Study-dialogues (अध्ययन – संवाद)

 

‘संवाद’ पुस्तक से सूचना (भाग १ & भाग २):

(कुछ ही वाक्यों को लिया गया हैं, पूरे सन्दर्भ के लिए पुस्तक देखें) 

समझने की प्रक्रिया:

संवाद, भाग-२ (प्रकाशाधीन)

पृ ९

..शब्द का अर्थ वस्तु हैं| वस्तु बोध जब हो जाता हैं, तब हमारा अध्ययन हुआ| यदी वस्तु बोध नहीं हुआ हैं, तो शब्द तक ही हम रह जायेंगे|

“मैं समझ सकता हूँ, ओर जी कर प्रमाणित कर सकता हूँ” जब तक यह स्वयं में भरोसा नहीं बनता हैं, तब तक हम शब्द तक भी नहीं पहुँच पायेंगे| आदमी ही एकमात्र वस्तु हैं जो समझ सकता हैं, प्रमाणित हो सकता हैं| इस बात को हम जब तक उभरेंगे नहीं तब तक शब्द भी आदमी ढंग से सुनेगा, ऐसा भरोसा कीया नहीं जा सकता|

इस तरह अध्ययन के तीन चरण हैं:

१)       परस्परता में विश्वास (*समझाने वाले व्यकती, गुरु के साथ) 

२)     शब्द का श्रवण (*लिखा हुआ, कहा हुआ भाषा से) 

३)     शब्द से इंगित वस्ति का बोध (*इसके मूल/पूर्व में मनन प्रक्रिया समाया हैं)

इन तीन चरणों में अध्ययन सार्थक होता हैं| इनमे से किसी भी चरण को छोड़ा नहीं जा सकता|

वस्तु बोध (*अवधारणा) होने के बाद ही अनुभव सहज प्रमाणित होने के लिए प्रवृत्ति, उसके लिए संकल्प, संकल्प के बाद व्यवहार में प्रमाणीकरण होता हैं|

इस तरह मैंने अध्ययन के तीन चरणों को देखा हैं|

(आवरी आश्रम, १९९८)

पृ १३, १४

हर वस्तु को सह अस्तित्व में “जीने” के अर्थ में समझना होगा; और बीच में “अनुभव” नाम का एक क्षण होता ही हैं| जीने के अर्थ में सुनने पर अनुभव होता ही हैं (* इसके मूल में मनन-अवधारणा समाया हैं) | तर्क की आवश्यकता अब कम हो गयी, जीने के अर्थ में हर बात को अब समझेंगे| स्वीकारना, समझना और जीना अलग अलग नहीं हैं|

समझने को लेकर क्या हम समझ गए हैं, और क्या समझना अभी शेष है, इस पर चला जाये| समझने के मुद्दे पांच ही हैं

१)       सह अस्तित्व क्यों हैं, कैसा है को समझना

२)     सह अस्तित्व में विकासक्रम क्यों हैं, कैसा हैं को समझना

३)     सह अस्तित्व में विकासक्रम क्यों हैं, कैसा है को समझना

४)     सह अस्तित्व में जागृति क्रम क्यों हैं, कैसा है को समझना

५)     सह अस्तित्व में जागृति क्यों हैं, कैसा हैं को समझना

रचना क्रम में विकास की सर्वोपरी स्तिथि में है मानव शरीर| परमाणु में विकास की सर्वोपरी स्थिती हीं जीवन| मानव शरीर के घटित होने के लिए पीछे के सभी रचनायें हैं|

अस्तित्व में प्रकटन क्रम में चार अवस्थाओं का प्रगटन हुआ| हर अवस्था की परंपरा बन्ने की विधी रही| इसी क्रम में मानव का प्रगटन धरती पर हुआ| “मानव शरीर एक परंपरा के स्वरूप में बने रहने के लिए धरती पर प्रगट हुआ|” यदी यह बात आपको मूल रूप में समझ आता हैं तो आपमें “जीने की इच्छा” बन जाते हैं| “मुझे जीना चाहिए!” यह आप में निश्चयन हो जाता हैं| फिर मानव परंपरा के “जीने” के जो “समझ”  की आवश्यकता है उसका “स्वीकार” करने के लिए आप प्रयास रत होते हो|

स्वीकारना, समझना, और जीना अलग अलग नहीं हैं|

(जनवरी २००७ अमरकंटक) 

पृ १७

…..शब्द के द्वारा मान्यताके रूप में जो हम स्वीकारे, उसका स्वयं में परिशीलन (निरीक्षण, परीक्षण) [* मनन प्रक्रिया द्वारा] होने पर चित्त मिएँ साक्षात्कार होता हैं| साक्षात्कार के फलन में बोध, बोध के फलन में अनुभव, अनुभव के पहला में अनुबह्व प्रमाण बोध, जिसके फलन में चिंतन पूर्वक, तुलन पूर्वक प्रमाणित करने योग्य हो जाते हैं|

सह अस्तित्व का प्रस्ताव स्मरण में आने के बाद इसको समझना और प्रमाणित करना शेष रहता हैं| प्रमाण के साथ ही समझ पूरा होता है| अनुभव के बिना समझ पूरा होता नहीं| अनुभव के बिना प्रमाण नहीं है|

चित्त के पहले शब्द है| चित्त के बाद अर्थ है| अर्थ के साथ तैनात होने पर हमको तुरंत बोध होता हैं| बोध होने पर तत्काल चित्त में हुए साक्षात्कार की तुष्टी हो जाती है|

आस्था या माननेके रूप में हम शुरू करते हैं, अनुभव प्रमाण के आधार पर हम प्रमाणित हो जाते हैं| यह जीवन में होने वाली प्रक्रिया है| …..

(अगस्त २००६, अमरकंटक) 

पृ ३२, ३३

...मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन विधि में परिभाषा से आप शब्द के अर्थ को अपने कल्पना में लाते हैं| परिभाषा आपके कल्पनाशीलता के लिए रास्ता हैं| उस कल्पना के आधार पर अस्तित्व में वस्तु को आप पहचानने जाते हैं| आपकी कल्पनाशीलता वस्तु को छू सकती हैं| अस्तित्व में वस्तु को पहचानने पर वस्तु साक्षात्कार हुआ| वस्तु के रूप में वस्तु साक्षात्कार होता हैं, शब्द के रूप में नहीं| साक्षात्कार की वस्तु सहअस्तित्व सरूपी अस्तित्व ही हैं| सह अस्तित्व साक्षात्कार होना ही मानव में कल्पनाशीलता का प्रयोजन हैं….

…सारी देरी जब तक कल्पना में हैं, तब तक ही हैं| अनुभव में कल्पनाशीलता पूर्वक किया गया अनुमान विलय हो जाता हैं| अनुभव ही फिर प्रभावी हो जाता हैं| पूरी जीवन अनुभव मूलक हो जाता हैं|

इस तरह अध्ययन विधी से जीवन में “समझ” प्राप्त होती हैं| यह समझ जीने में प्रमाणित होती हैं| समझ वही हैं, जो जीने में प्रमाणित हो!

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

 

पृ ४५

मंगल मैत्री के बिना अध्ययन सफल हो ही नहीं सकता| मंगल मैत्री ही दुसरे व्यकती में बोध करने के लिए एक पवित्र, पावन, निर्मल और शुद्ध आधार भूमी हैं| अध्ययन करने वाला पप्रबोधक को पारंगत मान कर ही उसकी बात सुनता है| यदी उसे पारंगत नहीं मानता तो वह उसकी बात सुनता ही नहीं है| मंगल मैत्री पूर्वक ही सुनने वाला और सुनाने वाले एक दुसरे पर विश्वास कर सकते हैं| सुनाने वाला पारंगत है, यह विश्वास सुनने वाले में हो और सुनने वाला इमानदारी से सुन रहा हैं, इसे बोध होगा यह विश्वास सुनाने वाले में हो तभी प्रबोधन सफल होता हैं| यदी परसपर यह विश्वास नहीं होता तो हम बतंगड में फस जाते हैं| बोध की अपेक्षा में ही विद्यार्थी यदी जिज्ञासा करता है, तो उसे बोध होता हैं| बोध की अपेक्षा को छोड़ कर हम और कोई आधार से यदि तर्क करते हैं (* अर्थात, शंका करना) तो रास्ते से हट जाते हैं| सुई के नोक से भी यदि इससे हटते हैं तो किसी दुसरे ही दिशा में चले जाते हैं|

स्वभाव गतिमें रहने पर ही मंगल मैत्री होता हैं, जो अध्ययन के लिए आवश्यक हैं| आवेशित गति में रहने पर अध्ययन नहीं होता| बेहोश रहने पर भी नहीं होता| चंचलता बने रहने पर भी नहीं होता| मन यदी भटकता रहे और आप सुनते रहे तो कुछ समझ में नहीं आएगा| मन को एक ही समय तीन जगह पर काम करने का अधिकार रहता है| इसलिए अध्ययन के लिए विद्यार्थी द्वारा अपने मन को स्थिर करने की आवश्यकता हैं| इसी का नाम है ध्यान|  अध्ययन के लिए ध्यान देना बहुत आवश्यक है| अध्ययन करना ही ध्यान का प्रयोजन हैं| आँखें मूँद लेना कोई ध्यान नहीं हैं, उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ| (* मनन प्रक्रिया में श्रवण के सारभूत भाग अथवा अर्थ में चित्त-वृत्ति केन्द्रीभूत होना ही ध्यान हैं)

….. (अगस्त २००६, अमरकंटक)

अभ्यास-अध्ययन क्रम में गुरु (समझा हुआ व्यक्ति) की आवश्यकता:

पृ १२७

प्रश्न: अध्ययन क्या हैं? इसे एक बार फिर से समझा दीजिए|

उत्तर: अनुभव की रौशनी में स्मरण पूर्वक कीया गया क्रियाकलाप अध्ययन हैं| अनुभव की रौशनी अध्ययन कराने वाले (गुरु) के पास रहता हैं| उस अनुभव की रौशनी में वास्तविकताओं से तदाकार होने की प्रवृत्ति वाला विद्यार्थी है| वस्तु के स्वरूप में तदाकार होने की प्रेरणा गुरु देता हैं| तदाकार होने की प्रवृत्ति सभी मानव शरीर चलाने वाले जीवनों में समान हैं| शब्द के अर्थ में जो वस्तु हैं, उससे तदाकार होने की प्रवृत्ति कल्पनाशीलता के स्वरूप में सभी जीवनों में रखा है| उसी आधार पर अध्ययन होता हैं| वस्तु के स्वरूप में जब अध्ययन करने वाला जीवन तदाकार हो गया तो उसमे (*साक्षात्कार – बोध – अवधारणा पूर्वक) अनुभव होना स्वाभाविक हो जाता हैं| तदाकार होना ही अध्ययन हैं| उसको मानव परंपरा में प्रमाणित करना ही जागृति हैं|

प्रश्न: गुरु के सान्निध्य की आवश्यकता कब तक रहती हैं?

उत्तर: जब तक समझ में न आ जाए, तब तक! जब तक अनुभव न हो जाये, तब तक! अनुभव होने के बाद सदा सदा के लिए हम सामान ही हैं, साथ ही हैं, एक ही अर्थ में हैं|

(दिसम्बर २००८, अमरकंटक) 

 

संवाद; २००९ जीवन विद्या राष्ट्रीय सम्मलेन, हैदराबाद से …

प्रश्न:  अध्ययन से क्या आशय है?
उत्तर:  अधिष्ठान के साक्षी में, अर्थात अनुभव के साक्षी में या अनुभव की रोशनी में स्मरण पूर्वक किया गया प्रयास अध्ययन है|  यह परिभाषा है|  इसका विवरण इस प्रकार दिया – अध्ययन के लिए जो शब्द का हम प्रयोग करते हैं, उस शब्द के अर्थ स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु होती है|  उस वस्तु का ज्ञान हुआ, मतलब हमने अध्ययन किया|  वस्तु का ज्ञान तदाकार विधि से होता है|  हर मानव के पास कल्पनाशीलता है, उस कल्पनाशीलता के आधार पर तदाकार होता है|

प्रश्न: तदाकार से क्या आशय है?
उत्तर: अभी भी आप तदाकार विधि से ही चले हैं|  जैसे – चार विषयों के साथ तदाकार हो जाना|  पांच संवेदनाओं के साथ तदाकार हो जाना|  सुविधा-संग्रह के साथ तदाकार हो जाना|  इस तरह की हविस या मनोगत-भाव से तदाकार होने पर मानव फंस जाता है|  अब यहाँ समाधान के साथ तदाकार होने का प्रस्ताव है|

प्रश्न: अनुभव की रोशनी से क्या आशय है?
उत्तर: अध्ययन कराने वाले के पास अनुभव की रोशनी रहता है|

प्रश्न: अध्ययन करने वाले के पास क्या रहता है?
उत्तर: अध्ययन करने वाले के पास अनुमान रहता है|  मुझको समझा हुआ मान कर (* स्वीकारना, जांचने के पश्च्यात स्वीकारना) ही आप मुझसे अध्ययन कर पाओगे, नहीं तो मुझसे अध्ययन नहीं कर पाओगे|  आपका अनुमान जहां तक बन पाता है वहां तक आपको समझ आता है|  आपका अनुमान जहां नहीं बन पाता है, या हमारा कल्पनाशीलता जहां कुंठित होता है, वहां सच्चाई समझ में नहीं आ पाता है|  बिना समझे कुछ भी करने जाते हैं तो उससे गलती ही होगा, दूसरा कुछ होगा नहीं|  आदमी दो ही स्वरूप में रह सकता है – समाधान के स्वरूप में या गलती के स्वरूप में|

प्रश्न: कल्पनाशीलता इस तरह कुंठित हो जाए तो क्या करें
उत्तर: उसके लिए मूल से पुनः जिज्ञासा करना चाहिए|  आप पढ़ सकते हैं, और समझ भी सकते हैं|  आप पढ़िए, जो समझ में नहीं आता है – वह मुझ से समझ लीजिये|  यही इसका विधि है|  समझा हुआ व्यक्ति इस प्रकार समझाने की जिम्मेदारी ले और समझने वाला व्यक्ति समझने की जिम्मेदारी ले तो समझ में आ जाता है|

प्रश्न: यदि प्रस्ताव की सूचना है, और मेरी जिज्ञासा है तो क्या वह समझने के लिए पर्याप्त नहीं है?  या समझाने वाले की फिर भी आवश्यकता है?
उत्तर: – केवल सूचना होना और जिज्ञासा होना समझने के लिए पर्याप्त नहीं है|  समझाने वाले के बिना समझ में नहीं आता|  समझाने वाले के बिना समझने के लिए समाधि होना आवश्यक है|  समाधि के बाद यदि संयम में आपका लक्ष्य स्थिर रहता है तो प्रकृति से सीधे आपको समझ में आएगा| इस प्रस्ताव की सूचना का महत्त्व इसको समझाने वालों के साथ ही है| 

मनन प्रक्रिया: a) तत्व संबंधी वस्तु का शोध

संवाद, भाग-1

“जिज्ञासा, समझने की गति (सही ग्रहण, मनन) और जीने की निष्ठां (सही जीना) इन तीनो को जोड़ने से उपलब्धि तक पहुँच सकते हैं| जीने की निष्ठां इच्छा शक्ती (इच्छा होना, चाहना, प्राथमिकता) की बात हैं| जीने की निष्ठां में कमी के मूल में आपके पूर्वाग्रह ही है –संवाद भाग१, सं २०११, पृ १७८”]

“कल्पना से वास्तविकता में जाने के लिए यदी प्रयतन होता है, तो अध्ययन के लिए प्रवृत्ति होती है(श्रवण)| अध्ययन के लिए प्रवृत्ति को क्रियान्वयन (मनन) करने से साक्षात्कार होता है–संवाद, सं २०११, पृ २०१”]

“…साक्षात्कार क्या? भाषा से जो बताया, भाषा के अर्थ में जो वस्तु कल्पना में आयी, उसका साक्षात्कार होता| वह साक्षात्कार हुए बिना अनुभव होता नहीं| साक्षात्कार होने के लिए न्याय, धर्म, सत्य को जीने में प्रमाणित करने की इच्छा समाहित रहना आवश्यक हैं| प्रमाणित करने की इच्छा नहीं हो, तो साक्षात्कार होता नहीं| प्रमाणित करना जीने में कायिक, वाचिक, मानसिक, कृत, कारित, अनुमोदित नोऊ भेदों से होता है| प्रमाणित करने की इच्छा को हटा करके हम साक्षात्कार कर लें, अनुभव क्र लें, यह होने वाला नहीं है| किसी को ऐसे साक्षात्कार, अनुभव नहीं होगा इस धरती पर….”साक्षात्कार होता है के नहीं देख लेते हैं, फिर देखेंगे| अनुभव होता है की नहीं देख लेते हैं | अनुभव होता है तो उसके बाद में सोचेंगे”| जबकी प्रमाणित करने के अपेक्षा के बिना श्रवण मात्र से यह अनुभव तक पहुँचता ही नहीं है| श्रवण से कल्पना का विस्तार तुलन तक हो सकता है, किन्तु यदी इस तुलन के साथ हम प्रमाणित होने का उद्देश्य नहीं रखेंगे तो वह साक्षात्कार में पहुंचेगा ही नहीं | श्रवण के साथ मनन होता हैं जिससे वृत्ति में तुलन होता है| क्यों तुलन करें? इस बात का स्पष्ट उत्तर होने पर ही तुलन सफल होता हैं और साक्षात्कार होता हैं| प्रमाणित करने के लिए तुलन करें तो साक्षात्कार होता हैं| अन्यथा श्रवण केवल भाषा का ही होता हैं, अर्थ मिलता नहीं हैं| ऐसे में तुलन, केवल तुलन के लिए हो जाता हैं| इसमें समय व्यतीत हो जाता है| समय को यदी बचाना है है तो ऊपर जो बात बताई गयी है, उस तरीके को अपनाने की आवश्यकता है| – संवाद, सं २०११, पृ ९९-१००”]

“कल्पना ही ज्ञान तक पहुँचने का रास्ता है| कल्पना नहीं है तो ज्ञान तक पहुँचने का कोई रास्ता नहीं है| कल्पनाशीलता के प्रयोग से सहअस्तित्व स्वरूपि सत्य को समझना ही ज्ञान के लिए रास्ता है| इसके लिए ध्यान देना होता है| ध्यान देना मतलब मन को लगाना…मन को अनुभव के पक्ष में लगाने को ध्यान है| मन जब लगता है, तब विचार और इच्छा भी उसके साथ रहता ही है| मन किस बात में लगाना है इसकी प्राथमिकता इच्छा में ही तय होती है| जिस इच्छा को हम प्राथमिक स्वीकारते है उसी के लिए (मन) काम कर्ता है| अनुभव की आवश्यकता (जीवन, नियम, न्याय, धर्म, सत्य समझना) जब तीव्रतम इच्छा के स्तर पर  पहुँच जाती है तब मन लगता है| मन लगता है तो अध्ययन होता है (साक्षात्कार-बोध होना) (‘सारभूत भाग में चित-वृत्ति केन्द्रीभूत होना’)संवाद भाग१, सं २०११, पृ ११४”]

अध्ययन के लिए आपकी इच्छा बहुत प्रबल होना आवश्यक है, तभी अध्ययन हो पाता है|  अनुभव होता है – इस बारे में आश्वस्त होने की आवश्यकता है|  अनुभव के बारे में आश्वस्त हो गए, और अध्ययन की इच्छा प्रबल हो गयी – तो वह प्रमाण तक पहुंचेगा ही. ….तुलन साक्षात्कार की पृष्ठ-भूमि है|  प्रमाणित होने की अपेक्षा में हम तुलन करते हैं, तो साक्षात्कार होता है|  यह अपने में देखने की बात है|  किताब यहाँ से पीछे छूट गया|  प्रमाणित होने की अपेक्षा नहीं है तो साक्षात्कार होगा नहीं|  “हम अध्ययन करेंगे, बाद में प्रमाणित होने के बारे में सोचेंगे!” या “हम अनुभव करेंगे बाद में प्रमाणित होने का सोचेंगे!”  –  यह सब शेखी समाप्त हो जाती है| अनुभव होने के पहले प्रमाणित होने की इच्छा के बिना हमे साक्षात्कार ही नहीं होगा| आगे बढ़ने के मार्ग में यह बहुत बड़ा रोड़ा है| हमारी इच्छा ही नहीं है तो हमारी गति कैसे होगा?  प्रमाणित होने की अपेक्षा या इच्छा के साथ तुलन करने पर साक्षात्कार होता ही है ….  प्रमाणित होने की आवश्यकता के आधार पर ही अध्ययन होता है| …. अध्ययन होता है तभी साक्षात्कार होता है|  साक्षात्कार होता है तो फिर रुकता नहीं है|  इसको अच्छी तरह समझने की ज़रुरत है|  अभी आदमी जहां अटका है, वहां से उद्धार होने का रास्ता है, यहाँ से! – संवाद, जनवरी २००७ ”] 

संवाद, भाग-२ (प्रकाशाधीन) से  –

पृ १७, १८

..भाषा के अर्थ में पहुंचना हर व्यक्ति में स्वयं स्फूर्त है| यह अस्तित्व सहज है| अस्तित्व में सम्पूर्ण वस्तु निहित है| वस्तु के रूप में वस्तु बोध होने पर ही मन भरता है| इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए| सह अस्तित्व कैसे है, क्यों है, इन दो प्रश्नों का उत्तर बारंबार अपने मन में पहुंचना चाहिए| फलत: अनुबह्व के आकार में स्वयं को प्रमाणित करने की अर्हता स्थापित होना चाहिए| फलस्वरूप मन भरेगा, नहे तो कहे को भरेगा?

संज्ञानशीलता की अर्हता हम कितनी जल्दी हासिल कर सकते है, वह हमारे तीव्रताके आधार पर है| हमारी सांस लेने की एक गति है, सोचने की एक गति है, निर्णय लेने के लिए प्राथमिता बन्ने की एक गति है| संज्ञानशीलता की प्राथमिकता जब स्वयं में बन जाती है, तो काम हो जाएगा…

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

पृ १९

सह अस्तित्व प्रस्ताव शब्दों में सुनने से इतना भारी उपकार हो जाता हैं की सह अस्तित्व “होने” के रूप में स्वीकार हो जाता हैं| न्याय धर्म सत्य “कुछ है”  यह स्वीकार हो जाता हैं| (*अर्थात, भास् होता हैं) इस आधार पर स्वयं को जीने में यह जांचना शुरू करते हैं कहाँ तक न्याय है? कहाँ तक समाधान हैं? कहाँ तक सत्य हैं? इस तरह जब जांचना शुरू करते हीं, तो शब्द पर्याप्त नहीं होता|

जिज्ञासा पूर्वक सत्यशब्द से सह अस्तित्व जो इंगित है वहाँ हम पहुँच जाते हैं| इस तरह सह अस्तित्व चित्त में चिंतन क्षेत्र में साक्षात्कार होता हैं| साक्षात्कार होने पर बुधि में बोध होता ही हैं….

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

पृ २१, २२

भ्रमित मानव में भी बुद्धि चित्त में होने वाले चित्रणों का दृष्टा बना रहता हैं| मध्यस्थ दर्शन के अस्तित्व सहज प्रस्ताव का चित्रण जब चित्त में होता हैं, तो बुद्धि उससे “सहमत” होती हैं| यही कारण हैं इस प्रस्ताव को सुनने से “रोमांचकता” होती हैं| रोमांचकता का मतलब यह नहीं हैं “कुछ बोध हो गया!” इस रोमांचकता से ‘तृप्ति’ नहीं हैं|

प्रश्न: तृप्ति के लिए फिर क्या कीया जाए?

उत्तर: प्रिय हित लाभ पूर्वक जो हम तुलन करते हीं, वहाँ न्याय धर्म सत्य को प्रधान मान जाए| न्याय धर्म सत्य की चाहत भ्रमित मानव में भी बनी हैं| एक भी क्षण ऐसा नहीं हीं जब हम न्याय धर्म सत्य नहीं चाहते हों! हर व्यक्ति के मानस पटल में न्याय धर्म सत्य की चाहत है| इस प्रस्ताव को सुनने के बाद, उसके आधार पर हम जिज्ञासाशुरू करते हैं, यह कहाँ तक न्याय हैं? कहाँ तक समाधान हैं? कितना हम सच्चाई को समझते हीं, और प्रमाणित कर रहे हैं? “न्याय”, “धर्म”, “सत्य” शब्दों से हम में सहमती हैं| न्याय क्या हैं? धर्म क्या हैं? सत्य क्या हैं? यह जिज्ञासा हैं| यह जिज्ञासा स्वयं में शुरू होने पर अन्ततोगत्वा हमारे प्राथमिकता न्याय, धर्म और सत्य के लिए स्थिर हो जाती हैं (* मनन प्रक्रिया द्वारा)   

प्रश्न: यह जिज्ञासा कैसे काम करती है?

उत्तर: हम जहाँ भी रहते है, वाहन सोचते हैं ही| वहीं हम “स्वयं की जांच” शुरू कर देते हैं न्याय सोच रहे हैं या अन्याय सोच रहे हैं| यह जांच होने पर न्याय, धर्म और सत्य की प्राथमिकता को हम स्वयं में स्वीकार कर लेते हैं (* मनन प्रक्रिया में स्व-मूल्यांकन)| यह प्राथमिकता स्वीकार लेने के बाद हम न्याय क्या हैं? धर्म क्या है? अधर्म क्या हैं? सत्य क्या हैं? असत्य क्या हैं? इस शोध में लगते है|

इस शोध के फलस्वरूप हम इन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं (* मनन प्रक्रिया में वांछित वस्तु देश एवं तत्व में चित्त-वृत्ति संयंत होना, स्वीकार होना)

१)       सह अस्तित्व स्वरूपि अस्तित्व ही “परम सत्य” है|

२)     सर्वतोमुखी समाधान ही “धर्म” हैं|

३)     मूल्यों का निर्वाह ही “न्याय” हैं|

इन तीन निष्कर्ष पर आने पर तत्काल साक्षात्कार हो कर बुद्धि में बोध होता हैं| (* मनन प्रक्रिया में संयंत होने पर पूर्णाधिकार के अनंतर श्रवण के सारभूत भाग में चित्त वृत्ति केन्द्रीभूत होना, फलस्वरूप तदाकार होना, साक्षात्कार होना, बुद्धि में प्रतीत होना)

..बुद्धि में जब यह स्वीकार हो जाता हैं तो (* अवधारणा के अनंतर) अनुभव में आ जाता हैं| सहअस्तित्व में अनुभव हो जाता हैं|

बोध तक अध्ययन हैं|  उसके बाद अनुभव स्वत: होता हैं…

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

पृ ३७

…मानव चेतना की अपेक्षा बन्ने के बाद उसको पाने के लिए जो हमारा मन लगता हैं, उसको “ध्यान” कहते हैं| लगाने के लिए हमारे पास तन, मन और धन होता हैं| इसमें से मन लगाने का जो भाग हैं, उसको “ध्यान” कहा हैं | (* मनन प्रक्रिया में श्रवण के सारभूत भाग में चित्त-वृत्ति केन्द्रीभूत होना ही ध्यान है, यही मनन हैं) | अध्ययन के लिए ध्यान देने की आवश्यकता हैं| उसका मतलब यही हैं, मन को लगाना|

अध्ययन में यदी आपका मन लगता हैं तो शनै: शनै आप मानव चेतना के बारे में स्पष्ट होते जाते हैं| एक दिन उसी क्रम में वह बिंदु आता हैं, जब मानव चेतना आपको “स्वत्व” के रूप में स्वीकार हो जाता हैं| (* स्वीकार होना = बोध होना)| ….

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

पृ ३९

अध्ययन कोई समयबद्ध प्रक्रिया नहीं हैं| अध्ययन एक उपलब्धी हैं| पठन एक समय बद्ध प्रक्रिया हैं, लेकिन अध्ययन एक उपलब्धी हैं| पठन पूर्वक स्मरण (* शास्त्राध्ययन से श्रवण होना) फिर अध्ययन के लिए प्राथमिकता बनना, (* सम्पूर्ण मनन प्रक्रिया) उसके बाद अध्ययन हैं| स्मरण पूर्वक अनुभव की रोशनी में, अधिष्ठान के साक्षी में किया गया प्रयास अध्ययन हैं|

“अध्ययन होना” मत्लभ उजाला हो गया हैं (* क्योंकी साक्षात्कार होना, बोध होना ही अध्ययन हैं) | अध्ययन के पहले “उजाले की अपेक्षा” रहा| अध्ययन की पृष्ट भूमी साधे चार क्रिया से दस क्रिया में लांघने की तैयारी हैं| उस तयारी में समय लगता हैं | (* शास्त्राध्ययन > श्रवण > मनन में समय)

यदी पूरी यात्रा को एक फुट की दूरी माना जाए तो 11.5 इंच की पृष्ट भूमी हैं (* शास्त्राध्ययन > श्रवण > मनन, जिसमे भास होता हैं, आभास होता हैं) केवल आधा इंच अध्ययन हैं (*साक्षात्कार-बोध, अथवा प्रतीति, निदिध्यासन) | …

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

पृ ९२ – अध्ययन में एकाग्रता

अध्ययन में एकाग्रता की आवश्यकता हैं| एकाग्रता के लिए अध्ययन का लक्ष्य निश्चित करना आवश्यक हैं| बिना अध्ययन का लक्ष्य निश्चित हुए ,एकाग्रता नहीं आ सकता, अध्ययन में मन नहीं लग सकता|

मध्यस्थ दर्शन के अध्ययन का लक्ष्य है स्वयं में विश्वास संपन्न होना, और सर्व शुभ सूत्र व्यव्ख्या स्वरूप में जीना| इस लक्ष्य के साथ अध्ययन करते हैं, तो मन लगता हैं|

(अप्रैल २००९)

पृ ९४, ९५

प्रश्न: हम जब मध्यस्थ दर्शन के आपके प्रस्ताव को सुनते है, सोचते हैं तो कभी कभी हमको लगता हैं, कुछ समझ में आ गया | क्या यही साक्षात्कार है?

उत्तर: नहीं| अध्ययन के बाद साक्षात्कार अनुभव ही हैं

प्रश्न: फिर वह जो लगता है “कुछ समझ आ गया” वह क्या है?

उत्तर: वह आपकी इस प्रस्ताव के पत्री स्वीकृति है, जो समग्र के साथ अभी क्रमबद्ध नहीं हुआ है| (* भास अथवा आभास है| यहाँ स्वीकृति: इच्छा/चित्रण, विचार रूप में)

समग्र के साथ क्रमबद्ध होने का सिलसिला अभी शुरू नहीं हुआ| वह सिलिसिला बन्ने का तड़प आपमें रखा हुआ ही है| वह सिलसिला बन्ने का एकमात्र विधि अध्ययन ही हैं| एक-एक बात को जो आप अध्ययन करते हो, उसका एक दुसरे के साथ संबंध सूत्र फैलता है| (* साक्षात्कार पूर्वक बोध में) | वह संबंध सूत्र अनुभव में जाकर स्थिर होता हैं|

साक्षात्कार का मतलब हैं अध्ययन पूर्वक स्वयं में हुई स्वीकृति (* श्रवण, मनन पूर्वक आभास, इच्छा-विचार रूप में स्वीकारना, जो अभ्यास है) के अनुरूप अस्तित्व में वास्तविकताओं के साथ तदाकार होना| साक्षात्कार आधूरा नहीं होता|

अनुक्रम से अनुभव होता हैं| मानव जीव अवस्था के साथ कैसे अनुप्राणित हैं, संबधित है? जीव अवस्था प्राण अवस्था के साथ कैसे अनुप्राणित हैं, संबधित है?  प्राण अवस्था पदार्थ अवस्था के साथ कैसे अनुप्राणित हैं, संबधित है? पुन: इन चारों अवस्थाओं का क्या अंतर संबंध हैं?शरीर का जीवन के साथ संबंध, जीवन का जीवन के साथ संबंध ये सब जुडी हुई कड़ियों को पहचानना ही अनुक्रम है| (*इसी का भास्, आभास, प्रतीति (साक्षात्कार-बोध, यही अध्ययन) एवं अवधारणा, पश्च्यात अनुभव)

…………. (अगस्त २००६, अमरकंटक)

पृ १२१, १२२

तदाकार तक पहुंचना ही अध्ययन की मूल चेष्टा है| शब्द के अर्थ के ओर ध्यान देने से अर्थ के मूल में अस्तित्व में जो वस्तु हैं उसके साथ तदाकार होना बनता हैं| उसके बाद तदरूप होना (प्रमाणित) स्वाभाविक है| अर्थ अस्तित्व में वस्तु के रूप में साक्षात्कार (* एवं प्रतीत) होने तक पुरुषार्थ हैं| ….

तदाकार होने के स्तिथि में जब हम पहुँचते हैं तो हमको स्पष्ट होता हैं की (* तदाकार होने की स्तिथि के मूल में मनन है, श्रवण के सारभूत भाग में चित्त वृत्ति केन्द्रीभूत होना)

वस्तु, वस्तु का प्रयोजन, और वस्तु के साथ हमारा संबंध| यह हर वस्तु के साथ होना हैं (* चारों अवस्था)| इसमें कोई भी कड़ी छुटा तो वह केवल शब्द ही सुना हैं| इस संवाद में जो सबसे प्रबल प्रस्ताव हैं, वह यही हैं|

तदाकार होने की स्तिथि केवल अध्ययन (* अध्ययन के लिए अभ्यास) से आता हैं| तदरूप विधी से प्रमाण आता हैं, यह अनुभव के बाद होता हैं|

मनन प्रक्रिया: b)स्व-मूल्यांकन

मध्यस्थ दर्शन के प्रस्ताव से आप रोमांचित हुए क्योंकी आपकी बुद्धि की चित्रण के साथ सहमति मिली| बुद्धि की चित्रण के साथ सहमति होने पर रोमांचकता तो होता है, पर तृप्ति नहीं है| तृप्ति कैसे लाई जाये? तुलन में न्याय धर्म सत्य को प्रधान माना जाए| न्याय, धर्म, सत्य को हम चाहते तो हैं ही| हर व्यक्ती में है| मन में न्याय, धर्म, सत्य के साथ सहमति है| इस तरह हम जितना भी जाने है (आज तक जो जाना, जीया) उससे यह देखना शुरू करते हैं, की यह कहाँ तक न्याय हैं, कहाँ तक समाधान हैं, कहाँ तक सच्चाई हैं? | यह जिज्ञासा करने से हम अपनी वरीयता को न्याय, धर्म, सत्य में स्थिर कर लेते हैं |यही तरीका है, न्याय धर्म सत्य को स्वयं में प्रभावशाली बनाने का| स्वयं की न्याय, धर्म, सत्य के आधार पर जांच करना| यह जांच होने पर हम स्वयं में न्याय, धर्म, सत्य की प्राथमिकता को स्वीकार कर लेते हैं|  यह स्वीकारने के बाद हम न्याय क्या हैं, धर्म(समाधान) क्या हैं, सत्य क्या हैं? – इस खोज में जाते हैं” – संवाद भाग १, सं २०११, पृ ८०]

“स्वयं का मूल्यांकन यदी सही नहीं है तो उस स्तिथि में अध्ययन के लिए आवश्यक सामर्थ्य को संजो लेना संभव नहीं हैं – व्यवहार दर्शन, सं: २००९, पृ ५३”]

“बुद्धि और आत्मा जीवन में अविभाज्य है| भ्रमित अवस्था में भ्रमित चित्रणों को बुद्धि अस्वीकर्ता है और वह चित्रण तक रह जाता है, बोध तक नहीं जाता| इस से भ्रमित मानव को ‘गलती’ हो गया, यह पाता चलता है| बुद्धि और आत्मा ऐसे भ्रमित चित्रणों के प्रती तटस्थ बना रहता है, इसके प्रभाव स्वरुप में कल्पनाशीलता में ‘अच्छाई की चाहत’ बन जाती है| यही भ्रमित मानव में शुभकामना का आधार है| भ्रमित अवस्था में बुद्धि और आत्मा में ‘सही’ के लिए वस्तु नहीं रहती, पर गलती के लिए अस्वीकृति रहती है संवाद भाग१, सं २०११, पृ १७३”] 

मनन प्रक्रिया – c) सही जीना: देश, संबंध अभ्यास-अध्ययन क्रम में जीने का स्वरूप

“…साक्षात्कार बोध के लिए निरंतर प्रयत्न करने की आवश्यकता हैं| ऐसे प्रयत्न करते हुए हमारा दिनचर्या भी उसके अनुकूल होना आवश्यक है| अपने ‘करने’ का यदी अपने ‘सोचने’ से विरोधाभास रहता है, तो साक्षात्कार बोध नहीं होगा| पुन: हम शरीर मूलक विधि में ही रह जाते हैं| आवेश के साथ अध्ययन नहीं होता| आवेश अध्ययन के लिए अड़चन है| पहले रास्ता ठीक होगा, तभी तो गमी स्थली तक पहुंचेंगे! रस्ते पर चलकर ही गमी स्थली तक पहुंचा जा सकता है| रस्ते पर हम चले ही नहीं, और हमें गमी स्थली मिल जाएगा, ऐसे कैसे हो? इसके लिए हमें यह जांचने की जरुरत हैं, क्या हमारा ‘करना’ हमारे गमी स्थली तक पहुँचने के लिए अवरोध तो पैदा नहीं कर रहा हैं? हम जैसा सोचते हैं, वैसा करें भी, वैसे कहें भी, वैसे फल परिणामों को पाए भी, वैसा प्रमाणित भी करें, यह ‘गम्य स्थली’ है| जैसे हम ‘नियम’ का अध्ययन कर रहे हैं (* नियम: व्यवहार के नियम: सामाजिक नियम, बौद्धिक नियम, प्राकृतिक नियम) और हमारा आचरण नियम के विपरीत हो तो इसमें अंतर्विरोध हो गया| इस अंतर्विरोध के साथ नियम का साक्षात्कार नहीं होता| अध्ययन के साथ स्वयं का शोध चलता रहता है| मैं जो समझा हूँ, क्या मैं उसके अनुरूप जी रहा हूँ? इसको पूरा करने के लिए ही ‘अनुकरण विधि’ है| अध्ययन एक ‘निश्चित साधना’ है| अध्ययन रुपी साधना के साथ ‘समाधान समृद्धी’ के प्रारूप का अनुकरण कीया जा सकता है..-संवाद, संस 2011, पृ 196”]

 अध्ययन पूर्णतया सामाजिक एवं व्यावहारिक प्रक्रिया है| अव्यवहारिकता एवं असामाजिकता पूर्वक अध्ययन होना संभव नहीं हैं – अभ्यास दर्शन, सं २००४, पृ २६२] 

संवाद, भाग-२ (प्रकाशाधीन)

पृ ४० (अभ्यास-अध्ययन में जीने के स्वरूप में परिवर्तन)

…इसमें एक और बात ध्यान देने की हैं इस प्रस्ताव के अनुरूप जीने का स्वरूप अभी आप जैसे जी रहे हो उससे भिन्न होगा| आप अभी की परंपरा में जिस प्रारूप में जी रहे हो, वैसे ही जीते रहो और यह ज्ञान आपके जीने में प्रमाणित हो जाए, ऐसा संभव नहीं हैं| इस ज्ञान के अनुरूप जीने का प्रारूप हैं समाधान समृद्धी पूर्वक जीना| मानव चेतना संपन्न होने के लिए यह प्रस्ताव आपके अधिकार में न आने में आना कानी करने का एक बड़ा कारण हैं, हमारा जीव चेतना के अपने जीने कुछ पक्षों को सही माने रहना| जबकी मानव चेतना और जीव चेतना में कोई भी पक्ष में समानता नहीं हैं| मानव चेतना को जीव चेतना के साथ जोड़ तोड़ पूर्वक बैठाया नहीं जा सकता| जब तक अध्ययन शुरू नहीं हुआ (* साक्षात्कार, बोध नहीं हुआ) तब तक हमारी कल्पनाएँ हमारे साथ बाधाएं डालता ही हैं| मुल्त: बाधा डालने वाली कल्पना हैं शरीर को जीवन मानना”| अध्ययन में सर्वप्रथम यही विश्लेषित होता हैं जीवन और शरीर दो भिन्न वास्तविकताएं हैं| जीवन अमर हैं| शरीर नश्वर है| जीवन शरीर को चलाता हैं| नियति क्रम में धरती पर मानव शरीर परंपरा स्थापित होती हैं| जीवन में एक बार मानव चेतना के लिए प्राथमिकता स्थापित हो जाती हैं तो वह सदा के लिए हो जाती हैं| आगे शरीर यात्राओं में भी फिर स्वयं को प्रमाणित करने की अर्हता बनी रहेगी|

मानव के जीने के दो ही स्थितियां हैं जीव साढे चार क्रिया में जीना, या दस क्रिया में जीना| इसके बीच में कोई स्थिती नहीं हैं| (*केवल अभ्यास-अध्ययन हैं जिसमे शनै:शनै मानव चेतना, अथवा न्याय-धर्म-सत्य वरीय होता हैं)  

(अगस्त २००६, अमरकंटक)

पृ ७२

…जीने के लिए अभ्यास है| अभ्यास का अंतिम छोर है अनुभव में जीना| पहले सर्व शुभ सूचना के आधार पर जीना| फिर सर्व शुभ सूचना के अनुकूल अध्ययन में जीना | (व्यवहार के नियम, संबंधों में जीना, “देश”, जीने जीने की जगह)|  अध्ययन पूरा होने पर अनुभव में जीना| अनुभव में जीना बराबर अखंड समाज सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या में जीना| ….

(२००६ सम्मलेन, कानपुर)

 

अध्ययन, साक्षात्कार-बोध, तदाकार होना 

“’तद’ शब्द सच्चाई को इंगित कर्ता हैं| सच्चाई के स्वरुप में कल्पनाशीलता हो जाना ही तदाकार तद्रूप है| अनुभव प्रमाण (अनुभव के पश्च्यात) जीवन में समाहित होना ‘तदाकार तद्रूप’ है | यह अध्ययन विधि से होता हैं| अध्ययन विधि से क्रमश: जागृति के लिए ‘सच्चाइयों का साक्षात्कार होता हैं| साक्षात्कार आशा-विचार-इच्छा की ‘स्पष्ट गती’ है| साक्षात्कार क्रम में जीव चेतना से छूटने की स्वीकृति और मानव चेतना को पाने की स्वीकृति दोनों रहता हैं| अध्ययन विधि में क्रम से वास्तविकताएं साक्षात्कार होकर बोध होती हैं| पहले सहअस्तित्व साक्षात्कार होना, फिर सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम और जागृति (‘भौतिक रासायनिक रचना विरचना इसमें समाया है’) साक्षात्कार होकर बोध होना| बोध पूर्ण होने के बाद अनुभव होता हैं| रूप-गुण-स्वभाव-धर्म (के संयुक्त रूप में) साक्षात्कार होता हैं | इसमें से स्वभाव और धर्म का बोध होता हैं| बोध पूर्ण होने पर धर्म (और सत्य) का अनुभव होता हैं | इस तरह ‘संक्षिप्त’ होकर अनुभव होता हैं | – संवाद भाग१, सं २०११, पृ १९८, १९९]

“साक्षात्कार तक शब्द है, उसके बाद अर्थ है| अर्थ का बोध व्यक्ती को ही होता है| बोध पूर्ण होने तक अध्ययन हैं – संवाद, सं २०११ ”]

“परिभाषा से आप शब्द के अर्थ को अपने कल्पना में लाते हैं| परिभाषा आपके कल्पना के लिए रास्ता हैं| उस कल्पना के आधार पर अस्तित्व में वस्तु को आप पहचानने जाते हैं| आपकी कल्पनाशीलता वस्तु को छू सकती हैं| वस्तु को जीवन ही समझता हैं| जीवन समझता है तो साक्षात्कार ही होता है| अस्तित्व में वस्तु को पहचानने पर साक्षात्कार हुआ | ‘वस्तु’ के रूप में वस्तु साक्षात्कार होता हैं, शब्द के रूप में नहीं होता हैं..संवाद भाग१, सं २०११, पृ ५०”]

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