Time (काल)

 

काल

*स्त्रोत = कर्मदर्शन संस-२, अध्यय ३, भाग १५ 

 काल की परिभाषा ‘क्रिया की अवधि’ के रूप में होना स्पष्ट है। क्रिया अपने में निरन्तर संपन्न होती ही रहती है। साथ में कुछ क्रियायें आवर्तित होती रहती है। ऐसे आवर्तन की निरन्तरता बनी रहती है। कभी बंद होती ही नहीं। ऐसी निरन्तर संपन्न होने वाली क्रिया के एक आवर्तन के आधार पर काल को पहचानने का आधार माना गया। धरती का अपने एक घूर्णन गति में, पूरी धरती में दिन रात्रि संपन्न होना पाया जाता है। इसी को एक दिन की संज्ञा दी गयी है। ऐसी दिन रात्रि की क्रिया सदा-सदा से चली आयी है, चलती रहेगी। इस अवधि को 24 भाग, 60 भाग से विभाजित कर घण्टा, मिनट, घटी, पल आदि नामों से पहचानते हैं। इस ढंग से हम समय का विभाजन करते गये, क्रिया को भूल गये। समय के आधार पर हर क्रिया का मूल्यांकन करने के लिए तैयारी कर लिये। समय प्रधान हो गया, वस्तु भूल गये। इस भूल के आधार पर लिये गये सभी निर्णयों से समस्यायें पैदा हुईं। क्रिया व फलन के आधार पर मूल्यांकन होने की आवश्यकता बनी रही।

क्रिया के रूप में काल अपने में होने और क्रिया के रूप में निरन्तर, शाश्वत है। होना, होते रहना के अर्थ में काल गणना है। सह अस्तित्व अपने आप में नित्य निरन्तर होने के अर्थ में होना, नित्य निरंतरता होना स्पष्ट होता है। यही निरंतरता काल संज्ञा में आती है और शाश्वीयता भी काल संज्ञा में आती है। संपूर्ण प्रकृति शाश्वत होने के आधार पर, अविनाशी होने के आधार पर, शाश्वीयता प्रमाणित होती है। क्योंकि संपूर्ण पदार्थावस्था अस्तित्व धर्म के रूप में विद्यमान है, यही पदार्थावस्था विकसित होकर प्राणावस्था में वैभवित होने के आधार पर अस्तित्व सहित पुष्टि धर्मी होना पहचान में आ चुकी है। संपूर्ण जीव में अथवा जीवावस्था अस्तित्व, पुष्टि सहित आशा धर्मी होना समझ में आ चुकी है। इसी क्रम में मानव अस्तित्व, पुष्टि, आशा सहित सुख धर्मी होना भी स्पष्ट है। समाधान के अनुभव से ही सुख होने की बात भी सुस्पष्ट हो चुकी है। इस विधि से अस्तित्व अविनाशी होना समझ में आता है। इसीलिए काल नित्य वर्तमान ही है। वर्तमान वस्तु के रूप में सहअस्तित्व ही है। वर्तमान को ही हम काल नाम दिये हैं। काल शब्द में वर्तमान ही अर्थ है। वर्तमान के रूप में सह-अस्तित्व ही है। इस प्रकार काल सह-अस्तित्व के अर्थ में नित्य वर्तमान होना समझ में आता है।

भूत और भविष्य के अर्थ में जो काल को पहचानते हैं, वह क्रिया की अवधि के आधार पर ही पहचानते हैं। क्योंकि हर आवर्तनशीलता पहले भी घटी थी, अभी भी घट रही है और आगे भी घटती रहेगी। इस विधि से हम घटना के आधार पर भूत, भविष्य, वर्तमान को गढ़ने जाते हैं। मानव कल्पनाशील, कर्म स्वतंत्र होने के आधार पर सहज क्रिया की अवधि को अनेक भागों में विभाजित करते हुए, हम काल शून्य की जगह में पहुंच जाते हैं। यह एक छोटी सी घटना मानव के लिये अत्यन्त सुलभ है। एक घण्टे को 60 से विभाजित करते चल जायें, उसमें से 1 को पुन: विभाजित कर दें, इसको कई बार करने के बाद कितना बचा कहने पर कहते है, कुछ नहीं के बराबर या कुछ नहीं। पर यही मनुष्य के भटकने का आधार बन गया। इसीलिए विज्ञान युग में काल को पहचानना सर्वाधिक जटिल हो गया। संभव नहीं है, ऐसा लगता है।

वर्तमान अगर शून्य हो जाय, मानव के आचरण को कहाँ पहचाने, व्यवहार को कहाँ पहचाने, मानव ज्ञान विज्ञान विवेक को पहचानने की जगह कहाँ है ? इसीलिए मानव समस्या ग्रस्त होकर समस्या को घटित करने लग गया। इसको अपना बहादुरी माना, इसी में मानव परंपरा काफी डूब चुकी है। आगे बचने का रास्ता यही है- अस्तित्व नित्य वर्तमान, विकास और जागृति का नित्य प्रकाशन, विकास व जागृति को प्राणामित करने वाला एक मात्र मानव होने को पहचानने के आधार पर ही मानवाकांक्षा, जीवनाकाँक्षा पूरी हो पायेगी।

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