Philosophy of Human Practice (मानव अभ्यास दर्शन)

 
[*Original article in Hindi by A Nagraj]

darsana of  human-practice (abhyasa) manav abhyas darshan (मानव अभ्यास दर्शन)

  • Details on practice to be undertaken in order to have Understanding/Knowledge. After understanding,  ‘bringing of  understanding or knowledge into living’ & its manifestation at various levels in the form of ‘values’ at the level of ‘contemplation’ in the self.
  • Contents:
    • Study of sociality, Social order, Human Culture, Living with Integrity & Humanness, Education, humanness and united mankind, proficiency in behavior, skills and knowledge, Humane Culture, Established values and Expressed values, Study for Realization, Resolution & Coexistence.

अभ्यास दर्शन

प्राक्कथन (प्रथम संस्करण)

अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान पूर्वक सभी आयाम, कोण, दिशा व परिप्रेक्ष्यों में समाधान और प्रमाण को प्रमाणित करने के लिए अभ्यास दर्शन की आवश्यकता को महसूस किया गया।
अस्तित्व में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान व मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान इस अभ्यास दर्शन के पहले मानव-व्यवहार दर्शन में स्पष्ट किया जा चुका है। यही प्रसन्नता के लिए तथ्य रहा कि हम रहस्य मुक्त विधि से अभ्यास कर सकते हैं। हर विधा में अभ्यास सम्पन्न, प्रमाण पूत होने के पहले से ही अध्ययन विधि से ऊपर कहे दर्शन के सर्वसुलभ होने की संभावना को और सर्वसुलभ होने की आवश्यकता को अनुभव करते हुए इस अभ्यास दर्शन को मानव के सम्मुख रखते हुए प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
मेरा विश्वास है कि हर मानव समझदार, समाधान व समृद्घपूर्वक प्रमाणित होना चाहता है और परिवार व समग्र व्यवस्था में भागीदार होना चाहता है। इस उद्देश्य के लिए यह अभ्यास दर्शन प्रेरक होगा और फलत: उपकार होगा इसी सुनिश्चयता के साथ धरती स्वर्ग हो, मानव देवता हो, मानव धर्मरूपी सुख, समाधान सर्वसुलभ हो, नित्य शुभ हो।

ए. नागराज
प्रणेता-लेखक : मध्यस्थदर्शन
(सह-अस्तित्ववाद)
दिनांक : 22-04-2004


*स्रोत: व्यवहारात्मक जनवाद, संस-२००२, पृ 169 से 176

अभ्यास दर्शन का प्रयोजन

मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद के अनुसार अभ्यास दर्शन सर्वमानव के लिये अध्ययन के अर्थ में प्रस्तुत है। अभ्यास दर्शन अपने में कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित क्रियाकलापो में सार्थकता का प्रतिपादन है। ‘‘अभ्यास दर्शन’’ समझदारी के लिए अभ्यास को स्पष्ट करता है। एवं समझने के उपरान्त समझदारी को प्रमाणित करने की अभ्यास विधियो का अध्ययन कराता है।

अध्ययन होने का प्रमाण अनुभव मूलक विधि से प्रमाणित होने का प्रतिपादन है। अनुभव सहअस्तित्व में होने का स्पष्ट अध्ययन करा देता है, बोध करा देता है। इससे मानव परम्परा में प्रमाणित होने का मार्ग प्रशस्त होता है। इसमें जीवनसमु?य क्कîहृग्श् का और दर्शनसमु?य क्कîहृग्श् का आशय सुस्पष्ट हो जाता है। जीवनसमु?य क्कîहृग्श् अपने में दृष्टा पद् प्रतिष्ठा सहित कर्ता-भोक्ता पद में प्रमाणित होने का बोध होता है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही जीवन के लिए दृष्य रूप में प्रस्तुत रहता है। सम्पूर्ण दृष्य व्यवस्था के रूप में व्याख्यायित है। नियम-नियंत्रण-संतुलन ही इसका सूत्र है।

 

नियम की व्याख्या सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में प्रत्येक एक एक की यथास्थिति के आधार पर निश्चित आचरण ही व्याख्या है। ऐसा निश्चित आचरण ही हर इकाई का त्व है। ऐसी यथा स्थितियाँ और आचरण परिणामानुषंगी विधि से, बीजानुषंगीय विधि से एवं आशानुषंगीय रूप में स्पष्ट होता हुआ देखने को मिलता है। अभ्यास दर्शन ऐसी स्पष्टता को स्पष्ट रूप में अध्ययन करा देता है। सभी स्पष्टताएँ नियम, नियंत्रण, सन्तुलन से गुथी हुई के रूप में होना पाया जाता है।

 

इस भौतिक रासायनिक रूपी बड़े छोटे रूप में होना पाया जाता है। होना ही अस्तित्व है। मानव भी जड़ चैतन्य प्रकृति के रूप में होना अध्ययनगम्य है। इसी आधार पर चैतन्य प्रकृति में दृष्टा पद प्रतिष्ठा होना, इसके  वैभव में ही दृष्टा-कर्ता-भोक्ता पद का प्रमाण प्रस्तुत करना  ही जागृति का प्रमाण है। अभ्यास दर्शन इन तथ्यो को अध्ययन कराता है। इसमें मुद्दा यही है कि हमें सम्पूर्ण अध्ययन करना है तो मध्यस्थ दर्शन ठीक है नहीं करना है तो मध्यस्थ दर्शन की जरूरत नहीं है।


अनुक्रमाणिका

1. अभ्यास-दर्शन
2. अभ्यास की अनिवार्यता
3. अभ्युदय की अनिवार्यता
4. अखण्ड समाज गति सहज अनिवार्यता
5. सामाजिकता का अध्ययन
6. सामाजिक आचरण
7. स्थापित मूल्यों की अनिवार्यता सर्वदा सबके लिए समान है।
8. जनाकाँक्षा को सफल बनाने योग्य शिक्षा व व्यवस्था
9. समाज व्यवस्था
10. मानव संस्कृति
11. स्वयं में विश्वास क्रम में व्यक्तित्व एवं प्रतिभा का संरक्षण ही अर्थ का संरक्षण है।
12. न्याय पाना, सही कार्य व्यवहार करना ही सत्य सम्पन्नता साम्यत: जनाकाँक्षा है।
13. सतर्कता-सजगता पूर्ण परंपरा में मानवीयता सहज चरितार्थता स्वभाव सिद्घ है।
14. भ्रमित समुदाय की द्वितीयावस्था ही वर्ग है।
15. विनिमय कार्य जागृत मानव परंपरा में अनिवार्य प्रक्रिया है।
16. ईश्वर-तंत्र पर आधारित राज्य-नीति एवं धर्म-नीति रहस्यता से मुक्त नहीं है।
17. प्रत्येक मानव इकाई भ्रम, भय, रहस्य मुक्ति के लिए प्रयासरत है।
18. आचरण पूर्णता पर्यन्त शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन का अभाव नहीं है।
19. केवल साधनों की प्रचुरता मानवीयता को स्थापित करने में समर्थ नहीं है।
20. विकास व जागृति ही वैभव क्रम है।
21. प्रत्येक मानव समाजिकता के लिए समर्पित होना चाहते है।
22. कम्पनात्मक एवं वर्तुलात्मक गति का वियोग नहीं हैं।
23. सर्वशुभ उदय का भास-आभास संवेदनशीलता की ही क्षमता है और प्रतीति व अनुभूति संज्ञानीयता की
महिमा है।
24. आवेश मानव का अभीष्ट नहीं है।
25. मानव में संचेतनशीलता ही संस्कार एवं जागृतिशीलता सूत्र है।
26. सामाजिकता का आधार संस्कृति एवं सभ्यता ही विधि एवं व्यवस्था है।
27. जिज्ञासात्मकता सुखी होने के अर्थ में एवं आवेशात्मक क्रियाकलाप के फलस्वरूप पीड़ाएं प्रसिद्घ हैं।
28. मानव में वर्गविहीनता न्याय अपेक्षा सही करने की इच्छा एवं सत्यवक्ता होना जन्म से ही दृष्टव्य है।
29. मानव में अखंडता के लिए मानवीयता ही एकमात्र शरण है।
30. मानवीयतापूर्ण जीवन ‘में, से, के लिए’ सुसंस्कारों का अभाव नहीं है।
31. संस्कार ही संस्कृति को प्रकट करता है।?
32. केवल उत्पादन ही मानव के लिए जीवन सर्वस्व नहीं है।
33. मानव के संपूर्ण संबंध गुणात्मक परिवर्तन के लिए सहायक हैं।
34. कुशलता, निपुणता एवं पांडित्य ही ज्ञानावस्था की मूल पूंजी है।
35. समाधान, समृद्घि, अभय एवं सह-अस्तित्व में अनुभव मानव धर्म की चरितार्थता है।
36. व्यक्ति का व्यक्तित्व न्याय प्रदायी क्षमता से प्रदर्शित है।
37. संपूर्ण अध्ययन अनुभूति, समाधान, सह-अस्तित्व एवं समृद्घि के लिए ही है।
38. मानव का संपूर्ण कार्यक्रम धार्मिक, आर्थिक एवं राज्यनीति में, से, के लिए है।
39. पांडित्य ही मानव में विशिष्टता हैं।
40. समाज संरचना का आधार ‘‘मूल्य-त्रय’’ (मानव मूल्य, जीवन मूल्य, स्थापित मूल्य) ही है।
41. भोगों में संयमता से अभयतापूर्ण जीवन प्रत्यक्ष होता है।
42. समस्त प्रकार के वर्ग की एकमात्र शरण स्थली मानवीयता ही है।
43. अभयता का प्रत्यक्ष रूप ही वर्तमान में विश्वास है।
44. आवेश (लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद) मानव की स्वभाव गति नहीं है।
45. प्रत्येक स्थिति में किए गए अभ्यास का प्रत्यक्ष रूप ही व्यवहार एवं व्यवस्था है।
46. व्यक्तित्व और प्रतिभा की चरमोत्कर्षता में ही प्रेमानुभूति होती है।
47. उत्पादन एवं व्यवहारिकता अखण्ड समाज में, से, के लिए अपरिहार्य है।
48. ‘‘प्रमाण-त्रय’’ ही विश्वास है।
49. मानव में स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण भेद से क्रियाशीलता प्रसिद्घ है।०.
50. अभ्यास-समग्र की उपलब्धि क्रियापूर्णता, आचरण पूर्णता का पूर्णता ही है।
51. अमानवीयता से ग्रसित वर्ग संघर्ष में भय एवं प्रलोभन का अभाव नहीं है।
52. मानव जीवन में भक्ति जागृति के अर्थ में वांछित प्रक्रिया है।
53. योगाभ्यास जागृति के अर्थ में चरितार्थ होता है।


 

 

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