Spiritualism-Realization centric (अनुभवात्मक अध्यात्मवाद)

 
[* Original article in Hindi by A Nagraj]

Realization centric Spiritualism (अनुभवात्मक अध्यात्मवाद)

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  • which discusses spiritual-reality: discussion of the conscious, consciousness and all-pervasive-entity or space and their co-relation. Discusses the issues in spiritualism to date and how these get resolved. This is in the form of ‘realization-centric spiritualism’. Maps to darsana of human realization/experience.   Maps to  darsana of human realization  which provide its basis.
  • Contents:
    • Natural Evidence of Realization is the same in all humans.  Bondage and Freedom. Seer, Doer, Enjoyer. Epitome of Awakening.

अनुभवात्मक अध्यात्मवाद  का प्रयोजन 

*स्रोत: व्यवहारात्मक जनवाद, संस-२००२, पृ 169 से 176

मानवीय शिक्षा में अनुभवात्मक अध्यात्मवाद को अध्ययन कराया जाता है जिसमें अध्यात्म नाम की वस्तु को साम्य ऊर्जा के रूप में जानने, मानने, पहचानने की व्यवस्था है। सम्पूर्ण प्रकृति, दूसरी भाषा में सम्पूर्ण एक एक वस्तुएँ, तीसरी भाषा में जड़-चैतन्य प्रकृति, चौथी भाषा में भौतिक, रासायनिक और जीवन कार्यकलाप व्यापक वस्तु में सम्पृक्त विधि से नित्य क्रियाकलाप के रूप में वर्तमान है। इसे बोधगम्य कराते है यही सहअस्तित्व का मूल स्वरूप है।

 

इस मुददे को बोध कराना बन जाता है। बोध को प्रमाणित करने के क्रम में अनुभव होना सुस्पष्ट हो जाता है। जिससे अनुभवमूलक विधि से हर नर-नारी को जीने के लिए प्रवृति उदय होती है। इस तथ्य के आधार पर संज्ञानशीलता को प्रमाणित करना संभव हो जाता है। संज्ञानशीलता अपने आप में सर्वतोमुखी समाधान होना पाया जाता है। अनुभावात्मक अध्यात्मवाद सर्वतोमुखी समाधान के स्रोत के रूप में अध्ययन विधा से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। संवाद के लिए उल्लेखनीय मुददा यही हैं अनुभवमूलक विधि से जीना हैं या नहीं, समाधानपूर्वक जीना है या नहीं।

अनुभवात्मक अध्यात्मवाद : एक परिचय

* स्त्रोत = संस २, अध्याय २ 

सम्पूर्ण आदर्शवाद यथा अध्यात्मवाद, अधिदैवीवाद, अधिभौतिकवाद रहस्यमयता और कल्पनाशीलता के योगफल में वांग्मय रचित होता ही रहा। इन वांग्मयों का मूल आशय श्रेय के लिए आस्थावादी प्रवृत्ति में मानव मानस को परिवर्तित करना ही रहा । क्योंकि भय किसी को स्वीकृत रहता नहीं, प्रलोभन कल्पना के अनुरूप वस्तुओं को उपलब्ध करना संभव नहीं रहा। इसी आधार पर शरीर यात्रा के अनन्तर मोक्ष और स्वर्ग मिलने के आश्वासनों को आदर्शवादी विचार द्वारा विविध प्रकार से प्रस्तुत किया गया । यह स्वयं भी विविध समुदाय और उसकी अस्मिता का आधार बना । यह भी समुदायात्मक अस्मिता होने के आधार पर युद्घ से मुक्त नहीं हो पाया।

 

आस्थावादी मानसिकता से प्रेरित उक्त वांग्मय रहस्य से ही सम्पूर्ण आरंभ होना, रहस्य में सम्पूर्ण समा जाने की कल्पनामय विधि को प्रस्तुत किये । ये सब रहस्यमूलक, रहस्यमयी ईश्वर, अध्यात्म, देवताओं के आधार पर सृष्टि, स्थिति लय और स्वर्ग और मोक्षदाता के रूप में प्रतिपादित तत्कालीन रूप में एक आवश्यकता रही । उसी के अनुसार सम्माननीय लोग प्रस्तुत करते रहे अथवा प्रस्तुति के आधार पर सम्मानित हुए । इस दशक तक में और परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। भौतिकवादी विधि से मानव धरती को ही घायल करने के परिणाम स्वरूप धरती अपने शक्ल को जैसा बदलता गया भोग-मानसिकता के आधार पर जनसंख्या समस्या, पर्यावरण समस्या, आर्थिक और राजनैतिक समस्या इसी के साथ व्यापार और नौकरी की समस्या घर-घर, घाट-घाट, व्यक्ति-व्यक्ति में पीड़ा के रूप में देखने को मिली । ये दोनों (आदर्शवाद और भौतिकवाद) विचार मूलत: रहस्यमय ही है। इसके आधार पर ही यह सब समस्यात्मक कार्यक्रम को सुख या समाधान का स्त्रोत घोषित करता हुआ भ्रमित मानव परंपरा में से के लिए ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ को प्रस्तुत करना आवश्यक समझा गया ।

 

अनुभव का आधार मूलत: सह-अस्तित्व होना देखा गया है । सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है । अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है । अस्तित्व स्वयं ही सह-अस्तित्व है । अस्तित्व में, से, के लिए सह-अस्तित्व विधि से परमाणु में विकास, पूरकता विधि से होना देखा गया । इस विकासक्रम में जितने भी परमाणुएँ है वह सब भौतिक और रासायनिक कार्यकलापों में भागीदारी करता हुआ देखा गया है । परमाणु विकास पूर्वक गठनपूर्ण होना चैतन्य पद में संक्रमित होना पाया जाता है । यही चैतन्य इकाई ‘‘जीवन’’ आशा, विचार, इच्छापूर्वक कार्यरत है। हर मानव, जीवन एवं शरीर का संयुक्त रूप है । देखने का तात्पर्य समझना, समझने का तात्पर्य अनुभवमूलक विधि से संप्रेषित करना है ।

 

भौतिक-रासायनिक क्रियाकलापों में अनेक परमाणुओं से अणु रचना, अनेक अणुओं से छोटे-बड़े पिण्ड रचना का होना दिखाई पड़ता है । ऐसे पिण्डों के स्वरूप ग्रह, गोल, नक्षत्रादि वस्तुओं के रूप में प्रकाशमान है और इस धरती पर रासायनिक क्रियाकलापों अथवा रासायनिक उर्मि के आधार पर अनेक प्रजाति की वनस्पतियाँ, अनेकानेक नस्ल की जीव संसार दिखाई पड़ते है । इन सबके मूल में परमाणु ही नित्य क्रियाशील वस्तु के रूप में देखने को मिलता है । परमाणु में ही विकास होने का तथ्य हर परमाणु में विभिन्न संख्यात्मक परमाणु अंशों का होना ही आधार के रूप में देखा गया है । ऐसे परमाणु विकासक्रम से गुजरते हुए अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक कार्यकलापों को निश्चित व्यवस्था के रूप में सम्पन्न करते हुए प्रकाशमान रहता हुआ मानव देख पाता है ।