Philosophy of Human Realization (मानव अनुभव दर्शन)
[* Original article in Hindi by A Nagraj]
darsana of human-realization (anubhava); manav anubhav darshan (मानव अनुभव दर्शन)
- Covers the relationship of the conscious unit or ‘self’ with space and resolves the issue of the ‘observer’ or ‘ I’ in the ‘self’ and the occurrence of the self or conscious unit in existence and its awakening. Describes the experience of realization in coexistence (existence) and the pervasive, omnipotent nature of space….Happiness, Peace, Satisfaction and Bliss
- Contents:
- Human in the status of seer is endowed with evidence of awakening. Indications of Resolution and freedom from mental deformities. Pain from efforts itself is the yearning for rest. Root dispositions arise from latent impressions on the mind.
- Realization of Coexistence is the fundamental aim of every human. Program for universal goodness is to have occupation, behavior, thought, norms-orderliness, study, education system, mode of exchange and utilization that aid realization in coexistence.
अनुभव दर्शन
प्राक्कथन
यह अनुभव दर्शन सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व में अनुभूति और उसकी महिमा व गरिमा की अभिव्यक्ति है। अस्तित्व में सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास, विकास क्रम में विकास ही जीवन घटना एक यथार्थ स्थिति है। जीवन जागृति ही अनुभव योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा एवं प्रकाशन है।
इसी क्रम में मानव अस्तित्व में अविभाज्य वर्तमान होना, अनुभूत होता है। अस्तित्व में अविभाज्य अंगभूत मानव में ही जीवन जागृति की अभिव्यक्ति होने की संभावना नित्य समीचीन है। प्रत्येक मानव में, से, के लिए अनुभव-क्षमता समान रूप से विद्यमान है, इसी सत्यतावश अनुभवाभिव्यक्ति की पुष्टि सार्वभौम रूप में होती है। अस्तु अनुभव दर्शन को अभिव्यक्त करते हुए प्रामाणिकता का अनुभव कर रहा हूँ। प्रामाणिकता ही आनंद और अनुभव सहज अभिव्यक्ति है।
यही संप्रेषणा में समाधान, व्यवहार में न्याय और उसकी निरंतरता है। अनुभव जीवन में जागृति का द्योतक है। सम्पूर्ण क्रिया, चाहे वह जड़ हो अथवा चैतन्य हो, स्थिति में बल और गति में शक्ति के रूप में वर्तमान है क्योंकि स्थिति के बिना गति सिद्घ नहीं होती। इसी सत्यता के आधार पर, अनुभव ही स्थिति में आनन्द अर्थात् प्रामाणिकता, अभिव्यक्ति ही अर्थात् गति में प्रमाण तथा समाधान है।
अस्तु ! अध्ययनपूर्वक जीवन जागृति व अनुभव बल के अर्थ में यह अभिव्यक्ति सहज-सुलभ हुआ है। इसे मानव को अर्पित करते हुए परम प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ।
अमरकंटक – ए. नागराज
अध्याय – १
अब ब्रह्म जिज्ञासा है। ब्रह्म शब्द के अर्थ को स्पष्ट करना है।
‘‘मैं’’ और ‘‘मेरा’’ के संर्दभ में निभ्र्रान्ति अथवा असंदिग्धता में, से, के लिए ब्रह्म जिज्ञासा है।
चैतन्य इकाई के मध्यांश की संज्ञा ‘‘मैं ’’ है जो आत्मा के नाम से अभीहित है।
‘‘मैं ’’ से मन, वृत्ति, चित्त और बुद्घि का वियोग नहीं है। इनमें आत्मानुगामी बनने योग्य क्षमता की प्रस्थापन प्रक्रिया ही साधना है। इन चारों के अविभाज्य समुच्चय की संज्ञा ‘‘मेरा’’ और जागृति है।
यही जीवन जागृति है।
देह और देहकृत परिणामों का योग-वियोग प्रसिद्घ है जो मेरे द्वारा निर्मित था, स्वीकृत रहा है।
‘यह’ (ब्रह्म) व्यापक है, जबकि प्रत्येक क्रिया सीमित है। यह (ब्रह्म) सत्ता है।
‘यह’ अपरिणामी और अस्तित्व पूर्ण है, जबकि प्रत्येक क्रिया परिणाम पूर्वक स्थितिशील है।
‘यह’ शब्दों द्वारा पूर्णतया उद्घाटित नहीं है। केवल शब्दों के द्वारा (ब्रह्म) का निरूपण अपूर्ण है। ‘यह’ (ब्रह्म) की अप्रचुरता का नहीं अपितु शब्द की अक्षमता का द्योतक है। शब्द की उत्पत्ति तथा स्थिति पाई जाती है ‘यह’ ब्रह्म केवल साम्य और व्यापक, पूर्ण, अस्तित्व ही है। क्योंकि ब्रह्म व्यापक वस्तु ही है, जीवन में भी पारगामी है। शरीर में भी पारगामी है। जीवन को ही व्यवहार में न्याय और समाधान के रूप में प्रमाणित होना है, व्यवहार में प्रमाणित होने के क्रम में ज्ञान विज्ञान विवेक पूर्वक ही जिम्मेदारी, भागीदारी करना होता है। तभी ब्रह्म निरूपण पूरा संप्रेषित, अभिव्यक्त होना पाया जाता है। इस प्रकार परम सत्य रूपी अस्तित्व, व्यापक रूपी ब्रह्म में ही हर मानव प्रयोग, व्यवहार व अनुभवपूर्वक प्रमाणित होने की व्यवस्था है। मानव की अभिव्यक्ति में भाषा एक आयाम है। मानव अपने सम्पूर्णता के साथ ही पूर्ण वस्तु को अभिव्यक्त करता है। यही पूर्ण जागृति का प्रमाण है।
‘‘मैं ’’ निभ्र्रमित अवस्था में आत्मा हूँ। क्योंकि अनुभवमूलक विधि से ही जीवन जागृति का प्रमाण होना पाया जाता है। अनुभव मूलक विधि से बुद्घि, चित्त, वृत्ति और मन अभिभूतिं, अनुगमित रहना पाया जाता है। अर्थात् अनुभव के अनुरूप प्रतिरूप में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि, अनुप्राणित रहते हैं। अनुप्राणित रहने का तात्पर्य प्रेरित, अभिव्यक्त रहने से है। इस प्रकार निर्भ्रम अवस्था में ‘मैं ’ अर्थात् आत्मा होने का प्रमाण स्पष्ट होता है। इसे हर नर-नारी जागृतिपूर्वक प्रमाणित कर सकता है।
भ्रमित अवस्था में जीवन में अहंकार हूँ जो अजागृति और भ्रम का द्योतक है। भ्रमित बुद्घि ही अहंकार है। भ्रमित बुद्घि अपने तात्विक स्वरूप अर्थात् यथास्थिति स्वरूप में आत्मबोध रहित होना ही रहा, इस घटना का नाम अहंकार है। ऐसी घटना के कारण रूप में शोध और अनुसंधान की आपूर्ति रही। मनाकार को साकार करने के पश्चात भी दु:खी होने का कारण यथावत् रहा। मन: स्वस्थता को प्रमाणित करने व उसकी निरन्तरता में मानव परम्परा में प्रत्येक नर-नारी अनुभव मूलक विधि से आत्मबोध सहित प्रमाणित होना सहज है और आवश्यक है।
आत्म बोध और ब्रह्म अनुभूति के लिए सहज जिज्ञासा है। यह मानव परम्परा में जागृत शिक्षा संस्कार पूर्वक समाधानित सार्थक होना पाया जाता है।
‘यह’ ब्रह्मानुभूति सर्वमानव का ईष्ट है, क्योंकि अनुभव मूलक विधि से ही हर नर-नारी यर्थाथता, वास्तविकता, सत्यता को प्रमाणित करते हैं।
‘यह’ सबको सर्वदा सर्वत्र एक सा प्राप्त है। जबकि हर इकाई दूसरी इकाई के लिये प्राप्य है।
प्राप्त की अनुभूति और प्राप्य का आस्वादन एवं सान्निध्य प्रसिद्घ है।
आत्मा ब्रह्म से भिन्न होते हुये भी नेष्ट नहीं है क्योंकि प्रकृति कासर्वो? क्कृड्ढष्टलग् (विकासपूर्ण) जागृतिपूर्ण अथवा जागृतिशील अंश ही आत्मा है। यह चारों अवस्थाओं में प्रत्यक्ष है।
नेष्ट का तात्पर्य ब्रह्म (व्यापक) और आत्मा में चैतन्य ईकाई मध्यांश के रूप में होते हुए अनुभव योग्य क्षमता नित्य वर्तमान है। जीवन इकाई का विघटन नहीं होता। जीवन अमर है।
विकास भेद से इस पृथ्वी पर प्रकृति चार ही अवस्थाओं में दृष्टव्य है।
प्रत्येक इकाई प्रकृति का अभिन्न अंग है।
ज्ञानावस्था की निर्भम इकाई में जीवन सहज अमरत्व, शरीर सहज नश्वरत्व एवं व्यवहार में नियमों का ज्ञान है। अन्यथा वह उसके लिए बाध्य है।
प्रकृति (क्रियासमु?य) क्कîहृग्श्) एवं पुरूष (ब्रह्म) का सह-अस्तित्व अनादि काल से अनन्त काल तक है।
प्रकृति अनंत इकाइयों का समूह है।
प्रत्येक इकाई का विकास व ह्रास उसकी गति से उत्पन्न सापेक्ष शक्ति के अंतर्नियोजन तथा बहिर्गमन की प्रक्रिया पर आधारित है।
शक्ति का अंतर्नियोजन ही जागृति (विकास) है।
मूल इकाई का तात्पर्य परमाणु से है।
ब्रह्मानुभूति के योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता से संपन्न होने तक ही जागृति व भ्रम की संभावना बनी रहती है।
ब्रह्मानुभूति पूर्ण क्षमता, योग्यता एवं पात्रता से संपन्न होना ही भ्रम मुक्ति है। चैतन्य इकाई का जड़ की आस्वादनापेक्षा से मुक्त होना एवं प्रेममयता में अथवा सत्ता में अनुभूत होना ही मोक्ष है। दया, कृपा, करूणा सहज संयुक्त प्रमाण ही प्रेम है।
ब्रह्मानुभूति बोध मात्र का सहज आनंद ही पाँचों ज्ञानेन्द्रियों का आस्वादन सुख की उपेक्षा है जिसे ‘‘पर वैराग्य’’ की संज्ञा दी जाती है।
आनंद में निरंतरता ब्रह्मानुभूति का आद्यान्त लक्षण है, जो अधिक, न्यून व अभाव से मुक्त है। अनुभव सहज अभिव्यक्ति ही संपूर्ण भाव सम्पन्नता और प्रमाण है।
अजागृत मानव इकाइयों के जागृति में सहायक होना भ्रम मुक्त एवं जागृत मानव इकाइयों का स्वभाव है।
मोक्ष पद ही नित्य, अन्य पद अनित्य है।
मोक्ष पद में ही आनंद सहज निरंतरता है। अन्य किसी पद में नहीं।
आत्मा सहज अभीष्ट ब्रम्ह में अनुभव ‘‘यह’’ है। इसलिये, आत्मा अपने से अविभाज्य बुद्घि, चित्त, वृत्ति एवं मन से प्रभावित नहीं है।
आत्मा मध्यस्थ क्रिया और ब्रह्म मध्यस्थ सत्ता है।
सम-विषमात्मक क्रिया तथा शक्ति से आत्मा प्रभावित नहीं है।
आत्मा ही ‘‘मैं ’’ और ‘‘मैं ’’ में इष्ट ब्रह्म है।
ब्रह्मानुभूति सम्पन्न मानव ही जड़ प्रकृति की आसक्ति से मुक्त है जिसका जीवन भ्रम मुक्त अवस्था में है।
जीवनमुक्त इकाई (भ्रममुक्ति) में भूत, भविष्य की पीड़ा एवं वर्तमान का विरोध नहीं है। यही अन्य के सुधार के लिये व जागृति के लिये प्रेरणा स्रोत हैं।
‘यह’ में अनुभव ही परमानंद है।
‘यह’ में अनुभव की तृष्णा प्रत्येक मानव इकाई में विद्यमान है।
‘यह’ में अनुभव आत्मा को और बोध बुद्घि को होता है।
‘यह’ ही शून्य, ज्ञान और साम्यसत्ता है। इसलिए ‘यह’ समस्त ज्ञानात्मा में, से, के लिए अनुभव सहज क्रिया का आधार है।
इसे ‘’योति’ शब्द से भी जाना जाता है। ब्रह्मानुभूति में प्रकाश का अभाव नहीं है, बल्कि शाश्वत प्रकाश में अनुभव है। व्यापक में अनुभव ही शाश्वत प्रकाश है। क्योंकि सह-अस्तित्व स्पष्ट हो जाता है।
इसलिए ‘यह’ अनुभूति मूलक सत्यापन केवल साम्य लक्ष्य एवं कार्यक्रम की ओर इंगित है।
आप्तता ही प्रमाण सहित उपदेश (उपाय सहित आदेश), का कारण है।
जीवन मुक्त (भ्रममुक्ति) में आप्तता का अभाव नहीं है।
नित्यम् यातु शुभोदयम्