Language (भाषा)
भाषा और मानव भाषा:
*स्त्रोत = कर्मदर्शन संस १, अध्याय ३ , भाग ६, मध्य
भाषा और मानव भाषा में जो महत्ताएँ हैं, उन तत्वों को यहाँ समझ लेना प्रासंगिक होगा। इसके मूल में मानव को एक जाति के रूप में पहचानना एक अनिवार्यता है- क्योंकि संघर्ष युग से समाधान की ओर संक्रमित होने के लिए मानव को एक जाति के रूप में पहचानना बहुत आवश्यक है। इसमें अर्थात् मानव को एक जाति के रूप में पहचानने में जो कठिनाइयाँ गुजरीं, उसे मानव के विभिन्न इतिहासों में स्पष्ट किया गया है। पुन: इस बात को ध्यान में लाना आवश्यक है कि किसी नस्ल, रंग, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग अथवा धर्म कहलाने वाले मत-मतान्तर अथवा मतभेदों से भरे हुए धर्म, पंथ, भाषा या देश के आधार पर सम्पूर्ण मानव को एक जाति के रूप में एक इकाई के रूप में पहचाना नहीं जा सका। मानव की एक जाति के रूप में, एक इकाई के रूप में पहचानने के लिए मूल तत्व सार्वभौम व्यवस्था ही है। जिस व्यवस्था का सूत्र मानवत्व ही है।
मानवत्व सहित मानव स्वयं व्यवस्था है; यही सर्वतोमुखी समाधान, सुख, परम सांैदर्य और मानव धर्म हैं। इस प्रकार मानव धर्म के आधार पर ही एक इकाई के रूप में मानव को पहचाना जा सकता हैं। इस प्रकार समाधान युग में संक्रमित होने के लिए मानव को एक इकाई के रूप में पहचानना अनिवार्य स्थिति है अथवा परम आवश्यकता हैं। इसी के साथ मानव भाषा को पहचानना भी आवश्यकता के रूप में अथवा अनिवार्यता के रूप में आई। बोलने का तरीका, ध्वनि, उच्चारण, मानव सहज कर्म स्वतंत्रता और कल्पनाशीलता के चलते अनेक प्रकार से अभ्यस्त हो सका है। मानव भाषा का अर्थ एक ही होता है अथवा सभी भाषाओं का अर्थ एक ही होता है। यह भाषा अस्तित्व में किसी वस्तु, कार्य, देश, काल, प्रक्रिया, परिणाम, स्थिति, गति का निर्देशित व इंगित होना हैं। अर्थात् भाषा का अर्थ अस्तित्व सहज वर्तमान ही होता है। जैसे कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, गधा, बैल, बाघ, भालू, धरती, पानी, आकाश, तारागण, सौर व्यूह, मानव आदि जितने भी नाम लेते हैं ये अभी तक भी सभी भाषाओं में इनके लिए प्रयुक्त ध्वनि गति तरंग और उसको प्रस्तुत करने की अंग अवयवों का उपयोग और तरीका- ये सब मिलकर भाषा का स्वरुप होता हैं। जैसे- हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के नाम हैं। इन भाषाओं से इंगित होने वाली वस्तुएँ अस्तित्व में हैं, अस्तित्व से हैं, अस्तित्व के लिए हैं। इस आधार पर पानी के लिए कोई भाषा बोली जाये उसका अर्थ वस्तु के रूप में पानी ही है। प्रत्येक वस्तु के लिए कोई भाषा अपने तरीके से प्रस्तुत हो उस अर्थ में मिलने वाली वस्तु अस्तित्व में ही है। इस प्रकार मानव किसी भी प्रकार से भाषा का प्रयोग करें उसमें अर्थ रुपी वस्तु अस्तित्व में होना प्रमाणित होता है। इस प्रकार कोई भी भाषा हो या कितनी भी भाषाएँ हों उसका आश्य या अर्थ अस्तित्व में किसी निश्चित वस्तु को निर्देशित करना ही है।
‘‘वाद : सम्पूर्ण अस्तित्व ही व्यक्त समझ में आने से है या अव्यक्त समझ में नहीं आने से है।’’ इस विवाद में मानव फँसा रहा। अस्तित्व समझ में नहीं आया है, क्योंकि अभी तक प्रचलित दोनों वादों (भौतिकवाद, अध्यात्मवाद) अस्तित्व में से किसी एक भाग को सर्वस्व मान कर अथवा वस्तु मानकर सारी कल्पनाओं को फैला दिया। ऐसी फैलाई हुई कल्पनाएँ खासी मोटी वांङ्गïमय बनकर मानव के सम्मुख रखी हुई हैं। ऐसे मोटे वाङ्गïमय से निपटना अर्थात् मूल रूप में परिशीलन करना हर व्यक्ति के बलबूते में नहीं है। इसलिए सर्वाधिक व्यक्ति किसी एक वाद के पीछे चल देते हैं। इस विधि से प्रत्येक व्यक्ति के आगे एक वांङ्गïमय या एक मानव ही रह जाता हैं। इससे और भी एक निश्चयात्मक समीक्षा समझ में आती है कि वांङ्गïमय की राशियाँ दो ही प्रजाति में है। एक प्रजाति के मूल में रहस्य ही रहस्य हैं जिसकी थाह पाना किसी के लिए संभव हुआ ही नहीं। दूसरी प्रजाति के मूल में अनिश्चयता और अस्थिरता जुड़ी है। हर व्यक्ति इस बात को समझ सकता हैं कि अनिश्चयता, अस्थिरता और रहस्य की लंबाई चौड़ाई को मापना किसी के लिए भी संभव नहीं हैं। इसलिए ये दोनों वाद मानव मानस के लिए ‘‘यही सत्य है’’- ऐसा अंगुलि न्यास कर सकें अथवा इंगित करा सकें ऐसा कोई ध्रुव वस्तु हाथ नहीं लगा।