Study-Definitions (अध्ययन परिभाषाएं)
‘अध्ययन प्रक्रिया’ संबंधी मुख्य परिभाषाएं
* स्रोत = परिभाषा संहिता सं २००८, अभ्यास दर्शन सं २००४, संविधान सं २००७; संवाद | लेखक: ए नागराज
** यहाँ मात्र ‘प्रक्रिया’ संबंधी मुख्य शब्द दीये हैं, ‘वस्तु’ संबंधी शब्द नहीं दीये हैं | सम्पूर्ण के लिए परिभाषा संहिता‘ पुस्तक देखें|
परिभाषा का महत्त्व:
- परिभाषा के बिना अध्ययन होता नहीं| मन लगाकर परिभाषा के साथ जुडना हैं| परिभाषा को पचाना हैं| भाषा में कुछ भी पचता हैं, वस्तु के रूप में, वह परिभाषा विधि ही हैं| दूसरा कोई रास्ता भी नहीं हैं|”
- अर्थ को जैसे इंगित कीया, वैसे ही ग्रहण करना| यदी इसमें अपना कुछ जोड़ा, तो ‘सुनना’ हुआ नहीं| इसी रूप में शब्द, परिभाषा को यथावत रखना| यदी इसे बदला, तो अर्थ मिलेगा नहीं| – संवाद, सितम्बर २०१०”]
‘अभ्यास” परिभषा
- क्यों, कैसे का उत्तर पाने के लिए कीया गया बौधिक, वाचिक, कायिक क्रियाकलाप अभ्यास हैं| अर्थात समाधान संपन्न होने के लिए अभ्यास हैं| – अभ्यास दर्शन, संस द्वितीय, पृ २ ]
‘अध्ययन’ परिभाषा: *अध्ययन को तीन विधि से बताया हैं:
१) अधिष्ठान के साक्षी एवं अनुभव के रौशनी में स्मरण पूर्वक कीये गए क्रिया–प्रक्रिया एवं प्रयास – परिभाषा संहिता, सं:2008, पृ 15] [..अर्थ बोध पूर्वक, स्मरण सहित कीये गए क्रिया प्रक्रिया एवं प्रयास…व्यवहार दर्शन, सं २०१०, पृ ३८]
- *अधिष्ठान: समझने वाले का हैं | अनुभव की रौशनी(प्रेरणा): समझा हुआ व्यक्ति का हैं –यही समझाने वाला हैं | स्मरण चित्त-चित्रण में होता हैं|
२) श्रवण, मनन, निदिध्यासन (साक्षात्कार–बोध) की संयुक्त प्रक्रिया अध्ययन है – अभ्यास दर्शन सं २००४, पृ १९२]
- साक्षात्कार होना, बोध होना “अध्ययन हैं” | बुद्धि में स्वीकारने के विधि को अध्ययन कहा हैं | तीनो: श्रवण, मनन, निदिध्यासन एकत्रित होने पर अध्ययन हैं |
३) तदाकार होना: हर शब्द का अर्थ हैं| उस अर्थ के स्वरूप में अस्तित्व में वस्तु हैं| शब्द के अर्थ के रूप में अस्तित्व में जो वस्तु इंगित है, उस अर्थ में हमारा कल्पनाशीलता ‘तदाकार’ होना| ‘तद’ शब्द सच्चाई को इंगित कर्ता हैं| सच्चाई के स्वरुप में कल्पनाशीलता हो जाना ही तदाकार, तद्रूप होना हैं – संवाद, सं 2011, पृ 198, 203]
जीवन में समझने/स्वीकारने का क्रम
श्रवण/भास = “सुनना | सुनने की क्रिया | भास होना: “परम सत्य रुपी सह-अस्तित्व कल्पना में होना, वाचन व श्रवण भाषा के अर्थ रूप में सत्य स्वीकार होना” – संविधान, सं-२००७, पृ ७६, संवाद, जनवरी २०१२]”
आभास = [“सत्य सहज होने की सामान्य स्वीकृति| भाषा सहित अर्थ कल्पना अस्तित्व में वस्तु रूप में स्वीकार होना, अर्थ संगती होने के लिए तर्क का प्रयोग होना, अर्थ वस्तु के रूप में अस्तित्व में स्पष्ट तथा स्वीकार होना फलस्वरूप तर्कसंगत होना” – परिभाषा संहिता, सविधान, सं-२००४, पृ ७६]
मनन:
शब्द के अर्थ में मन को लगाना| तुलन अपने आप में एक मनन क्रिया है| मनन क्रिया विधि से मन को लगाने से तुलन क्रिया पूरा होता है|” –संवाद, जनवरी २००७]
“न्याय धर्म सत्य रूपी वांछित वस्तु देश एवं तत्त्व में चित्त-वृती संयंत होना | (श्रवण/संयंत होने) पर पूर्णाधिकार के अनंतर उसके सारभूत भाग में अथवा वांछित भाग में चित्त-वृत्ति का केन्द्रीभूत होना | मनन का तात्पर्य निष्ठा एवं ध्यान से हैं |” – संवाद, जनवरी २०१२, अभ्यास दर्शन, सं २००४, पृ २६२]
वृत्ति तत्वग्राही: तात्विकता का आंकलन विचारों में होना, स्वाभाविक फलन में कार्यव्यवहार चार अवस्था व पदों का तात्विक उपयोगिता व पूरकता के आधार पर अध्ययन होना
साक्षात्कार: पहले दीया हैं; ‘पहचानना’ |
“अस्तित्व में वस्तु के रूप में समझा हुआ निश्चयन सहित प्रमाण”
“पहचान: परस्परता में बिम्ब का प्रतिबिम्ब सहित सहित रूप गुण स्वभाव धर्म को समझना”
चित्त गुणग्राही: साक्षात्कार में गुणों का स्वभाव के अनुसार पहचान, आवश्यकता उपयोगिता रूप में चित्रण {* गुणों की उपयोगिता ही स्वभाव हैं – मानव व्यवहार दर्शन}
चिंतन: इच्छा शक्ती में, से के लिए परिमार्जन, प्रकटन क्रिया
प्रतीति, बोध: पहले दीया हैं: साक्षात्कार पूर्वक बोध (निदिध्यासन) में
अनुभवगामी बोध: आत्मा अथवा अनुभव की साक्षी में स्मरण पूर्वक बुद्धि में होने वाली स्वीकृति सहज क्रियाकलाप| गुरु द्वारा अनुभव मूलक विधि से कराये गए अध्ययन के फलस्वरूप शिष्य में न्याय, धर्म, सत्य का बुद्धि में स्वीकार होना |
अवधारणा: पहले दीये हैं, परिपुष्ट अनुमान, अनुमान की पराकाष्ठा
परिपुष्टता: प्रमाणित होने के लिए सभी सहायक तत्व –संबंध-आचरण-व्यवस्था प्रधान
अनुभूति – अनुभव: पहले दीया हैं| प्रत्येक एक में वास्तविकता और सत्यता नित्य वर्तमान हैं, उसे यथावत जानने मानने की क्रिया ही अनुभूती हैं|
धारणा: सर्वतोमुखी समाधान का स्वीकृत रूप, बोध रूप, अनुभव रूप, प्रमाण रूप (* अनुभव प्रमाण बोध)
परावर्तन: आशा, विचार, इच्छा, संकल्प की सम्प्रेषणॉ | उसका प्रभाव क्षेत्र और स्वयं प्रभावशीलन क्रिया
प्रत्यावर्तन: परावर्तन का मूल्यांकन, व्यवस्था में से प्रयोजन, सत्य, समाधान, न्याय सहज मूल्यांकन स्वीकृति क्रिया|
“प्रत्यावर्तन ही जागृति का कारण हैं” – व्यवहार दर्शन, सं २०१०, पृ २४०
समाधान:- संपूर्णता और पूर्णता के अर्थ में प्रमाणपूत अवधारणा सहित प्रमाण।
अवधारणा का तात्पर्य:–
जान लिया, मान लिया तथा पहचान चुके हैं। यही अवधारणा है।
अस्तित्व सहज संपूर्णता का तात्पर्य सत्ता में संपृक्त प्रकृति से हैं और इकाई सहज संपूर्णता का तात्पर्य इकाई अपने वातावरण सहित संपूर्ण होने से है।
पूर्णता का तात्पर्य:– अस्तित्व में परमाणु के गठन पूर्णता (जीवन पद), क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता और इन तीनों की निरंतरता है । इन्हीं के लिए आवश्यकीय विकास व जागृति के रूप में प्राप्त ज्ञान, दर्शन व आचरण है। यही पूर्णता अवधारणा का आधार और ध्रुव है। इसे सार्थक तथा चरितार्थ करने के लिए जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान तथा मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान लक्ष्य है।
(* उपरोक्त ३ का स्रोत: भौतिकवाद १९९८ – पृ ३५)
(निम्लिखित का स्त्रोत: अनुभवात्मक अध्यात्मवाद, संस २०१२, द्वितीय, पृ ५४, ५५)
भास, आभास, प्रतीति, अनुभव
अस्तित्व पूर्ण सत्ता में प्रकृति की स्वीकृति = सत्यभास
अस्तित्व की आंशिकता की स्पष्ट स्वीकृति = आभास
अस्तित्व स्पष्टता तथा प्रयोजन सहित स्वीकृति = प्रतीति
अस्तित्व संपूर्णता में, से, के लिए अनुभव प्रसिद्घ है।
प्रक्रिया संबंधी शब्द
श्रवण: पहले दीये हैं
मनन: पहले दीये हैं
निदिध्यास / निदिध्यासन (*अर्थ के निरंतरता हो जाना ही निदिध्यास हैं| इसीलिए अध्ययन-बोध – अवधारणा एवं अनुभव, दोनों को निदिध्यास कहा हैं)
- (अध्ययन विधि से) निश्चित अवधारणा की स्थापन प्रक्रिया ही निदिध्यास हैं. (प्रतीति, अध्ययन-बोध)
- (अनुभव विधि से) निदिध्यास का तात्पर्य सहज निष्ठां हैं (अनुभव). | अनुभव में होना | केंद्रीकृत ध्यान, सह अस्तित्व में अनुभव सहज प्रमाण
‘मनन’ से सम्बंधित शब्द:
शोध = जांचना = आंकलन = अवलोकन
- अध्ययन, निरिक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक स्वीकृति
-
- निरिक्षण: निश्चयपूर्ण, स्पष्ट स्तिथि-गति दर्शन| निश्चित अर्थ में कीया गया मूल्यांकन |
- परीक्षण: क्यों, कैसे, कितना का आंकलन (ज्ञानार्जन विधि)
- सर्वेक्षण: नाप-तौल, कितना
- क्या: वस्तु पहचानने की प्रेरणा
- क्यों: प्रयोजनों और उपयोगिता को पहचानने की मानसिक प्रक्रिया
- गोचर = देखने में समझ में आना| (इन्द्रिय गोचर, ज्ञान गोचर)
- = वस्तु क्यों हैं?, कैसे हैं? एवं हमारा वस्तु के साथ संबंध” – संवाद, दिसम्बर २००८
वांछित: आवश्यकीय (* न्याय-धर्म-सत्य)
वस्तु:
- वास्तविकता को व्यक्त कीये रहना | वास्तविकता जिन जिन में प्रकाशित है, वर्तमान हैं
- त्व सहित व्यवस्था के रूप में वास्तविकता को व्यक्त करने वाली इकाई
- वास्तविकता: वस्तु अपने स्वरूप में वर्तमान| रूप गुण सामरस्यता प्रकाशन और रूप गुण स्वभाव धर्म का अविभाज्य वर्तमान
देश: (‘जीने की जगह, सम्पूर्ण सम्बन्ध’ – संवाद, जनवरी २०१२)
- निश्चित भूखंड, स्थिति + सीमा |
- रचना की अवधी अथवा अवधिगत निश्चित ध्रुवों से सीमित विस्तार
तत्व ज्ञान: (तत्व = न्याय-धर्म-सत्य – संवाद, जनवरी २०१२ )
- अस्तित्व में परमाणु में विकास, जीवन, जीवन-जागृति, भौतिक रासायनिक रचना, विरचना, क्रियाओं का जानना, मानना
- परमाणु में अंशों की संख्या भेद को जानना-मानना
तात्विकता
- यथार्थता (जैसा जिसका अर्थ प्रकाशित हैं)
- परमाणु में निहित अंशों में संख्या भेद
तात्विक
- मूल्यों के धारक-वाहक क्रियाकलाप
- परमाणु-मुल्त: मात्रा और अणु रूप का पहचान; अणुरचि त रचनाओं का पहचान;क्रियाओं के मूल में परमाणु मूलक रचना व् कार्य; भौतिक-रासायनिक और जीवन रूप में होने का|
तत्व:
- परमाणु की स्तिथि +गती
- अस्तित्व में सम्पूर्ण भावों के मूल में पाए जाने वाले अनेक प्रजाती के परमाणु
सहज-स्वीकार
- सहज = स्वभाव गति = त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदार
- स्वीकार = पूर्णता, आवश्यकता, अनिवार्यता के अपेक्षा में कीया गया ग्रहण
- स्वीकृत = स्वीकार कीया गया
- स्वीकृति = अपनाया गया
ग्रहण करना: उपयोगिता एवं अनिवार्यता पूर्वक मूल्यांकन को आत्मसात करना और स्वीकार करना
ग्रहणशीलता: समझने, स्वीकारने व् अध्ययन करने के गति
सारभूत: व्यवहार में प्रमाणित होने का सूत्र व्याख्या
स्वयं:
- मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि, आत्मा का संयुक्त रूप
- जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव है जिसका स्पष्ट बोध और प्रमाण होना |
कल्पनाशीलता संबंधी शब्द (श्रवण, मनन में कल्पनाशीलता का प्रयोग हैं)
इसीलिए अध्ययन क्रम में निम्निलिखित क्रियाओं को स्वयं में पहचानना आवश्यक हैं:
कल्पना: प्रमाणित न होने वाली प्रस्तुतियाँ, अस्पष्ट ज्ञान, विवेक विज्ञान विधि| प्रमाण व् मापदंड बिना विचार
कल्पनात्मक: आशा विचार इच्छा की अस्पष्टता का प्रकाशन
कल्पनाशील: यथार्थता के अर्थ में सोच
कल्पनाशीलता: शोध कार्य के लिए प्रवृत्ति (‘स्तिथि में कल्पना, गती – क्रियान्वित करने से शीलता’)
चित्त: चिंतन और चित्रण क्रिया (जीवन का प्रयोजन और निश्चयन)
चित्रण की 8 क्रियाएँ: रूप गुण गणना काल विस्तार श्रम गति परिणाम
चित्रण: उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता को चिन्हित रूप देना
इच्छा: आकार-प्रकार, प्रयोजन एवं सम्भावना* का चित्र ग्रहण एवं निर्माण करने तथा गुणों का गतिपूर्वक नियोजन करने वाली क्रिया की इच्छा संज्ञा हैं| जीवन शक्तियां गुण, स्वभाव, धर्म (समाधान) के रूप में व्याख्यायित होती हैं| * सम्भावना= सम्पूर्ण संभावनाएं यथार्थता वास्तविकता सत्यता सहज प्रमाण हैं | सापेक्ष शक्ती = गुण
-विश्लेषणात्मक प्रकाशन – अपेक्षा सहित चित्रण क्रिया | दर्शन एवं उसके प्रकटन की संयुक्त चिंतन क्रिया
विचार: प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म, तथा सत्यासत्य तुलनात्मक वृत्ति की क्रिया के फलस्वरूप निश्चित विशलेषण ही विचार हैं| विचार = विशलेषण पूर्वक किया गया स्वीकृतियां जो समाधान के अर्थ में प्रयोजन हैं
तुलन: तात्विक, बौद्धिक, व्यावहारिक, व्यावसायिक, भौतिक, रासायनिक रूप में दृष्टा पद में होने वाली प्रक्रिया| प्रिय-अप्रिय, हिता-अहित, लाभालाभ, न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म, सत्य दृष्टाक्रम का प्रकाशन
वृत्ति: प्रवृत्ति
धर्मात्मक तुलन:समाधान के अर्थ में परिशीलन, मूल्यांकन व समीक्षा
विशलेषण: अनेक प्रकार, अनेक कोणों से परीक्षण किया गया का सत्यापन
आशा: आश्रयपूर्वक की गयी अपेक्षा की आशा संज्ञा हैं| शरीर के आश्रय पद्धति से और जागृत अवस्था में अनुभव के आश्रय पद्धति से आशाओं का होना पाया जाता हैं
चयन: चुनने का क्रियाकलाप| चरितार्थता में सहायक अथवा अनिवार्य तत्व, वस्तु विषय का ग्रहण
चरितार्थ = चरित्र जागृति पूर्वक सार्थक होना, आचरण पूर्वक सार्थक होना, त्व सहित सार्थक होना, अर्थ सहित आचरण
स्व-मूल्यांकन
अंतर्विरोध:
- कहने में, बोलने में, सोचने में, करने में, होने में अर्थ व् प्रयोजन संगत न होना, अपेक्षाओं के विपरीत फल-परिणाम घटित होना
- जीवन क्रियाओं सहज परस्परता में विरोध जैसे चयन, विचार, चित्रण, व् संकल्प में परसपर अंतर्विरोध
अंतर्द्वंद्व
- आशा विचार इच्छा सहज परस्परता में विरोध
- कायिक, वाचिक, मानसिक परस्परता में विरोध
मानना/मान्यता: बिना जाने सुख का स्रोत मानना, मान्यता के आधार पर वाद विवाद पूर्वक हर वाद को प्रस्तुत करना |
वृत्ति क्षोभ: अनियमितता के आंकलन वश प्रिय हित लाभ को तात्विक रहत मान लेता हैं जब तक जीवन ज्ञान सहअस्तित्व में न हो
चित्त क्षोभ: साक्षात्कार विधि में रिक्तता, अध्ययन न हो पाना, जागृति सहज अध्ययन के कमी और यथार्थता वास्तविकता की अपेक्षा
इच्छाएं (कर्म्दर्शन, संस: १, पृष्ठ: १० से): “मनुष्य में इच्छाएं तीव्र, करना एवं सूक्ष्म भेद से ज्ञातव्य है |:
- इच्छा: विश्लेषणात्मक प्रकाशन – अपेक्षा सहित चित्रण क्रिया |
- तीव्र इच्छा: क्रिया के रूप में अवतरित होती है | जिसके बिना जीना नहीं होता | (परिभाषा संहिता से): जिस उपलब्धि में सम्भावना, अनुकूलता, संवेदना एवं प्रयत्न की संयुक्त क्रिया हो
- कारण इच्छाएं: क्रिया के रूप में अल्प संभाव्य हैं | योग, संयोंग, घटनावश जो प्रेरणाएं होती है, यह सब कारण इच्छाएं हैं
- सूक्ष्म इच्छाएं: क्रिया के रूप में अत्याल्प संभाव्य हैं | मानव में सत्य कोई वस्तु हैं, धर्म, न्याय कोई वस्तु हैं, जिसको प्रमाणित करने के लिए कोई स्पष्ट विचार नहीं रहता हैं |
शब्द-भाषा-अर्थ-तर्क
शब्द: नाम के रूप में शब्द, नाम किसी वस्तु, क्रिया, फल, परिणाम, स्तिथि, गति के अर्थ में होता है, शब्द अक्षरों के योगफल में बनते है | एक से अधिक का संयुक्त घर्षण से उत्पन्न ध्वनि
भाषा: सत्य भास् होने के लिए शब्द, शब्द समूह | किसी क्रिया के लिए भास्, आभास एवं प्रतीति को स्थापित करने हेतु प्रयुक्त सार्थक शब्द|
परिभाषित: अर्थ निर्देशित करने के लिए किया गया वाक्य रचना; नाम से इंगित वस्तु का पहचान होने के लिए प्रयुक्त शब्द और वाक्य
अर्थ: क्रिया(एँ) शब्दार्थ – अस्तित्व में वस्तु व् क्रिया का स्वरुप इंगित करना (रूप, गुण, स्वभाव, धर्म, स्तिथि, गति, देश, दिशा, काल, नियम, नियंत्रण, संतुलन, प्रत्यावर्तन-आवर्तन)
-जागृति क्रम में न्याय दृष्टी की पहचान
तर्क: अपेक्षा एवं सम्भावना के बीच सेतु | सम्पूर्ण सभावनाएं यथार्थता, सत्यता, वास्तविकता सहज प्रमाण हैं (“तर्क तात्विकता को छूता हैं, तात्विकता को पाने के लिए अध्ययन हैं”) | तात्विकता के लिए गति क्रम, समाधान के लिए गति क्रम|
ध्येय-ध्यान
ध्येय: लक्ष्य, मानव लक्ष्य, जीवन लक्ष्य, नियति सहज लक्ष्य
ध्यान: समझने के लिए ध्यान और समझने के अनंतर प्रमाणित करने के लिए ध्यान | (‘मन लगाना’)
ध्यान विधि: लक्ष्य के प्रती निष्ठान्वित प्रमाणित होना रहना
अंतर्नियोजन: अनुभवगामी प्रणाली में निसचय व निष्ठापूर्वक कीया गया अध्ययन
अभ्यास-अध्ययन
अभ्यास: सर्वतोमुखी समाधान रुपी व्यवस्था सहज साक्षात्कार करने के लिए प्रयास व् प्रयोग | (* यह ‘अध्ययन विधि’ से अभ्यास का परिभाषा हैं | अनुभव के पश्च्यात परिभाषा हेतु ‘परिभाषा संहिता’ देखें)
अध्ययन: पहले दीये हैं|
अधिष्ठान: चैतन्य इकाई का मध्यांश आत्मा है अधिष्ठान | मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ बल का वर्तमान
प्रयास: लक्ष्य के उपलब्धि के गुरुतानुरूप वहन पूर्वक कीये गए क्रियाकलाप
स्मरण: पूर्णता के अर्थ में शब्दों की स्वीकृति आवश्यकतानुसार प्रयोग करने की क्रिया
शिक्षा संबंधी शब्द:
विद्या: ज्ञान-जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान सम्पन्नता सहज प्रमाण
ही जीवन विद्या हैं| जो जैसा हैं उसे वैसा ही स्वीकार करना| जीवन विद्या और वस्तु विद्या
जीवन विद्या: मन वृत्ति को, वृत्ति चित्त को, चित्त बुद्धि को, बुद्धि आत्मा को अर्पित होने की क्रिया और अस्तित्व रुपी सत्य में अनुभव की क्रिया | साथ ही आत्मा बुद्धि को, बुद्धि चित्त को, चित्त वृत्ति को, वृत्ति मन को मूल्यांकित करने वाली क्रिया
विद्यार्थी (शिष्य): विद्या संपन्न होने के लिए इच्छुक
अध्यापक (गुरु): अनुभव मूलक विधि से अधिष्ठान की साक्षी में बोध और साक्षात्कार पूर्वक स्मरण सहित ग्रहण कराने योग्य सत्यतापूर्वक क्रियाओं को बोधगम्य बनाने योग्य प्रक्रिया ही अध्यापन हैं |
साधना: समझने के लिए साधना| मन वृत्ति चित्त बुद्धि को आत्मनुगामी बनाने योग्य क्षमता की प्रस्थापना
साध्य: मानव लक्ष्य जीवन मूल्य सहअस्तित्व में अनुभव, समाधान
स्वध्याय: स्वयं को पहचानने, समझने के लिए कीया गया अध्ययन सहज स्वीकृति शब्द वाक्य
शिष्य-जिज्ञासु (मनोविज्ञान पुस्तक में एक आचरण हैं, संस:१, पृष्ठ ७१)
- शिष्य:जागृति लक्ष्य की पूर्ती के लिए शिक्षा संस्कार ग्रहण करने, स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत व्यक्ती जिसमे गुरु का संबंध स्वीकृत हो चुका रहता हैं
- जिज्ञासु: अज्ञात को ज्ञात, अप्राप्त को प्राप्त करना, सच्चाई को जानने मानने, पहचानने की कल्पना व इच्छा का प्रकटन
- जिज्ञासा: मानव में स्वयं में और अस्तित्व में निर्भ्रम होने की अथवा यथार्थता को जानने मानने की तीव्र इच्छा और उसका प्रकाशन| जीवन सुखी होने के लिए शोध प्रवृत्ति
ग्रहणशीलता: समझने, स्वीकारने व अध्ययन करने की गति
ग्रहण करना: उपयोगिता एवं अनिवार्यता पूर्वक मूल्यांकन को आत्मसात करना और स्वीकार करना
{* पहले समझने के लिए सुनना = श्रवण = भाषा के अर्थ रूप में सत्य स्वीकारना = ग्रहण | पश्च्यात शोध = निरिक्षण, परिक्षण = मनन = वस्तु का आभास होना, स्पष्ट होना = आवश्यकता स्वीकारना = ग्रहण | पश्च्यात साक्षात्कार पूर्वक बोध में अर्थ रूपी वस्तु समझना, जानना = स्वीकारना = निश्चयात्मक स्वीकृति = ग्रहण| ग्रहण क्षमता = पात्रता}
जानना-मानना (* बोध होना, अनुभव होना)
- जानना: जो स्तिथि, गति, व् क्रिया जैसी हैं उसे वैसे ही स्वीकारना | दृष्टा पद प्रकाश में वस्तु व् मौलिकता जैसी है, वैसा ही स्वीकारना | अनुभव होना, प्रमाणित होना |
- मानना: अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन-जागृति रासायनिक भौतिक रचना व् विरचना को जानने के उपरांत स्वीकार करने वाली जीवन गत क्रिया | चरितार्थ करना, आचरण करना |
मान्यता: किसी भी उपलब्धी के प्रती आवश्यकीय नियम सहित पूर्ण समझ की ‘निश्चय’, तथा अपूर्ण समझ से कीये गए प्रयास की ‘मान्यता’ संज्ञा हैं |
देखना: आँखों के रूप में पहचान, गुण स्वभाव धर्म को समझना
प्रस्ताव: मानव परंपरा में सघन प्रमानार्थ योजना दर्शन, विचार, शास्त्र
प्रबोधन: प्रमाण पूर्वक बोध कराना| प्रबुद्धता का पूर्ण बोध कराना
अनुभवशील: अनुभव क्रम में अध्ययन-अध्यापन करता हुआ मानव
ज्ञान, बोध संबंधी:
अस्तित्व दर्शन: सर्वत्र सदा सदा विद्यमान पारगामी पारदर्शी व्यापक वस्तु में भीगे, डूबे घिरे जड़ चैतन्य रुपी प्रकृति चार अवस्था में धरती पर है, इसके रूप गुण स्वभाव धर्म सहज त्व सहित व्यवस्था-समग्र व्यवस्था में भागीदारी हैं | यही अस्तित्व, अनुभव में प्रमाण, अनुभव सहज तद्रूप विधि से मानसिकता होना पाया जाता हैं |
स्व-स्वरुप: स्वयं का रूप, जीवन रोप जीवन वैभव – जीवन महिमा – जीवन प्रयोजन सहज स्पष्टता प्रमाण
जीवन ज्ञान: परमाणु में गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता और उसके क्रिया कलापों को जानना मानना
बोध:
- नियम बोध: अध्ययन पूर्वक जागृति सहज आचरण बोध |
- न्याय बोध: ?? check ?? सह अस्तित्व में अनुक्रम से परस्परता में पूरक होने की स्वीकृति| संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति में होना |
- धर्म बोध: सर्वतोमुखी समाधान समझ में आना |
- स्व-बोध: होना, त्व सहित आचरण रूप में होना, स्वयं का बोध|जीवन एवं शरीर का बोध पूर्वक प्रमाण |
- सत्य बोध: सह अस्तित्व में अनुभव बोध | (* अनुभव के पश्च्यात बोध)
- पूर्ण बोध: अस्तित्व दर्शन बोध, जीवन ज्ञान बोध, मानवीयतापूर्ण आचरण बोध | (अनुभव प्रमाण बोध)
- अपूर्ण बोध: सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण बोध होने के पहले अपूर्ण बोध (* अध्ययन-बोध, अवधारणा)
अपूर्ण दर्शन: मानव परंपरा में सहास्तित्व रुपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सम्पन्नता पर्यंत अपूर्ण दर्शनv