Study-Aphorisms (अध्ययन सूत्र)

 

पुस्तकों से अभ्यास-अध्ययन;  समझने की प्रक्रिया संबंधी मुख्य वाक्य 

* ब्रैकेट में छोटे अक्षरों में दीया हुआ स्पष्टीकरण हेतु श्रीराम नरसिम्हन द्वारा जोंडा गया हैं| जहाँ ऐसे ‘….’ चिन्ह हैं, वहाँ पुस्तक से कुछ वाक्यों को छोड़ा गया हैं| यह एकत्रीकरण मात्र कुछ बिंदुओं पर ध्यान देने हेतु हैं | इन वाक्यों के सन्दर्भ के लिएपुस्तक का नाम एवं पृष्ठ क्रमांक दीये हैं, पुस्तकों को साथ में रखकर ही इसे देखें, पढ़ें, समझें| *

अध्ययन परिभाषा: (स्त्रोत = कर्म दर्शन, संस -१, पृ ८९)

…मानव ‘है’ का अध्ययन करता है| अध्ययन का तात्पर्य अनुभव के प्रकाश में स्मरण पूर्वक अर्थात शब्दों के स्मरण पूर्वक, अर्थों से इंगित वसुताओं का, अस्तित्व में पहचान* पाना | इस प्रकार शब्दों के स्मरण#, शब्दों के अर्थ से इंगित वस्तुएं अस्तित्व में सुस्पष्ट होना ही जागृती हैं| सुस्पष्टता का तात्पर्य स्वयं में अनुभव, कार्य-व्यवहार में प्रमाण होने से हैं|

[श्रीराम द्वारा स्पष्टीकरण:

# शब्दों का स्मरण = ‘श्रवण’ होना = अर्थ भास होना, कल्पना में होना..

* अस्तित्व में वस्तु पहचान पाना = साक्षात्कार होना| साक्षात्कार के साथ बुद्धि में प्रतीत होना]

अभ्यास (अध्ययन के लिए) (इसमें प्रधान रूप में ‘’मनन’ प्रक्रिया को इंगित कीया गया हैं):

अभ्यास दर्शन, सं द्वितीय, २०१०,

पृष्ठ १ से ४

[चैतन्य इकाई में ही क्रिया-पूर्णता एवं आचरण-पूर्णता की संभावना की आवश्यकता हैं जिसके लिए मानव में अभ्यास की अनिवार्यता हैं| अनुमान क्षमता ही अभ्यास का आधार हैं| अनुभव से अधिक उदय ही अनुमान हैं| यही निरंतर अभ्यास सूत्र हैं|

…इसीलिए किसी न किसी अंश में व्यापक सत्ता में अनुभूति एवं प्रकृति की व्यंजना* (रूप, गुण स्वभाव सहज अधिकार एवं धर्म ग्राही व् प्रदायी क्षमता) संपन्न रहना प्रसिद्ध हैं|

[* व्यंजना: समझने की क्षमता, अध्ययन क्रम में साक्षात्कार-बोध: शब्द एवं अर्थ को, स्तिथि-गति रूप में स्वीकार करने की क्रिया]

व्यंजनीयता ही दर्शन क्षमता एवं अनुभव ही आनंद हैं| …व्यंजनीयता ही अभ्युदय की कामना का आधार हैं| मन, वृत्ति, चित्त अवं बुद्धि में ही व्यंजित होने, व्यंजित करने की क्षमता व् प्रक्रिया पाई जाती हैं| यही संस्कार व् विचार क्षमता हैं| ….

….क्यों, कैसे का उत्तर पाने के लिए कीया गया बौधिक, वाचिक, कायिक क्रियाकलाप अभ्यास हैं| अर्थात समाधान संपन्न होने के लिए अभ्यास हैं|  

..मानव अभ्युदय पूर्ण होने तक अभ्यास के लिए बाध्य हैं|

…मानव जागृत होने के लिए अभ्यास करता हैं| यह क्रम जागृति पूर्णता तक रहेगा|

.. व्यंजनीयता  ही भास, आभास, प्रतीति एवं अनुभव प्रमाण हैं| यह संस्कार एवं अध्ययन का फल हैं और साथ ही अभ्यास एवं अध्ययन के लिए प्रेरणा एवं गती भी हैं| संपूर्ण व्यंजनीयता शब्द एवं अर्थ को, स्तिथि-गति रूप में स्वीकार करने की क्रिया हैं| यह संपूर्ण मानव में सार्थक होने वाली स्तिथि नित्य समीचीन हैं|

… क्रिया शक्ती में कर्माभ्यास, इच्छाशक्ती में व्यव्हराभ्यास एवं शास्त्राभ्यास, तथा ज्ञान शक्ती में चिंतन एवं प्रमाण प्रस्तुत करने अभ्यास प्रसिद्ध हैं| ]

(पृष्ठ ८, १०)

“क्षमता व् स्वसंस्कार”, अध्ययन तथा वातावरण पर, “अवसर” व्यवस्था पर, “साधन” उपलब्धी पर, “अनिवार्यता” वर्तमान स्तिथि पर आधारित है|

नियम, न्याय, धर्म और सत्य ही ज्ञान हैं| मध्यस्थ क्रिया ही इनका उद्घाटन करती हैं | इसमें पूर्ण निष्णात होने तक ही जागृति हैं| यही अभ्यास हैं|

(पृष्ट- १४)

मानव के अखंड सामाजिकता को पाने के लिए जड़-चैतन्य प्रकृति में निहित मूल्यों को पूर्णतया अध्ययन, अवगाहन*, मनन, चिंतन, एवं अनुभव पूर्वक व्यवहार एवं उत्पादन में लाने के लिए अनिवार्य है| इसका निर्वाह ही जीवन में सफलता, उपलब्धी, समृद्धी एवं समाधान हैं|

[*अवगाहन = समझने की सफल प्रक्रिया| ओत-प्रोत अवस्था| अनुभव की साक्षी में अवधारणा क्रिया – परिभाषा संहिता, संस २००८, पृ ३३]

(पृष्ट-२३, २४)

..लक्ष्य जब आकांक्षा आवश्यकता या अनिवार्यता के रूप में परिवर्तित (तीव्र इच्छा) होगा, तब यही कार्यक्रम के लिए बाध्यता होगीं क्योंकी लक्ष्य विहीन कार्यक्रम नहीं हैं|

दर्शन क्षमता प्रत्येक मानव में किसी न किसी अंश में पाई जाती हैं| दर्शन क्षमता के जागृति की अभिलाषा से शिक्षा एवं अध्ययन की अनिवार्यता सिद्ध हुई है

सम्पुर्ण अध्ययन सत्ता में संपृक्त प्रकृति सहज हैं| जो अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ही है| अनुभव ही सत्य हैं और सत्य अपरिणामी हैं| अनुभवपूर्वक व्यवहार व् उत्पादन ही प्रमाण हैं| दर्शनविहीन प्रयोग व् उत्पादन सिद्ध नहीं हैं|

विश्लेषित स्वीकृत होना ही अध्ययन हैं| रूप, गुण, स्वभाव और धर्म की प्रत्यक्षानुभूति ही विशलेषण हैं, जो स्तिथिवात्ता व् सत्य हैं| अस्तु, अध्ययन का फलन ही अनुभव हैं|

अनुभव विहीन प्रत्येक उत्पादन-कार्य में त्रुटि एवं व्यवहार-कार्य में अपराध भावी हैं| त्रुटि एवं अपराध मानव की वांछित प्रस्तुती नहीं हैं| यह प्रस्तुती तब तक रहेगी जब तक अध्ययन पूर्ण न हो जाए, प्रतेयक मानव में अध्ययन प्रवृत्ति जन्म से ही पाई जाती हैं|

(पृष्ट – ३९)

प्रत्येक मानव में पायी जाने वाले अनुभव के लिए कारण, विचार के लिए सूक्ष्म, व्यवहार के लिए सूक्ष्म-स्थूल तथा उत्पादन के लिए स्थूल तथ्यों का अध्ययन हैं, जो प्रत्यक्ष हैं|

[कारण = व्यापक वस्तु; सूक्ष्म = जीवन; स्थूल = शरीर/जड़]

अध्ययन से वैचारिक नियंत्रण, शिक्षा से व्यावहारिक नियंत्रण एवं प्रशिक्षण से उत्पादन में नियंत्रण हैं|

(पृ ५२, ५३)

…प्रत्येक अनुमान अनुभव पर आधारित अन्यथा अनुभव के लिए सन्निहित हैं| प्रत्येक अनुमान अनुभव के लिए पूर्वापर हैं| अनुमान ही शोध पूर्वक भास, आभास, प्रतीति के रूप में उदय होता हैं| जिसके आधार पर ही मानव में योजना, विचार एवं कल्पना का प्रसव होता हैं जो अनुभव में प्रमाणित होता हैं …..

तात्रय” से मानव में से के लिए अभिव्यक्ती नहीं हैं| इसीलिए भाव = मौलिकता = स्वमूल्य तथा मूल्यांकन क्षमता = मौलिकता का भास, आभास, प्रतीति व अनुभूती = व्यक्ती की क्षमता, योग्यता, पात्रता = जागृति = वातावरण, अध्ययन और स्वसंस्कार = उत्पादन, व्यवहार, व्यवस्था में भागीदारी = भाव प्रसिद्ध हैं|

(पृष्ट – ६१)

न्याय और समाधान (धर्म) सार्वभौम सत्य हैं| यह देश काल अबाध हैं| इसीलिए मानव द्वारा कीया गया सम्पूर्ण विचार एवं प्रयास तर्कसंगत या सतर्कतापूर्ण होने के लिए ही प्रतेयक मानव का समाधान एवं समृद्धी में, से के लिए ही विचार, कर्म एवं व्यवहार करना प्रसिद्ध हैं| तर्क की सीमा में प्रतितर्क हैं| मूल वस्तु के अज्ञात व् अस्पष्ट रहते हुए उसके तात्पर्य या फलवत्ता के सन्दर्भ में की गयी प्रश्नोत्तर प्रक्रिया ही वाद-प्रतिवादी एवं तर्क-प्रतितर्क हैं हो समस्या का समाधान नहीं हैं| समाधान एवं तात्विकता के लिए तर्क का प्रयुक्त होना ही उसकी चरितार्थता हैं | इस प्रकार यह स्पष्ट होता हैं कि तर्क का अस्तित्व स्वतंत्र नहीं हैं| साथ ही तर्क का प्रयोजन केवल तात्विकता से संबद्ध होना ही हैं| इसी प्रमाण-सिद्ध-साक्ष्य से स्पष्ट होता हैं कि तर्क सीमान्वरती विचार, उपदेश एवं प्रचार मानव जीवन के लिए पर्याप्त नहीं हैं|

अभ्यास दर्शन संस २०१२, पृ १५४

…मानवीयता में अमानवीयता का अत्याभाव होता हैं| अमानवीयता में मानवीयता का भास्, आभास एवं प्रतीति होती हैं| यही वास्तविकता अमानवीयता से मानवीयता में संक्रमण एवं सम्भावना को स्पष्ट करती हैं| ….

पृ १५७

…अमानवीयता से मानवीयता में अनुगमन के लिए नियमत्रय पूर्वक दायित्व एवं कर्तव्य प्रमाणित होता हैं|

पृ १५९, १६०

..सामाजिकता स्वभाव में न हो, प्रेमानुभूती हो ऐसा प्रमाण नहीं हैं| प्रेमानुभूती पूर्ण मानव की स्वतंत्रतापूर्वक सामाजिकता ही अभिव्यक्ती ही समाज के लिए उसकी उपदेयता हैं| प्रेमानुभूतीमयता की अभिव्यक्ती शिष्टता में अर्थात आचरण में इंगित होता हैं| इंगित होना ही व्यंजना हैं| व्यंजना ही क्रम से भास, आभास, प्रतीति, अवधारणा एवं अनुभूती हैं

..प्रेमाम्यता ही मानव में अनन्यता के रूप में प्रत्यक्ष होती हैं| ऐसे प्रेमम्यता के लिए ही संपूर्ण प्रकार के अभ्यास होते हैं| संपूर्ण प्रकार के अभ्यास की चरमोत्क्रुष्ट उपलब्धी प्रेमानुभूती ही हैं जो पूर्णतया सामाजिक एवं व्यावहारिक हैं| सामाजिकता एवं व्यावहारिकता में ही मानव की यथार्थता एवं वास्तविकता स्पष्ट होती हैं, न की उत्पादन में|

….प्रेमानुभूती में ही सरवोछ प्रकार की सामाजिकता प्रकट होती हैं| सामाजिकता में ही स्वर्गानुभूती हैं| उसके अभाव में क्लेश होता हैं| …

…”प्रेमानुभूती के लिए क्रम केवल मानवीयतापूर्ण जीवन में पूर्णता को पाना ही हैं”| शुभ कामना का उदय मानवीयता में ही प्रत्यक्ष होता हैं| यही प्रेमानुभूती के लिए सर्वात्तम साधना हैं| शुभकामना क्रम से इच्छा में, इच्छा तीव्र इच्छा एवं संकल्प में तथा भास्आभास प्रतीति एवं अवधारणा में स्थापित होता हैं| फलत: प्रेमाम्यता का अनुभव होता हैं| मानव शुभ आशा से संपन्न हैं ही| यही अभ्यासपूर्वक क्रम से कामना, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूती सुलभ होता हैं| मानव में प्रमाणित होने वाले नित्य शुभ मुल्य्त्रयानुभूती ही हैं| चैतन्य इकाई का सर्वोच्च विकास मुल्यानुभूती योग्य क्षमता से संपन्न होना ही हैं| यही बाध्यता सत्ता में संपृक्तता हैं|

(पृष्ट -१९)

मानव जाति के समस्त कार्यक्रम का उद्देश्य अनुभव एवं प्रमाण ही है। बौद्घिक समाधान के बिना अनुभव संभव नहीं है, क्योंकि समाधान की निरंतरता ही अनुभव है। भौतिक समृद्घि के बिना बौद्घिक समाधान सिद्घ नहीं है और बौद्घिक समाधान के बिना भौतिक समृद्घि प्रमाणित नहीं होती क्योंकि अज्ञात को ज्ञात करने के लिए एवं अप्राप्त को प्राप्त करने के लिए अनवरत प्रयास हुआ है।

विवेक व विज्ञान का संतुलनाधिकार सहज प्रमाण ही भौतिक समृद्घि एवं बौद्घिक समाधान है।

कर्माभ्यास के बिना उत्पादन एवं समृद्घि तथा व्यवहाराभ्यास के बिना समाधान नहीं है।

कर्माभ्यास अन्वेषण, शिक्षण, प्रशिक्षण है, जिसकी चरितार्थता उत्पादन है, फलत: समृद्घि है।

व्यवहाराभ्यास अनुसंधान, अनुसरण, आचरण, संस्कृति, सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था है, जिसकी चरितार्थता सामाजिकता, अखंडता, अभयता, समाधान, संतुलन एवं स्वर्ग है।

मानव का अशेष कार्यक्रम वैचारिक, व्यवहारिक एवं उत्पादन है, वैचारिक परिपूर्णता अथवा समाधान के लिए चिन्तनाभ्यास आवश्यक है ही। चिन्तनाभ्यास पूर्वक ही यर्थाथता, वास्तविकता, सत्यता को निरीक्षण-परीक्षण कर प्रमाणित कर पाना सहज है। यही समाधान रूपी निष्कर्षों को स्फुरित करता रहता है। जिससे ही सर्वशुभ है। जो पाँचों स्थितियों में ‘‘नीतित्रय’’ से संबद्घ है।

‘‘अनुभव कार्यक्रम नहीं है। अपितु अनुभव में, से, के लिए ही कार्यक्रम है।’’

(पृष्ठ-८३, ८६)

अपेक्षाकृत स्तिथिवत्ता ही अनुमान का उदय हैं| यही अध्ययन हेतु की गयी उत्सुकता हैं| उदयविहीन स्तिथि में अध्ययन एवं अध्ययन सिद्ध नहीं हैं| उदय ही कौतुहल हैं अर्थात जानने, मानने, पहचानने, उपयोगिता, उपादेयता एवं अनिवार्यतापूर्वक अनुभव करने की क्रिया ही उतकंठा हैं| यही मानव जीवन में क्रियाकलाप का आधार हैं| मानव जीवन चार आयाम, दश सोपनीय परिवार सभा व्यवस्था एवं मूल्यों के निर्वाह के रूप में दृष्टव्य हैं जो संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था का आघ्यांत कार्यक्रम हैं| * [अभ्यास-क्रम में मनन पूर्वान ‘देश’ संबंधी वस्तु: जीने की जगह शोध…]

सर्वशुभ उदय का भास-आभास संवेदनशीलता की ही क्षमता हैं और प्रतीति व् अनुभूती संज्ञानीयता की महिमा हैं| सर्वप्रथम सुख समाधान का भास-आभास संवेदनशीलता पूर्वक होता हैं|

अनुभवात्मक आध्यात्मवाद – संस : २००९

पृ १६, १७, १८

जानने का फलन मानने के रूप में आता ही हैं| मानने का स्वरूप हैं: – “यह सत्य हैं इसे स्वीकारना हैं |” और सत्य सहज प्रयोजन स्वयं से या सबसे जुडी हुई स्तिथि को और गति को स्वीकारना ही मानना हैं| इससे स्पष्ट होता हैं हर स्तिथि में वस्तु सहज वास्तविकताओं को जनन्ना सहज हैं| इसी क्रम में उसकी गति और प्रयोजन के साथ “सह-अस्तित्व” में, से, के लिए आवश्यकताओं को स्वीकारना ही मानना हैं|  …

मानव ही जानने-मानने के आधार पर पहचानने-निर्वाह करने में प्रयोजनशील होता हैं| मानने का आधार प्रयोजन होना हैं| जानने का आधार क्यों और कैसे के उत्तर के रूप में हैं| साथ ही वस्तु कैसा हैं? यह भी जानने में आता हैं|  वस्तु कैसा हैं? यह जानने का स्वरूप हैं| इसी से क्यों और कैसे का उत्तर स्वयं स्फूर्त विधी से निर्गमित होता हैं| मानने का तात्पर्य प्रयोजन पहचानने के अर्थ में सार्थक होता हैं| जैसे अस्तित्व सहज नित्य स्तिथि को जानना, सहअस्तित्व प्रयोजन सूत्र को पहचानना स्वाभाविक होना पाया गया| ….

पृ ६६, ६७

..ज्ञान का मूल स्वरूप जीवन ज्ञान और अस्तित्व सहज सहअस्तित्व रूपी व्यवस्था का ज्ञान हैं| जीवन ज्ञान मानव स्वयं अपने जीवन सहज क्रियाकलापों के आधार पर विश्वास करना बन पाता हैं| यह मूलत: अनुभव सहज क्रिया हैं| इसको जानना-मानना एक आवश्यकता हैं ही | जीवन को जानने-मानने के क्रम में शरीर रचना और शरीर सीमाओं के सन्दर्भ में भले प्रकार से पारंगत होने की आवश्यकता हैं| जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में ही ज्ञानावस्था प्रकाशमान होने के आधार पर ही मानव सहज विधी से ही:

१)     अपना ही कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता शरीर से भिन्न तरंग के रूप में अनुभव करना बनता हैं

२)     आशा, विचार, इच्छाएं जीवन सहज क्रिया होने के रूप में स्वयं में, स्वयं से स्वयं के लिए परीक्षण निरीक्षण कर सकता हैं

३)     आस्वादन, तुलन, चिंतन, बोध क्रम में अध्ययन विधी में जो अनुभूतियाँ प्रतीत होती है या भास्-आभास होता हैं इसका परीक्षण स्वयं ही हर मानव, हर काल में, हर देश में किया जाना समीचीन हैं|

इन क्रियाकलापों के निरिक्षण से पता लगता हैं कि जीवंत मानव में आस्वादन का अनुभव भास; न्याय, धर्म, सत्यरूपी नित्य वस्तु का भास् होना, हर व्यक्ति अपने में निसचय कर सकता हैं| चिंतन में ही न्याय, धर्म, सत्य का आभास होना और प्रतीत होना प्रमाणित होता हैं|

साक्षात्कार अपने में प्रयोजनों का निश्चयन सहित तृप्ती के लिए स्रोत रूप में अध्ययन विधी से पहचान लेता हैं| फलस्वरूप बोध पूर्वक अनुभव में सार्थकता सहित न्याय, धर्म, सत्य सहज स्वीकृति ही संस्कार और अनुभव बोध रूप में जीवन में अविभाज्य क्रिया रूपी बुद्धी में स्थापित हो जाता है| यही अध्ययन पूर्वक होने वाली अद्भुत उपलब्धी हैं| न्याय सहज साक्षात्कार सहअस्तित्व सहज संबंधों का साक्षात्कार सहित मूल्यों* का साक्षात्कार होना पाया जाता हैं | यही मुख्य बिंदु हैं| सह-अस्तित्व सहज संबंधों को पहचानने में भ्रम रह जाता हैं यही बंधन का प्रमाण हैं| यही जीवन को शरीर समझने (मानने) की घटना हैं| (* श्रीराम: यह सुधारना हैं, यहाँ मूल्यों से तात्पर्य मानव मूल्य, अथवा मानवीय स्वभाव से हैं?, क्योंकी मूल्यों का साक्षात्कार होता नहीं, वह बहते हैं) 

कर्म दर्शन – संस २००४,

(पृ ९८, ९९ )

सहअस्तित्ववादी विधि से हर मानव, मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने योग्य इकाई है। इसमें मुख्य मुद्दा यही है – स्वयं को, स्वयं के लिये रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के संयुक्त रूप में होने को स्वीकारने की आवश्यकता है। जीवन क्रिया की महिमा और मानव परम्परा में इसकी आवश्यकता ध्यान में रहना अति आवश्यक है। तभी मानव शोध के लिए तत्पर होना पाया जाता है। ऐसी तत्परता जागृति सहज विधि से सर्वशुभ के अर्थ में प्रस्तावित होना होता है। तभी, सर्वमानव समाधान पूर्वक व्यक्त होने, समझदारी पूर्वक हर परिवार समाधानित और सुखी होने की स्थिति स्पष्ट हो जाती है, फलस्वरूप समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व प्रभावित होने का सौभाग्य उदय होता है, यही मुख्य बिन्दु है। सर्वशुभ का प्रमाण भी यही है क्योंकि समाधान, समृद्घि पूर्वक ही मानव सुख, शान्ति का अनुभव करता है। इसी क्रम में समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक आनन्द अपने आप में सम्पूर्ण होना पाया जाता है। इस ढंग से मानव लक्ष्य सार्थक होने की स्थिति में जीवन लक्ष्य (सुख, शांति, संतोष, आनन्द) सार्थक होता ही है। जीवन लक्ष्य और मानव लक्ष्य सार्थक होना ही अध्ययन और अध्यापन की सार्वभौमता है। ऐसे लक्ष्य के साथ, मानव परम्परा अपने आप में स्वयं को पहचानने और सम्पूर्ण मानव को पहचानने का सूत्र और व्याख्या बन जाता है। प्रमाण के रूप में व्याख्या, समझ के रूप में सूत्र होना पाया जाता है। यह नियति सहज विधि से समीचीन रहना पाया जाता है। नियति विधि का तात्पर्य विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति है। दूसरे विधि से भौतिक, रासायनिक रचना शरीर और जीवन क्रियाकलाप का संयुक्त अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन के रूप में है।

मानव लक्ष्य – समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करने और उस आधार पर जीवन लक्ष्य (मन:स्वस्थता) – सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द को सार्थक बनाने के अर्थ में मानव शिक्षा संस्कार की आवश्यकता सदा-सदा से बनी हुई है। इसकी सफलता ही मानव कुल का सौभाग्य है।

मानव कुल और रासायनिकभौतिक क्रियाकलाप का सार्थक प्रमाण

शिक्षा की सम्पूर्ण वस्तु सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में ही है। इसमें से, इनके अविभाज्य रूप में मानव परम्परा का सम्पूर्ण क्रियाकलाप, व्यवहार, सोच विचार, समझ है। समझ के अर्थ में ही हर मानव का अध्ययन करना होता है। समझ अपने में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होती है। इसी अर्थ में सम्पूर्ण अध्ययन सार्थक होना पाया जाता है।

अस्तित्व में सम्पूर्ण इकाईयाँ, रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में परिलक्षित है ही…

पृ २०, २३ (शास्त्राध्ययन की महत्त्व)

सदशास्त्राध्ययन के बिना सत्य कामना एवं प्रवृत्ति, सत्य कामना के बिना सत्य-प्रेम, सत्य-प्रेम के बिना सत्य-निष्ठा, सत्य निष्ठा के बिना सत्य प्रतिष्ठा, सत्य-प्रतिष्ठा के बिना सत्य प्रतीति, सत्य-प्रतीति के बिना सत्यानुभाव, सत्यानुभाव के बिना सद शास्त्र का उद्घाटन तथा सद शास्त्र के उद्घाटन के बिना सद शास्त्र का अध्ययन पूर्ण और सार्थक नहीं हैं|

मानव को जीवन की प्रत्येक स्तिथि में शान्ति एवं स्थिरता की आवश्यकता हैं|

सदशास्त्र सेवन, मनन एवं आचरण से व्यकती तथा परिवार में शान्ति तथा स्थिरता पाई जाती हैं|

मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान – संस १९९८

पृ १९३

सम्पूर्ण समझदारी श्रुति स्मृति पूर्वक मानव से मानव को, पीढ़ी से पीढ़ी को संप्रेषित होता है जिसमें से बोध होने पर्यन्त श्रुति है बोध में अपने में जानने मानने का स्वरूप है। इसका तृप्ति बिंदु अनुभव है। इसे प्रमाणित करने के क्रम में श्रुति, स्मृतिपूर्वक बोध कराया जाना पाया जाता है। प्रत्येक मनुष्य की संपूर्णता अपने में भाषा, भाव, भंगिमा, मुद्रा, अंगहार सहित ही सार्थकता को पहचाना जाता है। श्रुति, स्मृति पूर्वक मूल्यांकन करते है।

पृ १८३, १८४ : – भाषा, श्रुति (अभ्यास-अध्ययन क्रम में जो भाषा प्रयोग होना हैं)

श्रुति सह-अस्तित्व सहज अभिव्यक्ति है। सह-अस्तित्व सहज, अस्तित्व नित्य वर्तमान है। वर्तमान में ही मानव ने अपनी कर्म स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता का प्रयोग किया है, कर रहा है, करता रहेगा। मानव में ही श्रुति, स्मृति सहज प्रकाशन प्रमाणित होना पाया जाता है। जिससे भास- आभास प्रतीति पूर्वक अनुभव होना पाया जाता है। इसी कारणवश उसे, उसके सहज रूप में समझना कार्यक्रम है। इसका प्रमाण यह है कि मनुष्य ही अस्तित्व में ध्वनि, शब्द, नाद, भाषा व वस्तु सहज प्रभेदों को जानता, मानता, पहचानता है अथवा इसके योग्य है। जैसे-पदार्थ अवस्था में पाई जाने वाली, व्यवस्था का मूल रूप परमाणु में भी ध्वनि और वस्तु को पहचानता है।

फलत: अणुओं के रूप में होना स्वाभाविक है। प्राणकोशाओं में ध्वनि व कार्य संकेतों को परस्पर कोशाएं पहचानते है फलस्वरूप रचनाएं संपन्न होती हैं। उसी भांति जीवों में भी, शब्द, ध्वनि और नाद उनके परस्पर पहचान में होना पाया जाता है। मनुष्य में शब्द, ध्वनि, नाद भाषा ये सहज ही परस्पर वस्तुओं को इंगित करने के अर्थ में जानने, मानने, पहचानने को मिलता है। भाषा का तात्पर्य होता है, जिससे वस्तु सहज सत्य भास हो जाय। मानव भाषा में सत्य भास, आभास, प्रतीति सहित अनुभव होने के अर्थ में ही प्रयोग किया जाता है। यही जागृति सहज संपे्रषणा है। इसी क्रम में भाषा के प्रति विश्वास हो पाता है। मनुष्येतर प्रकृति में भी अपने अपने “त्व’’ सहित व्यवस्था को प्रमाणित करने के क्रम में सम्पूर्ण ध्वनि, नाद व शब्द को देखा जाता है। जागृत मनुष्य परस्पर भाषा द्वारा इंगित होना चाहता है या इंगित कराना चाहता है।

भाषा, ध्वनि, नाद व शब्द के मूल में देखने पर पता चलता है कि इकाई में स्वयं स्फूर्त अभिव्यक्ति है। मूल इकाई का तात्पर्य परमाणु ही है। परमाणु ही विकास पूर्वक जीवन, जीवन जागृति पदों में और परमाणु ही विकास क्रम में अणु, कोशा रचना व विरचना के क्रम में अस्तित्व में होना पाया जाता है। परमाणु ही मूलत: व्यवस्था का मूल है। भौतिक क्रियाकलाप, रासायनिक क्रियाकलाप, जीवन क्रियाकलाप के मूल में परमाणु ही व्यवस्था का धारक-वाहक होना पाया जाता है। मनुष्येतर तीनों अवस्थाएं अपने “त्व’’ सहित व्यवस्था के रूप में इस धरती में विद्यमान हैं। मनुष्य भी मानवत्व सहित व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होने के लिए प्रयत्नशील है इसकी संभावना समीचीन है।

सम्पूर्ण श्रुति, प्रत्येक एक अपने “त्व’’ सहित व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ही उद्गमशील है। श्र्रुति को ध्वनि, शब्द, नाद व भाषा के रूप में मनुष्य पहचानता है इसकी सार्थकता को पहचानना शेष रहा। इसी क्रम में गति, लय, तरंग को भी पहचानता है। यह विविध प्रकार से श्र्रुति को ही वस्तु के रूप में समझने का प्रयास सार्थक होता है। श्रुति का तात्पर्य स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य को इंगित करने, बोध करने के लिए ही सुनने योग्य सुनाने योग्य संभाषण हैपूर्णता को इंगित करने कराने के अर्थ में प्रयोग किया गया भाषा एवं परिभाषा है। सुनने, सुनाने के लिए स्वयं स्फूर्त मानव अपेक्षा है। सुनाने योग्य भी स्वयं स्फूर्त संप्रेषणा है। संप्रेषणा का तात्पर्य, पूर्णता के अर्थ में प्रस्तुत होने की प्रक्रिया है। सुनने के क्रम में भी पूर्णता को पहचानने, सहज अपेक्षाएं बनी ही रहती हैं। पूर्णता अपने में निरंतर है। इसका सामान्य स्वरूप, अस्तित्व में पूर्णता, परम्परा के रूप में प्रकाशित है। अस्तित्व में पूर्णता, गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता ही है। रासायनिक भौतिक इकाईयां अपने-अपने वातावरण सहित सम्पूर्ण है ही। पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था की परंपराएं, उन उन की ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में सूत्रित व्याख्यायित है। यह परंपराएं पूर्णता संपूर्णता सहज ही, निरंतरता को प्राप्त किए हैं। वह ‘त्व’ सहित व्यवस्था समग्र व्यवस्था में भागीदारी है। यही वैभव-सूत्र है।

मानव ऐसी श्रुति परम्परा को चाहता ही है कि इससे यथार्थता, वास्तविकता और सत्यता सहज ही समझ में आये। जीवन सहज जिज्ञासा क्यों है ? कैसा है? कबसे है ? कैसा बना है ? इस प्रकार के प्रश्न अपने आप उदय होते ही हैं। यह कल्पनाशीलता की गरिमा है, इसका उत्तर पाना, समाधान पाना, प्रमाण पाना, प्रमाणित होना यह ही श्रुति समुच्चय की सार्थकता में होना पाया गया।

सम्पूर्ण वांङमय अर्थात श्रुति (सुनने योग्य, सुनाने योग्य, भाषा, परिभाषा जो सोच विचार निश्चय और समझदारी प्रवर्तन भाषाकरण सूत्रीकरण, वाक्य प्रबंधन, संवाद के रूप में प्रचलित रहता ही है।) यथार्थता का स्वरूप जैसा जिसकी मौलिकता है उसे इंगित करने, निर्देशित करने और चिन्हित करने के रूप में श्र्रुति का प्रयोजन सार्थक होता हुआ नजर आता है। जिसका जो अर्थ का स्वरूप प्रत्येक एक में रूप, गुण, स्वभाव के रूप में व्याख्यायित होना पाया जाता है। इन चारों आयामों की अविभाज्यता में प्रत्येक एक व्यवस्था के रूप में मूल्यांकित होता है और प्रत्येक एक क्रिया के रूप में ही मिलता है।

… जबकि मानव भाषा कारण गुण गणित के अविभाज्य रूप में है। जिससे ही परम सत्य रूपी सहअस्तित्व भासा आभास पूर्वक प्रतीति सहज बोध, सार्थक होना पाया गया। फलत: अनुभव होना सिद्घ हुआ।

पृ ४४

भक्ति सहज अभिव्यक्ति जागृति गामी विधि से अथवा जागृति क्रम विधि से भास, आभास, प्रतीतियाँ और जागृति-पूर्ण विधि से प्रतीति, अनुभूति व उसकी निरंतरता दोनों स्थितियों में तन्मयता, तारतम्यता और उपादेयता स्पष्टतया समझ में आता है

पृ ८६ – मन में होने वाली स्वागत क्रिया – अभ्यास-अध्ययन क्रम में

स्वागत् :- (1) अवधारणा, अनुभव के लिए स्वीकृत किया। (2) नियम, न्याय, समाधान, सत्य सहज स्वीकृतियों, अस्वीकृतियों के लिए तैयारियां। (विवेक व विज्ञान सम्मत मानसिक, वैचारिक और ऐचिक तैयारियां)

इंद्रिय सन्निकर्ष में भी स्वागत भाव का भास आभास होना पाया जाता है, जिसकी निरंतरता की अपेक्षा ही रह पाती है। यह व्यवहार में प्रमाणित नहीं हो पाता। अतएव स्वागत का आधार सम्पूर्ण मूल्य स्वागत होना पाया जाता है। वस्तुओं का धारक वाहकता में भी जीवन रहता ही है।

….सम्पूर्ण अवधारणाएं मौलिकता के रूप में होना पाई जाती है। मौलिकताएं, धर्म और स्वभाव के ही सूत्र हैं। सम्पूर्ण अस्तित्व में, प्रत्येक एक, अपने “त्व’’ सहित व्यवस्था है, समग्र व्यवस्था में भागीदार है क्योंकि अस्तित्व में सम्पूर्ण इकाइयां (अथवा समस्त इकाईयां) सह-अस्तित्व सूत्र में सूत्रित हैं।

पृ २१८

इंगित होना ही व्यंजना है। व्यंजना ही क्रम से भास, आभास, प्रतीति, अवधारणा एवं अनुभूति है।

पृ २१

चयन-क्रिया अर्थात ग्रहण करने का क्रियाकलाप परावर्तन विधि से और आस्वादन क्रिया प्रत्यावर्तन विधि से, स्वयं में संपन्न होती है। विश्लेषण क्रिया परावर्तन विधि से और तुलन क्रिया (प्रिय, हित, लाभ, न्याय, धर्म, सत्य दृष्टि) प्रत्यावर्तन विधि से संपन्न होती है। चित्रण क्रिया परावर्तन विधि से इच्छा पटल में चित्रित हो पाती है। परावर्तन में रचनाओं, क्रियाओं के रूप में प्रमाणित हो पाता है और चिन्तन-क्रिया साक्षात्कार विधि से सार्थक होती है। साक्षात्कार की सम्पूर्ण वस्तु जीवन मूल्य, मानव मूल्य, स्थापित मूल्य, शिष्ट मूल्य और वस्तु-मूल्यों के रूप में द्रष्टव्य है। मूल्यों का संतुलन तुलन होकर, तृप्ति विधि में संलग्न रहता है। इस प्रकार साक्षात्कार की तृप्ति का स्रोत मूल्य हैं और उसकी (मूल्यों की) निरंतरता का भावी होना, पाया जाता है।

जीवन में संपन्न होने वाली अवधारणा बोध-बुद्घि सहज प्रत्यावर्तन क्रिया है। सभी अवधारणाएं, अध्ययन और अनुसंधान विधि से स्थापित हो पाती हैं। अनुभव मूलक विधि अनुभवगामी पद्घत्ति से, बोध होना पाया जाता है। अनुभव सत्य बोध कराने में प्रमाणित होता है और संकल्प, पूर्णता के अर्थ में, कल्पनाओं को गति देने से है। कल्पनाएं – आशा, विचार, इच्छा के संयुक्त रूप में प्रवाहित रहती हैं। जीवन शक्ति अक्षय होने के कारण, प्रत्येक व्यक्ति में कल्पनाशीलता का अक्षय होना पाया जाता है क्योंकि यह कल्पना, जीवन शक्तियों का ही प्रवाह है। कल्पनाएं, सत्य संकल्प के अनुरूप परावर्तित होकर मानव परम्परा के, अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में सार्थकता को प्रमाणित करती है

पृ ४९-५०

पूर्वानुक्रम पद्घति प्रणाली, मानवीयता पूर्ण विचारचिंतनबोधअवधारणा और अनुभव मूलक होने के क्रम में अध्ययन गम्य है।

पूर्वानुक्रम विधि से ही, मनन पूर्वक मान्यताएं स्थापित हो पाती हैं, फलत: मानव परम्परा के लिए उपकारी और सार्थक सिद्घ होती हैं।

पृ ५१, ५२

निष्ठा :- जागृति पूर्ण लक्ष्य को निश्चित अवधारणा स्मरण पूर्वक प्राप्त करने व प्रमाणित करने का निरंतर प्रयास।

व्यंजनीयता का तात्पर्यसाक्षात्कार होने से है साक्षात्कार चिंतन में होता है। व्यंजनाएं, मानव मूल्य, जीवन-मूल्य स्थापित मूल्यों के प्रभाव के साथ, जीवन मूल्यों का बोध व अनुभव करने से है। सम्पूर्ण रसानुभूति का तात्पर्य है – जीवन मूल्य रूपी, सुख, शांति, संतोष, आनंद सहज आप्लावन, जागृति सहज प्रमाणों के रूप में स्पष्ट होना। यही अनुभव करने और बोध कराने का तात्पर्य है।

पृ ७५-७७ गुरु और शिष्य:

परिभाषा : गुरू :- शिक्षा संस्कार नियति क्रमानुवषंगीय विधि से, जिज्ञासाओं और प्रश्नों को समाधान रूप में, अवधारणा में प्रस्थापित करने वाला मनुष्य गुरू है। जागृति क्रम में मानव को अप्राप्त का प्राप्त, अज्ञात का ज्ञात करने के लिए, होने के लिए विधि, नियम, प्रक्रिया सहज समझदारी में पारंगत बनाना ही प्रमाणिकता का प्रमाण है। प्रमाणिकता पूर्ण गुरूजन ही अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व रूप में अवधारणा को प्रतिस्थापित करा सकता है। अवधारणायें अस्तित्व, विकासक्रम, विकास, जीवन, जीवनी क्रम, जीवन जागृतिक्रम, जीवन जागृति सहज रूप में, परस्परता में, अर्थात समझा हुआ और समझने के लिये तथा मनुष्यों से है। गुरूजन इन मुद्दों में पारंगत रहेंगे, यह समझदारी है, समझदारी के आधार पर ही मानवीय शिक्षा-संस्कार संपन्न होता रहेगा, संस्कार का तात्पर्य ही अवधारणा है। विद्यार्थियों में स्थापित होने से उसकी निरंतरता का प्रमाण व्यवहार व्यवस्था में प्रमाणित होने से है। फलस्वरूप ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी सहज कार्य-कलाप हर मानवीय शिक्षा-संस्कार सम्पन्न मानव से चरितार्थ होना पाया जाता है।

प्रामाणिक:- प्रमाणों का धारक वाहक – यथा अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण समुच्चय को प्रयोग, व्यवहार, अनुभव पूर्ण विधि से, प्रमाणित करना और प्रमाणों के रूप में जीना।

परिभाषा : शिष्य :- जागृति लक्ष्य की पूर्ति के लिए शिक्षा संस्कार ग्रहण करने, स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत व्यक्ति, जिसमें गुरू का सम्बन्ध स्वीकृत हो चुका रहता है।  यही जिज्ञासात्मक शिष्टता है।

जिज्ञासु:- जीवन ज्ञान सहित निर्भ्रम शिक्षा ग्रहण करने के लिए तीव्र इच्छा का प्रकाशन

समझने, सीखने, करने के लिए पूर्ण जिज्ञासा सहित प्रयत्न संपन्न व्यक्ति, शिष्य के रूप में शोभनीय होता है। सफल होने के सभी लक्षणों से युक्त वातावरण में विश्वास होना और विश्वास को वातावरण में प्रभावित करने, प्रमाणित करने की सभी प्रक्रिया अध्ययन है।

अस्तित्व, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना, सम्पूर्ण मानव के लिए समझने-समझाने की वस्तु है। सीखने की जो कुछ भी प्रमाणित वस्तु है, यह मानव में मानवीयतापूर्ण आचरण, कर्म अर्थात व्यवसाय में स्वावलम्बन, व्यवस्था में भागीदारी, मानवीयता पूर्ण आचरण का अभ्यास, प्रामाणिकता सहज अभिव्यक्ति है। साथ ही सार्वभौम व्यवस्था और अखंड समाज में निष्ठा है। ये सम्पूर्ण जिज्ञासाएं व्यावहारिक रूप में चरितार्थ होती हैं। प्रौढ़ता की पराकाष्ठा में, से, के लिए स्वानुशासन की जिज्ञासा का होना पाया जाता है। जिज्ञासा मानव सहज प्रकाशन है। 

पृ १०६

जीवन को तात्विक रूप में समझने की जिज्ञासा हो; ऐसी स्थिति में परमाणु में होने वाली विकास प्रक्रिया, उसके संक्रमण वैभव को भी, जो चैतन्य इकाई के रूप में प्रतिष्ठित है, को सहज ही अध्ययन, अवधारणा में लाना एवं अनुभव करना आवश्यक है।  

अनुभवात्मक आध्यात्मवाद संस २०००

(पृ ५८ – ६५)

…. अनुभव ही दूसरे नाम से प्रत्यावर्तन क्रिया है और इसका परावर्तन क्रिया को प्रामाणिकता-प्रमाण नाम दिया है ….

जागृति सह-अस्तित्व में अनुभव हुई है। इसी जागृत स्थिति में होने वाली गति को प्रत्यावर्तन नाम दिया गया है। सम्पूर्ण प्रत्यावर्तन दर्शन और ज्ञान नाम से प्रतिष्ठित हैं । ज्ञान और दर्शन स्वाभाविक रूप में ओत-प्रोत रूप में वर्तमान है । सम्पूर्ण अस्तित्व सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति ही सह-अस्तित्व का मूल स्वरूप है । इसका सामान्य कल्पना हर मानव में होना संभव है । कल्पना का मूल स्त्रोत आशा, विचार, इच्छा का अस्पष्ट गति रूप है क्योंकि सम्पूर्ण कल्पनाएँ परावर्तन में कार्यरूप रहना देखा जाता है । मानव ही कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है । इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति प्रकारान्तर से कल्पनाशीलता का प्रयोग करता है । भ्रमित मानव द्वारा कल्पनाशीलता का सर्वाधिक प्रयोग शरीर और इन्द्रिय सन्निकर्ष के रूप में ही स्वाभाविक है । यह भ्रम विवशता है । यही कल्पनाएँ चिन्हित रूप में स्पष्ट होने के लिए तत्पर होते हैं तभी विधिवत विश्लेषण और निश्चित चित्रण विचार रूप में सम्भावनाओं को स्वीकारना बनता है । संभावनाओं का लक्ष्य प्रिय, हित, लाभ सीमाओं में सीमित रहना पाया जाता है । यही भ्रमात्मक कार्य सीमा का अथ इति है ।

जागृतिपूर्ण जीवन चित्रण में यह तथ्य सुस्पष्ट है कि न्याय, धर्म, सत्य उसका साक्षात्कार, बोध, अनुभव ही अध्ययन और अनुसंधान का लक्ष्य और कार्य है । इन्हीं कार्य रूप के आधार पर अस्तित्व और जीवन अवधारणा में स्थापित होना सफल अध्ययन का द्योतक और कसौटी भी है । इसी के आधार पर स्वायत्त मानव का सर्वेक्षण, निरीक्षण और परीक्षण होना स्पष्ट हो जाता है । स्वायत्त मानव ही अस्तित्व में अनुभव सहज जागृति का धारक-वाहक होना स्पष्ट है । इस प्रकार अध्ययन सहज रूप में जीवन और सह-अस्तित्व में अनुभव बोध की अभिव्यक्ति और प्रमणित होने के क्रम में आत्मा अस्तित्व में अनुभूत होना, जीवन में केन्द्रीय होना, मध्यस्थ क्रिया और मध्यस्थ बल सम्पन्नता का स्वीकृत होना, परम तृप्त होना है । जीवन रचना मध्यांश सहज मध्यस्थ क्रिया, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति संतुलन के अर्थ में सदा-सदा प्रयुक्त रहता ही है । यही जागृत मानव परंपरा में प्रमाण है । मध्यस्थ क्रिया सम्मु_य क्रम से जीवनी क्रम और जीवन जागृति क्रम व्यक्त होता है । इसी क्रम में जागृत होना जीवन सहज प्रवृत्ति, प्रयास, आवश्यकता के योग-संयोग विधि से सम्पन्न होता है । यही अनुसंधान शोध और अध्ययन के लिए भी  संयोजक तत्व है । यह तत्व सदा-सदा जीवन प्रतिष्ठा में कार्यरत रहता ही है। इसकी प्रखरता के आधार पर ही अनुसंधान, शोध, अध्ययन सहज हो जाता है । इस प्रकार यह सुस्पष्ट हो जाता है कि आत्मा अध्ययन विधि से अस्तित्व में अनुभूत होता है । दूसरा, अनुसंधान विधि से भी अस्तित्व में अनुभूत होना पाया जाता है। (* अनुसंधान विधि: जो श्री ए नागराज ने कीया: साधना > समाधी> संयम | अध्ययन विधि: पुस्तक एवं किसी समझे हुए व्यकती के माध्यम से शिक्षा-संस्कार प्राप्त करना)

अनुसंधान विधि से भी सर्वप्रथम अस्तित्व में बोध होना देखा गया है इसके उपरान्त ही आत्मा अस्तित्व में अनुभूत होना देखा गया है । अध्ययन विधि से भी यही स्थिति अर्थात् पहले बोध तदोपरांत अनुभव होना पाया जाता है । इन दोनों विधियों में से अध्ययन विधि लोकव्यापीकरण के लिए कम समय में बोध होने की स्थिति बनती है । अनुसंधान विधि में प्रवृत्त होने के लिए व्यक्ति में लक्ष्य सम्मत जिज्ञासा का होना अनिवार्य है । जब अध्ययन विधि से सम्पूर्ण प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है । प्रश्न स्थली रिक्त होना, उसी स्थली में सम्पूर्ण उत्तर स्थापित होना, अध्ययन और अध्यापन का संयोग और फलन है । प्रश्न विहीन स्थिति में अनुसंधान का आधार नहीं बनता । इस प्रकार परंपरा में सभी प्रश्नों का उत्तर अध्ययन विधि से हर मानव में हर स्थिति, परिस्थितियों में सम्पूर्ण प्रश्नों का उत्तर सह-अस्तित्व सहज विधि से समीचीन है ।

अनुसंधान विधि एवं अध्ययन विधि से पहले बोध ही होता है, तदोपरांत ‘‘बोध’’ का आत्मा में अनुभव होता है । अनुभव के उपरान्त ‘‘अनुभव सहज बोध’’ अध्ययन एवं अनुसंधान विधि में एक जैसा होता है एवं एक ही होता है । इसमें मुख्य तथ्य यही है यथार्थता, वास्वतिकता, सत्यतापूर्ण विधि से अध्यापन सामग्री, वस्तु, प्रक्रिया परिपूर्ण रहना आवश्यक है (* अध्ययन अथवा शिक्षा विधी में)

अनुसंधान के लिये अज्ञात प्रश्न चिन्ह अति आवश्यक है । हर अनुसंधान को अध्ययन और अध्यापन कार्य विधि से लोक व्यापीकरण होना सुगम हो जाता है । इस प्रकार अनुभव के अनन्तर ही अनुभव ‘बोध’ होना देखा गया है । यह हर व्यक्ति में होना समीचीन है…

 

(पृ १०७, १०८, १०९

….इसके उपरान्त जागृति और जागृतिपूर्णता ही मंजिलों के रूप में देखने को मिलता है । यह मूलत: विचार, चित्रण, अवधारणा, अनुभव और चिन्तन का ही वैभव रूपी मानसिकता के रूप में देखा गया है । भ्रम का सम्पूर्ण स्वरूप आशा, विचार, इच्छा (चित्रण) का प्रिय, हित, लाभात्मक दृष्टियों की क्रियाशीलता ही है…

…सर्वमानव पीड़ा से मुक्ति चाहता ही है । यही जागृति सहज अपेक्षा का स्रोत और सम्भावना है । जीवन सहज क्रियाकलापों में, से न्याय, धर्म, सत्य का साक्षात्कार और दृष्टा होना और उसका प्रमाण सिद्घ होना ही सम्पूर्ण जागृति है । दृष्टापद में होने वाली सम्पूर्ण क्रियाकलाप जीवन सहज विधि से जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने के रूप में होना पाया गया है । जानने-मानने की सम्पूर्ण वस्तु जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान ही है ..

… अनुभव अस्तित्व में ही होना पाया जाता है । अनुभव के पहले समझदारी जानने-मानने-पहचानने के रूप में होना पाया जाता है । यही अध्ययनपूर्वक होन वाला अवधारणा, संस्कार है । इसके पूर्व रूप में विचार और चित्रण ही रहता है । यही श्रुति, स्मृति, शब्द और चित्रण है । शब्द और चित्रण के आधार पर कितने भी क्रियाकलापों को मानव संपादित करता है यह सब अस्थिरता के साथ ही जूझता हुआ देखा गया है अस्थिरता में भ्रम ही प्रधान कारण है। इसीलिये ही स्मरण और चित्रण के उपरान्त कहीं न कहीं अस्थिरता-अनिश्चयता को प्रकाशित करता ही है । इसी सीमा तक हम इस बीसवीं सदी के अंत तक झेलते आये हैं । स्थिरता की स्वीकृति बोध रूप में ही होना फलस्वरूप व्यवहार में न्याय-समाधान-सत्य प्रमाणित होना पाया जाता है । ऐसा बोध जानने-मानने-पहचानने का ही महिमा है । यह क्रिया जीवन में ही जागृति सहज विधि से होने वाली वांछित प्रक्रिया है ।

अस्तित्व में अनुभव सत्ता में (व्यापक में) संपृक्त प्रकृति के रूप में ही देखा गया है। सत्ता में संपृक्त रहने के आधार पर ही क्रियाशीलता नियंत्रण, संतुलन, संरक्षण साम्य ऊर्जा स्रोत होना देखा गया है । इसीलिये प्रकृति में नियंत्रण, संरक्षण निरंतर बना ही रहता है । अत: सत्ता में नियंत्रण स्पष्ट है ।…

 

(पृ ७४)

… अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति नित्य वैभवित होने का स्वरूप, क्रिया श्रम, गति, परिणाम प्रकाशन सहज क्रियाकलाप और परिणाम का अमरत्व, श्रम का विश्राम, गति का गंतव्य सहज लक्ष्य निहित क्रिया, उपयोगिता पूरकता-उदात्तीकरण नियमों के अनुरूप सम्पूर्ण भौतिक-रासायनिक जीवन रूपी प्रकृति में नित्य रचना-विरचना, ‘त्व’ सहित व्यवस्था और उसकी परंपरा भले प्रकार से बोध कराने की सहज-क्रिया सम्पन्न किया जा चुका है । इसी क्रम में श्रम का विश्राम, गति का गंतव्य रूपी प्रमाणों को मानव परंपरा में प्रमाणित करने की आवश्यकता रहा है । इसे सर्वसुलभ लोकगम्य करने के लिए अध्ययनपूर्वक जागृति विधि और इसके प्रमाण में बोध प्रणाली को पहचाना गया । यह भी अनुभव किया गया है कि बोध होना समझदारी का ही दूसरा नाम है अथवा बोध का ही दूसरा नाम समझदारी है । ऐसे समझदारी अध्ययनमूलक प्रणाली से अवधारणा में स्थापति होना, ऐसी अनुभव मूलक अवधारणाओं को अभिव्यक्त संप्रेषित प्रकाशित करने के क्रम में अस्तित्व में अनुभव एक अवश्यंभावी प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट हुई है । इस क्रम में अस्तित्व में अनुभव नित्य है। यही मानव का प्रयोजन है । जीवन नित्य है । अस्तित्व स्थिर है । इसी आधार पर अनुभव और अनुभव क्रम अभिव्यक्ति सहित जागृति सहज जीवन का गन्तव्य अर्थात् जीवन में जागृति पूर्णता ही जीवन गति का गंतव्य स्थली होना, उसकी निरन्तरता सदा-सदा के लिये बना ही रहना देखा गया । इन्हीं आधारों पर ‘अस्तित्व’ सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में प्रतिपादित हुई, सह- अस्तित्व विधि से व्याख्यायित हुई । यह महिमा जागृति पूर्ण जीवन सहज अभिव्यक्ति है ।…

 

(पृ १८३)

..जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान तथ्यों सहज विधिवत् अध्ययनपूर्वक बोध होना देखा गया है । ऐसे बोध सहज तथ्यों को उद्घाटित करने के क्रम में और लोकव्यापीकरण करने के क्रम में प्रमाणित होते ही है । फलस्वरूप अनुभूत भी होते हैं । इस प्रकार नित्य प्रमाण और अनुभव सहज रूप में ही सम्पन्न होता हुआ देखा गया है । यही कैवल्य और जागृति की महिमा है ..

 

(पृ १५४- १५७)

जागृति विधि और अभ्यास

अस्तित्वमूलक मानव केन्द्रित चिन्तन ज्ञान, दर्शन, आचरण धु्रवीकृत रूप में अध्ययन गम्य होना देखा गया है । जीवन ज्ञान जीवन में सम्पन्न होने वाली क्रियाओं का परस्परता सहज धु्रव बिन्दुओं के आधार पर उभय तृप्ति विधि सर्व शुभ एवं समाधान से देखा गया अभिव्यक्तियाँ है । जैसा मन और तृप्ति में सामरस्यता का बिन्दु, विश्लेषण, तुलन पूर्वक आस्वादन के रूप में पहचाना गया है । यह सह-अस्तित्व अनुभव के पश्चात्् नियम, न्याय, धर्म, सत्य सहज प्रयोग में अनुभूत होने के उपरान्त ही सार्थक हो पाता हैइसके लिये अर्थात् ऐसे अनुभूति के लिये अध्ययन क्रम से आरंभ होता है । अध्ययन अवधारणा क्षेत्र का भूरि-भूरि वर्तमान विधि है । इस विधि से जितनी भी अवधारणाएँ अध्ययन से सम्बद्घ होता गया, उतने ही अवधारणा के आधार पर प्रवृत्ति सहज न्याय, धर्मात्मक और सत्य सहज तुलन, न्याय तुलन सम्पन्न विचार के आधार पर किया गया आस्वादन सहित, सम्पन्न किया गया सभी चयन न्याय रूप होना देखा गया है । इसी प्रकार ऊपर कहे चिन्तनपूर्वक जब चित्रण, तुलन, विचार, आस्वादन और चयन क्रियाएँ सम्पन्न होते हैं न्यायपूर्वक व्यवस्था में प्रमाणित होना देखा गया । अवधारणाएँ स्वाभाविक रूप में ही अस्तित्व सहज होने के आधार पर सह-अस्तित्व रूप होने के आधार पर अनुभूत होना अर्थात् जानना-मानना और उसके तृप्ति बिन्दु को पाना ही अनुभव है । जानना-मानना-पहचानना ही अवधारणा हैइसमें तृप्ति बिन्दु को पा लेना ही अनुभव है । इसे कार्य-व्यवहार व्यवस्था में व्यक्त कर देना प्रामाणिकता है । अनुभव प्रमाण पूर्ण बोध सहित सम्पन्न होने वाले संकल्प, चिन्तन, चित्रण, न्याय, धर्म, सत्य रूपी तुलन, विश्लेषण आस्वादन सहित किया गया सम्पूर्ण अभिव्यक्तियाँ, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करता हुआ ही देखने को मिलता है । इस विधि से जागृतिपूर्ण मानव ही अस्तित्व में भ्रम बन्धनों से मुक्त होना स्पष्ट किया जा चुका है । जागृति विधि, अध्ययन रूपी साधना विधि से सर्वाधिक उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील होना देखने को मिला है । इस विधि से साध्य, साधक, साधन का सामरस्यता स्वयं स्फूर्त विधि से सम्पन्न होना देखा गया है ।

जागृति के लिये हर मानव साधक है । साध्य जागृति ही है । साधन जागृतिगामी अध्ययन प्रणाली है । इस क्रम में परम्परा साधन प्रतिष्ठा के रूप में तन-मन-धन व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण मानवाकांक्षा के रूप में होता ही है । इस प्रकार से साध्य-साधक-साधन का संयोग मानवीयतापूर्ण परंपरा विधि से सफल होने का स्वरूप स्पष्ट है । ऐसे परंपरा के पूर्व (जैसे आज की स्थिति में भ्रमित समुदाय परंपराएँ) मानवीयतापूर्ण परंपरा में संक्रमित होने की कार्यप्रणाली मुद्दा है । इस क्रम में अनुसंधान के अनन्तर जितने भी शोधकर्ता सम्मत होते जाते हैं और सम्मति के अनुरूप निष्ठा उद्गमित हो जाती है और भी भाषाओं से स्वयं स्फूर्त निष्ठा उद्गमित होती है । ऐसे ही निष्ठावान मेधावी इस कार्य में संलग्न है । यही आज की स्थिति में जागृतिगामी अध्ययन, जागृतिमूलक अभिव्यक्ति सहज विधि एक से अधिक व्यक्तियों में प्रमाणित होने का आधार बन चुकी है। जागृतिपूर्ण परंपरा में साध्य, साधन, साधक में नित्य संगीत होना देखा गया है । दूसरे भाषा में नित्य समाधान होना पाया गया है ।

उल्लेखित अनुभवों के आधार पर सम्पूर्ण जागृति अपने-आपसे जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में ही सम्पूर्ण है । इसका अभ्यास विधि सर्वप्रथम अनुसंधान दूसरा अध्ययन पूर्वक शोध, शोध पूर्वक अध्ययन ये ही मूल अभ्यास है । क्योंकि अध्ययन विधि से ही, शोध विधि से ही अवधारणा का स्वीकृत होना देखा जाता है । अन्य विधि जैसे उपदेश विधि में भ्रमित होने की संभावना सदा बना ही  रहता है ।

हर परंपरा में अपने ढंग की आदेश प्रतिष्ठा स्थापित रहता ही है । वह अध्ययवसायिक (अध्ययनगम्य) होते तक उपदेश या सूचना मात्र है । परंपरा में जिस आशय के लिये आदेश-निर्देश है वह तर्क संगत-व्यवहार संगत बोध होने की प्रक्रिया प्रणाली पद्घति ही अध्ययन कहलाती है । तर्क का सार्थक स्वरूप विज्ञान सम्मत विवेक और विवेक सम्मत विज्ञान होना देखा गया । प्रयोजन विहीन उपदेश प्रयोग वह भी व्यवहार, प्रमाण विहीन उपदेश तब तक ही रह पाता है जब तक तर्क संगत न हो । तर्क का तात्पर्य भी इसी तथ्य को उद्घाटित करता है । तृप्ति के लिये आकर्षण प्रणाली (भाषा प्रणाली) ऐसे तर्क सहज रूप में ही विज्ञान के आशित विश्लेषणों को विवेक से आशित प्रयोजनों का प्रमाणित होना सहज है । हम इस बात को समझ चुके हैं कि प्रयोजनपूर्वक जीने के लिये, प्रमाणित होने के लिये समाधान समृद्घि के रूप में सह-अस्तित्व दर्शन के लिये तर्क संगत अध्ययवसायिक विधि का होना आवश्यक है ।

अध्ययन क्रियाकलाप, तर्कसंगत प्रयोजन, प्रयोजन संगत मानवापेक्षा, मानवापेक्षा संगत जीवनापेक्षा, जीवनापेक्षा संगत सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व संगत विकास क्रम और विकास, विकासक्रम और विकास संगत जीवन-जीवनी क्रम-जागृति क्रम-जागृति एवं इसकी निरंतरता सह-अस्तित्व सहज लक्ष्य है । अस्तित्व सहज लक्ष्य में भी मानव ही अविभा’य है और दृष्टा है । इसलिये मानव अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व विधि से पूरकता-उदात्तीकरण, पूरकता-विकास, पूरकता-जागृति सूत्रों के आधार पर सह-अस्तित्व सहज अध्ययन सुलभ हुआ है।

सम्पूर्ण अस्तित्व ही व्यवस्था के स्वरूप में वर्तमान होना समीचीन है। आज भी मानव के अतिरिक्त सभी अवस्था में (पदार्थ, प्राण, जीव अवस्था) अपने-अपने त्व सहित व्यवस्था में होना दिखता है । इसी क्रम में मानव भी अपने मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज अपेक्षा को सार्थक बनाने के क्रम में ही जागृत होना पाया जाता है ।

हम यह पाते हैं कि जागृति सूत्र व्याख्या और प्रमाण सर्वशुभ के स्वरूप में ही वैभवित होता है । इस आशय को लोकव्यापीकरण करना भी सर्वशुभ कार्यक्रम का एक बुनियादी आयाम है । इसी सत्यतावश ‘‘अनुभवात्मक अध्यात्मवाद’’ एक प्रस्तुति है । हर मानव अपने कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता पूर्वक ही हर प्रस्तुतियों को परखना (परीक्षण करना) स्वीकारना या अस्वीकार करने के कार्यकलाप को करता है ….

अनुभव दर्शन संस २०१२, द्वितीय

(अध्याय -३)

सूत्र, छंद, वाक्य, शब्द के द्वारा क्रिया मात्र का वर्णन है। साथ ही ज्ञानानुभूति के लिए उपदेश पूर्वक इंगित भी है।

ब्रह्म सहज वर्णन पारगामी व्यापक और पारदर्शीयता के रूप में  है। ‘‘यह’’ केवल भास, आभास, बोध तथा अनुभवगम्य है। इसका बोध मानव की क्षमता, योग्यता, पात्रता पर आधारित है।

….प्रत्यावर्तन पूर्वक प्राप्त व्यंजनाएँ जागृति के लिए गुणात्मक गति है।

गुणात्मक व्यंजना से सुबोध, सुबोध से सुसंस्कार, सुसंस्कार से  गुणात्मक संवेदना (संज्ञानीयता पूर्वक संवेदना नियंत्रित) रहना, गुणात्मक संवेदना से सत्य संकल्प तथा सत्य संकल्प से गुणात्मक व्यंजनाओं की निरन्तरता है।

स्थिति एवं क्रिया संकेत-ग्रहण क्षमता ही व्यंजनीयता है।

संकेत-ग्रहण -प्रक्रियाबद्घ ज्ञान, प्राप्य को पाने, उसे सुरक्षित रखने के कार्यक्रम में अभिव्यक्त है। प्राप्त के अनुभव के क्रम में भास-आभास एवं प्रतीति ही ज्ञापक (सत्यापित होना) है।

मानव दूसरों के लिए भी संकेत प्रसारित करता है।

संकेत-ग्रहण-क्रिया ही अनुमानारोपण तथा अनुमानांकुर भी है। जो संकल्प, इच्छा, विचार व आशा है। 

अध्याय-७

अभिव्यंजना में गुणात्मक विकास का संकेत, व्यंजना में उपयोगिता का संकेत है। अभ्युदय प्राय: (अभ्युदय जैसा) ही अभिप्राय है। जिसमें अभ्युदय का भास या आभास होना आवश्यक है।

स्व-मूल्यांकन, मनन, ध्यान संबंधी 

मानव व्यवहार दर्शन, सं २००९, पृ २२०, २२१

“अपराध के अभाव में दयापूर्ण आशा का परावर्तन, अन्याय के अभाव में न्यायपूर्ण विचार का परावर्तन, आसक्ती के अभाव में समाधान पूर्ण इच्छा का परावर्तन, तथा अज्ञान के अभाव में ज्ञानपूर्ण संकल्प का परावर्तन होता हैं|

अत: अपराधहीन व्यवहार* के लिए व्यवस्था का प्रभाव, अन्यायहीन विचार के लिए अखण्ड समाज* का प्रभाव तथा अज्ञान रहित बुद्धि के लिए अंतर्नियामन अथवा ध्यान आवश्यक हैं, जिससे ही प्रत्यावर्तन क्रिया सफल हैं| ध्यान का अर्थ समझने के लिए मन, वृत्ति, चित्त बुद्धि को केंद्रित करना और समझने-अनुभव करने के उपरान्त प्रमाणित करने के लिए मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि को केंद्रित करना | अर्थ बोध होने के लिए तथा अर्थ प्रमाणित करने के लिए ध्यान होना आवश्यक हैं| यही ध्येय हैं| सर्वमानव ध्याता हैं|

अत: यह निष्कर्ष निकलता हैं की मान्वीयातापूर्ण व्यवस्था, सामाजिक आचरण, अध्ययन और संस्कार के साथ ही अंतर्नियामन आवश्यक हैं जिससे चरम विकास (जाग्रति) की उपलब्धी संभव हैं|” –

* अपराधहीन व्यवहार: सामाजिक नियम अनुसार जीना |

अभ्यास दर्शन, सं-द्वितीय, २०१०,

(पृ २)

..मूल-प्रवृत्तियों में परिमार्जन पूर्वक कुशलता एवं पांडित्यपूर्ण व्यवहार ही अभ्यास का प्रधान लक्षण हैं| * [अभ्यास-अध्ययन क्रम में इस आधार पर स्वयं में क्रमश: गुणात्मक परिवर्तन का आंकलन हो सकता हैं]

(पृ १३)

“स्वयं के लिए जो घटनाएं वेदना के कारण हैं वे ही दूसरों के लिए भी हैं, ऐसे स्वीकृति क्षमता ही संवेदना हैं| इसके अभाव में मानव जीवन में निहित विशेष मूल्यों का प्रयोजन सिद्ध होना संभव नहीं हैं| इसी कारणवश मानव सामाजिक मूल्यों के आचरण, अनुसरण, एवं अनुशासन के लिए प्रेरित हैं”

 

अभ्यास दर्शन संस २०१२ पृ ६३

संपूर्ण संग्राम-सामग्री, साधन-तंत्र, व्यवस्था मात्र अपव्यय में, से, के लिए ही हैं| जबकी प्रत्येक मानव प्रत्येक स्तर में अर्थ का सदुपयोग तथा सुरक्षा चाहता हैं| यही चाहने और करने के बीच में जो दूरी हैं वही अंतर्द्वंद्, आत्म विश्वास का अभाव तथा स्वयं में स्वयं के विश्वास में साशंकता और भय का कारण हैं यही पीड़ा हैं| अंतर्द्वंद्व से मुक्ती के लिए प्रत्येक मानव को प्रत्येक स्तर में अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा हेतु मानवीयता में “नियम्त्रय” का अनुगमन-अनुसरण एवं अनुशीलन करना ही पड़ेगा|

 

अभ्यास दर्शन संस २०१२, पृ ६६

…शरीर का जन्म और मृत्यु घटना हैं| इस तथ्य को जानने वाला भी चैतन्य इकाई ही हैं| मानव में श्रम का मूल रूप भी चैतन्य-क्रिया ही हैं| इस चैतन्य-क्रिया में जो संवेदनशील एवं संग्यानशील क्षमता हैं, वही स्थापित मूल्यों का वहन, शिष्ट मूल्यों का प्रकटन और उत्पादित वस्तु मूल्यों का मूल्यांकन करता हैं और प्रमाणित होना पाया जाता हैं| सामाजिक जीवन में उत्पादन, उपयोग, सदुपयोग एवं विनिमय अविभाज्य अंग हैं| यही जीवन में एकसूत्रता, तारत्मयता, अनन्यता और एकात्मकता को स्थापित करने के लिए प्रेरित करता हैं| यही स्थापना शुधत: व्यवस्था हैं|

 

पृ १६२

प्रेमानुभूती योग्य क्षमता संपन्न होने के लिए शुचिता एवं गुणात्मक परिवर्तन में अनुशीलन अनिवार्य साधना हैं| सम्यकता की ओर गतीशीला अर्थात गुणात्मक परिवर्तन हेतु सुनिश्चित आचरण, व्यवहार एवं अर्थ का सदुपयोग ही साधना और अभ्यास हैं| शारीरिक स्वस्थता एवं शिष्टता के योगफल ही शुचिता हैं|