Philosophy of Human Action (मानव कर्म दर्शन)

 
[* Original article in Hindi by A Nagraj]

darsana of human-action (karma): manav karm darshan (मानव कर्म दर्शन)

  • Provides the basis for human-actions with other humans and the rest of nature.
  • Contents:
    • 9 kinds of human actions. Upasana or Worship, Awakening of the 3 Forces (shakti) of: Desire, Activity, Knowledge (ichha, kriya, gyan shakti), Different grades of Desires. The occurrence of the atom in existence, its structure, property, development progression and development in the atom.
    • Coexistence, Time, Count, Force, Power, Heat, Pressure, Flow, Magnetic Potential, Space, Direction, Distance, Dimension, Spread. Knowledge, Knower and Known. Seer, Doer and Enjoyer.

कर्म दर्शन

प्राक्कथन

यह कर्म दर्शन सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व में अनुभूति और उसकी महिमा व गरिमा की अभिव्यक्ति है। अस्तित्व में सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास क्रम, विकास क्रम में विकास ही जीवन घटना एक यथार्थ स्थिति है। जीवन जागृति ही अनुभव योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा एवं प्रकाशन है। इसी क्रम में मानव अस्तित्व में अविभाज्य वर्तमान होना, अनुभूत होता है। अस्तित्व में अविभाज्य अंगभूत मानव में ही जीवन जागृति की अभिव्यक्ति होने की संभावना नित्य समीचीन है। प्रत्येक मानव में, से, के लिए अनुभव-क्षमता समान रूप से विद्यमान है, इसी सत्यतावश अनुभवाभिव्यक्ति की पुष्टि सार्वभौम रूप में होती है। अस्तु, कर्म दर्शन को अभिव्यक्त करते हुए प्रामाणिकता का अनुभव कर रहा हूँ। प्रामाणिकता ही आनंद और अनुभव सहज अभिव्यक्ति है।

 

यही संप्रेषणा में समाधान, व्यवहार में न्याय और उसकी निरंतरता है। अनुभव जीवन में जागृति का द्योतक है। सम्पूर्ण क्रिया, चाहे वह जड़ हो अथवा चैतन्य हो, स्थिति में बल और गति में शक्ति के रूप में वर्तमान है क्योंकि स्थिति के बिना गति सिद्घ नहीं होती। इसी सत्यता के आधार पर, अनुभव ही स्थिति में आनन्द अर्थात् प्रामाणिकता, अभिव्यक्ति में ही अर्थात् गति में प्रमाण तथा समाधान है।

 

अस्तु ! अध्ययनपूर्वक जीवन जागृति व अनुभव बल के अर्थ में यह अभिव्यक्ति सहज-सुलभ हुआ है। इसे मानव को अर्पित करते हुए परम प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ।

 

अमरकंटक – ए. नागराज
चैत्र शुक्ल पूर्णिमा सोमवार प्रणेता
श्री संवत 2061 तदनुसार मध्यस्थ दर्शन ”सहअस्तित्ववाद”
दिनांक- 6-4-2004


 

 

कर्म दर्शन का प्रयोजन 

*स्रोत: व्यवहारात्मक जनवाद, संस-२००२, पृ 169 से 176

मानवीय शिक्षा में कर्म दर्शन का अध्ययन कराया जाता है जिसमें कायिक, वाचिक, मानसिक, कृतकारित, अनुमोदित भेदों से हर मानव को कर्म करने की सत्यता को बोध कराया जाता है। इससे मानव का विस्तार समझ में आता है। इससे स्वयं में विश्वास का आधार बनता है। मानसिक रूप में जितनी भी क्रियाएँ होती है वे सब कायिक और वाचिक मानसिक विधि से कार्यरूप में परिणित होती है। फलस्वरूप उसका फल परिणाम होता है फल परिणाम के आधार पर समाधान या भ्रमवश समस्या का होना पाया जाता है। जागृत परम्परा में किसी भी प्रकार की समस्या का कायिक या वाचिक मानसिक विधि से निराकरण स्वयं से ही निष्पन्न होना पाया जाता है।

 

इस तरह से स्वायत्तता का प्रमाण मिलता है। स्वायत्तता अपने में सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्नता ही है। जहाँ कहीं भी स्पष्ट रूप में देखने को मिलेगा समस्या का निराकरण स्वयं में ही हो जाने को स्वायत्तता बताई गयी है। कार्य का स्वरूप नौ प्रकार से बताया गया है। यह उत्पादन कार्य ,व्यवहार कार्य और व्यवस्था कार्य में प्रमाणित होना देखा गया है। सभी कार्य इन तीन तरीकों से ही सम्पन्न होना देखा गया है। इन सभी कार्यो का उद्देश्य एक है मानवाकांक्षा को सफल बनाना। यही मानव लक्ष्य होने के आधार पर कर्मतंत्र, व्यवहार तंत्र, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का तंत्र ये तीनो तंत्र मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही है। इसी का नाम कर्मदर्शन है।

 

कर्मदर्शन का सम्पूर्ण स्वरूप अपने में मानव जितने प्रकार के कार्य करता है, उसकी सार्थकता क्या है, कैसे किया  जाये। इन तीनो विधा में अध्ययन कराता है। इससे मानव जाति मार्गदर्शन पाने की अथवा व्यवस्था में जीने की प्रेरणा पाना एक देन है। अतएव कायिक, वाचिक, मानसिक क्रियाकलापो में संगीतमयता की आवश्यकता पर एक अ’छा संवाद हो सकता है। मानव की संम्पूर्ण संवेदनाएँ अर्थात

 

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के रूप में पहचानी जाती है जिसे हर सामान्य व्यक्ति पहचानता है। इसके नियंत्रण के लिए सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन, आचरण को संजो लेने का प्रमाण प्रस्तुत करना ही अभ्युदय समाधान है। इसका मुद्दा यही है कि कायिक वाचिक मानसिक रूप में एकरूपता चाहिये या नहीं। यदि चाहिये तो मध्यस्थ दर्शन सहअस्तितत्ववाद में पारंगत होना आवश्यक है। नहीं की स्थिति में इसकी जरूरत नहीं है।