Property, Effect & Potential (गुण, प्रभाव एवं बल)

 

 

गुण, प्रभाव व बल

*स्त्रोत = समाधानात्मक भौतिकवाद संस १९९८, अध्याय ७ 

गुण की परिभाषा गण्यात्मक गति अथवा जिन गतियों की गणना की जा सकती हैं। जब गुण का तात्पर्य गति ही है, तब गति का ही नाम क्यों न प्रयोग में लाया जाय, गुण का नाम लेने का क्या आवश्यकता है? इसका सहज उत्तर यही हैं कि यह अस्तित्व सहज हैं। गुण शब्द से गति अवश्य इंगित होती हैं, परन्तु सम्पूर्ण की गणना नहीं होती है। गतियाँ सम, विषम, मध्यस्थ गति में समझने में मिलती हैं। सम गतियाँ विकास और गुणात्मक विकास के क्रम में प्रमाणित होती हंै। जबकि विषम गतियाँ गुणात्मक विकास के स्थान पर ह्रïास घटना को स्पष्ट कर देती हैं। मध्यस्थ गति इन्हें संतुलित बनाए रखता है। अर्थात् यथास्थिति को बनाये रखने में, यथास्थिति को पोषण करने में, अक्षुण्ण बना रहता है। गुण शब्द में ये तीनों प्रकार की गतियाँ सम्बोधित हो पाती हैं। इसीलिए गुण शब्द का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि सम, विषम, मध्यस्थात्मक गति का संयुक्त नामकरण ही गुण हैं।

बल और गति, इस दिग्दर्शन में हैं। प्रत्येक वस्तु में बल संपन्नता का प्रमाण, अस्तित्व सहज हैं। सत्ता में संपृक्त होना ही बल संपन्नता का सूत्र, अस्तित्व में वर्तमान हैं। वर्तमान में सम्पूर्ण परमाणुओं का होना पाया जाता है। गति अपने में स्थानांतरण की व्याख्या है, परिवर्तन का सूत्र हैं। बल अपने स्थिति सहज व्याख्या हैं। इस प्रकार बल और शक्ति की अविभाज्य वर्तमान में ही परिभाषा और व्याख्या स्पष्ट हैं। यह मानव में, धरती में, परमाणु में, अनंत में घटित हैं। धरती में सूर्य स्थानांतरित होता हुआ देखने को मिलता है। सूर्य बिंब यथावत् ही दिखता है। सूर्य अपने सहज स्थिति व गति को स्पष्ट किया ही है, इसे देखा भी जा सकता है। इसलिए स्थिति और गति अविभाज्य है, इस बात को स्वीकार कर सकते हैं।  बल स्थिति में और गति शक्ति में गण्य हो पाता है। बल को दबाव और शक्ति को प्रवाह के रूप में पहचाना गया है। दबाव स्थिति का तथा प्रवाह गति का द्योतक हैं। इसी के आधार पर विद्युत चुम्बकीय आदि बलों को अध्ययनगम्य और सार्वभौम रूप में देख चुके हैं अथवा देख सकते हैं।

बल ही गुणी के नाम से भी जाना जाता हैं क्योंकि गुणी और गुण की अविभाज्यता है।

1.         गुण विहीन गुणी और गुणी के बिना गुण पहचानने में नहीं आता।

2.         ये विभक्त होते नहीं।

3.         ये विभक्त हैं नहीं।

4.         इसे विभक्त किया नहीं जा सकता।

इस प्रकार विकास विधि संपन्न विज्ञान, वैज्ञानिक नियमों में, से, यह भी एक प्रमुख नियम हैं कि बल और शक्ति अविभाज्य है। बल ही गुणी एवं शक्ति ही गुण है।

इस आधार पर हर शक्ति के मूल में बल होना आवश्यक हैं। इसलिए शक्ति और बल के सह-अस्तित्व को स्वीकारते हुए सोचने पर अस्तित्व वैभव को समझना संभव हो जाता है। शून्य आकर्षण की स्थिति में प्रत्येक एक अपने स्थिति-गति के अनुसार, अक्षुण्ण हो जाता है। यह स्थिति-गति की निरंतरता सामरस्यता सिद्धांत है। इसे इस धरती, सूर्य, ग्रह-गोलों की स्थितियों को देखते हुए समझ सकते हैं। यह धरती अपनी स्थिति में, गति में अक्षुण्ण हैं। इसीलिए इसका स्वभाव गति में होना प्रमाणित हैं। इन्हीं ग्रह-गोल, नक्षत्रों को देखने पर यह भी पता लगता हैं कि यह सब शून्य आकर्षण में हैं। शून्य आकर्षण में होने का फल यही है कि स्वभाव गति रूप में, स्वभाव गति स्थिति अक्षुण्ण रहे आया। शून्य आकर्षण में होना, स्वभाव गति प्रतिष्ठा है, इसका प्रमाण यह धरती स्वयं प्रकाशित है। इसी क्रम में और तथ्य मिलता हैं कि शून्य आकर्षण की स्थिति में, प्रत्येक ग्रह गोल में समाहित सम्पूर्ण वस्तुएँ, उसी ग्रह गोल के वातावरण सीमा में ही रहते हैं, चाहे वे वस्तुएँ स्वभाव गति में हो या आवेशित गति में। इसका प्रमाण सूर्य को देखने पर मिलता है। सूर्य में संपूर्ण वस्तुएँ विरल अवस्था में होना दिखाई पड़ता है। कोई ग्रह-गोल में स्थित वस्तु, यदि आवेशित हो सकता है, तो सूर्य में वस्तु जितना आवेशित है, उतना हो सकता है। इसके बावजूद सूर्य अपनी सम्पूर्ण मात्रा (संपूर्ण वस्तु) सहित ही कार्यरत है।

स्वयं में ग्रह-गोलों में निहित वस्तुओं के आवेशित होने के कारणों की ओर ध्यान देंगे। प्रत्येक ग्रह-गोल में, जैसे इस धरती में किसी तादाद तक विकिरणीय द्रव्यों के रहते, सभी अवस्थाओं का संतुलित रहना पाया जा रहा है। संतुलन का तात्पर्य सभी अवस्थाओं की वर्तमानता से हैं, अथवा चारों अवस्थाओं को वर्तमान होने से हैं और इनके अंतर्संबंधों में सह-अस्तित्व रुपी प्रमाण के वैभव से हैं। यह भी मानव के सम्मुख स्पष्ट है कि चरम तप्त अर्थात् सर्वाधिक तप्त स्थिति में सूर्य की गणना की जा चुकी हैं। सूर्य में होने वाले ताप का परावर्तन, इस धरती में पहुँचना देखा जा रहा हैं। सूर्य (के) सहज बिंब के प्रतिबिंब, अनुबिम्ब और प्रत्यानुबिम्ब को प्रकाश के रूप में देखा जा रहा है। धरती की सतह के नीचे स्थित और पूरकता विधि से कार्यरत इन विकिरणीय द्रव्यों को भ्रमित मानव धरती की सतह पर लाकर हस्तक्षेप कर रहे हैं। इससे नाभकीय सहज मध्यस्थ क्रिया (मध्यस्थ बल और शक्ति) आवेशित अंशों को संतुलित करने में असमर्थ हो जाते है एवं विस्फोट हो जाता है। अजीर्ण परमाणु अपने स्वरुप में विकिरणीय होना पाया जाता है। विकिरणीय द्रव्य की परिभाषा ही हैं कि विकिरणीय परमाणुओं में परमाणु सहज ऊष्मा अथवा अग्नि अंतर्नियोजित होने लगती हैं। इस सूत्र से भी यह स्पष्ट होता है कि आवेशित (हस्तक्षेपित) स्थिति में अंतर्नियोजित ऊष्मा का दबाव इतना अधिक हो जावे कि जिससे नाभिकीय द्रव्य विस्फोटक स्थिति में पहुँचे।

यह अब तर्क संगत लगता हैं कि सूर्य में सर्वाधिक अजीर्ण परमाणु में आवेश तैयार हो गए। फलस्वरुप नाभिकीय विस्फोट होने लगा। उसका प्रभाव विस्फोट का आधार बना। इस ढंग से सूर्य में समाहित सभी द्रव्य, विस्फोट कार्य में व्यस्त हो गए। इसके पक्ष में आज के चोटी के विज्ञानी, इस धरती पर कहते हुए पाये गये हैं कि अभी जितना नाभिकीय विस्फोटक बनाम एटम बम आकाश में, धरती में और समुद्र में रखे गये हैं, उन में यदि विस्फोट हो जाएँ तब क्रमिक रूप में प्रत्येक परमाणु के नाभिकीय विस्फोट की स्थिति आ जाएगी।

एक और तरीके से कल्पना किया जा सकता है, इस धरती में ये विज्ञानी, नाभिकीय विस्फोट सिद्घांत को अच्छी तरह समझ गये हैं। उसका विस्फोट करने में पारंगत भी हो गए हैं, और उसके लिए तैयारी भी कर लिये हैं। इतना तो अपना जीता-जागता, देखा-भाला तथ्य हैं। अस्तु, सूर्य में स्वाभाविक रूप में, इस धरती के जैसे ही चारों अवस्थाओं का विकास हो चुका रहा हो। इस धरती में जैसा विज्ञानी अपनी महिमा वश, इस धरती को सूर्य जैसा बदलने के सारे उपाय कर लिये हैं, वैसे ही सूर्य में भी ऐसी तैयारी, विज्ञानी लोग किये हों? अभी यहाँ यह प्रयोग सिद्घ नहीं हुआ है। वहाँ यदि प्रयोग सिद्घ हो गया, तब उस स्थिति में यह कह सकते है कि श्रेष्ठतम विज्ञानी ही ऐसे कार्यों को संपन्न किये हो।

‘‘जो मूल वस्तु जिस वस्तु से बना रहता हैं वह उसके मूल वस्तु के समान हैं’’ जैसे-

(1) मिट्टी से कितनी भी, कोई भी वस्तु बनावें, वह सब मिट्टी के समान ही हैं। उनका न तो मात्रात्मक परिवर्तन होता है, न ही गुणात्मक परिवर्तन होता है। परिवर्तन ही विकास या ह्रïास को माना जाता है। पदार्थावस्था में जितने प्रकार की वस्तुएँ हैं, उनमें से अधिक वस्तुओं के संयोग से भी, वस्तुओं को बनाकर देखा जाए, तो भी संयोग में आई सभी मूल वस्तुओं के समान ही होते हैं।

(2) प्राण कोषाओं से बनी हुई अथवा रची हुई रचनाएँ अपने मूल रूप में वह प्राणकोषा के समान ही होता है। प्राणकोषाएँ मूलत: रासायनिक वैभव की अभिव्यक्ति है। रासायनिक मूल द्रव्यों का स्वरुप भौतिक पदार्थ ही हैं। रासायनिक परिवर्तन में एक से अधिक प्रजाति की तात्विक अणुएँ अपने निश्चित आचरणों को त्याग कर तीसरे प्रकार के आचरण के लिए तैयार हो जाते हैं। यह तभी तक उसी क्रियाकलाप में अपने को व्यस्त रख पाते हैं, जब तक भौतिकता का वर्तमान सानुकूल रहता हैं। जब कभी भी इसकी सानुकूलता समाप्त हो जावें, अथवा प्रतिकूल रूप में बदल जावें तब प्रतिकूल भौतिकी वातावरण में रसायन क्रियाकलाप और रासायनिक वैभव देखने को नहीं मिलता है।

जैसे अभी चन्द्रमा पर कोई रासायनिक वैभव दिखता नहीं है, इसी प्रकार सूर्य में भी ऐसी क्रियाकलाप संभव नहीं हैं। इसलिए भौतिकता सानुकूल होना अनिवार्य शर्त हैं। ऐसी अनुकूल स्थिति को भौतिक क्रियाकलाप बना लेते हैं। यह साक्ष्य इस धरती में स्पष्ट हैं। इसी प्रकार प्राण कोषा, रासायनिक कार्यक्रम, रचनाओं के रूप में और रासायनिक वैभव अर्थात् भौतिक सानुकूलता अर्थात् रासायनिक द्रव्यों के लिए भौतिक वस्तुओं की उपलब्धि, ये सभी चीजे तभी समझने को मिली। इससे हमें यह स्पष्ट होता हैं और अध्ययनगम्य होता हैं तथा विश्वास होता हैं कि रासायनिक द्रव्य जब कभी ह्रïास गति को प्राप्त करते हैं, भौतिक वस्तुओं के रूप में रह जाते हैं। इसीलिए रचना-विरचना का इतिहास, इस बात को स्पष्ट कर देता हैं कि पदार्थावस्था से प्राणावस्था उदात्तीकरण हैं और प्राणावस्था से पदार्थावस्था पूर्वोदात्तीकरण है। यही प्राणपद चक्र की लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई है। प्राणावस्था की कोषाएँ अपने स्वरुप में, भौतिक वस्तु से भिन्न होती हैं। रासायनिक द्रव्य के समान ही होते हैं। रासायनिक द्रव्य जो प्राणावस्था की रचना में अर्पित हुए हैं अथवा प्राणावस्था की रचना के रूप में जितनी भी मात्रा रसायनों की बनी रहती हैं, उन सबका समान रूप में गुण और मात्रा रसायनिक द्रव्य में ही पाता है। रासायनिक वैभव में सभी वस्तुएँ जो समाहित रहते हैं, वे सब अन्य द्रव्यों के अनुकूल-प्रतिकूलताएँ परिवर्ती रूप में दिखते हैं। मूलत: यह भौतिक वस्तुएँ हैं। जैसे दूध परवर्ती रस है। मूलत: यह भौतिक वस्तु ही हैं। इसी प्रकार पानी, इसी प्रकार अम्ल-क्षार आदि पुष्टि, पुष्टितत्व, पुष्टि रस, ये सब के सब मूलत: वस्तुएँ रासायनिक क्रियाकलापों में अपने को व्यक्त करते समय में गेहूँ, चावल, दाल, फल आदि रुपों में दिखते हैं । क्षार, अम्ल और पुष्टि रसों के निश्चित मात्रात्मक संयोग से जैसे – खट्टा, मीठा, तीखा आदि रूपों में मानव आस्वादन करता है। अस्तु, रसायन और प्राणकोषाओं से रचित सभी रचनाएँ प्राण कोषाओं के समान ही होते हैं, रचनाएँ भले विविध प्रकार की क्यों न हो।

इस क्रम में निरीक्षण कर निर्णय लेने का मूल मुद्दा यही हैं कि प्राण कोषा के मौलिक स्वरुप को समझना उससे रचित सभी रचनाओं को, उससे अधिक हुआ या नहीं हुआ इस बात का परीक्षण करना हैं। इस प्रक्रिया में यह पाया गया कि प्रत्येक प्राण कोषा में मौलिक अभिव्यक्ति, जो पदार्थ अवस्था में चिन्हित रूप में नहीं थी, वह श्वसन क्रिया और प्रजनन क्रिया है। यही प्राण कोषा का मौलिक कार्य है। प्राण कोषा से रचित यही कार्य देखने को मिलता हैं। रचना कार्य, रचना की प्रक्रिया, पदार्थावस्था में संपन्न हो चुकी है, जिसको मानव ने देखा। इस प्रकार पदार्थ अवस्था से अधिक कोई आचरण, प्राणावस्था में व्यक्त हुआ, वह है – श्वसन क्रिया और प्रजनन क्रिया। अस्तु, मूलत: प्राणकोषाएँ समान है।

मानव यह देख पा रहा है कि धरती पर प्राणावस्था की रचनाएँ अन्न-वनस्पतियाँ बड़े-बड़े झाड़, पौधे, लता, गुल्म आदि रुपों में दिखाई पड़ रही है। इसके अनंतर जीवावस्था में जितनी भी शरीर रचनाएँ है, वे सब प्राण कोषाओं से रचित हुई हैं और मानव शरीर भी इसी भाँति प्राण कोषाओं से रचित रचनाएँ हैं। मानव शरीर भी अपने स्वरुप में प्राण कोषा से अधिक नहीं होता। यह प्राण कोषा के समान ही होता हैं। प्राण कोषा में श्वसन क्रिया मौलिक हैं और रचनाओं के आधार पर अर्थात् जिन-जिन रचनाओं में भागीदारी करना हैं अथवा निर्वाह करना है वे-वे रचना विधि सूत्र, प्राण कोषाओं में समाए रहते हैं। रचना का मूल स्वरुप भौतिक रचना क्रम में देखा जाता हैं। इसी क्रम में प्राण-कोषाओं की रचना विधि प्राण कोषाओं में सूत्रित रहता हैं। ऐसी कोषाएँ जिस रचना में भागीदारी निर्वाह करती हंै, वे दो प्रजाति के होते हैं-

1.         बीजानुषंगी सूत्र,

2.         वंशानुषंगी सूत्र।

वंशानुषंगी सूत्र के अनुसार ही भूचर, नभचर, जलचर और वंश का सूत्र, उन-उन प्रजातियों के क्रम में, शुक्र-डिम्ब सूत्र के रूप में देखने को मिलता है। शुक्र-डिम्ब सूत्र के पहले जो कुछ भी प्राण कोषाओं से रचित शरीर कार्य करते रहा है, वे सब स्वेदज प्राणियों के रूप में देखने को मिलता हैं (स्वदेज प्राणी याने पसीने से पैदा हुआ)। इस विधि से शुक्र कीट और डिम्ब कीट प्रणाली के अनन्तर वंश प्रणाली का, उसके पहले वनस्पतियों में पदार्थ के आधार पर स्त्री पराग, पुुरुष पराग के आधार पर बीजों का होना और बीज से वृक्षों का होना देखा जाता हैं। अधिकांश रूप में इसी विधि से देखने को मिलता हैं। जीव शरीरों, मानव शरीरों में, डिम्ब शुक्र संयोग के आधार पर भ्रूण एवं भ्रूण के आधार पर संपूर्ण अंग अवयवों की रचना विधि देखने को मिलती हैं। इसकी रचना स्थली गर्भाशय में व्यवस्थित है। ऐसी शरीर रचना में मेधस रचना भी एक प्रधान भाग है। मानव शरीर रचना में ही समृद्घ पूर्ण मेधस रचना पाई जाती हैं।  हृदय आदि सभी प्रधान अंग-अवयवों सहित शरीर की संपूर्ण मौलिकता, श्वसन क्रिया करना ही उपलब्धि हैं। मूल प्राण कोषा में भी श्वसन क्रिया ही मौलिक पहचान का आधार रहा हैं। उसी प्रकार मानव शरीर रचना के उपरान्त भी उतनी ही मौलिकता देखी गई।

ऐसे शरीर को चलाने वाला जीवन ही होता हैं। जो आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा एवं प्रमाण के रूप में ही शरीर संचालन में प्रमाणित होता हैं। ऐसा जीवन शरीर को, जीवंतता प्रदान किये रखता हैं। आशा आदि के अनुुरुप इंद्रियाँ संचालित हो पाती हैं। इस विधि से, शरीर और जीवन को संयुक्त रूप में होना सहज रहा है। जीवन, अपने अनुसार, जागृति क्रम में जागृति पूर्णता को व्यक्त करने के लिए मानव शरीर को संचालित करता हैं। यह परंपरा में प्रमाणित है। (जीवन, शरीर को जीवंतता प्रदान करने के क्रम में भ्रमवश शरीर को, जीवन मानना आरंभ करते हुए, न्याय का याचक (न्याय पाने के इच्छुक) सही कार्य-व्यवहार करने को इच्छुक और सत्य वक्ता के रूप में होने कि स्थिति में, जीवन का आशय पूरा होना सहज नहीं हैं। अभी तक जागृत परम्परा न होने के कारण, आकस्मिक रूप में ही कोई-कोई जागृत हो पाते हैं। जिसके लिए अप्रत्याशित विधियों को अपनाना भी पड़ता हैं। परंपरा से, जीवन की प्रत्याशा, न्याय प्रदायिक क्षमता प्रमाणित होने के लिए दिशा, ज्ञान, दर्शन और आचरण परंपरा में प्रमाण के रूप में मिल जाए, उसके आधार पर प्रत्येक विद्यार्थी को संस्कार पूर्वक शिक्षा मिल जाए, यही मूल आवश्यकता है।) इसी के साथ सही कार्य-व्यवहार करने को प्रमाणों सहित अभ्यास संपन्न होने की संस्कार व्यवस्था, कार्य व्यवस्था सुलभ रूप में पंरपरा से सबको मिलने पर ही तथा सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य में अनुभव करने का मार्ग स्पष्ट हो जाने से ही मानव परंपरा का गौरव प्रमाणित होता हैं। ऐसी परंपरा को लाने के लिए, स्थापित होने के लिए, समाधानात्मक भौतिकवाद एक कड़ी हैं। और इस क्रम में यह तथ्य अवगाहन होना एक आवश्यकीय तत्व हैं कि जो जिससे बना रहता है अर्थात् जिससे रचित होता है चाहे कितनी भी बड़ी रचना हो, मूलत: जो वस्तु है वह समूची रचना उतनी ही हैं। जैसे – यह धरती निश्चित संख्यात्मक प्रजात्यात्मक परमाणुओं, अणुओं, कोषाओं से रचित रचनाएँ यह पूरी धरती उसी के समान ही है।

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