होते ही वह इकाई आशा के बंधन से युक्त हो जाती है । प्रमाण हर जीव में जीने की आशा है ही ।

●    जड़ एवं चैतन्य इकाइयों में  गठन सिद्घांत में साम्यता पाई जाती है, पर इनकी स्वरूप व क्रिया एवं आचरण में भेद, अपने विकास के अंश अनुसार अर्थात् कोष गठन के आधार पर होना पाया जाता है । यही वैविध्यता इनके क्रमागत विकास को भी सिद्घ करता है। साथ ही अपेक्षाकृत अध्ययन के लिये उत्साह व कौतूहल उत्पन्न करता है ।

●    आत्मा में अनुभूति; बुद्घि में बोध, स्वीकृति व आप्लावन; चित्त में आह्लाद; वृत्ति में उत्साह तथा मन में कौतूहल ही जागृति को प्रमाणित करने की प्रवृत्तियाँ हैं ।

::    आत्मा :-            चैतन्य परमाणु का मध्यांश ही आत्मा है ।

::    बुद्घि :-               मध्यांश के आश्रित प्रथम परिवेशीय अंशों की बुद्घि संज्ञा है ।

::    चित्त :-               मध्यांश के आश्रित द्वितीय परिवेशीय अंशों की चित्त संज्ञा है ।

::    वृत्ति :-               मध्यांश के आश्रित तृतीय परिवेशीय अंशों की वृत्ति संज्ञा है ।

::    मन :-                मध्यांश के आश्रित चतुर्थ परिवेशीय अंशों की मन संज्ञा है।

::    अनुभूति :-          अनुक्रम से प्राप्त समझ, स्थिति-गति, प्रकटन व परिणाम ही अनुभूति है ।

::    आप्लावन :-        निर्भ्रमता के प्रभाव की आप्लावन संज्ञा है । बुद्घि ही निर्भ्रमता को प्राप्त कर आप्लावित होती है ।

::    आह्लाद :-          अभाव का अभाव ही आह्लाद है । चित्त में ही अभाव के अभाव की प्रतीति होकर आह्लाद होता है ।

::    उत्साह :-            उत्थान या विकास की ओर जो साहस है, उसकी उत्साह संज्ञा है तथा यह वृत्ति में होता है ।

::    कौतूहल :-          अज्ञात को ज्ञात करने, अप्राप्त को प्राप्त कर प्रमाणित करने की क्रिया कौतूहल है । जो मन में होता है ।

 प्रत्येक परमाणु में परमाणु अंशों की अवस्थिति मध्य में तथा परिवेशों में पायी जाती है । प्रथम परिवेश में एक या एक से अधिक अंश, उसी प्रकार द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ आदि परिवेश में भी एक या एक से अधिक अंशों को पाया जाता है, जो मध्यांश के सभी ओर अविरत रूप से भ्रमणशील है । प्रत्येक परमाणु के सभी ओर तथा परमाणु के गठन में पाए जाने वाले अंशों के सभी ओर शून्य की स्थिति पाई जाती है । शून्य से रिक्त व मुक्त स्थान या वस्तु नहीं है ।

  जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है – चैतन्य इकाई (गठनपूर्ण परमाणु) के मध्यांश को आत्मा, उसके प्रथम परिवेशीय अंशों को बुद्घि, द्वितीय परिवेशीय अंशों को चित्त, तृतीय परिवेशीय अंशों को वृत्ति तथा चतुर्थ कीे मन संज्ञा है।

 इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष रूप में सृष्टि चार अवस्था में हैं । जिनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है । इन चारों अवस्थाओं में परमाणुओं का मध्यांश मध्यस्थ क्रिया है, क्योंकि उस पर सम या विषम का प्रभाव नहीं पड़ता है ।

 गठनशील परमाणुओं में श्रम, गति एवं परिणाम घटित होता ही रहता है । चैतन्य इकाई रूपी ‘जीवन’ में विश्रामानुभूति होना पाया जाता है यही जागृति है ।

●    पदार्थावस्था में सभी प्रजाति के परमाणु के अंतिम परिवेशीय अंश ही श्रम पूर्वक सक्रिय रहते हैं अथवा अग्रेषण क्रिया में रत हैं।

::    क्षोभ :-              क्षमता एवं योग्यता को श्रम में परिवर्तित करने पर जो ह्रास है उसकी क्षोभ संज्ञा है ।

::    अग्रेषण :-           क्षमता एवं योग्यता को श्रम में परिवर्तित करने में जो संतुलन जागृति है अथवा पात्रता का अर्जन है उसकी अग्रेषण संज्ञा है ।

●    परमाणुओं में अंतिम एवं उसके पहले परिवेशीय अंश ही सक्रिय होकर श्रम पूर्वक यौगिक क्रियाओं में संलग्न रहते हैं । अग्रिम रचना प्राणावस्था के लिये अग्रेषित रहते हैं ।

●    जीवावस्था में शरीर रचनाएँ प्राण कोषा से ही है और जीवन में वंशानुषंगी कार्य प्रवृत्ति रहती है । चैतन्य परमाणु में चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय परिवेशों के अंश आंशिक रूप में सक्रिय रहते हैं और इससे श्रेष्ठ अभिव्यक्ति के लिए अग्रेषित रहते हैं ।

●    ज्ञानावस्था में भी शरीर रचना प्राण कोषाओं से ही है और जीवन जागृति क्र म में चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय परिवेशों के क्रियाशीलता विधि से सा$ढे चार (४झ) क्रियाओं को शरीर मूलक विधि से व्यक्त करता है।

●    जागृति पूर्वक अनुभव मूलक विधि से पूरे दस क्रियाओं को प्रमाणित करता है । मानव शरीर रचना मानव परंपरा में ‘जीवन’ में होने वाली दसों क्रियाओं को प्रमाणित करने योग्य रहता है ।

●    ज्ञानावस्था में ईष्ट सेवन का लक्ष्य ईष्ट से तादात्म्य,  तद्रूप, तत्सन्निधि एवं तदावलोकन है । ईष्ट के नाम रूप, गुण एवं स्वभाव तथा साधक की क्षमता, योग्यता तथा पात्रता के अनुपात में सफल होती है ।

::    ईष्ट :- निभ्रान्त ज्ञान सहित स्वेच्छापूर्वक सह-अस्तित्व के प्रति श्रद्घा, विश्वास एवं निष्ठा ही ईष्ट है ।

::    तादात्म्य, तद्रूप :-             जागृति ही परम उपलब्धि होने के कारण तद्रूप, अनुभव बोध से तादात्म्य होना जीवन सहज तथा अनुभव सहज क्रिया है । सह-अस्तित्व में अनुभव ही तद्रूप, तदाकार विधि है । क्योंकि नियम, नियन्त्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य, अनुभव के फलन में प्रमाणित होता है ।

::    तत्सान्निध्य :-                  तत्सान्निध्य का अर्थ सुख, शांति, संतोष, आनंद का सान्निध्य है ।

::    तदावलोकन :-                 सह-अस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा ही तदावलोकन क्रिया है । सह-अस्तित्व का दृष्टा जागृत जीवन ही है ।

○    जागृति को तत् शब्द से इंगित कराया है ।

●    ज्ञानावस्था की इकाई की समस्त क्रियाओं का लक्ष्य निर्बीजन व्यवहार की उपलब्धि है । निर्बीजन का तात्पर्य भ्रम मुक्ति और प्रमाण रूप में जागृति है।

::    सबीजन होने का तात्पर्य :- शरीर को ‘जीवन’ मान लेना जबकि ‘शरीर’ भौतिक-रासायनिक वस्तु की रचना है । ‘जीवन’ गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य इकाई है तथा रासायनिक-भौतिक संसार का दृष्टा है ।

●    निर्बीजन व्यवहार भ्रम-मुक्ति की स्थिति में होता है ।

●    निर्बीजन व्यवहार में अमानवीयता से मुक्ति, मानवीयता का पोषण तथा अतिमानवीयतापूर्ण स्थिति का प्रमाण है ।

●    शरीर की नश्वरता और ‘जीवन’ की अमरत्व व  निरंतरता, कार्य-व्यवहार के नियमों की पूर्ण स्वीकृति व अनुभूति ही निर्बीज (अनासक्त) विचार है और तदनुसार व्यवहार ही निर्बीजन व्यवहार है । यही भ्रम मुक्ति है।

●    अनासक्त विचार ही जीवन मुक्त की या दिव्यमानव की स्वभाव-सिद्घ वैचारिक प्रक्रिया है । क्योंकि संपूर्ण आसक्ति भ्रम ही है ।

●    जीवन-मुक्त अर्थात् जीव चेतना एवम् भ्रम मुक्त मानव अर्थात् सह-अस्तित्व में अनुभव सम्पन्न मानव में भूतकाल के स्मरण से तथा भविष्य की आशा से पीड़ा नहीं होती व वर्तमान से विरोध नहीं होता ।

●    भ्रम मुक्ति अथवा जागृति ही मध्यस्थ  स्थिति व गति है । मध्यस्थ स्थिति प्राप्त करने में सम-विषम क्रिया के क्षोभ से मुक्ति है । जीवन में जागृति पूर्वक उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता, पूरकता विधियों से संतुष्ट होने की व्यवस्था है । जागृत जीवन में  मध्यस्थ अर्थात् आत्मा अथवा अनुभव बोध विधि से ही संतुलित, संतुष्ट होना  पाया जाता है ।

  जागृति क्रम में सर्वमानव रूप, बल, धन, पद के बढ़ने को सम क्रिया तथा इनके बने रहने को मध्यस्थ क्रिया व इनके घटने को विषम क्रिया के रूप में पहचाने रहते है । इस प्रकार जागृति क्रम में भ्रमवश सम व मध्यस्थ क्रियाएं सभी को स्वीकार रहती हैं तथा विषम अस्वीकार रहती हैं, इसलिए क्लेश में रहते हैं। जागृत मानव परंपरा में ‘जीवन’ का वैभव एवं महत्ता प्राथमिक हो जाते हैं तथा भौतिकताएँ द्वितीय हो जाते हैं तथा भौतिकता सहज सम, विषम, मध्यस्थ क्रियाएं नियंत्रित हो जाती हैं ।

●    क्षोभ ही दु:ख अथवा क्लेश है ।

●    क्षोभ या समस्या अथवा दु:ख के निवारण हेतु ही जीने की आशा जागृति पूर्वक प्रमाण आवश्यकता है ।

●    जीने की आशा में उद्भव, विभव एवं प्रलय समाविष्ट है । जीवावस्था के शरीर रचना, प्राणावस्था की रचना क्रिया है । इनमें विभव सबसे प्रिय है जो स्थायी नहीं है । भ्रमवश मानव विभव में ही बल, रूप, पद व धन के स्थायीकण के लिए प्रयास करता है, जो उसका स्थायी गुण न होने के कारण असफल है । उपरोक्तानुसार विभव काल की स्थिरता तथा इसमें की गई उपलब्धियों की स्थिरता सिद्घ नहीं होती  । मानव का विभव जागृत परम्परा ही है।

●    आकृति को रूप, प्रभाव को गुण, वस्तुस्थिति को तत्व तथा किसी रूप, क्रिया, वस्तु व स्थान को निर्देश करने हेतु प्रयुक्त शब्द की ‘नाम’ संज्ञा है।

●    रूप एवं गुण सापेक्ष और सामयिक तथ्य है ।

::    सामयिक तथ्य :- किसी क्रिया या क्रिया समुच्चय का परिणाम भावी है, उसकी सामयिक तथ्य संज्ञा है ।

●    समस्त तत्व निरपेक्ष में संपृक्त कार्य रत है ।

●    भाषा के मूल में भाव; भाव के मूल में मौलिकता; मौलिकता के मूल में मूल्यांकन; मूल्यांकन के मूल में दर्शन; दर्शन के मूल में दर्शक; दर्शक के मूल में क्षमता, योग्यता एवं पात्रता; क्षमता, योग्यता एवं पात्रता के मूल में सत्य भास, आभास, प्रतीति अनुभूति; भास, आभास, प्रतीति एवं अनुभूति के मूल में भाषा है। यह सब चिंतन क्रिया है जो दर्शक के जागृति के अनुसार सफल अथवा असफल है ।

●    जड़ एवं चैतन्य सृष्टि की इकाईयों के शरीर रचना में इतना अंतर है कि ‘चैतन्य शरीर’ मेधस युक्त है तथा ‘जड़ शरीर’ मेधस रहित है। जड़ का अंतिम विकास मेधस है । मेधस ही चैतन्य शरीर, और जड़ शरीर का मौलिक अंतर स्पष्ट करता है ।

::    मेधस :-             चैतन्य इकाई की इच्छाओं एवं आकाँक्षाओं के संकेत को ग्रहण करने योग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता सहित सप्राण अंग ही मेधस है, जिसकी अवस्थिति साम्यत: मानव के शिरोभाग में पाई जाती है ।

●    ‘जीवन पुंजस्थ’ आशा, विचार, इच्छा एवं संकल्प अनुभव (प्रमाण) का प्रसारण (संकेत ग्रहण) मेधस पर ही है, जिसके अनन्तर ही ज्ञानवाही एवं क्रियावाही प्रक्रियाएँ हर मानव शरीर में पाई जाती है जो मानव परंपरा में परावर्तित होता है ।

::    पुंज :-                चैतन्य इकाई सहज कार्य सीमा सहित जो आकार है, उसे पुंज की संज्ञा है । ऐसे पुंज के मूल में एक ही गठनपूर्ण परमाणु का अस्तित्व है जिसमें ही आत्मा, बुद्घि, चित्त, वृत्ति तथा मन की क्रियाएँ दृष्टव्य हैं ।

::    प्रसारण :-           आशा, विचार, इच्छा एवं संकल्प अनुभव सहज प्रमाणों के संकेत से मेधस तंत्र पर प्रभाव डालने हेतु प्रयुक्त तरंग की प्रसारण (संकेत ग्रहण) संज्ञा है, जिससे प्रत्याशा का होना आवश्यक है ।

●    ग्रहण, विसर्जन, निग्रह, संग्रह एवं उदारता के भेद से ही समस्त सुखाकाँक्षाएं हैं ।

::    ग्रहण :-              उपयोगिता के मूल्यांकन की ग्रहण संज्ञा है ।

::    विसर्जन :-          अनुपयोगिता की विसर्जन संज्ञा है ।

::    निग्रह :-                         स्वसंयमता के अर्थ में प्रवृत्ति ।

●    आशाएँ आस्वादन के रूप में; विचार प्रसारण के रूप में; इच्छाएँ (काँछाएं) प्रयोग एवं व्यवसाय के रूप में तथा संकल्प, दृढ़ता एवं निष्ठा के रूप में व्यक्त है । यह क्रम से मन, वृत्ति, चित्त और बुद्घि से प्रदर्शित होने वाले गुण, स्वभाव सहित क्रिया पक्ष है अर्थात् मन से आशा, वृत्ति से विचार, चित्त से इच्छा (काँक्षा) और बुद्घि में अनुभव प्रमाण संकल्प क्रियाएँ हैं ।

●    हर चैतन्य इकाई दृष्टि संपन्न है । जड़ परमाणु विकासपूर्वक चैतन्य (जीवन) परमाणु होते तक दृष्टि सम्पन्न नहीं है ।

●    अपने दृष्टि के द्वारा दृश्य को देखने हेतु दर्शक द्वारा प्रयुक्त क्रिया एवं प्रक्रिया ही दर्शन है, जिसकी उपलब्धि अर्थात् दर्शन की उपलब्धि समझ या ज्ञान है। ज्ञान से ही स्व एवं  परस्परता का निर्णय तथा अनुभव एवं प्रदर्शन है । समझ से स्वयं होने का बोध व संपूर्ण अस्तित्व होने का बोध होता है । यही स्व एवं परस्परता है।

 अपने वातावरण में स्थिति पूर्ण-अपूर्ण, रूप-गुण-स्वभाव-धर्म, योग-वियोग, क्रिया-प्रक्रिया, परिणाम-फल, ह्रास और विकास का संकेत ग्रहण  दर्शन द्वारा ही दर्शक ने किया है।

●    चैतन्य इकाई स्वयं जीवन पुंज-मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि व आत्मा का अध्ययन है ।

○    इसके पूर्व अमानवीयता और अतिमानवीयता का वर्गीकरण स्वभावात्मक व व्यवहारात्मक भेद से किया जा चुका है ।  मानव जाति पाँच श्रेणियों में परिलक्षित है, जो निम्नानुसार हैं :-

 अमानवीय मानव के दो वर्ग हैं :- (एक) पशु मानव और (दो) राक्षस मानव ।

●    पशु मानव में दीनता प्रधान, हीनता एवं क्रू रता वादी जीवन स्पष्ट होता है ।

●    राक्षस मानव में क्रूरता प्रधान, दीनता एवं हीनतावादी जीवन स्पष्ट होता है।

 (तीन) मानवीयतापूर्ण मानव एक वर्ग में है ।

 अतिमानवीयतापूर्ण मानव पुन: दो वर्ग में है :-

(चार) देव मानव और (पाँच) दिव्य मानव ।

 अतिमानवीयता पूर्ण मानव की दृष्टि, विषय और स्वभाव निम्नानुसार है:-

●    देव मानव दृष्टि-न्याय, धर्म और सत्या ।

विषय – लोकेषणा ।

स्वभाव – उदारता, दया, कृपा प्रधान करुणा क्रम से वर्तमान ।

●    दिव्य मानव :-     दृष्टि-परम सत्य ।

विषय :-                                     सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य ।

स्वभाव:-                        करुणा प्रधान दया, कृपा ।

 उपरिवर्णित पाँच श्रेणी के मानव अपने से अजागृत श्रेणी के मानव पर निरीक्षण, परीक्षण एवं सर्वेक्षण पूर्वक व्यवहार करते हैं ।

::    अधिकार :-         अपने सही मन्तव्य के अनुसार अन्य को गति एवं कला प्रदान करना और उसका उपयोग, सदुपयोग तथा पोषण करने की क्षमता, योग्यता एवं पात्रता होना ही अधिकार है ।

○    उपरोक्त विधि से जागृति पूर्वक ही अखण्डता, सार्वभौमता सहज सूत्र व्याख्या सम्पन्न होता है क्योंकि यही अविकसित को प्रेरित करने का अधिकार होता ही है और विकसित का अध्ययन प्रमाणीकरण से ही है ।

 उपरोक्तानुसार विवेचना के आधार पर ही इस वैविध्यता से पीड़ित संसार के मूल में प्रत्येक मानव अपना भी मूल्यांकन करना चाहता है, क्योंकि स्वयं का मूल्यांकन यदि सही नहीं है तो उस स्थिति में अध्ययन के  लिये आवश्यक सामथ्र्य को संजो लेना संभव नहीं है- जैसे एक रूपया के मौलिकता को पूरा-पूरा समझे बिना दो एवं उसके आगे वाले संख्या की गति एवं प्रयोग नहीं है । एक रूपया के मूल्य को _ से ‘‘ पैसे तक मूल्यांकन करने की स्थिति पर्यन्त उस एक रूपया का पूर्ण मूल्यांकित ज्ञान उस इकाई में प्रादुर्भूत नहीं हुआ ।

○    अत: मानव को अपने विकास की दृष्टि से स्वयम् का मूल्यांकन करना प्राथमिक एवं महत्वपूर्ण कार्यक्रम सिद्घ है ।

○    अध्ययन यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता के अर्थ में ही संपन्न होता है । सर्वप्रथम व्यापक वस्तु में समाहित संपूर्ण एक-एक वस्तुओं का वर्गीकरण विधि से अध्ययन संभव हो गया है। यही चार अवस्था, चार पदों में अध्ययन गम्य है । क्रिया का अध्ययन विकास क्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति के रूप में बोधगम्य होने की व्यवस्था है । इसी के साथ-साथ रूप, गुण, स्वभाव व धर्म का अध्ययन होना आवश्यक है । चारों अवस्था, चारों पदों में स्पष्ट है । विकास का अध्ययन परमावश्यक है । विकसित इकाईयों के रूप में ‘जीवन’ का अध्ययन संपन्न होता है। और जीवन में ही जागृति क्रम, जागृति का स्पष्ट प्रमाण होता है।

सर्वप्रथम अध्ययन; द्वितीय स्थिति में प्रयोग व अभ्यास अर्थात् कर्माभ्यास, व्यवहाराभ्यास; तृतीय स्थिति में अनुभव, प्रमाण प्रमाणित होना ही उपलब्धि और सार्थकता है । विकास और जागृति संबंधी अध्ययन मानव कुल के लिए अथवा मानव कुल सुरक्षित रहने के लिए परमावश्यक है । सर्वमानव में समझदारी की प्यास है ही । यही पात्रता सर्वमानव में होने का प्रमाण है इसे तर्क संगत विधि से, अर्थ बोध सहित स्थिति सत्य, वस्तुस्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य को बोधगम्य, अध्ययनगम्य, फलत: अनुभव गम्यता को प्रमाणित करने की स्थिति समीचीन है, यही अध्ययन का तात्पर्य है ।

 इसके पूर्व में पाँच वर्ग के मानवोंं का नाम, उनकी दृष्टि, विषय तथा स्वभाव तथा तत्संबंधी उनमें पाई जाने  वाली प्रवृत्तियों की सीमा एवं स्तर का, पूर्ण वर्णन द्वारा निर्देश किया जा चुका है ।

 इनमें दिव्य-मानव तक अध्ययन का प्रयास बताया गया है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि मानव से भी विशेष, अति महत्वपूर्ण है । श्रेष्ठता सहज अपेक्षा में ही अतिमानवीयता का अध्ययन प्रयोग एवं अनुभूति प्रमाण स्पष्ट है ।

 अत: दिव्य मानव की प्रवृत्ति सहज ध्यानाकर्षित करते हुए यह कहना उचित है कि उसकी प्रवृत्ति सत्य सह-अस्तित्व ही है ।

 उपरोक्त समस्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि मानवीयता पूर्ण मानव व्यवस्था सहज रूप में होने के आधार पर निश्चयन और ध्रुवीकरण हुआ । मानवीयता पूर्ण मानव से कम विकसित पशु मानव व राक्षस मानव का व्यवस्था में जीना संभव  नहीं हुआ, यह समीक्षित हो चुका है । मानव से श्रेष्ठ देव मानव व दिव्य मानव हैं, जो जागृति पूर्ण हैं । यह दोनों विधाएं अनुभव प्रमाण के रूप में जागृत मानव परंपरा में सार्थक सिद्घ हुईं। जागृत परंपरा में मानवीयता कार्य-व्यवहार  के रूप में स्पष्ट होती है, ‘अनुभव प्रमाण’ परिवार व्यवस्था और विश्व परिवार व्यवस्था में प्रमाणित होता है । यह परम आवश्यकता है ही । उक्त विधि से व्यवहार के सभी आयामों में मानवीयता को पहचानना, मूल्यांकित करना और  व्यवस्था में मानवीयता सहित अनुभव प्रमाणों को पहचानना और प्रमाणित करना सह-अस्तित्व दृष्टिकोण से संभव हो गया है ।

दिव्य मानव, देवमानव में आत्मा में होने वाले अनुभव प्रमाण सहित प्रथम परिवेशीय क्रिया कलाप पूर्ण सक्रिय हो जाता है । जिसके फलस्वरूप जीवनगत सभी परिवेशीय क्रियाएं अनुभव मूलक क्रिया-कलाप में प्रमाणित होते हैं ।

 दूसरे पक्ष से भी भ्रमित मानव के स्वभाव और दृष्टि, दोनों का वर्गीकरण विषयोपभोग में जो प्रसक्तियाँ हैं उसके आधार पर ही किया गया है । अत: मानव के विषयोपभोग के स्तर की पुष्टि के लिए ही दृष्टि एवं स्वभाव का नियोजन हुआ है ।

●    आसक्ति :-          आवश्यकता अनुसार प्रवृत्ति (गलत भासते हुए करना)।

●    प्रसक्ति :-            प्रवृत्ति पूर्वक समर्पित होना । जिसको प्रासंगिक बताते भी रहना (सही मानते हुए करना) ।

 अस्तु, अब दिव्य मानव का जो विषय (प्रवृत्ति) है, वह परम सत्य रूपी सह-अस्तित्व है । यही ईश्वरीयता है । सम्पूर्ण ऐश्वर्य सह-अस्तित्व ही है ।

 पुन: दूसरे पक्ष से पशु मानव में – राक्षस मानव में, समीक्षात्मक निरीक्षण, परीक्षण करने पर यह सिद्घ होता है कि जिसने जिस विषय को अति प्रधान माना है, उसी में उसकी दृष्टि व स्वभाव नियोजित है तथा ऐसा ही देखने में भी आता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि दिव्य मानव के द्वारा अनुभूत सार्थक विषय सह-अस्तित्व के रूप में परम सत्य स्वीकार होता है।

○    ईश्वर नाम से सत्ता में जड़-चैतन्य प्रकृति उसमें समायी हुई रूप में और सत्ता व्यापक पारदर्शी, पारगामी स्थिति में पहचाना गया है । स्पष्टीकरण इस प्रकार है :-

●    ■ सत्ता सर्वत्र एक सा विद्यमान है ।

 संपूर्ण अस्तित्व में जड़-चैतन्य प्रकृति कार्यकलाप सदा-सदा है ही । इससे ज्ञात होता है कि हर क्रिया के मूल में प्राप्त सत्ता हर स्थान में विद्यमान है । इसीलिए दिव्य मानव भी अनेक संख्या में होने की संभावना है ।

●    ■ साम्य ऊर्जा सर्वत्र एक सा भासमान है ।

 इस पृथ्वी पर कहीं भी अर्थात् किसी स्थान पर भी स्थित मानव यदि दिव्य मानवीयता से संपन्न हो जाते हैं, उस स्थिति में उन सब में समान अनुभूति प्रमाणित होती है और वह अविकसित मानव के लिए समान रूप से प्रेरणा के श्रोत होते हैं । इसी आधार पर सर्वमानव को सर्वत्र ईश्वर समझ में आने का अध्ययन विधि से स्पष्ट होता है ।

●    ■ सत्ता सर्वत्र एक सा बोधगम्य है ।

 जितने भी मानव, दिव्य मानव कोटि के लिए प्रयोग एवं प्रयासरत है, वह ऐसे प्रयोग और प्रयास में रहते हुए दिव्य-मानव एवं सह-अस्तित्व सहज वैभव को स्वीकार कर चुके होते हैं तथा उनकी ऐसी महत्ता को स्वीकारने में उन दिव्य मानव कोटि के प्रत्याशुओं के मध्य में कोई वाद-विवाद नहीं है । अध्ययन विधि में भ्रमित मानव के लिए भी सह-अस्तित्व सहज स्वीकृत है ।

 जितना भी भौतिक क्रिया पक्ष हैं, उन सबसे भी अंततोगत्वा सुखानुभूति की ही अपेक्षा है, जो एक मानसिक प्रक्रिया है । भौतिक क्रियाओंं में अथवा भौतिक क्रियायें बौद्घिकता से अविकसित सिद्घ हैं । यही कारण है कि हर भ्रमित मानव सह-अस्तित्व में अनुभव सम्पन्न मानव से प्रेरणा पाकर सुखानुभूति के लिए प्रयास, प्रयोग एवं अभ्यास में प्रवृत्त होता है ।

 ऊपर वर्णन किया ही जा चुका है कि चैतन्य इकाई में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि एवं आत्मा का अध्ययन है। मन, वृत्ति, चित्त एवं बुद्घि रूपी चार परिवेशों की संरचना ज्ञानावस्था की इकाईयों में समान स्वीकृति है । सभी मध्यांश जागृति पूर्वक आचरण में समान है । (आत्मा के रूप में) मध्यांश की महिमा से इन चार परिवेशीय अंशों की सक्रियता सहित चारों अवस्थाओं और चारों पदों का सह-अस्तित्व में अनुभव होता है और अभिव्यक्ति में प्रमाणित है।

  ■          प्राणावस्था में बाह्य परिवेश सक्रिय रहते हुये यौगिक क्रिया सहित रासायनिक वैभव प्राण कोशाओं से रचित रचना-विरचना के रूप में स्पष्ट हो गया है । जीवावस्था में जीवन व शरीर का अध्ययन है, शरीर प्राण कोशाओं से रचित रहता है । जीवन परमाणु का चतुर्थ परिवेश आशा के रूप में व्यक्त रहता है तथा शरीर को जीवंत बनाये रहता है ।

  ■          ज्ञानावस्था में पाये जाने वाले भ्रमित मानव के मन में चयन व आस्वादन क्रिया, वृत्ति में विश्लेषण क्रिया और तुलन क्रिया (प्रिय, हित, लाभ के अर्थ में) तथा चित्त में चित्रण क्रिया संपादित होती रहती है यह शरीर मूलक विधि से संपादित होता है । यही भ्रमित विधि से होने वाली सा$ढे चार (४झ) क्रियाएं है ।

दिव्य मानव, देव मानव एवं मानव में आत्मा में होने वाले अनुभव प्रमाण सहित प्रथम परिवेशीय क्रियाकलाप पूर्ण सक्रिय हो जाता है । जिसके फलस्वरूप जीवनगत सभी क्रियाऐं अनुभवमूलक क्रियाकलाप सहित प्रमाणित होते हैं।

●    प्रेरणा पाने की क्षमता हर परमाणु में निहित अंशों में है, क्योंकि संपूर्ण अंश सत्ता में सम्पृक्त हैं ।

●    ज्ञानावस्था में मानव शरीर भी प्राणकोशाओं से रचित रचना हैं । ‘जीवन’ शरीर को जीवंत बनाये रखते हुए जीवंतता के प्रत्याशा में अर्थात् शरीर जीवंत रहने के प्रमाण में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धेन्द्रियों के संवेदनाओं को प्रमाणित करने की अपेक्षा रहती है।

●    इन प्रवृत्तियों में जो कला-पक्ष और ज्ञान पक्ष है, उसका आस्वादन सुख के रूप में मेधस द्वारा चैतन्य पक्ष ही करता है ।

●    चैतन्य पक्ष के जागृति का जो कारण है, उसे संस्कार संज्ञा है ।

●    मानव शरीर के परिणाम का जो कारण है, उसे अध्यास या वंशानुक्रम संज्ञा है ।

::    संस्कार :-           ■                      पूर्णता के अर्थ में स्वीकृतियाँ ही संस्कार है । यही मानव का प्रारब्ध है ।

■                      प्रमाणित होने के पहले से जो समाधान के अर्थ में प्राप्त है, वह संस्कार है । समाधान के अर्थ में ज्ञान-विज्ञान-विवेक ही प्राप्त रहता है ।

■                      पूर्णता के अर्थ में कृतियों को साकार करने में क्रियाकलाप सहित प्रवृत्तियाँ और समझदारी ही संस्कार है।

■                      पूर्णता के अर्थ में कायिक, वाचिक, मानसिक व कृत, कारित, अनुमोदित विधि से की गई कृतियाँ संस्कार है ।

::    प्रारब्ॅध :-जो जितना जान पाता है उतना चाह नहीं पाता, जितना चाह पाता है उतना कर नहीं पाता जितना कर पाता है उतना भोग नहीं पाता जितना भोगा नहीं जाता वह प्रारब्ध है।

‘जीवन परमाणु’ के रूप में जब कभी भी अंशों का एकत्रित होना होता है तब तक द्वितीय परिवेशीय अंश सक्रिय होते हैं फलत: अणु  बन्धन व भारबन्धन रहता है । जीवन परमाणु आशा बन्धन से युक्त होता है । यह गठनपूर्णता का प्रमाण है । गठनपूर्णता का प्रमाण स्वत्व स्वतंत्रता अधिकार के रूप में स्पष्ट हो जाता है । अस्तित्व में भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, जीवन क्रिया ये तीनों प्रकार की क्रियाएं सदा-सदा वर्तमान हैं । इनके अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने के क्रम में भौतिक, रासायनिक क्रिया से संक्रमित इकाई के रूप में चैतन्य इकाई, स्वयं को जीवन के रूप में पहचानता है । इसको पहचान सहित प्रमाणित करने वाला मानव ही है । समूह से अलग होने का फल ही है कि परमाणु अपनी लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई से अधिक विस्तार में कार्य करने में सक्षम होता है । प्रत्येक ‘जीवन’ शरीर द्वारा  ही आशा नुरुप उपलब्धि के लिए प्रयत्नशील है तथा इसी हेतु वह अणु समूह से पृथक है ।

●    चैतन्य एवं जड़ का योग :- जड़ क्रियाओं में पाये जाने वाले विकासक्रम के आधार पर ही चैतन्य पद रूपी विकास घटित हुआ है ।

 उपरोक्त संबंध में अर्थात् जड़ परमाणु ही विकास के क्रम में संक्रमित होना चैतन्यता प्राप्त करता है ।

●    चैतन्य में जो कुछ भी अध्यास की रेखाएं हैं, वह अंकित हैं ही । चैतन्य इकाई अग्रिम विकास चाहती है । हर विकसित इकाई अविकसित इकाई का परस्पर जागृति के लिये पूरकता के अर्थ में उपयोग करती है । जागृति के मूल में मानव कुल के हर इकाई में, अपने शक्ति का अंतर्नियोजन आवश्यक है, क्योंकि इकाई की ऊर्जा के बर्हिगमन होने पर परावर्तन परिलक्षित होता है तथा ऊर्जा के अंतर्निहित होने पर जागृति परिलक्षित होती है । अंतर्नियोजन का तात्पर्य प्रत्यावर्तन व स्व में निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक निष्कर्ष निकालना और प्रमाणित करना ही है ।

::    अध्यास :                        मानसिक स्वीकृति सहित संवेदनाओं के अनुकूलता में शारीरिक क्रिया से जो प्रक्रियाएं सम्पन्न होती है उसकी अध्यास संज्ञा है ।

 प्राणावस्था में अवस्थित रुपी इकाईयाँ वनस्पति हैं । इसके मूल में प्राण कोशाएं होते हैं । प्राणावस्था की इकाईयों की संरचना पदार्थावस्था की वस्तुओं से ही है । प्राणकोशाओं की परंपरा बनी रहे, इसके लिये रचनाएँ सम्पन्न होती रहती हैं । निश्चित प्रयास की रचना किसी एक निश्चित अवधि तक पहुँचती ही है, जिसे हम पेड़-पौधों के रूप में देखते हैं । अब इनकी  बीजावस्था आती है। अस्तित्व को बचाए रखने के क्रम में प्रयास में ही प्राणावस्था में बीजों का निर्माण हुआ । बीज में पूरे वृक्ष की रचना विधि सहित प्राण कोशाएं निहित रहती हैं । फलस्वरूप ही बीज में पूरे वृक्ष की रचना विधि धारित किये हुए प्राणकोशाएं अवस्थित रहते हैं । इसीलिए बीज पुन: उसी प्रकार की संरचना करने में समर्थ होते हैं। यही बीज-वृक्ष न्याय कहलाता है ।

::    वनस्पतियों की जातियों की उत्पत्ति का कारण नैसर्गिक दबाव और संग्रहण प्रतिक्रिया के भेद से ही है ।

●    यह शरीर रचना की निपुणता सूक्ष्म प्राणकोशाओं में प्राणावस्था की रचनाओं से लेकर ज्ञानावस्था के शरीर रचना तक संपन्न होती है । प्राण कोशाएं अपने स्वरूप में समान होती हैं तथा रचना विधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं । साथ ही प्राणावस्था की रचना में स्पष्टता जितने भी रचना विधि हैं, उससे अधिक जीवावस्था में और इससे अधिक ज्ञानावस्था में है, क्योंकि शरीर रचना में जो मौलिक विकास हुआ है उतने ही पक्ष की स्पष्टता इन रचना विधियों में समाविष्ट हो चुकी हैं । सर्वाे_  विकसित रचना मानव शरीर में ‘मेधस’ ही है। समृद्घि पूर्ण मेधस तन्त्र युक्त मानव शरीर ही है ।

 शरीर रचना के संबंध में वंश को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । बीज संयोजन क्रिया अर्थात् वंश परंपरा प्राणावस्था, जीवावस्था तथा ज्ञानावस्था में अपने-अपने मौलिकता के साथ हैं। रचना के आधार पर, बीज संयोजन के संबंध में सैद्घांतिक साम्यता पाते हुए हम इस प्राणावस्था की इकाई की स्थिति एवं व्यवहार, जीवावस्था की स्थिति एवं व्यवहार तथा ज्ञानावस्था की स्थिति एवं व्यवहार में मौलिक अंतर पाते हैं । अत: स्पष्ट है कि रचना विधि के आधार पर विविधताएँ हैं । यह स्वयंस्फूर्त क्रिया है ।

 ज्ञानावस्था में मानव ही चारों अवस्थाओं का दृष्टा है । चैतन्य इकाई (मानव) में एकरूपता, जागृति को पाने हेतु प्राप्त समझ ही संस्कार है । यह समझ ही मानव के लिए समाधान समृद्घि पूर्वक जीने का कारण है । समझ के आधार पर व्यवहार कार्य होता है। इससे सिद्घ होता है कि चैतन्य इकाई आशा, विचार, इच्छा एवं सकंल्प व अनुभव का रूप ही हैं। उसी रूप की अभिव्यक्ति में जो सार्थकता है वह स्वयम् में अनुभव मूलक आशाओं, विचारों, इच्छाओं और संकल्पों और अनुभव का बीज रूप और प्रमाण है । मानव तब तक जड़ पक्ष के अधिमूल्यन से मुक्त नहीं हो सकता है, जब तक अपने में निर्भ्रमता को संपन्न करने योग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता को सिद्घ नहीं कर लेता है। यह केवल जागृति से ही संभव है । ऐसी क्षमता, योग्यता और पात्रता सिद्घ होने तक जड़ पक्ष एवं इन्द्रिय संवेदनाओं पर नियंत्रण व संतुलन पाना स्वभाव सिद्घ नहीं हुआ ।  क्योंकि भ्रमित विधि से मानव शरीर से सुख पाने की अपेक्षा में आशा, विचार, इच्छा को फैलाता है । ऐसे में भ्रमित कार्यकलाप करता है । जागृति विधि से स्पष्ट होता है कि मानव वंश और जाति एक ही है तथा वैचारिक वैविध्यता भ्रमवश है ।

○    जैसे _- भ्रमित मानव कुछ समय तक उदार-चित्त रहता है परंतु कुछ काल के पश्चात कृपण हो जाता है । इसी प्रकार विभिन्न दिशाओं में विपरीत कार्य संपन्न करता हुआ मानव-जीवन परिलक्षित होता है । मानव का इन्हीं साविपरीत क्रियाओं में ही अपनी मानसिकता प्रदर्शन, प्रतिदर्शन करना सिद्घ हुआ है । यही भ्रमित मानव का स्वरूप है। पुनर्विचार का भी प्रेरक है ।

○    _ – एक व्यक्ति अत्यंत मूर्ख है या अजागृत है, दूसरे जागृत व्यक्ति के संपर्क में आकर उसमें जागृति के लिए तृषा उत्पन्न होती है तथा उसमें जागृति प्रारंभ होती है। यह वातावरण के प्रेरणा वश पाई जाने वाली जागृति क्रम और जागृति प्रक्रिया है ।

●    जागृति की निरंतरता ही मानव परंपरा का महिमा है ।

●    संस्कार के दो भेद हैं :-

::    सुसंस्कार :-         जागृति योग्य प्रवृत्तियाँ जो मानव द्वारा व्यवहृत हैं तथा विचार रूप में अवस्थित हैं अर्थात् ऐसी प्रवृत्तियाँ जो प्रमाणित होती रहती हैं । समृद्घ, समाधानित अथवा सार्थक प्रवृत्तियाँ सुसंस्कार हैं ।

::    कुसंस्कार:-          जीवों के सदृश्य जीने की प्रवृत्ति ।

○    समस्त सुसंस्कार अन्ततोगत्वा प्रवृतियाँ एवं इच्छा के रूप में प्रवर्तित होकर समय, स्थान एवं अवसर पाकर कार्य, क्रिया, व्यवहार एवं अनुभूति के रूप में प्रमाणित होते हैं ।

○    मानव ने जड़-चैतन्य एवं व्यापक के  संबंध में अपने महत्व को पहचानने का प्रयास किया है । व्यापक सत्ता अर्थात् सर्वत्र विद्यमान वस्तु में जड़-चैतन्य को पहचानना अथवा व्यापक सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति का अनुभव ज्ञान के बिना पूर्ण विवेक एवं विज्ञान के अभाव में सामाजिकता के संरक्षण और संवर्धन संभव नहीं है । समुचित विधि एवं व्यवस्था के अभाव में मानव  द्वारा मानव का शोषण होता है ।

●    पूर्ण विवेक एवं विज्ञान के उदय के अभाव के कारण जो जैसा है, उसे वैसा समझने में मानव असमर्थ होता है । यही भ्रम का कारण है ।

○    सर्वप्रथम मानव स्वयं को ही समझना चाहता है, पर उपरोक्त वर्णित असमर्थता के कारण स्वय का सही-सही मूल्यांकन नहीं कर पाता। इसी स्थिति को पूर्व में ‘भ्रान्त’ के नाम से परिचित कराया गया है । शोषण क्रिया इसी भ्रांति की स्थिति का परिणाम है ।

○    अत: जागृति की ओर प्रवृत्त होने के लिए एक मानव की सार्थक प्रयुक्ति यही है कि वह अपने से जागृत मानव के निर्देश, आदेश एवं संदेश की ओर अपनी ग्रहणशीलता को अभिमुख बनाए रखे। केवल इसी प्रक्रिया से मानव सृष्टि में अपने महत्व को जानने व पहचानने में सफलता होता है।

●    अपने महत्व को जानने व पहचानने पर ही विश्राम सहज रूप में उपलब्ध है।

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