Cognition, Consciousness & Conscious (चेतना, चैतन्य )

 

संचेतना चेतना और चैतन्य

*स्त्रोत = समाधानात्मक भौतिकवाद, संस १९९८, अध्याय ७ 

‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’ के विचारों का आधार सह-अस्तित्व ही है- यह स्पष्ट किया जा चुका हैं। सह-अस्तित्व मूलत: अस्तित्व ही हैं, सह-अस्तित्व ही अपने सूत्र में वर्तमान एवं नित्य प्रभावी है और शाश्वत् व्यवस्था के रूप में सह-अस्तित्व हैं। अस्तित्व नित्य वर्तमान हैं। यही सह-अस्तित्व का नित्य वैभव हैं- यह स्पष्ट होता हैं । सह-अस्तित्व का स्वरुप हैं- सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य-प्रकृति, जो स्वयं पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था के रूप में इसी धरती में स्थित मानव को मानव में, से, के लिए दिखाई पड़ती हैं। इसमें से किसी अवस्था को घटाकर या बढ़ाकर सह-अस्तित्व सहज संपूर्णता पूर्णता और उसकी निरंतरता की कल्पना भी संभव नहीं हैं। दर्शन और ज्ञान ही दृष्टापद का प्रमाण हैं तथा त्व सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी, दृष्टापद सहित वैभव यह संभावना मानव में समीचीन है। इससे अधिक ज्ञान, दर्शन और आचरण की आवश्यकता निर्मित नहीं हो पाती, इस मुद्दे पर बुद्घिवाद के अनुसार इसे कैसे समझा जाय कि और अवस्थाएँँ निर्मित होने की आशा करना क्यों बुरा हैं, इस प्रकार से कुछ अस्पष्ट प्रश्न किये जा सकते हैं। अस्पष्ट प्रश्न इसीलिए हो जाते हैं कि मानव की आशा, आकांक्षा और अभिलाषाओं की अंतिम मंजिल ही है सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता। यही जीवन जागृति का प्रमाण हैं। जीवन की अंतिम अभिलाषा जागृति हैं। मानव की अंतिम अभिलाषा सर्वतोमुखी समाधान और प्रामाणिकता हैं। समाधान से जागृति, जागृति से समाधान प्रमाणित होना ही मानव परंपरा की सफलता हैं। यही सफलता मानव व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रकाशन सूत्र है। इस सत्यता को अथवा साक्ष्य को स्पष्ट कर देता हैं प्रामाणिकता, स्वानुशासन सहज अभिव्यक्ति शीर्ष कोटि की जागृति है। यह भ्रम मुक्ति का प्रमाण है। यह निभ्र्रमता का सहज प्रमाण है। इससे अधिक मानव में कल्पनाशीलता की, विचारशीलता की, इच्छाशीलता की गति और अपेक्षा बनती ही नहीं हैं। इसलिए, इसे अंतिम सार्थक परंपरा में निरंतर वैभव होने योग्य वस्तु के रूप में स्वीकारना एक आवश्यकता और अनिवार्यता है, क्योंकि मानव शुभ को स्वीकारता ही हैं, इसीलिए इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य भी हैं।

जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान एवं मानीवयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही जागृति और उसके वैभव का स्वरुप है। मानव का सहज शरण मानवत्व ही है। प्रत्येक मानव इस बात को, अपने में ही परीक्षण कर सकता हैं कि मानवत्व किस प्रकार से त्राण और प्राण हैं। इस परीक्षण से यह पता लगा है कि मानवत्व (मानव में, से, के लिए व्यवस्था सूत्र) ही जीवन त्राण का स्वरुप हैं। दूसरी भाषा में जागृति सहज जीवन बल का स्वरुप हैं। समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व इस प्रेरणा का स्वरुप हैं। इस ढंग से मानवत्व की प्रेरकता और कारकता अथवा त्राण स्पष्ट होता है। त्राण से ही प्रेरणायें बलवती और फलवती होती हैं। प्रेरणाओं को फलवती होना ही त्राण की तृप्ति हैं। इस प्रकार त्राण और प्राण, पूरकता विधि से कार्य करते हुए, यह प्रमाण स्वयं में, स्वयं से, स्वयं के लिए प्रमाणित होता हैं। यही जीवन सहज दसों क्रियाओं में सामरस्यता, समाधान और व्यवस्था का प्रमाण हैं। इस प्रकार सह-अस्तित्व में जीवन के समाधान सहज रूप में प्रमाणित होने की संभावना स्पष्ट होती हैं और इसे प्रमाणित कर देखा गया है।

मानव में समाधान परंपरा प्रामाणिकता पूर्ण परंपरा ही वैभव है। ऐसी सहज परंपरा क्रम में प्रत्येक मानव ऐसी परंपरा में अर्पित होकर, जो एक व्यक्ति ने परम ज्ञान, परम दर्शन एवं परम आचरण किया हैं, उसे सभी व्यक्ति पा सकते हैं, आचरण कर सकते हैं। इसी के आधार पर मानव परंपरा में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व प्रमाणित हैं। सह-अस्तित्व को जो एक व्यक्ति प्रमाणित करता है, उसे प्रत्येक व्यक्ति प्रमाणित कर सकता है। जो एक व्यक्ति ‘‘परम-त्रय’’ के आधार पर व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलम्बन को प्रमाणित करता हैं, उसे प्रत्येक व्यक्ति प्रमाणित कर सकता है। जो एक व्यक्ति में स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, ‘‘परम-त्रय’’ के आधार पर प्रमाणित करता है, उसे प्रत्येक व्यक्ति प्रमाणित कर सकता है। यही मानव परंपरा का संस्कारानुषंगी गरिमा, महिमा और वैभव हैं।

अभी इस क्रम में अर्थात् उपरोक्त कहे गये क्रम में, अस्तित्व में कुछ और अवस्था जुडक़र अथवा पाँचवीं अवस्था जुडक़र सर्व कल्याण मार्ग प्रशस्त होने की कल्पनाओं को क्यों नहीं किया? इसके उत्तर में इस बात को स्पष्ट किया कि:-

1.         प्रत्येक मानव जागृत होना चाहता है।

2.         प्रत्येक मानव जागृत होने के लिए ‘‘परम-त्रय’’ विधि को अपना सकता है।

3          प्रत्येक व्यक्ति जागृति और प्रामाणिकता पूर्वक ही व्यवस्था है और व्यवस्था में भागीदारी कर सकता है।

4.         प्रत्येक मानव में ‘‘परम-त्रय’’ विधि से जागृति समीचीन है।

इसलिए और कोई आगे अवस्था पैदा होगी, उस समय में अर्थात् कल्पनातीत लंबे समय के बाद सर्वशुभ होने का दिन आवेगा, तब तक अपनी हविश पूरी कर लेवें। इस प्रकार की मनोगतवादी विधि से अपराधों को अपनाने को, इसे सवैध मानने की हïठवादिता को त्याग देना चाहिए। मानवीयता में संक्रमित होना चाहिए और जागृत परंपरा को स्थापित कर लेना चाहिए। जिसमें मानवीयता पूर्ण शिक्षा, मानवीयता पूर्ण संविधान, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था जिसमें सबकी भागीदारी को पा लेना ही सर्व शुभ स्थिति का, गति का प्रमाण हैं। यह मानव के लिए समीचीन है, इसीलिए मानवीयता में परिवर्तित होने की सहज सहमति सर्वाधिक मानव में प्रस्तुत है ही। अभी तक अव्यवस्था पर आधारित शिक्षा तथा परंपरा से छुटकारा पाने का विकल्प नहीं रहा हैं, इसीलिए सर्वाधिक मानव छटपटाते आया है। इस तरह जिस विकल्प की तलाश था, वह आ चुका है और किसी अवस्था के इंतजार की आवश्यकता नहीं है।

किसी अवस्था को कम किया जाये, ऐसी कल्पना हो सकती है, पर इससे कम करना भी संभव नहीं हैं। मूलत: अस्तित्व ही चारों अवस्थाओं का स्वरुप हैं, चारों अवस्थाएँँ इस धरती पर साकार हो चुकी है। इसमें संपूर्ण दृश्य, दृष्टा और दृष्टि की संभावना अर्थात् दृष्टि की क्रियाशीलता सभी संभावित हो गई हैं। इतना ही नहीं, यह अविभाज्य रूप में समीचीन हो गया है।

इसमें से किसी एक को अलग करने की कल्पना, यदि-

1.         पदार्थावस्था को अलग करें तो यह धरती ही नहीं दिखेगी।

2.         प्राणावस्था को अलग करने की कल्पना करें तो वन, वन्य- प्राणी और मानव नहीं दिखेंगे।

3.         जीवों को अलग करने की कल्पना करें, उस स्थिति में अनेक प्रकार के रोग और उपद्रव होंगे, वनस्पतियों को नष्ट करने वाले, मानव को रोगी बनाने वाले तत्व निर्मित हो जावेंगे।

4.         मानव को अलग करने की कल्पना देखें, तब अस्तित्व में दृष्टा पद का वैभव इस धरती पर दिखेगा नहीं।

सर्वमंगल, सर्वशुभ और समग्र अभिव्यक्ति का संयोग ही अथवा सज जाना ही समग्र घटना है । ऐसी घटना संपन्न इस धरती में ‘‘मानव ही अनुभवपूर्वक दृष्टा है।’’ दृष्टा पद को समृद्घ कर पाना ही जागृति है। जागृतिपूर्वक ही मानव परंपरा व्यवस्था है और यह व्यवस्था के रूप में वैभवित हो पाता है। इसीलिए मानव परंपरा को जागृत होने की आवश्यकता है, न कि किसी अवस्था को घटाने की। किसी अवस्था को घटाने पर सर्वशुभ की कल्पना नहीं हो पाती, इसलिए मानव का सहज वैभव, जागृति में ही है। मानव परंपरा के जागृत होने के लिए आवश्यकीय प्रेरणा, समीचीन हो चुकी हैं। उसमें से एक भाग यह ‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’ है।

जागृति पूर्वक ही मानव चेतना (ईश्वर), संचेतना, चैतन्य वस्तुओं को पहचान पाता हैं तथा जानता है, मानता है और उसके तत्व बिंदु को प्रमाणित करता है। मूलत: चेतना में संचेतना, चैतन्य, भौतिक-रासायनिक वस्तुएँ अविभाज्य वर्तमान है। अविभाज्यता का मूल तत्व चेतना (सत्ता) में सम्पूर्ण प्रकृति का निरंतर होना ही हैं। सत्तामयता ही चेतना के नाम से ख्यात हैं। चेतना को परमात्मा, ईश्वर, बह्मï, ज्ञान, व्यापक, सत्य आदि नामों से भी इंगित करना चाहते रहे हैं। ब्रह्मï को अव्यक्त बताने के लिए किया गया अथवा चेतना को अव्यक्त समझाने के लिए किया गया सारा प्रयास और वाङ्गïमय, चेतना और ब्रह्मïवादी परंपराओं में भ्रम को निर्मित किया । जबकि हर परस्परता के मध्य सत्ता ही देखने को मिला। यह सत्ता अस्तित्व सहज रूप में वैसे ही रहा आया हैं, जैसा यह वर्तमान में है। वर्तमान में सत्ता को देखने पर पता चलता है कि यह सर्वत्र, सर्वदा, विद्यमान हैं, पारदर्शी और पारगामी है। इसी वस्तु को ब्रह्मï, चेतना आदि नाम दे सकते हैं। वर्तमान में हम इन्हीं नामों से सत्तामयता को स्मरण पूर्वक इंगित कराएँगे। सत्तामयता अथवा सत्ता में ही चैतन्य इकाई (जीवन) और जड़ प्रकृति समाई हुई है अर्थात् संपृक्त हैं। इस मुद्दे को पहले भी स्पष्ट कर चुके हैं। सत्ता में जड़-चैतन्य-प्रकृति भीगा, डूबा व घिरा हुआ दिखाई पड़ता है। भीगा हुआ से सत्ता का पारगामी होना प्रमाणित है। यही प्रमाण, वस्तु में ऊर्जा सम्पन्नता और बल सम्पन्नता के रूप में प्रमाणित है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु का बल संपन्न रहना, मानव को समझ में आता है। सत्ता अथवा चेतना का तात्पर्य साम्य ऊर्जा है, प्रत्येक वस्तु घिरा हुआ, डूबा हुआ, भीगा हुआ है। यह स्थिति-गति प्रत्येक व्यक्ति को दिखाई पड़ता है। इस प्रकार चेतना और ब्रह्मï नाम से भी इस वस्तु (वास्तविकता) को इंगित कराया है। इस प्रकार चेतना और ब्रह्मï, जिसको हम अव्यक्त मानते रहे हैं, यह अव्यक्त नहीं हैं, नित्य व्यक्त हैं और नित्य वर्तमान हैं। ऐसी चेतना अथवा ब्रह्मï व्यापक है । पहले भी व्यापक नाम दिया गया था। व्यापकता के अर्थ में जैसा भी समझे हों, जो भी समझे हों, अभी वर्तमान में इस प्रकार समझ सकते हैं कि सत्तामयता कितना फैला हुआ हैं इसका कोई मापदंड मानव सहज कल्पनाशीलता, कर्म-स्वतंत्रता के योग फल में तैयार नहीं हो पाता है। अभी तक नहीं हो पाया है। इसलिए इसको व्यापक नाम दे दिया गया अथवा इसका नामकरण किए व्यापक। सत्ता में ही अनन्त इकाईयाँ समाई हुई है। जितनी भी संख्या में मानव देखें, सभी सत्ता में डूबे एवं घिरे हुए दिखाई पड़ते हैं । ऐसी दिखने वाली इकाईयों को कितनी भी गिनें, पर और भी गिनने के लिए शेष रहता ही है। इसीलिए इकाईयों को ‘‘अनंत’’ नाम दिया गया है।

यह भी इससे स्पष्ट हुआ है कि मानव ही नापने, तौलने और गिनने का कार्य करता है। यह मानव को दृष्टा पद में होने का सामान्य लक्षण है। आवश्यकता और आवश्यकता की कल्पना से अधिक नापना तौलना संभव नहीं है। इससे यह भी समझ में आता है कि मानव सहज आवश्यकताएँ सीमित हैं। संभावना अधिक है। इस तथ्य को सामने रखकर देखें। ‘‘आवश्यकताएँ अनंत हैं, साधन सीमित हैं ’’- ऐसा जो वर्तमान अर्थशास्त्र में पढ़ाया जा रहा है- यह कहाँ तक सत्य हैं, कहाँ तक ये सच्चाई है, वह भी समझ में आवेगा। अस्तु, अस्तित्व नित्य वर्तमान है। सत्ता में संपृक्त प्रकृति में से चैतन्य प्रकृति ही जीवन है। जीवन में ही संचेतना प्रमाणित होती है। संचेतना का प्रमाण मानव में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में है। यह प्रकारान्तर से हर व्यक्ति में प्रमाणित है। जीवन चैतन्य पद का वैभव है। संचेतना, यह जागृत जीवन सहज अभिव्यक्ति है। इसकी सार्थकता, पूर्णता के अर्थ में- जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होती है। अस्तु, परार्थ व पारमार्थिक विधि से क्रियापूर्णता (मानवीयता तथा देव मानवीयता) एवं आचरण पूर्णता पूर्वक जागृति पूर्णता को प्रमाणित करना, जागृत मानव परंपरा में, से, के लिए सहज संभव और आवश्यक है।

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