Study-Upasana (अध्ययन रूपी उपासना)

 

अध्ययन रूपी उपासना(अभ्यास): – कर्मदर्शन, संस २००४

पृ ४९, ५०

मानव जीवन में उपासना* एक महत्वपूर्ण भाग हैं| उपासना ही मूल प्रवृत्तियों का परिमार्जन एवं परिवर्तन प्रक्रिया हैं| यही संस्कार एवं स्वभाव परिवर्तन भी हैं| (* उपासना = उपायों सहित लक्ष्य पूर्ती के लिए कीया गया क्रियाकलाप)

उपायपूर्वक सहवास पाना ही उपासना की अवधारणा हैं जिसके लिए परिश्रम (परिमार्जन श्रम) एवं अभ्यास हैं| अभ्यास एवं परिश्रम से ही स्थूल, सूक्ष्म, कारण की स्थितिवत्ता स्पष्ट हैं| जिससे तत्संबंधी पदार्थ, नियति-क्रम, शक्ति, महिमा, विभूती एवं नियम संबंधी अनुसंधान (अनुगमन पूर्वक अवधारणा) शोध प्रसिद्ध हैं| अनुसंधान, भौतिक, बौद्धिक, तथा आध्यात्मिक भेद से हैं| अनुसन्धान प्रक्रिया मनन, चिंतन संकल्प एवं अनुभूती के रूप में प्रत्यक्ष हैं|

स्थूल, सूक्ष्म, कारण (दृष्टा) का तात्पर्य देखने, समझने, प्रयोग करने, व्यवहार करने एवं अनुभव करने योग्य क्षमता के संपन्न होने से हैं|

….प्रवृत्तियों का परिमार्जन ही मानव जीवन का कार्यक्रम हैं| मानव में पूर्णता एवं परिमार्जनशीलता की अपेक्षा प्रत्येक स्थिती में पाई जाती हैं| पूर्णता ही पांडित्य है| पांडित्य से अधिक ज्ञान एवं निपुणता, कुशलता से अधिक व्यवहार एवं उत्पादन नहीं हैं| परिमार्जनशीलता उत्पादन व् व्यवहार में पाई जाती हैं| पांडित्य प्रबुद्धता, प्रबुद्धता ही शिक्षा एवं व्यवस्था हैं| प्रबुद्धता से परिपूर्ण होते तक उपासना अत्यंत उपयोगी हैं|

 

पृ ५६ से ७२ (इनमे से कुछ ही वाक्यों को लिया गया हैं| सम्पूर्ण के लिए पुस्तक देखें)

उपासना से सार्वभौमिक मूल्यों का अवगाहन करना ही प्रधान उपादेयता हैं|

समस्त उपासनाओं के मूल में लक्ष्य समय हैं वह अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था हैं| वह केवल सर्व मंगल ही हैं| क्योंकी सर्व मंगल की कामना के बिना स्वयं का मंगल सिद्ध नहीं हैं|

अन्य काम्य कामनाएं केवल मंगल्मयता की भास् प्रदायी है न की अनुभवदायी| इसलिए सर्वमंगल काम्नारूपी कार्यक्रम तःथा उसकी अनुसरण योग्य क्षमता पर्यंत मानव प्रयास करने के लिए बाध्य हैं| सही के प्रती भ्रमित रहना ही मत संप्रदाय एवं वर्ग का कारण हैं|

मत सांप्रदायिक वर्गीयता में आर्थिक वर्गीयता एवं आर्थिक वर्गीयता में मत-सांप्रदायिकता समाई हुई हैं|

इसका निराकरण स्पष्टतया सार्वभौमिक रूप में पाई जाने वाली मानवीयतापूर्ण पद्धति से “नियम-त्रय” (बौद्धिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक) के आचारंपूर्वक ही आर्थिक एवं सांप्रदायिक वर्ग-भावनाओं से मुक्त होने की सम्भावना एवं मुक्ती हैं| इसी में समस्त वर्ग-भावना विलीन हो जाती हैं| इसीलिए –

उपासना की उभय पद्धति का अभीष्ट समझदारी जागृति पूर्वक सार्थक होता हैं जो जागरण हैं|

मानव में शक्तियां क्रिया, इच्छा एवं ज्ञान शक्ति ही हैं, जो उनकी अर्हताएं हैं| अर्हताएं प्रत्येक इकाई की जागृतिशीलता, जागृति पर आधारित हैं|

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों द्वारा शक्तियों का अपव्यय न होना, साथ ही सदव्याय होना ही क्रिया शक्ति की जागृति हैं| सदव्यय एवं अपव्यय का निर्धारण मानवीयता के सीमा में “नियम-त्रय” के रूप में हैं|

अंत:करण मूल प्रवृत्त्याँ अर्थात आशा, विचार, इच्छा व् संकल्प का अपव्यय न होना ही सद्व्यय हैं| यही इच्छा शक्ति का जागरण हैं|

सम्यक-बोध एवं अनुभूती पूर्णता ही ज्ञान प्रकटन क्षमता है| यही ज्ञानशक्ति का जागरण अथवा पूर्ण जागरण हैं| यह “जागृति-त्रय” मानवीयता एवं अतिमानवीयता में प्रत्यक्ष हैं| यही मानव जीवन की चरमोत्कर्ष उपलब्धि हैं| सशक्त उपासना के उपादेयता यही हैं, यही समग्र मानव की कामना हैं| यही सर्वमंगल हैं| इसीलिए,

जीवन-जागृति का प्रत्यक्ष स्वरूप ही विवेक पूर्ण विज्ञान का प्रयोग है। यही सतर्कता, अखण्ड सामाजिकता, प्रबुद्घता, निर्विषमता, सह-अस्तित्व, शिक्षा, विधि, व्यवस्था, सभ्यता, संस्कृति, बौद्घिक समाधान, भौतिक समृद्घि और जीवन जागृति की निरन्तरता है।

पूर्ण जागृति पर्यन्त प्रत्येक मानव इकाई प्रयास एवं उपासना के लिये बाध्य है। इसी के फलस्वरूप मूल प्रवृत्तियों का परिमार्जन होता है, जिसके कारण विशिष्ट और शिष्ट मानसिकता एवं विचार चिन्तन-बोध क्षमता, अनुभवपूर्णता प्रत्यक्ष होती है। यही श्रेष्ठ उपासना की उपलब्धियाँ हैं।

… इसलिये समान के साथ व्यवहार करने के लिये बाध्य हुआ है। यही सामाजिकता की बाध्यता है। यही मानव जीवन की गौरव और गरिमा है। यही गरिमा समान के साथ व्यवहार, अधिक जागृति के लिये अभ्यास करने के लिये प्रेरणा है। यही वास्तविक उपासना है।

विवेक अर्थात् मानव लक्ष्य और वैराग्य अर्थात् समृद्घि ही उपासना का प्रत्यक्ष फल है जिसमें सामाजिकता स्वाभाविक रूप से समाहित रहती है।

वैराग्य का परावर्तन ही असंग्रह (समृद्घि), उदारता एवं दया है। भौतिक समृद्घि में उदारता एवं दया के मौलिक मूल्यों का अनुरंजन ही सामाजिकता का प्राण तत्व है। यही सामाजिक संगीत है। इसी के लिये मानव तृषित है। विवेक ही बौद्घिक समाधान एवं सामाजिक मूल्यों को निर्वाह पूर्वक प्रकट करता है, इसलिये

विवेक वैराग्य ही परोक्ष ज्ञान (सद्व्यवहारिक ज्ञान) का प्रधान लक्षण है। अनुभव ही परोक्ष ज्ञान की अन्तिम स्थिति है। इसके पूर्व अनुमान अधिकार ही प्रसिद्घ है। वस्तुस्थिति, वस्तुगत, स्थिति सत्य में ही अनुभव है।

परोक्ष ज्ञान के बिना नित्यानित्य, युक्तायुक्त, न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य,इष्टानिष्ट, दृष्टादृष्ट तथा परोक्ष ज्ञानाधिकार सिद्घ नहीं होता है।

…नित्यानित्य ज्ञानाधिकार के बिना मनुष्य में स्वधर्म के प्रति निष्ठा नहीं पाई जाती है। मानव धर्म ही सुख,  सुख ही न्यायपूर्ण आचरण, न्यायपूर्ण आचरण ही मानवीयतापूर्ण सीमा एवं ‘‘नियम-त्रय’’ का पालन है। यही मनुष्य का स्वधर्म है। मानव सुख धर्मी है।

मर्यादा विहीन इकाई नहीं है। जैसे जीवों में स्वभाव मर्यादा, वनस्पतियों में गुण मर्यादा एवं पदार्थों में रूप मर्यादा-भंग नहीं होती है। यही उनकी गरिमा है। इसी प्रकार मानव में सुख ही धर्म है, धर्म ही मर्यादा है। यही उनकी गरिमा एवं विश्वास है।मर्यादा का प्रत्यक्ष रूप ही विश्वास है।

‘‘विश्वासविहीन सम्बन्ध एवं सम्पर्क में सुख नहीं है।’’ सम्बन्ध एवं सम्पर्क विहीन मनुष्य नहीं है। यही बाध्यता स्वधर्म के लिये है। इसके पालन में जो अक्षमता, अयोग्यता एवं अपात्रता है – वही दुख, क्लेश, समस्या और अजागृति है।

स्वधर्म में सम्पन्नता एवं पालन करने योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता से परिपूर्ण होते तक ज्ञानार्जन करने के अर्थ में अध्ययन रूपी उपासना का अभाव नहीं है।

मानव के स्वधर्म की सीमा में ही मत, सम्प्रदाय, वर्ग तिरोहित हो जाते हैं। यही समर्थ उपासना की प्रत्यक्ष गरिमा है। ‘‘यही मांगलिक है।’’ साध्य, साधक, साधन, इन तीनों का उपासना में समाहित रहना अनिवार्य है। इनकी एक सूत्रता ही उपासना की सफलता  है अन्यथा असफलता है। प्रत्येक स्थिति में प्राप्त शक्ति व साधनों का सदुपयोग करना ही उसकी अग्रिम जागृति है। यही उपासना है।

इन्द्रिय कार्यकलाप तथा इन्द्रियों का कार्यक्षेत्र ही अपरोक्ष ज्ञान की सीमा है। इस व्यापार में चतुर्विषय सीमान्तवर्ती सिद्घियाँ हैं। इसके अतिरिक्त और उपलब्धियाँ इसमें नहीं है।

विषयों की सीमा में मनुष्य सीमित नहीं है क्योंकि उसमें चार आयाम प्रसिद्घ हैं।

मनुष्य ही उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति सम्पन्न होने के लिये बाध्य है। यही आवश्यकता, अवसर, संभावना एवं व्यवस्था है।

संयमतापूर्वक ही मनुष्य के द्वारा प्रत्येक परिप्रेक्ष्य में किये गये क्रियाकलाप में से गरिमापूर्ण वैभव प्रकट होता है। जैसे-

सत्यबोध सहित सत्य बोलने का अभ्यास करने से भय अविश्वास की निवृत्ति, हर्ष तथा उत्साह का उदय होता है।

…..

विश्व के प्रति मूल्य भाव की प्रतिष्ठा से इष्ट और साधक के मध्य विषमता का अभाव होता है…

शब्द के अर्थ अर्थात् मन्त्रार्थ का तदरूपतापूर्वक स्मरण करने के अभ्यास से उसका अर्थ एवं स्वभाव गम्य होता है। सभी सार्थक शब्द मन्त्र है।

अधिक जागृत में समर्पण* से अभिमान व अहंकार का उन्मूलन तथा विद्या व सरलता का उदय होता है। (* अधिक जागृत = समझाने वाला, प्रमाणित व्यक्ति, गुरु, अभ्यास-अध्ययन क्रम में गुरु की आवश्यकता हैं )

शरीर संवेदना संयत रहने से मन की पवित्रता, मन की पवित्रता से मनोबल का लाभ होता है।

स्व-शरीर मोह नष्ट होने से संसार के प्रति मोह दूर होता है। सर्वशुभरूपी आप्त कामना पूर्ण बुद्घि से ही विश्व के प्रति उदारता, दया, कृपा, करूणा का प्रसवन तथा विश्व की आधारभूत सत्ता में ज्ञान एवं अनुभव होता है।

ज्ञान, विज्ञान, विवेक रूपी स्वत्वहीनता ही असंयमता, मनोदौर्बल्य, मूल प्रवित्तियों की अपरिष्कृति, राग, मोह, लोभ, अविवेक, अहंकार, अभिमान, देहात्मवादी प्रवृत्ति, दुराचार, संघर्ष, असह-अस्तित्व, सशंकता, द्वेष तथा तपोहीनता है।

संयमता के बिना बौद्घिक मूल प्रवृत्तियों की परिष्कृति, बुद्घिबल, सामाजिक मूल्यों की अनुभूति, चैतन्य क्रिया का दर्शन, समाधान और संयमता सिद्घ नहीं होती है।

उपासना के लिये वातावरण का महत्व अपरिहार्य है, जिसमें से मनुष्य कृत वातावरण ही प्रधान है, जो शिक्षा व्यवस्था के रूप में ही है।

मानवीयता की सीमा में व्यवहार ‘‘नियमत्रय’’ का आचरण ही व्यक्तित्व है। ऐसे व्यक्तित्व के निर्माण में सक्रिय योगदान ही कर्त्तव्य है। यही पुरूषार्थ है। यही प्रबुद्घता है।

आशा भेद से उपासना, उपासना भेद से अनुभव, अनुभव भेद से अनुमान, अनुमान भेद से उपासना भेद है। यही उपासना में वैविध्यता का कारण है। यह वैविध्यता सार्वभौम आचरण की सीमा में विलय होने के लिये बाध्य है।

मानव के लिये सहज समर्थ उपासना एक अनिवार्य कार्यक्रम है जो अमानवीयता से मानवीयता, मानवीयता से अतिमानवीयता की प्रतिष्ठा स्थापित करती है।

सह-अस्तित्व में अनुक्षण-विक्षण-वृत्ति से सहजावृत्ति होती है।

क्षण-क्षण मध्यस्थ व्यवधान का तिरोभाव ही अनुक्षण-विक्षण वृत्ति है।

अनुक्षण का तात्पर्य प्रत्येक क्षण में लगातार सहअस्तित्व चिन्तन, विचार क्रम में प्रमाणिकता का सहज प्रमाण प्रस्तुत हो जाता है, यही सहजावृत्ति है।

सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति की सम्पृक्तता का ज्ञान ही (पूर्णदर्शन) क्षणक्षण मध्यस्थ व्यवधान का तिरोभाव है। यही भ्रमित भाव अभाव का तिरोभाव है। यही सहज प्रतिष्ठा अवस्था है।

सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति का ज्ञान न होने से और अनुभवमूलक ज्ञान न होने से भय और प्रलोभनवश समस्त भ्रममूलक कार्य-व्यवहार, सोच-विचार को बनाये रखता है। यही सम्पूर्ण क्लेश का कारण है।

काल, क्रिया की अवधि है। इसी अवधि में आरोपित विचार व इच्छा ही असहज एवं निरारोपित विचार व इच्छा ही सहज है।

मानव इकाई में ही जागृति के क्रम में भी निरारोपण क्षमता पाई जाती है। भ्रमवश आरोपण होता है।

जो जैसा है उससे अधिक, कम अथवा नासमझना ही आरोपण है। यही अज्ञान है। यही अक्षमता है। यही भ्रम है।

सत्ता में सम्पृक्त जड़चैतन्यात्मक प्रकृति की स्थितिशीलता व सत्ता सहज पूर्णता के सम्बन्ध में ही आरोप या निरारोण क्रिया सम्पन्न होना पाया जाता है।

प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव एवं धर्म समाहित है। यही उसकी कार्यवत्ता है। इसी की गणना, परिमाण, प्रयोजन ज्ञान ही प्रकृति के प्रति निभ्रमतापूर्ण क्षमता का द्योतक है। यही प्रमाण है। यही सहजता है।

सम्पूर्ण क्रियायें मूलत: रूप और शब्द भेद में दृष्टव्य हैं।

पूरकता के बिना इकाई में अग्रिमता नहीं है।

पूर्णता पर्यन्त इकाई पूरकता, उपयोगिता के लिए प्रवृत्त है।

पूरकता ही इकाई में ह्रास व विकास के लक्षणों को प्रकट करती है। यही प्रधान उपादेयता भी है।

इकाई में प्रकट होने वाले शब्दादि गुण ही सापेक्ष शक्तियाँ हैं। गुणविहीन इकाई नहीं है। इसलिये

मनुष्य में सहज कामना का अभाव नहीं है। सहजता ही धर्म है। यही सुख, शान्ति, संतोष एवं आनन्द है। यही धारणा को स्पष्ट करता है, जो प्रत्यक्ष है।

प्रत्येक कर्म-फल ही मनुष्य के सुख का पोषक व शोषक सिद्घ हुआ है।

सत्य और सत्यता के अनुभवक्रम में व्यवधान नहीं है क्योंकि अनुभवक्रमव्यवस्था सघन है। जागृति की कड़ियाँ सघन हैं। इसलिये-

सहजता आरोप से मुक्त है। आरोप ही न्यूनातिरेक मूल्यांकन है। स्वयं की न्यूनातिरेक मूल्यांकन क्रिया ही असहजता है।

स्वयं का मूल्यांकन ‘‘तात्रय*’’ की सीमा में होता है।

‘‘तात्रय’’ की सीमा में हो ऐसा मनुष्य इस पृथ्वी पर नहीं है। (* ता-त्रय  =मानवीयता, देवमानवीयता, दिव्यमानवीयता )

धर्म का वियोग नहीं है क्योंकि यह धारणा है। इसका प्रत्यक्ष रूप ही मानवीयता एवं अतिमानवीयता पूर्ण आचरण है जो सहजता का प्रधान लक्षण है। इसलिये –

अमानवीयता पूर्ण आचरण ही असहज है। इसलिये

प्रकृति अपने में सम्पूर्णता के साथ सीमित है। यही अवधि है। इसलिये पूर्ण में समायी है। यही पूर्ण में सम्पूर्णता सहज सह-अस्तित्व है। यही सम्पूर्णता का नित्य वर्तमान और ज्ञानावस्था के मानव में पूर्णता का प्रसव है। यही जागृति के लिये बाध्यता है।

मनुष्य के बौद्घिक क्षेत्र में पायी जाने वाली अनावश्यक कल्पनाओं का निराकरण ही दर्शनक्षमता में गुणात्मक परिमार्जन है। यही गुणात्मक संस्कार-परिवर्तन, शिक्षा एवं जीवन के कार्यक्रम का योगफल है।

दर्शन-क्षमता का उत्कर्ष ही अनुक्षण विक्षण है। यही मध्यस्थ क्रिया की क्षमता है। मध्यस्थ क्रिया ही दृष्टा है।

मध्यस्थ क्रिया का चरमोत्कर्ष ही सम व विषम क्रिया का पूर्ण नियंत्रण है। यही क्षमता क्षणक्षण मध्यस्थ व्यवधान से मुक्ति है।

संस्कार पूर्वक ही बौद्घिक व्यवस्था-प्रक्रिया -क्षमता के आनुषंगिक है मनुष्य सहज ऐषणा एवं विषयों की सीमा में प्रवृत्ति व निवृत्ति पूर्वक व्यस्त होना पाया जाता है जो प्रत्यक्ष है।

आत्मा (मध्यस्थ क्रिया) के आनुषंगिक बौद्घिक प्रक्रिया व व्यवस्था में सत्य-संकल्प एवं सत्य-कल्पनापूर्ण मानसिकता की स्थिति पाई जाती है जो प्रसिद्घ कर्म उपासना ज्ञान पूर्ण है। यही क्षमता देव व दिव्य मानवीयता को प्रकट करती है। यही पूर्ण जागृति है।

ऐषणासक्त बौद्घिक व्यवस्था में मानवीय तथा देव मानवीय स्वभाव प्रकट होता है। उसी के अनुरूप में मानसिक वातावरण की स्थितिशीलता है। ऐसी क्षमता ही सामाजिक चेतना एवं सतर्कता से परिपूर्ण पायी जाती है।

विषयासक्त बौद्घिक व्यवस्था व प्रक्रिया में अमानवीयतापूर्ण आचरण सम्पन्न होता है जो पाशविकता तथा दानवीयता के रूप में दृष्टव्य है। इनमें उसी के योग्य मानसिकता पाई जाती है। यही लुप्तसुप्त कल्पना का कारण है। यही अजागृति तथा अपूर्ण सतर्कता का द्योतक है।

श्रेय (जागृति) जिज्ञासु होने पर ही लुप्तसुप्त कल्पनायें परिमार्जित होती है। फलत: दानवी व पाशवी प्रवृत्तियों से उदासीनता स्थिर होती है। साथ ही विवेकोदय होता है।

श्रेय जिज्ञासा का उदय स्वसंस्कार, विधिविहित अध्ययन तथा उसके अनुकूल वातावरण में होता है।

विधि-विहित-अध्ययन निपुणता, कुशलता व पांडित्य ही है।

अध्ययन एवं वातावरण ही संस्कार परिवर्तन के लिये समर्थ व्यवस्था है, जिसका गुणात्मक परिवर्तन ही आत्मबोध के लिये जिज्ञासा है।

आत्मबोध ही सत्य जिज्ञासा का प्रधान लक्षण है। इसलिये-

अवधारणा ही अनुगमन तथा अनुशीलन के लिये प्रवृत्ति है, जो शिष्टता के रूप में प्रत्यक्ष होती है।

प्रगति के लिये अवधारणा अनिवार्य है।

जागृति के लिये अवधारणा एवं ह्रास के लिये आसक्ति प्रसिद्घ है। यही क्रम से निवृत्ति प्रवृत्ति है।

अवधारणा ही सद्विवेक है। सद्विवेक स्वयं में सत्यता की विवेचना है जो स्पष्ट है। मूलत: यही शुभ एवं मांगल्य है।

अनुभव की अवधारणा सत्य बोध के रूप में; अवधारणा (सम्यक-बोध) ही सत्य-संकल्प है। यही परावर्तित होकर शुभकर्म, उपासना तथा आचरण के रूप में प्रत्यक्ष है। इसी का परिवर्तित मूल्य ही धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा और करूणा के रूप में प्रत्यक्ष है।

सत्य में ही सम्यकबोध होता है। असत्य ही कल्पना एवं भास होता है।

हीनता, दीनता और क्रूरता से युक्त कर्म अशुभ होता है।

स्व-मूल्य ही प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्तुशि है। इसलिये

असत्य, अभिमान तथा दर्प से मुक्त; सत्य, सरलता, सहजता तथा सौजन्यता से युक्त कर्म उपासना श्रेय कारक है।

सत्य कामना की निरन्तरता से लक्ष्य की अवधारणा होती है। ज्ञान में ही उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति प्रत्यक्ष है।

ज्ञान, विवेक सम्मत विज्ञान ही है जो पूर्ण है।

सत्य और सत्यता में दृढ़ता ही श्रेयमय जीवन है।

सत्यानुभूति ही सबका अभीष्ट है।

शरीर से सम्पन्न होने वाले समस्त क्रियाओं का संचालन मन ही मेधस द्वारा करता है। मेधस से सभी नाड़ियाँ नियंत्रित हैं।

शब्द का मूल रूप मन ही है। मेधस पर मन आस्वादन एवं स्वागत भावपूर्ण तरंगों का प्रसारण, संचालन नियंत्रण करता है उसके मूल में शब्द ही है।

जागृति की ओर गति हेतु नियंत्रणात्मक शब्द ही मंत्र है। लक्ष्यप्राप्तियोग्यक्रम प्रक्रिया ही नियंत्रण है। शब्द में जो भाव (मूल्य) है वही उसका अर्थ है। सार्थक शब्दों का अर्थ ही जागृति की ओर गति है क्योंकि शब्द का अर्थ अस्तित्व में वस्तु है।

भाव में जो उपयोगपूर्ण अनिवार्यता है वही उसका महत्व है। उपयोग पूर्ण अनिवार्यता में जो निश्चित दिशा है वही उसकी दृढ़ता है। यही सम्यक संकल्प है। सम्यक संकल्प में जो पूर्णता है वही अनुभव है जो क्रम से मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि और आत्मा में पाई जाने वाली सुसंस्कृत मौलिक क्रियायें है। भाव का तात्पर्य होने से है।

….

शक्तित्रयजागरण (इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति तथा ज्ञान शक्ति जागरण) के बिना त्याग (भ्रममुक्ति) और प्रेम प्रमाणित नहीं होता।

……