Sociology-Behavioral (व्यवहारवादी समाजशास्त्र)

 
[* Original article in Hindi by A Nagraj]

Behavioural Sociology: vyavhaarvaadi samajshastra (व्यवहारवादी समाजशास्त्र)

  • in behavior, in the form of sociology, (behavioral sociology).Maps to darsana of human behavior and behavior-centric humanism which provide its basis.
  • Contents:
    • Various communal and social  failures in human tradition. Definition of Behavioral Sociology. Indication towards knowledge of jeevan (conscious unit).
    • Carrier of Humane Constitution. Fundamental Rights. Responsibility & Duties. Society and Norms. Evaluation.

व्यवहारवादी समाजशास्त्र का प्रयोजन 

मानवीय शिक्षा क्रम में व्यवहारवादी समाजशास्त्र को अध्ययन कराया जाता हैं। जिसमें मानव मानव के साथ न्याय, समाधान, सहअस्तित्व प्रमाणपूर्वक जीने के तथ्यों को बोध कराया जाता है। जिससे सहअस्तित्व बोध, जीवन बोध सहित व्यवस्था में जीना सहज हो जाता है। इसमें संवाद का मुद्दा हैं सहअस्तित्व बोध सहित जीना हैं या केवल वस्तुओं को पहचानते हुए जीना है।

 

मानव परंपरा में अनेक समुदाय और सामाजिक पराभव एवं वैभव सहज संभावना

* स्त्रोत = व्यवहारवादी समाजशास्त्र  संस १, अध्याय १ 

प्राचीन समय से अन्य शब्दों की तरह समाज शब्द भी प्रचलित रहा है। समाज शब्द का ध्वनि निर्देश तब बनता है जब इसके पहले एक निश्चित वस्तु (वास्तविकता) हो, उसे नाम चाहिए जैसे- हिन्दू समाज, मुसलमान समाज, ईसाई समाज, आदि। ये सब अपने को श्रेष्ठ मानते रहे हैं।

श्रेष्ठता का मूल तत्व पुण्य कार्यों को मानने, अनुसरण करने से है। पुण्य कर्म पूजा, आराधना, प्रार्थनाएँ है । इन पुण्य कर्मों, प्रतीकों, पुण्य स्थलियों में विविधताएँ है । इन सबके मूल में परम पावन वस्तु ‘ग्रन्थ’ है । ये सभी ‘ग्रन्थ’ अलग-अलग नामों से ख्यात है । इन सभी ‘ग्रन्थों’ में स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य का वर्णन है । इन पावन ग्रन्थों में जितनी भी वाणियाँ हैं, वे सभी ईश्वर, आका, देवदूत की वाणी अथवा आकाशवाणी माने गये हैं । यह सर्वविदित है ।

 

इस प्रकार समाज शब्द के पहले अवश्य ही कोई धर्म, सम्प्रदाय, जाति, समुदाय का योग होना देखा गया है ।

इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय मुद्दा यही है कि इन सभी पावन ग्रन्थों के अध्ययन से सर्वतोमुखी समाधान की अपेक्षा रही है । यह अपेक्षा अभी भी यथावत् है । यही अग्रिम शोध का प्रवर्तन कारण है अर्थात्् पुनर्विचार के लिए पर्याप्त मुद्दा है । ऐतिहासिक गवाही के अनुसार ये सब समाज, धर्म और रा’य का दावेदार है । प्राचीन समय से अभी तक (बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक) धर्म व रा’य के इतिहास के अनुसार मतभेद, युद्घ, कहानियाँ लिखा हुआ है । ये सब इतिहास वार्ता से सकारात्मक विधि से पता चलता है कि रा’य और धर्म पूरकता विरोधी हैं । जबकि मानव कुल में सर्वशुभ और उसकी निरन्तरता आवश्यक है । यह भी अनुसंधान का मुद्दा है ।

आदिकाल से सभी धर्म और रा’य जनसामान्य के सुख-चैन का आश्वासन ग्रन्थों और भाषणों में देते रहे हैं । धर्म व रा’य गद्दियाँ सदा ही सम्मान का केन्द्र रहे हैं । लोक सम्मान इनमें अर्पित होता ही आया है । बीच-बीच में विद्रोह भी घटित होता रहा व दोनों गद्दियों में चौमुखी असमानता देखने को मिलता है ।