Human Relationships & Behavior (मानव सम्बन्ध और व्यवहार)

 

मानव संबंध

*स्त्रोत = व्यवहारवादी समाजशास्त्र, संस -१ 

सम्बन्धों के साथ ही शिष्टता विधि स्वाभाविक है । सम्बन्धों का सम्बोधन मानव संबंधों के आधार पर ही निश्चित मूल्य और शिष्टता का द्योतक होता है । यह परिवार (अखण्ड समाज) क्रम में और सभा-विधि में जैसे परिवार सभा और विश्व परिवार सभा में भी परस्पर सम्बोधन मानव संबंधों का सम्बोधन विधि से ही शिष्टता का निश्चयन है ।

परिवार विधि में हर सम्बोधन प्रयोजन से लक्षित होना पाया जाता है । और हर प्रयोजन हर व्यक्ति के अपेक्षा सहित सम्बोधन का वस्तु है।

परिवार क्रम में

सम्बोधन      –            प्रयोजन

पिता       –                  संरक्षण

माता       –                  पोषण

पति-पत्नी –                 यतित्व-सतीत्व

पुत्र-पुत्री   –                   अनुराग

स्वामी (साथी)        –   दायित्व

सेवक (सहयोगी)    –   कर्तव्य

गुरू         –                    प्रामाणिकता

शिष्य     –                     जिज्ञासु

भाई-बहन-मित्र       –   जागृति (समाधान-समृद्घि)

 

सभा क्रम में

सम्बोधन                  प्रयोजन

सभा में        –           जागृति में

भाई-मित्र-बन्धु-बहन  –           समानता के अर्थ में

समितियों में सम्बोधन

गुरू-शिष्य    –           शिक्षा-संस्कार विधा में

आचार्य-आवेदक         –           न्याय-सुरक्षा विधा में

पितामह, पिता-माता,            –           उत्पादन-कार्य सम्बन्ध ,पुत्र-पुत्री

आयु के अनुसार          –           विनिमय-कोष सम्बन्ध

सहयोगी – साथी        –           स्वास्थ्य-संयम विधा में ।

परिवार विधि विहित सम्बोधन, परिवार विधि का तात्पर्य परिवार सम्बन्ध से है । जैसे एक ही व्यक्ति किसी का माता, किसी का पुत्री, किसी का बहिन, किसी का पत्नी, किसी का गुरू, किसी का शिष्य, किसी का मित्र, किसी का बंधु सम्बन्धों में पाया जाता है । संबंध की परिभाषा ही पूर्णता के अर्थ में अनुबंध है । अनुबंध का तात्पर्य बोध सहित निष्ठा सहज किसी के प्रति प्रयोजन कार्य और निष्ठा सहित स्वीकृति का सत्यापन ही प्रतिज्ञा होता है । सत्यापन का तात्पर्य सम्बन्ध मूल्य-मूल्यांकन, चरित्र और नैतिकता सहित जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान सहज सह-अस्तित्व को प्रमाणों में अभिव्यक्ति, अभिव्यक्ति का स्वरूप अभ्युदय के अर्थ में होना स्पष्ट है । अभ्युदय स्वयं में सर्वतोमुखी समाधन है जिसका कार्य-व्यवहार रूप अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी है ।

अखण्ड समाज का अर्थ-जागृत मानव परंपरा में वैर-विहीन परिवार ही है । दूसरी भाषा में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व पूर्ण परिवार। अभयता स्वयं में एवं वर्तमान में विश्वास ही है । वर्तमान में विश्वास स्वायत्त मानव का स्वत्व, स्वतंत्रता अधिकार में होना पाया गया है । यह स्पष्ट हो चुका है कि स्वायत्त मानव ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को भले प्रकार से निभाता है ।

परिवार में ही सम्बन्ध और प्रयोजन का अपेक्षा-आशय एवं विश्वास के आधार पर सम्बोधन सम्पन्न होता है । हर प्रयोजन मूल्य, चरित्र, नैतिकता, समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सूत्र से सूत्रित रहता ही है। इन्हीं अपेक्षाओं का केन्द्र प्रयोजनों का स्वरूप आवश्यकताओं का कारण है। इनमें सफल हो जाना ही जागृति का प्रमाण है ।

व्यवस्था सम्बन्ध मूलत: सर्वतोमुखी समाधान मूलक होना पाया जाता है । समाधान का तात्पर्य पूर्णता और उसकी निरंतरता के अर्थ में सम्पूर्ण बोध सहित कार्यप्रणाली में प्रमाणित करने का सामथ्र्य है । यही संप्रेषणा विधि में क्यों, कैसे व कितना रूपी प्रश्नों का उत्तर के रूप में प्रस्तुत होता है । इसी के साथ कहाँ, कब, कैसा यह भी एक प्रश्न वाचिकता क्रम मानव परंपरा में होना देखा जाता है । इसका उत्तर समाधान मूलक विधि से प्रसवित होना, दूसरे भाषा में हर समाधानपूर्ण मानव से इन सभी का उत्तर प्रसवित-प्रवाहित होता है । यही दो प्रकार के प्रश्नोत्तर प्रणाली मानव सहज सम्भाषण का ोत है । जीवन जागृतिपूर्वक समाधानित होता है । भ्रम पर्यन्त अथवा बंधन पर्यन्त प्रश्न विधि में अथवा उसी क्रम में ‘यादा से ‘यादा वांूमय कार्य सम्पन्न करता है । भ्रम विधि में वांूमय सदा-सदा ही विपुल होता जाता है क्योंकि प्रश्न का पुर्नप्रश्न प्रतिप्रश्न ही वांूमय का आधार बनता है । भ्रम-विधि से प्रत्येक तर्क प्रश्न में ही अन्त होता है इसलिये इसमें कोई निर्देश संदेश स्पष्ट नहीं हो पाता है। जबकि हर संदेश ज्ञान क्रिया, दर्शन क्रिया विधि से समाधान के रूप में प्रमाणित होता है । यही देश, क्रिया और काल विधि से हर निर्देश समाधानित होता है । देश, काल, क्रियाएँ एक दूसरे से गुँथे हुए, सधे हुए  विधि से प्रवाहित रहना पाया जाता है । सम्पूर्ण देश काल क्रियाएं सह-अस्तित्व सहज विन्यास है । देश का तात्पर्य, यह धरती अपने में एक देश है  । इस धरती में अनेक देशों को विभिन्न आकार प्रकार से पहचाना गया है । ऐसे विभिन्न देशों में विभिन्न वस्तुएं न्यूनाधिक होना पाया जाता है । जैसे किसी देश में लोहा (अयस्क) अधिक होता है, किसी देश में न्यूनतम होता है । इसी प्रकार सभी प्रकार के धातुओं को देश काल विधि से पहचाना जाता है। इसी क्रम में वन, वनस्पति, अन्न वस्तुओं का उपज किसी देश में कुछ अधिक होता है और कुछ देश में कम होता है, कम से कम भी होता है । जैसे नीम का पे$ड किसी देश में अधिक होता है किसी देश में कम होता है या नहीं होता है । जीव-जानवरों की परंपरा भी किसी देश में कुछ प्रजाति के अधिक एवं कुछ प्रजाति की कम होता है । मानव जनसंख्या किसी देश में अधिक है, किसी देश में कम है। ये सब गणना कार्य के लिये आधार रूप में देखा जाता है। सम्पूर्ण गणनाएँ सह-अस्तित्व सहज पदों अवस्था और उसके अन्तर अवस्थाओं के साथ ही सम्पन्न होता है । और गणनाएँ, यह धरती जैसा अनंत धरती, अनंत सौर व्यूह के रूप में मानव मानस में स्वीकृत हो पाते हैं । इसी के साथ लंबाई, चौ$डाई, उँचाई भी गणना का एक आधार है । ये सभी गणनाएँ मूलत: निर्देश और संदेश कार्य को सम्पन्न करता है । इन्हीं दो प्रणाली में जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करने में सम्पूर्ण समझदारी, निष्ठा सहित कार्य-व्यवहार निर्देशित-संदेशित हो जाता है ।

मानव अपने परंपरागत विधि से संदेश और निर्देशपूर्वक ही प्रमाणित होने की विधि स्पष्ट हो जाता है । संदेश प्रणाली में अस्तित्व सहज कार्य और मानव सहज कार्य का संदेश समाया रहता है । यही शिक्षा तंत्र के लिये संपूर्ण वस्तु है । ऐसे संदेश के क्रम में काल, देश निर्देशन अवश्यंभावी है । इसी से पहचानने, निर्वाह करने का प्रमाण परंपरा में स्थापित होता है । मानव सहज कार्यकलापों को कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में या प्रत्येक कृत कारित, अनुमोदित रूप में हर मानव को कार्यरत रहता हुआ पाया जाता है । जागृत मानव में ही हर कार्य चिन्हित प्रणाली, निश्चित प्रयोजन विधि से सम्पन्न होना देखा गया है । यह भी देखा गया हर निश्चित लक्ष्य चिन्हित प्रणाली से ही सम्पन्न होता है या सार्थक होता है या सफल होता है । यह हर गंतव्य, हर प्राप्ति सहज प्रयोजनों को पाने के क्रम में देखने को मिलता है; जैसा किसी स्थली, नगरी, एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिये एक व्यक्ति तत्पर होता है । उस स्थिति में वह जहाँ रहता है वह स्थली निश्चित रहता है, जहाँ पहुँचना है वह भी निश्चित रहता है । इस बीच में चिन्हित मार्ग रहता है अथवा दिशा निर्धारण विधि से चिन्ह बन जाता है। कोई व्यक्ति परिवार, घर बनाने के लिये सोचता है, यह आवश्यकता पर आधारित रहता है । आवश्यकता जब गुरूतर हो जाती है आदमी घर बनाता ही है । घर बनाना लक्ष्य बन जाता है । उसका आकार-प्रकार मानव में विचार और चित्रण में आता है । ऐसे चित्रण को धरती पर चिन्हित किया जाता है। इसी धरती पर घर बनाने का कार्य सम्पन्न होता है। इसमें भी चिन्हित मार्ग, गम्यस्थली और आवश्यकता का संयोजन बना ही रहता है । इसी प्रकार से सम्पूर्ण प्रौद्योगिकी, कृषि, पशुपालन, ग्रामोद्योग, कुटीर उद्योग, हस्तकला, लघु-गुरू उद्योग, समान्याकांक्षा, महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं को पाना प्रयोजन हो जाता है । इसके लिये चिन्हित विधि को अपनाना होता है । इसके मूल में आवश्यकताएँ मानव में प्रसवित रहती ही हैं ।

सह-अस्तित्व सहज ज्ञान, दर्शन, विवेक-विज्ञान सहज तकनीकी सम्पन्न बौद्घिकता सहित मानव, मानव को पहचानने की विधि, परमाणु में विकास, विकास क्रम में गठनपूर्णता, जीवन पद, जीवन सहज जागृति की आवश्यकता उसका निश्चित प्रयोजन, उसे प्रमाणित करने के लिये चिन्हित प्रणाली का होना नियति सहज कार्यक्रम है । नियति सहज का तात्पर्य विकास और जागृति से है । जागृति का प्रमाण या जागृति का धारक, वाहक इस धरती में केवल मानव ही है । जागृति सदा ही सर्वतोमुखी होना पाया जाता है । जागृति, सर्वतोमुखी समाधान के रूप में प्रयोजित होता है ।

जीवन अपने स्वरूप में प्रत्येक मानव मेें समान रूप में कार्यरत है और होने की संभावना से परिपूर्ण है । इसे इस प्रकार देखा गया है कि जीवन रचना सम्पूर्ण जीवन में समान है । जीवन शक्तियाँ अक्षय रूप में हर जीवन में समान है । जीवन लक्ष्य प्रत्येक जीवन का समान है । जीवन सहज कार्यकलाप प्रत्येक जीवन में समान है । इन सभी वैभवों का प्रमाण मानव ही है । जागृत मानव में जीवन सहज लक्ष्य सार्थक होने के लिये चिन्हित, मार्ग स्पष्ट रहना, यही चिन्हित मार्ग को अर्थात् जीवन जागृति को परंपरा के रूप में अर्थात् धारक-वाहकता पूर्वक पी$ढी से पी$ढी सहज सुलभ करना-कराना और करने के लिये मत देना मानव सहज पुरूषार्थ परमार्थ का तात्पर्य है । जिसका साक्ष्य समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है । जिसका व्यवहार रूप अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी है ।

मानव परंपरा में जीवन जागृति का प्रमाण व्यवहार में ही सुलभ होना पाया गया है । फलस्वरूप परंपरा में जागृति का प्रभाव वैभवित रहना सहज है । यह सर्वमानव सहज अपेक्षा, आवश्यकता है । जागृत मानव ही जागृति परम्परा को अनुप्राणित करने में समर्थ और सार्थक हो पाता है और जागृत मानव परम्परा में मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सम्पन्न हर व्यक्ति स्वायत्त होना और ऐसे स्वायत्त मानव ही परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना स्पष्ट हो चुका है । परिवार मानव अपने में समाधान समृद्घि सम्पन्न होना भी स्पष्ट हुआ है । इस आशय की स्वीकृति सर्वमानव में होना पाया जाता है । ऐसा परिवार अर्थात् मानवीयतापूर्ण परिवार में हर स्वायत्त मानव सम्बन्धों को पहचानते हैं, मूल्यों का निर्वाह करते हैं, उभय तृप्ति पाते हैं । सम्बन्धों को सामान्य रूप में सम्बोधन सहज परंपरा,  प्रत्येक भाषा में प्रकारान्तर से स्पष्ट हुई है । पहले से यह बात भी स्पष्ट हुई है कि प्रत्येक सम्बन्ध का आशय फलस्वरूप में उसका वैभव भी अभिहित हुआ है।

सम्बन्ध की परिभाषा अपने स्वरूप में पूर्णता के अर्थ में अनुबंध है। पूर्णता का अर्थ क्रियापूर्णता एवं आचरणपूर्णता ही है । क्योंकि अस्तित्व में तीन चरणों में पूर्णता और उसकी निरंतरता का होना देखा गया है । यह गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता और उसकी निरंतरता है । गठनपूर्णता के अनन्तर जीवन और उसकी निरंतरता, क्रियापूर्णता के अनन्तर समाज और उसकी निरन्तरता और आचरण पूर्णता के अनन्तर प्रामाणिकता और उसकी निरंतरता होती है । इसे भली प्रकार से अस्तित्व में समझा गया है । इन्हीं मूल ध्रुवों के आधार पर ‘‘व्यवहारवादी समाज शा’’ प्रस्तुत हुआ है । अनुबंध का तात्पर्य अनुक्रम से प्रतिबद्घित स्थिरता निश्चयता रहने से है । प्रतिबद्घता का तात्पर्य निष्ठा केन्द्र । निष्ठा का तात्पर्य हर विधाओं में न्यायपूर्ण व्यवहार, नियमपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने से है ।

मानव सहज सभी सम्बन्ध पूर्णता को प्रतिपादित करने के लिये अनुबंधित रहने के कारण ही है । हर सम्बन्धों का पहचान के साथ ही मूल्यों का उद्गमन जीवन सहज रूप में व्यक्त होता है । इसका मूल स्रोत जीवन अक्षय शक्ति, अक्षय बल सम्पन्न रहना ही है । यह भी हम समझ चुके हैं कि जीवन ही शरीर को जीवन्त बनाए रखता है और जीवन अपने आशयों को शरीर के द्वारा मानव परम्परा में, से, के लिये अर्पित करता है। पहला-समझदारी को प्रमाणों के रूप में अर्पित करता है और प्रबोधनों के रूप में अर्पित करता है । प्रबोधन किसी को बोध के लिए अर्पित होता है और प्रमाण स्वतृप्ति और तृप्तिपूर्ण परम्परा के आशय में घटित होती है । यह जीवन जागृति की स्वाभाविक क्रिया है । जागृत मानव ही व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण होना पाया जाता है। व्यवस्था स्वयं में न्याय, उत्पादन और विनिमय सुलभता ही है । इन्हीं की निरन्तरता के लिये स्वास्थ्य-संयम और मानवीय शिक्षा-संस्कार एक अनिवार्य स्थिति है । इस प्रकार व्यवस्था का पाँच आयाम होता है । इन्हीं आयामों में भागीदारी, व्यवस्था में भागीदारी का तात्पर्य है । इस प्रकार हर जागृत मानव (परिवार मानव) सहज रूप में व्यवस्था को प्रमाणित करता है । यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का आधार और अभिव्यक्ति  है ।

सम्बन्धों को मानव के सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार के आधार पर सम्बोधन रूप में पहचाना जाता है । जिसकी सूची पहले प्रस्तुत किया गया है । हर सम्बन्धों का प्रयोजन भी उसी के साथ स्पष्ट है ।

मानव सम्बन्धों का प्रकार

  1. माता – पुत्र – पुत्री, पिता – पुत्र – पुत्री
  2. भाई – बहिन
  3. मित्र – मित्र
  4. गुरू – शिष्य
  5. पति – पत्नी
  6. स्वामी (साथी) – सेवक (सहयोगी)
  7. व्यवस्था संबंध (व्यवस्था – कार्यप्रणाली) ।

हर सम्बन्धों में पूरकता प्रधान ज्ञान प्रणाली व्यवस्था के रूप में कार्यप्रणाली गति के रूप में सह-अस्तित्व सहज रूप में ही स्पष्ट होता है । हर संबंध एक-दूसरे के पूरक होने के अर्थ में नित्य प्रतिपादन है । अस्तित्व सहज व्यवस्था क्रम में पूरकता विधि प्रभावशील है । इसके मूल में अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व ही है ।

हर सम्बोधन में अपेक्षाएँ समाहित रहना पाया जाता है । हर सम्बन्धों के सम्बोधन प्रक्रिया में जागृति की अपेक्षा रहता ही है । उसके साथ तीन सम्बन्ध ही देखने को मिला ।  ये तीन सम्बन्ध मानव सम्बन्ध, नैसर्गिक सम्बन्ध, और व्यवस्था सम्बन्ध हैं । मानव सम्बन्ध में अपेक्षाएं शरीर पोषण-संरक्षण, समाजगति की अपेक्षाएँ प्रकारान्तर से समायी रहती है। पोषणापेक्षा-पोषण प्रवृत्तियाँ तन, मन (जीवन) और धन, के सम्बन्धों में अथवा तन, मन (जीवन) और धन रूपी तथ्यों का पोषण, संरक्षण अपेक्षा और प्रवृत्ति मानव सहज गति होना पाया जाता है । यथा-

_.   जागृत मानव अन्य की जागृति के लिये प्रवृत्त रहता है ।

_.   स्वस्थ मानव अन्य के स्वस्थता के लिए प्रयत्नशील रहता है ।

_.   समृद्घिशील मानव अन्य के समृद्घि सम्पन्नता में सहायक होने के लिये प्रवृत्तशील रहता है ।

_.   न्याय प्रदायी क्षमता सम्पन्न मानव, अन्य को न्याय सुलभ होने के लिये प्रवृत्तिशील रहता है ।

‘.    किसी उत्पादन-कार्य में पारंगत मानव अन्य को पारंगत बनाने के लिये प्रवृत्तिशील रहता है ।

_.   मानव स्वयं व्यवस्था में जीता हुआ समग्र व्यवस्था में भागीदारी करते हुए अन्य को व्यवस्था में भागीदारी के लिये प्रेरित करने में प्रवृत्तिशील रहता है ।

इस विधि से हर प्रौ$ढ-पारंगत, स्वायत्त मानव अपने अर्हता के प्राप्तियों को स्थापित करने में प्रवृत्तिशील रहता है । मानव अपने परम्परा बनाने में प्रवृत्तिशील है चाहे यह अमानवीयता के सीमा में हो या मानवीयता-अतिमानवीयता के रूप में क्यों न हो ?

मानवीयता और अति-मानवीयतापूर्ण ज्ञान, विवेक, दर्शन, विज्ञान पूर्वक हर व्यक्ति अपने को अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित करते हुए देखने को मिलता है । इसी आधार पर अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का उदय होता है । यह व्यवहारवादी समाजशा अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था को प्रतिपादित करता है और संतुष्ट है ।

अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में, से, के लिये जागृति ही प्रधान आधार है । जागृति केवल मानव में ही होना पाया जाता है । इसलिये मानव में ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था की संभावना बनी हुई है । दूसरे विधि से हर-मानव स्व जागृति को वरता ही है । अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था की अपेक्षा करता ही है । यही ज्ञानावस्था सहज मौलिक अपेक्षा है। जागृति जीवन सहज अधिकार है । यही जीवन क्षमता के रूप में विद्यमान रहता है । यही योग्यता पात्रता के रूप में अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित होते हैं । इसी विधि से कायिक-वाचिक, मानसिक, कृत-कारित, अनुमोदित भेदों से सम्पूर्ण मानव सम्बन्ध बनाम समाज सम्बन्ध दूसरा व्यवस्था सम्बन्ध, तीसरा नैसर्गिक सम्बन्धों को जानते, मानते, पहचानते और निर्वाह करते हैं ।

परिवार सम्बन्ध, मानव सम्बन्ध, समाज सम्बन्ध ये सब आवश्यकतानुसार उपयोग करने का नाम है । सबका निर्देशित अर्थ, चिन्हित अर्थ अखण्ड समाज ही है । अखण्ड समाज का पहचान, लक्ष्य, प्रयोजन, प्रणाली, पद्घति, नीतियों के समानता से है । मानव लक्ष्य समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व होना ही है । प्रयोजन व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी है । मानवीयतापूर्ण पद्घति न्याय, उत्पादन, विनिमय, स्वास्थ्य-संयम और शिक्षा-संस्कार में पूरकता प्रणाली परिवार मूलक स्वरा’य व्यवस्था प्रणाली और नीति तन, मन, धन रूपी अर्थ के सुरक्षा हैं, यही मानव का मौलिक अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन है । अस्तित्व नित्य प्रकाशमान होने के कारण अस्तित्व में हर वस्तु का प्रकाशित रहना स्वाभाविक है । सम्पूर्ण अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन अस्तित्व सहज ही है । अस्तित्व स्वयं ही नित्य अभिव्यक्ति व संप्रेषणा है । मानव अस्तित्व में अविभा’य वर्तमान व अभिव्यक्ति है । सभी अभिव्यक्तियाँ सभी अवस्थाओं में अभ्युदय के अर्थ में ही व्यक्त हैं । इस प्रकार अस्तित्व स्वयं में ही प्रकाशित, अभिव्यक्त व सम्प्रेषित है । इस क्रम में यह समझ में आता है कि अस्तित्व निरंतर स्पष्ट व प्रकाशमान है । अस्तित्व ही नित्य संप्रेषणा है जो नित्य समाधान नित्य व्यवस्था है । अस्तित्व ही नित्य व्यक्त अभिव्यक्त हैं क्योंकि अस्तित्व सदा-सदा स्थिर, शाश्वत है, नित्य वैभव है । इन्हीं तथ्यों से यह भी ज्ञात होता है कि अस्तित्व में, से, के लिये कोई रहस्य व कोई अवरोध एवं संघर्ष नहीं है । विरोध नहीं है, विद्रोह नहीं है, विपन्नता नहीं है। ब$डे-छोटे के रूप में कुंठा-निराशा नहीं है । युद्घ व शोषण नहीं है । ये सभी नकारात्मक पक्ष मानव के द्वारा अपनाया हुआ भ्रमित परम्परा का देन है।

जागृत परम्परा में मानव ही सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा व परिप्रेक्ष्य सर्व देशकाल में जागृत शिक्षा यथा अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन रूपी जीवन ज्ञान सहज परम ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहज सह-अस्तित्व रूपी परम दर्शन, मानवीयतापूर्ण आचण रूपी परम आचरण, ज्ञान-विज्ञान विवेक सम्मत समाधानपूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभ होता है । जागृति सहज मानवीयतापूर्ण आचरण और मानव सहज परिभाषा के अनुरूप शाों का प्रणयन स्वाभाविक रूप में ही है । आवर्तनशील अर्थशास्त्र अपने सह-अस्तित्व सहज सूत्रों के प्रतिपादन सहित व्याख्यायित हुआ है । यह परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन के लिये अपनाया हुआ उत्पादन कार्य में नियोजित श्रम, उत्पादन सहज उपयोगिता के आधार पर उसका मूल्यांकन फलस्वरूप श्रम विनिमय प्रणाली स्थापित होती है । यह समझ के करो विधि से सर्वसुलभ हो जाता है । इसी क्रम में यह व्यवहारवादी समाजशा भोगोन्मादी समाज शा के स्थान पर प्रस्तावित किया है ।

इस विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो गया कि जीवन जागृतिपूर्वक ही हर मानव स्वायत्तता पूर्वक परिवार मानव होने का प्रमाण सहित स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह करता है। जीने की कला दूसरे विधि से मानवीयतापूर्ण आचरण विधि मानव सहज परिभाषा क्रम से ही मानवीयता का व्याख्या सहज ही सार्थक हो जाता है । सार्थक होने का तात्पर्य अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था क्रम में भागीदारी है । अखण्ड समाज सूत्र परिवार विधि से सार्थक होना पाया जाता है । परिवारों का स्वरूप और विशालता को दश सोपानों में स्पष्ट किया गया है । इसी के साथ-साथ दश सोपानों में सभा-स्वरूप व्यवस्था कार्य, कर्तव्य, दायित्व को स्पष्ट किया है । परिवार क्रम में मूल्य, चरित्र, नैतिकता अविभा’यता को सहज ही स्पष्ट किया जा चुका है । दश सोपानीय समाज रचना और व्यवस्था गति अपने-आप में एक दूसरे को संतुलित करने के अर्थ से हम अभिहित होते हैं । जैसेे:- परिवार- जिसका सूत्र सम्बन्ध मूल्य, मूल्यांकन, उभय-तृप्ति और परिवारगत उत्पादन-कार्य में पूरकता फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन है। परस्पर परिवार व्यवस्था में विनिमय एक अनिवार्य कार्य है । इसी के साथ सीखा हुआ को सिखाने, किया हुआ को कराने, समझा हुआ को समझाने का कार्य प्रणाली सदा-सदा जागृत मानव पंरपरा में वर्तमान रहता ही है । इसी क्रम में सर्वमानव सुख, सर्वमानव शुभ और सर्वमानव समाधान सर्वसुलभ होता ही रहता है । इस स्थिति को पाना सर्वमानव का अभीप्सा है। अतएव सुलभ होनेे का मार्ग सुस्पष्ट है ।

जागृतिपूर्वक ही सम्बन्ध स्वीकृति अवधारणा में हो पाता है यही एक संस्कार है । ऐसी अवधारणा ही सम्बन्धों का प्रयोजन सहज सत्य के रूप में स्वीकृत होना देखा गया । यह क्रिया जागृत जीवन शक्तियों का दर्शन क्रियाकलाप के फलस्वरूप घटित होना देखा गया है । जागृत जीवन बल ही मूल्य और मूल्यांकन में प्रस्तुत होता है । फलस्वरूप समाधान समीकृत (फलित) होता है । यही मानव धर्म सहज सुख का स्रोत है । यह स्रोत प्रत्येक मानव में जागृत जीवन के रूप में वैभवित होना पाया जाता है । जीवन जागृत होने में कोई भी, कितना भी भ्रमित परिकल्पनाएं बाधा का कारण नहीं हो पाता है, जैसे-विविध रंग, जाति, वर्ग, देश, भाषा, लिंग, नस्ल । यह सभी मिलकर अथवा किसी एक जो मानव में विविधता का कल्पना समा लिया वह सब जागृति के सम्मुख होने के स्थिति में अपने आप विलय हो जाता है । एक सूत्र में सभी व्यर्थ-अनर्थ, पाश्वीय-राक्षसी कल्पनायें मानवीयता सहज जागृति के प्रभाव के साथ साथ ही सभी भ्रम, निभ्रम (जागृति) में विलय हो जाते हैं । जैसे एक गणित का प्रश्न का, सही उत्तर पाने के लिये प्रक्रिया-प्रयास तब तक किया जाता है जब तक सही उत्तर पाया नहीं गया । जब सही उत्तर समझ में आ जाती है उसी के साथ-साथ गलती करने वाला विविध भ्रम अपने-आप उत्तर ज्ञान में विलय हो जाता है। विलय होने का तात्पर्य इतना ही है जिसका प्रभाव शेष नहीं निशेष हो जाता है ।

सम्बन्ध का स्वीकृति अथवा अवधारणा अपने स्वरूप में समाधान और उसकी निरंतरता ही है । यह विज्ञान और विवेक सम्मत तर्क विधि से बोध होता है । ऐसा बोध सम्पन्न होने का अधिकार, प्रत्येक जीवन में समाहित रहता ही है । यहाँ यह भी स्मरण में रहना आवश्यक है कि जीवन ही दृष्टा, कर्ता और भोक्ता होता है । यह जागृतिपूर्वक ही अनुभव गम्य होता है क्योंकि बोध के अनन्तर अनुभव ही एकमात्र जागृति के लिये सोपान है । अध्ययनपूर्वक अस्तित्व बोध जीवन बोध और संबंध बोध होना देखा गया है । इन्हीं सम्बन्ध बोध में प्रयोजन रूपी समाधान को व्यक्त करना ही अथवा प्रमाणित करना ही मूल्यों का निर्वाह है । समाधान अपने स्वरूप में सुख ही है । यही समाधान सम्पूर्ण आयाम, कोण, परिप्रेक्ष्य, देश, कालों में प्रमाणित होने के क्रम में ही सर्वतोमुखी समाधान कहलाता है । हर विधाओं में प्रमाण सहज अभिव्यक्ति अनुभवमूलक विधि से ही सम्पन्न होना पाया जाता है । इसलिये सम्बन्ध अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में अनुभव होना स्वाभाविक है और जागृति का साक्ष्य है ।

_. अभ्यास विधि से जानना-मानना-पहचानना-निर्वाह करना ही सम्पूर्णता है । दूसरे भाषा में अनुभव और अभिव्यक्ति ही सम्पूर्णता है । स्वीकारा गया सम्पूर्ण अवधारणाएँ प्रमाणित होने के लिये उत्सवित रहता ही है । ऐसी बोध सहज उत्सव क्रियाकलाप को प्रखर प्रज्ञा के नाम से इंगित कराया गया । सम्पूर्ण प्रकार के अभ्यास का प्रयोजन प्रज्ञा प्रखर होना ही है । जागृति क्रम में जानना, मानना, पहचानना अध्ययन विधि से अध्ययनपूर्वक निर्देशन सहित बोध होना पाया जाता है । इसी क्रम में जागृत परंपरा प्रदत्त विधि से सम्बन्धों का पहचान, प्रयोजनों का बोध स्वाभाविक रूप में होना पाया जाता है । यह हर मानव संबंध, नैसर्गिक सम्बन्धों में निहित मूल्यों, मूल्यांकन, प्रयोजन के रूप में समझ में आता है । यही सम्बन्ध और मूल्य बोध होने की विधि है ।

सम्बन्ध और मूल्य अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में ही होना स्पष्ट हो चुका है । शरीर और जीवन का संयोग भी सह-अस्तित्व सहज सूत्र से ही सूत्रित है । सर्वमानव भी सह-अस्तित्व में ही जीवन जागृति को प्रमाणित करने का कार्य करता है, या करना चाहता है या करने के लिये बाध्य है । सह-अस्तित्व स्वयं मानव में होने वाले अनुभव सहज स्वीकृति है । इन स्वीकृति के साथ ही प्रमाणित होने के क्रम में सम्बन्ध मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति प्रमाणित होना पाया जाता है । यही चरित्र का चरमोत्कर्ष प्रयोजन है । ऐसे चरित्र के आधार पर ही नैतिकता स्वाभाविक रूप में सार्थक होता है । इसे भली प्रकार से परखा गया है, जीकर देखा गया है ।

माता-पिता :-

सम्बन्धों का क्रम पहले सूची में प्रस्तुत किया जा चुका है । उसमें से पहला सम्बन्ध माता-पिता और पुत्र-पुत्री संबंध है । हर शिशु, हर वृद्घ जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में ही होना देखा गया है । शरीर विधा से मानव परंपरा की निरंतरता के लिये एक शरीर रचना वह भी वंशानुगत विधि से सम्पन्न होना पाया जाता है । हर संतान के लिए माता-पिता का सम्बन्ध इसी आधार पर होना पाया जाता है । इसके अनंतर शरीर संरक्षण, पोषण के आधार पर माता-पिता के सम्बन्धों को पहचाना गया है । यह पोषण और संरक्षण रूपी अपेक्षा शिशुकालीन संबोधन में ही निहित रहना पाया जाता है । जैसे ही शिशुकाल से कौमार्य अवस्था शरीर के आयु के अनुसार गणना हो पाता है ऐसी स्थिति में पुत्र-पुत्री के सम्बोधन में भी अपेक्षाएँ आरंभ होते हैं । ये अपेक्षाएं मानवीयतापूर्ण सभ्यता, संस्कृति, भाषा के आधार पर होना पाया जाता है । माता-पिता शिशुकाल में शिशु से कोई अपेक्षा नहीं करते । यह सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है । जैसे ही शिशु काल से यौवन काल आता है, (शरीर के आधार पर ही इस समय को पहचाना जाता है), तब तक माता-पिता की अपेक्षाएँ और ब$ढ जाती हैं विशेषकर जीवन जागृति सहज संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था के अनुरूप देखना चाहते हैं। यह घटित होना सफलता का द्योतक है । इसी के साथ मानवीय शिक्षा-संस्कार जु$डा ही रहता है । फलस्वरूप हर अभिभावकों से अपेक्षित अपेक्षाएँ सभी संतानों में सफल होने की स्थिति निर्मित हो जाती है । इसका कार्यसूत्र मानवीय शिक्षा-संस्कार सुलभ होना और उसका मूल्यांकन, परामर्श, प्रोत्साहन परिवार में हो पाना, मानवीयतापूर्ण परंपरा में सहज हो जाता है । इसका स्वरूप अर्थात् हर विद्यार्थी का स्वरूप शिक्षा-संस्कार काल में ही स्वायत्त मानव के रूप में परिणित और परिवार में प्रमाणित हो जाता है । इसलिये परिवार में स्वायत्तता का अनुभव सहज हो जाता है ।

जागृत मानव परंपरा मेें हर अभिभावक स्वायत्त रहता ही है । ऐसा जागृत अभिभावक अपने संतान में जागृति को अथवा जागृति सहज कार्य-व्यवहार को प्रमाणित करता हुआ देखना चाहते हैं । यह स्वाभाविक है । यही परम संगीतमय कार्यक्रम का आधार होता है और सर्वशुभ कार्यों में भागीदारी निर्वाह करने में सहज होता है । इसी क्रम में शरीर पोषण-संरक्षण  का फलन समाज गति रूप में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करने में सहज होता है ।

शिक्षा ही संस्कार रूप में जब प्रतिष्ठित होता है उसी मुहूर्त से जीवन जागृत होना स्वाभाविक होता है । जागृति पूर्ण मानव परिवार का वातावरण पाकर प्रमाणित होने की आवश्यकता-संभावना बलवती होती है। यही समाज गति का मूलसूत्र है ।

सम्बन्धों का पहचान सदा-सदा ही अनुभव महिमा और गरिमा होना पाया जाता है । महिमा का तात्पर्य स्वीकृत और अपेक्षित लक्ष्य की ओर गति और लक्ष्य प्राप्ति के रूप में होना देखा गया है । सर्वशुभ ही मानव परंपरा में, से, के लिये समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व ही है । यही जीवन जागृति है । जीवन में, से, के लिये सुख-शांति, संतोष-आनन्द है । सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द यह जीवन सहज शक्तियों और बलों में पूरकता का ही फलन है । सर्वशुभ का प्रमाण जागृत जीवन शक्ति और बलों की सम्मिलित अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन है । इस विधि से हर परिवार मानव अपने सफलता और समग्र मानव के सफलता को मूल्यांकित कर पाता है । यही गरिमा का तात्पर्य है ।

हर जागृत, स्वायत्त परिवार मानव ही अभिभावक के रूप में होना स्वाभाविक है अथवा माता-पिता के रूप में होना स्वाभाविक है। ऐसे अभिभावकों में उदारता और दयापूर्ण कार्य-व्यवहार स्वाभाविक रूप में बना रहता है । मानव अपने स्वायत्तता के साथ ही ऐसी अर्हता से सम्पन्न हुआ रहता है । परिवार मेें समाधान और समृद्घि वैभव के रूप में रहता ही है । ऐसा वैभव हर परिवार में मानवीयतापूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति से सर्वसुलभ हो जाता है । इस क्रम और विधि से मानव परम्परा में कोई विपन्नता का कारण शेष नहीं रह जाता । परिवार मानव के स्वरूप में यह वैभव सदा-सदा प्रमाणित रहता ही है । न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता हर परिवार मानव का प्रमाण अथवा अभिव्यक्ति है । समृद्घि, समाधान के योगफल में ही मानव परंपरा का वैभव प्रमाणित होता है । इससे कम में सम्भावना ही नहीं, इससे अधिक की आवश्यकता ही नहीं । समाधान-समृद्घि सहज हर अनुभव, के अनुरूप हर अभिभावक अपने संतानों में संस्कार डालने में समर्थ होते ही हैं । क्योंकि समाधान-समृद्घि, दिशा और प्रक्रिया से हर अभिभावक गुजरे रहते हैं फलस्वरूप उसी दिशा में संस्कार आरोपण सम्बोधन नाम से चलकर अवधारणा पर्यन्त सूत्रित होना, रहना, करना जागृति सहज गति है । यही प्रमुख स्रोत है जो पी$ढी से पी$ढी तृप्त होने का संधान है । संधान का तात्पर्य पूर्णता के अर्थ में अवधारणाओं को स्थापित करने और होने से है । यही पी$ढी से पी$ढी के मध्य तृप्ति स्रोत है । इसी स्रोत का धारक वाहक हर अभिभावक होना जागृत परंपरा का वैभव है।

जागृत पंरपरा में पी$ढी से पी$ढी संगीतमयता का प्रवाह होना समीचीन रहता ही है । जागृति पंरपरा में ही अभय और सह-अस्तित्व का प्रमाण, ग्राम परिवार और विश्व परिवार रूपी अखण्ड समाज में, ग्राम सभा परिवार और विश्व परिवार सभा रूपी व्यवस्था और व्यवस्था क्रम में सदा-सदा के लिये वर्तमान में विश्वास और सह-अस्तित्व प्रमाणित होना समीचीन रहता ही है । इस प्रकार परंपरा के निरंतरता की संभावना स्पष्ट है।

व्यवस्था सहज विधि से नियमपूर्ण कार्य और समाज विधि से न्यायपूर्ण व्यवहार प्रमाणित होता है । यह परस्पर पूरक होने के आधार पर समाधान सहज ही वर्तमान वैभव सम्पन्न होता है । इसी क्रम में मानव सर्वतोमुखी समाधान सम्पन्न होने, करने-कराने योग्य होता है । नियमपूर्ण कार्यकलाप नैसर्गिकता के साथ संयोजित रहना देखा गया है और न्यायपूर्ण व्यवहार परस्पर मानव में सार्थक होना देखा गया है । नियम का संतुलन न्याय से, न्याय का संतुलन नियम से वैभवित होना ही समाधान और उसकी निरंतरता है । समाधान मानव सहज अनुभव है । नियम और न्याय भी अनुभव गम्य तथ्य है । इस प्रकार अनुभव मूलक विधि से ही मानव पंरपरा समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व रूपी वैभव से वैभवित रहना सहज है । यही जागृत मानव परंपरा का सम्पूर्णता है । इस क्रम में प्रमुख मुद्दा और प्रमाण परिवार में समाधान, समृद्घि समस्त परिवार के परस्परता में अभय, सह-अस्तित्व सार्थक होने का, वर्तमान में चरितार्थ होने की स्थिति और गति ही जागृत मानव पंरपरा है । इस प्रकार सम्मिलित रूप में सम्पूर्ण मानव में सर्वशुभ उक्त चारों वैभव जागृति के साथ सूत्रित रहता है । अतएव उदारता और दयापूर्ण कार्य-व्यवहार हर मानव में, हर सम्बन्धों में और हर पदों में व्यवहृत होना स्वाभाविक है । इसलिये हर संतान के साथ उदारता और दयापूर्ण कार्य सम्पन्न होना स्वयं स्फूर्त होता ही है । यही माता-पिता के साथ प्रौ$ढ संतान का कार्य-व्यवहार कृतज्ञता पूर्वक, उदारता सहित सम्पन्न होना स्वाभाविक है । इस प्रकार जागृत परंपरा सहज संगीत और स्वर समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व के रूप में वैभवित होना पाया जाता है ।

 

भाई-बहन –

भाई-भाई, भाई-बहन, बहन-बहनों के बीच उनके सम्बन्ध और परस्पर परीक्षण कार्यकलाप जागृतिगामी दिशा, व्यवहार और कार्यप्रणाली के साथ गतिशील होता है । यही परस्पर पूरकता विधि को प्रमाणित करता है । इसका स्रोत मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा ही है । बाल्यावस्था से ही घर परिवार, शिक्षण संस्थाओं में मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभ होना सहज रहता ही है । इसके फलस्वरूप प्राप्त शिक्षा-संस्कार और कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता के योगफल में मुखरण होना स्वाभाविक क्रिया है । मुखरण होने का तात्पर्य हर विद्यार्थी अपने-अपने ढंग से प्रकाशित-संप्रेषित होना ही है ।

प्रत्येक जीवन, मानव पंरपरा में जागृति और जागृतिपूर्ण होने और प्रमाणित होने के उद्देश्य से ही इस शरीर को जीवन्त बनाए रखने, शरीर संवेदना का दृष्टा होने के अर्हता सहित शरीर यात्रा को आरंभ करता है । परंपरा जागृत रहने के आधार पर ही जीवन जागृति पंरपरा बनना सहज संभव है । जागृत परंपरा का स्वरूप पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। पुनश्च यहाँ स्मरण के लिये अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन फलत:  अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में अनुभव सम्पन्नता के प्रामाणिकता सहित जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिये प्रयोजन और प्रक्रिया विधि से बोधगम्य कराने वाली अध्ययन, अध्यापन, शिक्षण, प्रशिक्षण (पारंगत हुआ को सिखाना, किया हुआ को कराना) विधि से अस्तित्व सहज व्यवस्था रूपी वैभव की अवधारणाओं को स्थापित करना ही शिक्षा-संस्कार का प्रधान प्रभाव और परंपरा है । यही सर्वप्रथम मानवकृत वातावरण का महिमा है । यह जागृति का द्योतक है । इस क्रम में हर व्यक्ति सह-अस्तित्व में, से, के लिये आश्वस्त, विश्वस्त होना एक आवश्यकता रहता ही है । इसके आधार पर समग्र अस्तित्व का अवधारणा हर मानव जीवन में स्थापित होता है । प्रत्येक मानव स्वयं को समझने के क्रम में मैं अपने में क्या हूँ ? कैसा हूँ ? क्या चाहता हूँ ? इस प्रकार के प्रश्न चिन्ह विद्यार्थियों में लुप्त-सुप्त-प्रकट कार्य होना पाया जाता है । इसका उत्तर स्वयं में सह-अस्तित्व सहज अवधारणा के रूप में स्थापित होना पाया जाता है जैसा –

  • मैं मानव हूँ – मैं मनाकार को साकार करने वाला व मन: स्वस्थता का आशावादी व प्रमाणित करने वाला हूँ।
  • मैं ज्ञानावस्था की इकाई हूँ ।
  • मैं शरीर व जीवन का संयुक्त साकार रूप हूँ ।
  • मैं जीवन सहज रूप में जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने का क्रिया कलाप हूँ । शरीर रूप में पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों व उसके क्रियाकलाप का दृष्टा हूँ ।
  • मैं मानवत्व सहित व्यवस्था हूँ ।
  • मैं बौद्घिक समाधान व भौतिक समृद्घि सम्पन्न हूँ अथवा सम्पन्न होना चाहता हूँ ।
  • मैं जीवन जागृतिपूर्णता और उसकी निरंतरता चाहता हूँ, साथ ही भ्रम, भय व समस्याओं से मुक्त होना चाहता हूँ ।
  • मैं सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज में भागीदार होने का अधिकारी होना चाहता हूँ, स्वानुशासित होना चाहता हूँ एवं प्रत्येक मानव को ऐसा होता हुआ देखना चाहता हूँ ।

उक्त सभी आशय प्रत्येक भाई-बहनों में गतिशीलता सहज विधि से विशेषकर विचार शैली और वांूमय गति के लिये प्रधान बिन्दु है । इन बिन्दुओं के आधार पर एक-दूसरे के साथ वार्तालाप, विश्लेषण पूर्वक सम्पन्न होना एक आवश्यकता है । इसका उत्तर पाना भी परमावश्यक है । इसी के साथ-साथ विश्लेषणों को प्रयोजन सम्बद्घ होना महत्वपूर्ण बिन्दु है । ऊपर कहे आठ बिन्दुओं में से प्रयोजन भी इंगित होता है । प्रयोजनों को जानना, मानना ही विवेचना का तात्पर्य है । विश्लेषण से संगतीकरण प्रयोजन, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारीपूर्वक समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को प्रमाणित करना है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि हर विश्लेषण-सूत्र, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज क्रियाकलापों को वर्णित, व्याख्यायित करना ही प्रयोजन है । ऐसे प्रयोजनों के साथ ही सम्पूर्ण विज्ञान सहज अध्ययन सार्थक होना पाया जाता है । जीवन सहज विधि से मानव विवेक और विज्ञान सम्मत प्रणाली, पद्घति, नीति सम्पन्न होना पाया जाता है । सह-अस्तित्व विधि से ही सम्पूर्ण प्रयोजन पूरकता, विकास, संक्रमण, जीवन, जीवनीक्रम, जीवन का कार्यक्रम, जागृति और जागृति का निरंतरता स्वाभाविक रूप में प्रयोजनों के अर्थ में ही स्पष्ट हो जाता है । जैसे – एक परमाणु में एक से अधिक अंश निश्चित दूरी में रहकर कार्य करता हुआ देखने को मिलता है । फलस्वरूप परमाणु एक व्यवस्था के स्वरूप में मौलिक प्रस्तुति है । इसी प्रकार विभिन्न संख्यात्मक अंशों से गठित परमाणुओं का; रचना कार्य के योगफल में व्यवस्था के रूप में वर्तमान रहना स्पष्ट हुआ है ।

अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में अथ से इति तक, सह-अस्तित्व ही सम्बन्धों का मूल सूत्र है । परमाणु अंशों का संबंध और उसका निर्वाह के समानता में परमाणु व्यवस्था, परमाणुओं के परस्पर संबंध और उसका निर्वाह बराबर अणु व्यवस्था; अणु-अणु के साथ परस्पर सम्बन्ध और उसका निर्वाह बराबर रचना व्यवस्था । हर रचनाएँ विरचित होते हुए पुन:रचना के लिये पूरक होना पाया जाता है ।

जीवन और शरीर सम्बन्ध उसका निर्वाह वंशानुषंगीयता और व्यवस्था; जीवन और शरीर का परस्पर संबंध + जीवन जागृति सहज निर्वाह = संस्कारनुषंगीय अभिव्यक्ति एवं मानवीय व्यवस्था है ।

मानवीयता सहज सभी सम्बन्धों का प्रधान प्रमाण व्यवस्था के रूप में जीना, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना ही है । इस परम लक्ष्य को सदा-सदा परंपरा निर्वाह करने के क्रम में ही सभी प्रकार के सम्बन्धों को पहचानना मानव में, से, के लिये अनिवार्य है । इससे स्पष्ट हुआ है कि अस्तित्व ही सह-अस्तित्व के रूप में व्यवस्था मेंं भागीदारी को प्रकाशित करता है।अस्तित्व में मानव अविभा’य होने के कारण मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करना ही जागृति, समाधान, सर्वतोमुखी समाधान, व्यवस्था उसकी निरंतरता ही मानव परंपरा में परम प्रयोजन है । यही महिमा सर्वमानव शुभ के रूप में प्रमाणित हो जाती है । यही सह-अस्तित्व पूर्ण परिवार, समाज पुन: अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में स्पष्ट होना पाया जाता है । इन्हीं उद्देश्यों विधियों में जागृत होना ही शिक्षा-संस्कार, सम्बन्ध, सम्बन्धों में परस्पर अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, कार्य-व्यवहार का प्रकाशन ही प्रधान रूप में मित्र, भाई-बहिन सम्बन्धों में आचरण, परीक्षण, मूल्यांकन के लिये तथ्य है ।

उक्त तथ्यों का हृदयंगम और पारंगत विधियों से परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना स्वाभाविक है । यही मानव परंपरा का अनिवार्य आवश्यकता, सार्थकता है । इस प्रकार हर मित्र, हर भाई, हर बहिन समृद्घिपूर्वक व्यवस्था में जीना ही उद्देश्य है । इस विधि से भाई-बहन सम्बन्धों में शिशु कौमार्य अवस्था से ही पूरकता को पहचानने का क्रम बना हुआ है । अन्य सम्बन्धों में कुछ आयु के बाद ही पूरकता संबंध बन पाता है । यथा गुरू-शिष्य सम्बन्ध कुछ आयु के बाद आरंभ होता है। पति-पत्नी संबंध कुछ आयु के बाद आरंभ होता है ।

भाई-बहन संबध शिशुकाल से ही इंगित-निर्देशित हुआ रहता है । इनमें संस्कारों का समावेश रहना सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज सहज मानसिकता के लिए अर्पित होता ही रहता है । जैसा – हर ल$डकियों को बहन के रूप में सम्बोधन करने का क्रम चाहे अपने परिवार की हो चाहे अ$डोस-प$डोस, गाँव की क्यों न हो और भाई का सम्बोधन से सम्बन्धों का प्राथमिक अथवा आरंभिक परिचय इंगित होना पाया जाता है फलस्वरूप क्रम से विचार, इ’छा, चिन्तन, बोध और अनुभव में प्रमाणित होना पाया जाता है । सम्बोधन आरंभिक संस्कार है, इसका प्रधान क्रिया उ_ारण है । उ_ारण के अनन्तर रूप, कार्य, व्यवहार, आचरणों के आधार पर गुण स्वभावों को पहचानना संभव हो जाता है । यह हर शिशु में कार्यरत जीवन सहज महिमा है । धर्म बोध अध्ययन विधि से सम्पन्न हुआ रहता ही है । गुण, स्वभाव, कार्य-व्यवहार में निहित रहता है । उसके प्रमाणों, साक्ष्यों के आधार पर व्यवस्था अथवा समाधान कारक होना मूल्यांकित होता है । यही मूल्य और मूल्यांकन का महिमा है । उभय तृप्ति पाने का विधि भी यही है। अतएव शिशु, बाल्य, किशोर अवस्थाओं से ही भाई-बहनों और मित्रों का नैसर्गिकता और उसकी निरंतरता होने के आधार पर परस्पर मूल्यांकन अति सहज है । मूल्यांकन वास्तविक और सहायतापूर्ण होना स्वाभाविक है । यही पूरकता का परम उद्देश्य भी है । इस विधि से सुस्पष्ट है मित्र एवं भाई-बहन का सम्बन्ध सदा-सदा ही मूल्यांकन प्रणाली में गतित होना पाया जाता है । उभय जागृति के लिये यही सर्वोत्तम प्रणाली है । स्वाभाविक रूप में मानव परंपरा में एक भाई को एक बहन, एक मित्र को एक मित्र समीचीन रहता ही है ।

मित्र-मित्र सम्बन्ध –

जीवन ज्ञान सम्पन्नता के अनन्तर सुस्पष्ट हो जाता है कि सभी सम्बन्ध जीवन जागृति और उसका प्रमाणीकरण प्रणाली का ही पहचान है । जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान सम्पन्न होने के उपरान्त सम्पूर्ण प्रकार के सम्बन्धों, मूल्यों, मूल्यांकनों और उभयतृप्ति का पहचान, स्वीकृति मानसिकता, गति, प्रयोजन पुन: पहचान, मूल्यांकन क्रम आवर्तित रहता ही है । यह अनुस्यूत प्रक्रिया है । जीवन ही दृष्टा-कर्ता-भोक्ता होने का तथ्य जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत होने के फलन में सह-अस्तित्व में वर्तमानित रहता है। इसी आधार पर मित्र सम्बन्ध परस्पर अभ्युदय के लिये कामना, कार्य, मूल्यांकन करने में समर्थ रहता ही है । मित्र सम्बन्ध में भाई-भाई, बहन-बहन सम्बन्ध के सदृश जाँच, प$डताल, विश्लेषण, निष्कर्ष, मूल्यांकन सहायक होना पाया जाता है । दूसरे भाषा में सहायक होना ही सार्थकता है। हर सम्बन्ध कम से कम दो व्यक्तियों के बीच होना पाया जाता है। भाई और मित्र सम्बन्ध में समानता है । इसको आमूलत: विश्लेषण करने पर ल$डकों के साथ ल$डकों की मित्रता, ल$डकियों की मित्रता ल$डकियों से हो पाता है । क्योंकि आशय बहिन-बहिन और भाई-भाई का ही सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध का पावन रूप उभय जागृति, कर्तव्य, दायित्व उसकी गति प्रयोजन और उसका मूल्यांकन विधि से ही मित्रता और भाई-बहन सम्बन्ध सदा-सदा ही मानव परंपरा में पावन रूप में उपकार विधि और उसका शोध, निष्कर्ष को प्रस्तुत करते ही रहेंगे । पावन का तात्पर्य व्यवस्था के अर्थ में है । यही उपकार का स्वरूप है । यद्यपि सभी सम्बन्धों में आशित, इ’िछत, लक्षित और वांछित तथ्य समाधान, समृद्घि अभय, सह-अस्तित्व ही है । इस आशय अथवा आवश्यकता की आपूर्ति और इसके सर्वसुलभ होने के लिये समझना-समझाना, करना-कराना, सीखना-सीखाना स्वाभाविक प्रक्रिया है । इसी क्रम में समाज गति, व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी, स्वाभाविक रूप में मूल्यांकित होता है । ऐसे मूल्यांकन प्रणाली से ही मानव परंपरा में मानवीयतापूर्ण प्रणाली, पद्घति, नीति का दृ$ढता सुखद, सुन्दर, समाधान, समृद्घिपूर्वक प्रमाणित होना नित्य समीचीन रहता है । ऐसे सर्ववांछित उपलब्धि के लिये मित्र संबंध अतिवांछनीय होना पाया जाता है ।

गुरू-शिष्य सम्बन्ध –

इस सम्बन्ध में सम्बोधन का आशय सुस्पष्ट है । एक समझा हुआ, सीखा हुआ, जीया हुआ का पद है दूसरा समझने, सीखने, करके जीने का इ’छा, प्रवृत्ति जिज्ञासा का प्रस्तुति, ऐसे जिज्ञासु को शिष्य अथवा विद्यार्थी कहा जाता है, नाम रखा जाता है, सम्बोधन भी किया जाता है। दूसरे को गुरू आचार्य नाम से सम्बोधित किया जाता है । इस प्रकार गुरू का तात्पर्य प्रामाणिकता पूर्ण व्यक्ति का सम्बोधन । प्रामाणिकता का स्वरूप, समझदारी को समझाने व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में जीते हुए रहते हैं, दिखते हैं । फलस्वरूप मानवीयतापूर्ण आचरण, मानव का परिभाषा हर करनी में, कथनी में व्याख्यायित रहता है । यही गुरू के स्वरूप को पहचानने की विधि है । समझदारी का तात्पर्य सुस्पष्ट हो चुका है जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में पारंगत रहना । उसका प्रमाण अध्ययन प्रणाली से बोधगम्य करा देना ही समझाने का तात्पर्य है । मानव सहज जागृति परंपरा में स्वाभाविक ही हर अभिभावक जागृत रहना पाया जाता है । घर, परिवार, बंधु-बान्धवों से भी सम्बोधन पहचान सहित कितने भी भाषा बोलने के लिए सीखाए रहते हैं उन सबमें मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सूत्रों से अनुप्राणित सार्थक विधि रहेगा ही । विद्यार्थी विद्यालय में पहुँचने के पहले से ही मानवीयतापूर्ण संस्कारों का बीजारोपण होना स्वाभाविक है । यही जागृत परंपरा का मूल प्रमाण है ।

शिक्षा-संस्कार में अथ से इति तक मानव का अध्ययन प्रधान विधि से अध्यापन कार्य सम्पन्न होना सहज है । अध्ययन मानव का, मानव में, से, के लिये ही होना दृ$ढता से स्वीकार रहेगा । प्रत्येक मानव के अध्ययन में शरीर और जीवन का सुस्पष्ट बोध सुलभ होना पाया गया है । जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन निबद्घ विधि से अध्ययन सुलभ होने के कारण अस्तित्व मूलक मानव का पहचान, मानवीयतापूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति समेत पारंगत होने की विधि रहेगी । इसी विधि से हर आचार्य विद्यार्थियों को शिक्षण-शिक्षा पूर्वक अध्ययन कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ रहते हैं । जिसमें उनका कर्तव्य और दायित्व प्रभावशील रहना स्वाभाविक है । क्योंकि हर आचार्य शिक्षा, शिक्षण, अध्ययन का प्रमाण स्वरूप में स्वयं प्रस्तुत रहते हैं इसलिये यह सार्थक होने की संभावना अथवा निश्चित संभावना समीचीन रहता है ।

हर आचार्य स्वायत्तता विधि से परिवार में प्रमाणित रहते ही हैं । यही सर्वमानव का वांछित, आवश्यक और नित्य गति रूप जो अपने-आप में सुख-सुन्दर-समाधान है जिसका फलन समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। जिन प्रमाणों के आधार पर जीवन तृप्ति ही सुख, शांति, संतोष, आनन्द के नाम से ख्यात है । यही भ्रम-मुक्ति गतिविधि प्रमाण के रूप में हर विद्यार्थी के रूप में समीचीन रहता है । इस प्रकार भ्रम-मुक्त परंपरा का स्वरूप, कार्य, महिमा, प्रयोजन प्रमाण के रूप में रहना ही शिक्षा-संस्कार परंपरा का वैभव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में गतिशील रहता है ।

प्रत्येक स्वायत्त आचार्य व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी और व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण होना देखा जाता है । फलस्वरूप हर विद्यार्थी ऐसे सुखद स्वरूप में जीने के लिये प्रवृत्त होना स्वाभाविक है । जागृत मानव सार्वभौमिकता के अर्थ में स्वायत्त मानव के रूप में ही होना देखा गया । स्वायत्त मानव का शिक्षा-संस्कार विधि से प्रमाणित होना और स्वायत्त मानव का प्रमाण परिवार में होना, परिवार मानव का प्रमाण व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के रूप में स्पष्ट किया जा चुका है । इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सार्वभौम व्यवस्था का संतुलन अखण्ड समाज रचना से और अखण्ड समाज का संतुलन सार्वभौम व्यवस्था से है । इस विधि से शिक्षण संस्था (अध्ययन केन्द्रों) का स्वरूप अभिभावकों से नियंत्रित रहना और अध्ययन केन्द्र (शिक्षण संस्थाओं) का प्रयोजन कार्यकलाप जागृतिपूर्ण आचार्यों से नियंत्रित रहना देखा गया है । इसका तात्पर्य यही है हर अध्ययन केन्द्र में आचार्यों को व्यवसाय में स्वावलंबी रहने के लिये मानवीय आवश्यकता संबंधी वस्तुओं का उत्पादन करने के लिये योग्य व्यवस्था बनी रहेगी । उसे सदा-सदा बनाये रखना ही अभिभावकों से नियंत्रित अध्ययन केन्द्रों का स्वरूप है । अध्ययन केन्द्र में स्वाभाविक ही आवश्यकतानुसार भवन, अध्ययन और अध्यापन के लिये आवश्यकीय साधन और आचार्यों को व्यवसाय में स्वालंबन को प्रमाणित करने योग्य कृषि संबंधी, अलंकार संबंधी, गृह निर्माण संबंधी, पशुपालन संबंधी, ईंधन नियंत्रण संबंधी, ईंधन सम्पादन संबंधी, ईंधन नियोजन संबंधी, दूरश्रवण संबंधी, दूरगमन संबंधी और दूरदर्शन संबंधी यंत्र-उपकरणों को निर्मित करने योग्य साधनों को बनाये रखना ही व्यवसाय में स्वालंबन का प्रमाणस्थली के रूप में उपयोगी रहेगा ।

अध्यापन कार्य के लिये धन-वस्तु को विद्यार्थियों को शिक्षित, प्रशिक्षित, अध्ययनपूर्ण कराने के लिए एकत्रित की जाएगी । इसे अभिभावक समुदाय तय करेंगे, एकत्रित करेंगे । भवन, प्रयोग सामग्री, साधनों को संजोए रखेंगे । इसका नियंत्रण, परिवर्धन, परिवर्तन, नवीनीकरण आदि कार्यों में स्वतंत्र रहेंगे । आचार्य कुल विद्यार्थियों को परिवार-मानव और व्यवस्था-मानव में प्रमाणित होने योग्य स्वायत्त मानव का स्वरूप प्रदान करेंगे जो स्वयं अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने में समर्थ हो जायेगा एवं दूसरों को कराएगा, करने के लिये सम्मति देगा ।

अध्ययन संस्थाओं की अभीप्सा, स्वरूप, लक्ष्य, सामान्य क्रिया प्रणाली स्पष्ट हो चुकी है । मानव कुल में समर्पित संतानों को शिक्षा-संस्कार की अनिवार्यता होना पहले से स्पष्ट है । इसे सार्थक और सुलभ बनाने के क्रम में परिवार मूलक स्वरा’य व्यवस्था को दस सोपानों में स्पष्ट किया जा चुका है । व्यवस्था की निरंतरता में प्रधान आयाम मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार, पद्घति, प्रणाली, नीति ही है । शिक्षित हर व्यक्ति स्वायत्त होना सहज है । स्वायत्तता ही शिक्षित और संस्कारित व्यक्ति का प्रमाण है । ऐसी स्वायत्तता सर्वमानव स्वीकृत तथ्य है । इसलिये सार्वभौम नाम प्रदान किये हैं। सार्वभौम का तात्पर्य सर्वमानव स्वीकृत है, स्वीकृति योग्य है । मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार पूर्वक स्वायत्त मानव का स्वीकृति परिवार और व्यवस्था में भागीदारी करने के लक्ष्य से स्वीकृत होता ही है । ऐसे सार्वभौम रूप में स्वीकृत मानव ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए अपने को समाधानित और वातावरण को समाधानित करने में निष्ठान्वित रहना स्वाभाविक है । उसके लिये दायित्व और कर्तव्यशील रहना स्वाभाविक है । इन्हीं तथ्यों के आधार पर हर परिवार में समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व वर्तमान में प्रमाणित होता है । व्यवस्था, परिवार और समाज सदा ही वर्तमान में, से, के लिये अपने त्व सहित वैभवित होना है ।

मानवत्व सहित, मानवत्व के लक्ष्य में, स्वायत्त मानव शिक्षापूर्वक स्वरूपित होता है । जिसका प्रमाण परिवार, ग्राम परिवार, विश्व परिवार में भागीदारी के रूप में और परिवार सभा, ग्राम परिवार सभा और विश्व परिवार सभा में भागीदारी को निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है । यही परिवार मूलक स्वरा’य गति का स्वरूप है ।

जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज अध्ययन, न्याय, धर्म, सत्य प्रमाणित करने योग्य क्षमता, पात्रता को स्थापित करता है। अस्तित्व दर्शन स्वयं विज्ञान का सम्पूर्ण आधार है । अस्तित्व में ही समग्र व्यवस्था सूत्र और कार्य देखने को मिलता है । यही अस्तित्व दर्शन का जीवन जागृति क्रम में होने वाला उपकार है । विज्ञान का काल, क्रिया, निर्णयों की अविभा’यता और सार्थकता की दिशावाही होना पाया जाता है । घटनाओं के अवधि के साथ काल को एक इकाई के रूप में स्वीकारने की बात मानव की एक आवश्यकता है । जैसे सूर्योदय से पुर्नसूर्योदय तक एक घटना है । यह घटना निरंतर है । निरंतर घटित होने वाला घटना नाम देने के फलस्वरूप उस घटना से घटना तक निश्चित दूरी धरती तय किया रहता है । इसे हम मानव ने एक दिन नाम दिया । अब इस एक दिन को भाग-विभाग विधि से _० घ$डी, __ घंटा आदि नाम से विखंडन किया । मूलत: एक दिन को धरती की गति से पहचानी गई थी, खंड-विखंडन विधि से छोटे-से-छोटे खंड में हम पहुँच जाते हैं और पहुँच गये हैं । फलस्वरूप वर्तमान की अवधि शून्य सी होती गई । धरती की क्रिया यथावत् अनुस्यूत विधि से आवर्तित हो ही रही है । इससे पता लगता है मानव के कल्पनाशीलता क्रम से किया गया विखंडन यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता से भिन्न स्थिति में अथवा भिन्न स्थिति को स्वीकारने के लिये बाध्य करता गया। यह भ्रम, भ्रमित आदमी को और भ्रमित होने के लिये सहायक हो गया । इसका सार तथ्य विखण्डन विधि से किसी तथ्य को पहचानना संभव नहीं है । अथक कल्पनाशीलता मानव के पास, दूसरे नाम से विज्ञानियों के पास हैं ही और कल्पनाशीलता वश ही विखण्डन प्रवृत्ति के रूप में सत्य का खोज के लिए, जो कुछ भी यांत्रिक, सांकरिक विधि (संकर विधि) प्रयोग किया गया । उन प्रयोगों को काल्पनिक मंजिल मान लिया गया। उस मंजिल को अंतिम सत्य न मानने का प्रतिज्ञा भी करते आया । इन दोनों उपलब्धियों को विखण्डन विधि से पा गये ऐसा विज्ञान का सोचना है । गणित का मूल गति तत्व मानव का कल्पना है । गणित का प्रयोजन यंत्र प्रमाण है और उसके लिये विघटन आवश्यक है । यही मान्यताएँ है । जबकि देखने को यह मिलता है कि किसी यंत्र का संरचना अथवा संकरित पौधा, संकरित जीव-जानवर का शरीर संकरित बीज इन क्रियाकलापों को करते हुए विधिवत् संयोजन होना पाया जाता है अथवा किया जाना पाया जाता है ।

अध्ययन क्रम में विश्लेषण एक आवश्यकीय भाग है । हर विश्लेषण प्रयोजनों का मंजिल बन जाना ही विश्लेषण का सार्थकता है । सार्थकताओं का प्रमाण स्वयं मानव होने की आवश्यकता सदा-सदा ही बना रहता है । इसका स्रोत अस्तित्व में ही है । मानव का प्रयोजन स्रोत भी सह-अस्तित्व ही है । अस्तित्व में प्रयोजन का स्वरूप व्यवस्था के रूप में वर्तमान है। और विश्लेषण का स्वरूप सह-अस्तित्व के रूप में वर्तमान है । सह-अस्तित्व व्यवस्था के लिये सूत्र है व्यवस्था वर्तमान सहज सूत्र है । वर्तमान में ही मानव समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व को व्यवस्था के फलस्वरूप पाता है । मानव इस शुभ प्रयोजन के लिये अपेक्षित, प्रतीक्षित रहता ही है । मानव कुल में सर्वमानव का दृष्ट प्रयोजन यही है । यह सह-अस्तित्व विधि से सार्थक होता है । अस्तु विश्लेषण का आधार और सूत्र सह-अस्तित्व विधि ही है । जैसे सह-अस्तित्व विधि से एक परमाणु एक से अधिक परमाणु अंशों की गति और निश्चित चरित्र सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित करता है । यह सह-अस्तित्व प्रवृत्ति परमाणु अंशों में ही होना प्रमाणित होता है । क्योंकि परमाणु अंशों की प्रवृत्ति परमाणु गठन का एकमात्र सूत्र होना पाया जाता है । इस प्रकार हर परमाणु अंश व्यवस्था में वर्तमानित रहना उसमें व्यवस्था स्वीकृत होने का द्योतक है । मूलत: सूक्ष्मतम इकाई का स्वरूप परमाणु अंशों के रूप में होना पाया गया । परमाणु अंश स्वयं स्फूर्त विधि से ही परमाणु के रूप में गठित रहना होना अस्तित्व में स्पष्ट है । अतएव व्यवस्था का मूल सूत्र मानव के कल्पना प्रयास के पहले से ही विद्यमान है क्योंकि ऐसी अनंतानंत परमाणुओं के गठन में मानव का कोई योगदान नहीं है । यहाँ इसे उल्लेख करने का तात्पर्य इतना ही है कि जागृत मानव पंरपरा में मानव सही करने, कराने एवं करने के लिये सम्मति देने योग्य होता है । जागृति का प्रमाण गुरू होना पाया जाता है। जागृत होने की जिज्ञासा शिष्य में होना पाया जाता है ।

इसके लिये सार्थक विधि, विज्ञान एवं विवेक सम्मत प्रणाली होना है । भाषा के रूप में विज्ञान और विवेक का प्रचलन है ही । किन्तु प्रचलित विज्ञान विधि से चिन्हित सोपान प्रयोजन के लिये स्पष्ट नहीं हुआ । और विवेक विधि से चिन्हित, रहस्य मुक्त प्रयोजन पूर्वावर्ती दोनों विचारधारा से स्पष्ट नहीं हुई । सर्वसंकटकारी घटना का निराकरण हेतु सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व, व्यवस्था रूपी प्रयोजन चिन्हित रूप में सुलभ होता है। यही शिक्षा-संस्कार का सारभूत अवधारणा और बोध है ।

हर अध्यापन कार्य सम्पन्न करने वाला गुरू अपने में पूर्णतया जागृत रहना, जागृत रहने के प्रमाणों को निरंतर व्यक्त करने योग्य रहना आवश्यक है । यही अध्यापन कार्य सम्पन्न करने योग्य व्यक्ति को पहचानने-मूल्यांकन करने का आधार है। अस्तित्व अपने में चारों अवस्थाओं में वैभवित रहना इसी पृथ्वी पर दृष्टव्य है । यह चारों अवस्था परस्परता में सह-अस्तित्व सूत्र में, से, के लिये सूत्रित है । इसी सूत्र सहज महिमा को परमाणु गठन से रासायनिक-भौतिक रचना और विरचनाओं को विश्लेषण करना ही काल-क्रिया-निर्णय और उसके प्रयोजनों का स्रोत है । यह काल-क्रिया-निर्णय सहित प्रयोजन संबद्घ होने की आवश्यकता ज्ञानावस्था कि इकाई रूपी मानव का ही प्यास है । यही जिज्ञासा का स्वरूप है । इसी विश्लेषण अवधि में या क्रम में परमाणु में विकास, जीवन, जीवनी क्रम जीवावस्था में, मानव परंपरा में जीवन जागृति क्रम, जागृति, जागृति पूर्णता उसकी निरंतरता की भी पूरकता एवं संक्रमण विधियों का विश्लेषण स्पष्ट हो जाता है । ऐसा जागृत जीवन ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में कर्ता-भोक्ता होना प्रमाणित हो जाता है । फलस्वरूप मानव में व्यवस्था सहज रूप में जीने, समग्र व्यवस्था में भागीदारी की आवश्यकता-अर्हता का संयोगपूर्वक उत्साहित होने का, प्रवृत्त होने का, प्रमाणित होने का कार्य सम्पादित होता है । यही जागृति घटना और उसकी निरंतरता ही विवेक और विज्ञान सम्मत प्रणाली, पद्घति, नीति का वैभव है । इसकी आवश्यकता सर्वमानव में है । इसकी आपूर्ति मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार विधि से ही सम्पन्न होता है ।

जागृति पूर्णता एवं उसकी निरंतरता ही गुरूता का तात्पर्य है । यह जागृतिपूर्णता का धारक वाहकता और उसकी महिमा है । इसी के साथ हर मानव में जीवन सहज रूप में जागृति स्वीकृत रहता ही है । जागृति सहज ही अभिव्यक्ति क्रम में आरू$ढ रहता है । आरू$ढता का तात्पर्य स्वजागृति के प्रति निष्ठान्वित रहने से है । और स्व-जागृति के प्रति निष्ठा स्वयं के प्रति विश्वास का द्योतक है । स्वयं के प्रति विश्वास मूलत: स्वायत्त मानव में प्रमाणित रहता ही है । स्वायत्त मानव का स्वरूप और मूल्यांकन मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार का द्योतक होना पाया जाता है । दूसरे भाषा में प्रमाण होना पाया जाता है । यही सफल, सार्थक, वांछित और अभ्युदयशील शिक्षा है । शिक्षा का परिभाषा भी इसी के समर्थन में ध्वनित होता है । शिक्षा का परिभाषा अपने में शिष्टतापूर्ण दृष्टि का संकेत करता है ।

शिष्टता और सुशीलता ये अपेक्षाएँ सर्वमानव में विद्यमान है । शिष्टता का परिभाषा मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में विश्वास और उसकी अभिव्यक्ति है । सुशीलता का तात्पर्य मूल्य, चरित्र, नैतिकता का अविभा’य रूप में सभी स्थिति – गतियों में व्यक्त होना ही है । ऐसी शिष्टता हर मानव में, हर मानव से, हर मानव के लिये अपेक्षित रहना पाया जाता है । ऐसी शिष्टता ही सभ्यता का सूत्र है और संस्कृति सहज गति है । इस प्रकार सभ्यता हर स्थिति में मूल्यांकित होता है और संस्कृति हर गति में चिन्हित और मूल्यांकित होता है । इसी महिमावश अथवा फलवश हर मानव, मानव का परिभाषा सहज विधि से सोचने, सोचवाने, बोलने, बोलवाने और करने-कराने योग्य स्वरूप में प्रमाणित हो जाता है । यह शिष्टता, सुशीलता और परिभाषा एक दूसरे के पूरक होना पाया जाता है । यही समाज गति है । समाज गति का ही दूसरा नाम सार्वभौम व्यवस्था है । इस प्रकार परिवार क्रम में शिष्टता, सुशीलता और परिवार व्यवस्था क्रम में मानव का परिभाषा प्रमाणित होता ही रहता है। इससे पूर्णतया स्पष्ट होता है कि व्यवस्था क्रम और परिवार क्रम अविभा’य वर्तमान है ।

शिक्षा-संस्कार का परस्पर पूरकता प्रबोधन पूर्वक शिष्टता, सुशीलता और मानवीय परिभाषा सहज मुखरण विधि को बोधगम्य करा देना शिक्षा और उसकी विधि की प्रामाणिकता है। जिसका फलन अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था और उसकी निरंतर गति है । यही सर्वमानव सर्वशुभ सहज विधि से जीने देने का और जीने का सहज गति है । समाधान और सुख के रूप में पहचानना बनता है ।

सुख ही मानव धर्म होना पाया जाता है और ख्यात भी है । ख्यात का तात्पर्य सर्वस्वीकृत है । यह समाधानपूर्वक ही सर्वसुलभ होना होता है । समाधान सहज नित्य गति सर्वदेशकाल में सम्पूर्ण दिशा, कोण, परिप्रेक्ष्यों में और आयामों में जागृति सहज मानव में, मानव से, मानव के लिये दृष्टव्य है। अर्थात् हर जागृत मानव समाधान को देखने योग्य होता ही है । देखने का तात्पर्य समझने से ही है । समाधान का गति रूप सदा-सदा मानव परंपरा में ही नियम और न्याय सहज तृप्ति बिन्दु के रूप में पहचाना जाता है । नियम अथवा सम्पूर्ण नियम नैसर्गिकता और वातावरण के साथ प्रभावशील रहना पाया जाता है । न्याय मानव सहज संबंध/मूल्यों के रूप में वर्तमान होना पाया जाता है । सम्पूर्ण मूल्यों का अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन जीवन जागृति का ही महिमा है । दूसरे भाषा से जीवन तृप्ति का ही महिमा है । जीवन तृप्ति; जागृति पूर्णता और उसकी निरंतरता में ही देखने को मिलता है । यह सर्वमानव का अपेक्षा है । हर परिवार में जागृत अभिभावक जागृति पूर्ण शिक्षा संपन्न युवा पी$ढी में सामरस्यता अपने-आप परिवार मानव सहज विधि से प्रमाणित होता है । ऐसे सफल परिवार का पहचान, मूल्यांकन सहित गतित रहना ही मानव परंपरा की आवश्यकता, गरिमा, महिमा सहित प्रतिष्ठा है । जागृति पूर्ण मानव ही गुरू पद में वैभवित होना स्वाभाविक है । जागृति पूर्ण परंपरा में ही हर मानव संतान में जागृत पद प्रतिष्ठा को स्थापित करना सहज है। इस विधि से जागृति परंपरा के अर्थ में शिक्षा-संस्कार सार्थक होना पाया जाता है जिसकी अपेक्षा भी सर्वमानव में होना भी सहज है । शिक्षा-संस्कार, उसकी सफलता का मूल्यांकन स्वायत्त मानव, परिवार मानव के रूप में शिक्षा अवधि में ही मूल्यांकित हो जाता है। मूल्यांकन का आधार भी यही दो मापदण्ड है ।

पति-पत्नी संबंध –

(विवाह संबंध)- मानव परंपरा में विवाह संबंध अधिकांश लोगों में वांछित है । यह संबंध अपने-आप में परस्पर सर्वतोमुखी समाधान सहित विश्वास वहन करने की प्रतिज्ञा पूर्वक आरंभ होने वाला संबंध है। हर संबंधों में विश्वास वहन होना एक अनिवार्य और सामान्य स्थिति है। विवाह सम्बन्ध में भी विश्वास निर्वाह आवश्यक है ही । विवाह संबंध में होने वाले शरीर संबंध और उसकी अपेक्षा परस्परता में आयु के अनुसार विदित रहता है । इतना ही नहीं सर्वविदित रहता है । सभी संबंधों में जीवन सहज भागीदारी समान रूप में विद्यमान रहता है । विश्वास सभी संबंधों में जीवन सहज अपेक्षा है । क्रम से व्यवहार संबंध, व्यवस्था संबंध और शरीर संबंधों को विश्वासपूर्वक ही नियंत्रित किया रहना देखने को मिलता है ।

शरीर संबंध माता-पिता के सम्बन्ध में गर्भाशय और उसमें निर्मित होने वाले शरीर के रूप में गण्य होता है । भाई-बहन के साथ एकोदर अर्थात् एक गर्भाशय में निर्मित शरीरों के रूप में संबंध होना दिखता है । इसी क्रम में प्रत्येक मानव संतान की शरीर रचना में, उसके वैभव में स्वीकृतियाँ बना ही रहता है । हर मित्र संबंध, हर भाई-बहन के सम्बन्ध में शरीर संबंध का स्वरूप कहे गये स्वरूप में ही स्वीकृत रहता है । पति-पत्नी संबंध प्रधानत: गर्भाशय में शरीर रचना कार्य प्रवृत्ति ही होना पाया जाता है । इसी के साथ यौवन सम्पन्नता सहित यौन विचार से होने वाली आवेश मुक्ति के क्रियाकलाप को भी शरीर सम्बन्ध में पहचाना गया है । इस प्रकार शरीर सम्बन्ध का अर्थ विवाह सम्बन्ध से इंगित होने वाला बात स्पष्ट है । यह सामान्य रूप में मानवेत्तर प्रकृति और मानव से निर्मित वातावरणों का निरीक्षण विधि से भी शरीर सम्बन्ध विवाह विधि से होने वाला तथ्य इंगित रहता ही है । इसीलिये इसके लिये अलग से कोई शिक्षा प्रदान करने की आवश्यकता नहीं रह जाता ।

विवाह सम्बन्ध में प्रधान मुद्दा अन्य सम्बन्धों के सदृश्य ही विश्वास निर्वाह करना ही है । विश्वास वर्तमान में ही निर्वाह होता है । व्यवस्था पूर्वक ही परस्पर विश्वास होना स्वाभाविक है। व्यक्तित्व और सामाजिकता सूत्र अपने आप में, वर्तमान में, व्यवस्था के रूप में जीने के लिये पर्याप्त स्रोत है। व्यक्तित्व, कायिक-वाचिक, मानसिक, कृत-कारित, अनुमोदित विधियों से वर्तमान में संतुष्ट रहने, पाने का विधि है । हर मानव कायिक-वाचिक, मानसिक रूप में ही सम्पूर्ण कार्य-व्यवहारों को सम्पन्न करता है । कायिक, वाचिक, सम्पूर्ण क्रियाकलाप से मानसिक तृप्ति की आवश्यकता हर मानव में, से, के लिये अपेक्षित रहता है । तृप्त मानसिकता सहित हर मानव में कायिक-वाचिक-मानसिक क्रियाकलाप सम्पन्न होता हुआ देखा जाता है । कायिक-वाचिक-मानसिक क्रियाकलाप के मूल में विचार, इ’छा जिसके मूल में सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन के रूप में अनुभवों का वैभव प्रभावित रहना हर मानव में अध्ययन गम्य है ।

शिक्षा-संस्कार सम्पन्न होने के उपरान्त हर व्यक्ति को स्वायत्त और परिवार मानव के रूप में पहचानना स्वाभाविक होता है । परिवार मानव के रूप में ही हर सम्बन्धों का निर्वाह होना, प्रमाणित होना और प्रयोजित होना मूल्यांकित होता है । इसी आधार पर मौलिक अधिकारों को कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित करना ही परिवार मानव सहज सार्थकता है । परिवार मानव संबंधों में, से एक विवाह सम्बन्ध एक पत्नी, एक पति संबंध है । परिवार मानव का कार्य रूप अपने आप में व्यवस्था में जीना ही है । दूसरी भाषा में मानवीयतापूर्ण परिवार में ही व्यवस्था का प्रमाण सदा-सदा के लिये वर्तमानित रहता है । यही जागृत मानव परंपरा का भी साक्ष्य है । परम्परा में प्रधान आयाम परिवार और व्यवस्था का नित्य प्रेरणा स्रोत शिक्षा-संस्कार ही होना पाया जाता है । अतएव स्रोत और प्रमाण के संयुक्त रूप में ही अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था का सूत्र प्रतिपादित होता है । निष्कर्ष यही है परिवार में ही समाज सूत्र और व्यवस्था सूत्र कार्य, व्यवहार, आचरण रूप में प्रमाणित होना ही मानव परंपरा का वैभव है । यही मानवीयता पूर्ण परिवार का तात्पर्य है । इसी में समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का प्रमाण प्रसवित होता है । इस क्रम में हर परिवार में समाधान और समृद्घि का दायित्व, कर्तव्य, आवश्यकता और प्रयोजन परिवार के सभी सदस्यों में स्वीकृत होना और प्रभावशील रहना ही अथवा प्रमाणित रहना ही परिवार की महिमा और गरिमा है । मानवीयता पूर्ण परिवार का अपने परिभाषा में भी यही तथ्य इंगित होता है जैसा परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य एक दूसरे के संबंधों को पहचानते हैं; मूल्यों का निर्वाह करते हैं और मूल्यांकन करते हैं । फलस्वरूप उभयतृप्ति एक दूसरे के साथ विश्वास के रूप में जानने, मानने, पहचानने और निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होता है । यही परिवार सहज गतिविधि का प्रधान आयाम है । इसी के साथ दूसरा आयाम परिवार में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर सदस्य परिवार गत उत्पादन-कार्य में भागीदारी का निर्वाह करते हैं । फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन होना पाया जाता है । जिससे समृद्घि का स्वरूप सदा-सदा परिवार में बना ही रहता है । इसीलिये परिवार और ग्राम परिवार, परिवार समूह और परिवार के रूप में जीने की कला अपने आप में प्रसवित होती है। समृद्घि समाधान, सम्बन्धों, मूल्य, मूल्यांकन के आधार पर बनी ही रहती है । समाधान और समृद्घि सूत्र परिवार में विश्वास के रूप में प्रमाणित होता ही है । इसी आधार पर विशालता की ओर विश्वास के फैलाव की आवश्यकता निर्मित होता है । यही सह-अस्तित्व के लिये सूत्र है। इस प्रकार से परिवार और व्यवस्था का दूसरे भाषा में परिवार मूलक विधि से व्यवस्था का संप्रेषणा, प्रकाशन सर्वसुलभ हो जाता है । ऐसी सर्वसुलभता मानवीय शिक्षा-संस्कार स्वरूप सेे ही हो पाता है । यही शुभ, सुंदर, समाधानपूर्ण परिवार विधि है।

विवाह संबंध को स्वीकारा गया और प्रतिबद्घता पूर्वक अर्थात् संकल्प पूर्वक निर्वाह करने के लिये मानसिक तैयारी सहित घोषणा और सत्यापन कार्यक्रम विवाहोत्सव का स्वरूप है। इसी आशय को गाकर व्यक्त किया जाता है । सम्भाषण, संबोधन और सम्मति व्यक्त करने के रूप में उत्सव सम्पन्न होता है । इसी के साथ-साथ दांपत्य संबंध के साथ-साथ एक परिवार मानव सहज दायित्वों, कर्तव्यों सहित मानव सहज उद्देश्य, जीवन सहज उद्देश्य के लिये अर्हिनिशी समझने, सोचने, करने, कराने के लिये मत देने के लिये संकल्प किया जाता है । विवाहोत्सव में भागीदारी निर्वाह करता हुआ हर व्यक्ति दांपत्य जीवन सफल होने की कामना सहित सम्मतियों को व्यक्त करने के रूप में प्रस्तुत होना सहज होता है । दाम्पत्य संबंध में सत्यापित व्यक्ति से कम अवस्था वाले जो भागीदारी निर्वाह किये रहते हैं वे सब नव दंपतियों के जीने की कला, विचार शैली और अनुभवों से सदा-सदा प्रेरणा पाने के लिये कामना व्यक्त करने के रूप में उत्सव में भागीदारी को निर्वाह करना सहज है । इस प्रकार उत्सव में सम्मिलित सभी आयु वर्ग के व्यक्तियों की भागीदारी अपने आप स्पष्ट होती है। यही विवाहोत्सव का तात्पर्य है ।

मानव सहज जागृति प्रभाव विशालता की ओर गतिशील होना स्वाभाविक है । जैसा मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार एक परिवार में परिवार का विरासत न होकर सम्पूर्ण विश्व मानव का स्वत्व होना पाया जाता है । इसीलिये मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार सार्वभौम होना सहज है । इसी प्रकार न्याय-सुरक्षा, उत्पादन-कार्य, विनिमय-कोष, स्वास्थ्य-संयम क्रियाकलाप भी सार्वभौम होता ही है । इन पाँचों आयाम का सार्वभौम रूप में वर्तमान होना ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का द्योतक है । दाम्पत्य संबंध ऐसी व्यवस्था में भागीदारी का संकल्पोत्सव होना पाया जाता है, ऐसे संकल्प का प्रमाण समाधान और समृद्घि का स्वरूप ही है । यही परिवार मानव का लक्ष्य और आवश्यकता है ।

सतर्कता सहज विधि से शिष्टतापूर्ण भाषा शैली, कार्यों को करने में दक्षता की घोषणा और स्वीकृतियाँ विवाहोत्सव में व्यक्त करने का, सत्यापित करने का कार्यक्रम है । विवाहोत्सव की अभिव्यक्ति में एक आयाम संबंधों को पहचानने, मूल्यों को निर्वाह करने (परिवार सहज सभी संबंध) मूल्यांकन करने (उभय तृप्ति के लिये) में अपने पूर्णता और निष्ठा को सत्यापित करना है । तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा करने में अपने परिपूर्णता की घोषणा और सुरक्षा करने में निष्ठा को सत्यापित करना विवाहोत्सव में एक आवश्यकता है । परिवार सहज संपूर्ण मर्यादा यथा सर्वतोमुखी समाधान और समृद्घि को बनाये रखने में अपने निष्ठा को सत्यापित करना विवाहोत्सव में एक आवश्यकीय आयाम है । मानवीयतापूर्ण चरित्र में स्वयं को पारंगत होने उसमें निष्ठा को सत्यापित करना विवाहोत्सव का एक आयाम है।

विवाह संबंध स्वाभाविक रूप में विभिन्न परिवारों में से अर्पित मानव संतान के साथ घटित होना स्वाभाविक है । यह भी मानव परंपरा में एकता का एक आयाम है । मानव परंपरा में एकता का चार आधार देखने को मिलता है । रा’य, धर्म, रोटी, बेटी, बेटा का संबंध में स्वीकृति ही मानव में एकता का संपूर्ण स्वरूप है ।

रा’य और धर्म अविभा’य रूप में वर्तमान होना देखा गया है । स्वरा’य को मानव सहज मानवत्व केन्द्रित व्यवस्था के रूप में पहचाना गया। मानवत्व अपने आप में मानव का परिभाषा, आचरणों में जीवन जागृतिपूर्वक प्रमाणित होना देखा गया है । इसके मूल में अर्थात् जागृति के मूल में जीवन ही दृष्टा, कर्ता, भोक्ता रूप में होना पूर्णतया देखा गया, इसी कारणवश मानव अपने परिभाषा के रूप में, आचरण के रूप में होने के फलस्वरूप व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी का कार्यकलाप परंपरा के रूप में सदा-सदा के लिये होना समीचीन है । मानव जागृति भी समीचीन तथ्यों में, से, के लिये होना स्पष्ट है । इसी विधि से व्यवस्था धर्म और रा’य का संयुक्त स्वरूप होना स्पष्ट है; क्योंकि व्यवस्था में भागीदारी क्रम में परिवार और व्यवस्था समाहित रहता ही है । परिवार विधि से विश्व परिवार तक समाज रचना स्वरूप, परिवार सभा व्यवस्था से विश्व परिवार सभा तक सभा रचना का होना सहज है । सभा और परिवार रचना का सार्थकता, आवश्यकता और प्रमाण केवल व्यवस्था ही है । इसको ऐसा भी कहा जा सकता है परिवार सहज रूप में भी व्यवस्था है । सभा सहज रूप में भी व्यवस्था प्रमाणित होता है । तीसरे विधि से हर परिवार व्यवस्था अपेक्षा और आवश्यकता से संपृक्त रहता है । हर सभा व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाणों को प्रस्तुत करना चाहता है । इस प्रकार सभा, परिवार-सभा व्यवस्था केन्द्रित होना अथवा व्यवस्था लक्षित होना पाया जाता है । इस प्रकार सभा ही परिवार, परिवार ही सभा के रूप में होना पाया जाता है । इन्हीं में भागीदारी क्रम में संपूर्ण संबंधों का विषद व्याख्या पहले हो चुका है । परिवार संबंधों में से एक संबंध के रूप में विवाह संबंध भी सफल होना अति आवश्यक है । यह हर परिवार मानव निर्वाह करता है और परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होने के लिए स्वायत्त मानव के रूप में मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार विधि से संपन्न होना देखा गया है । अतएव विवाह संबंध परिवार के रूप में प्रमाणित होना मौलिक आधार व अधिकार का एक आयाम है । जैसा अन्य संबंधों का निर्वाह भी मौलिक अधिकार के रूप में व्याख्यायित होता है । इस प्रकार हर विवाह संबंध मानवीयतापूर्ण परिवार के साथ आयोजित होना एक स्वाभाविक क्रिया है । यह क्रिया विधि भी मानव में एकता का सूत्र को विशालता की ओर गतित होता है ।

विवाह संबंध के साथ-साथ स्वाभाविक रूप में रोटी की एकता अपने-आप स्पष्ट होती है । इसकी परम आवश्यकता है। हर मानवीयता पूर्ण परिवार में हर जागृत मानव परिवार सहज भोज में भागीदार होना अतिथि के रूप में स्वीकार्य जागृत मानव परंपरा में कोई व्यक्ति बिना आमंत्रित अथवा बिना प्रयोजन के किसी के परिवार में जाने की आवश्यकता ही नहीं रह जाता है । हर मानव परिवार विधि से आमंत्रित अथवा संयोजित रहना बन पाता है और सभा विधि से संयोजित और प्रयोजित कार्यार्थ ही एक दूसरे के अतिथि होना पाया जाता है। अतिथि का तात्पर्य ही आमंत्रणपूर्वक सहभोज करना । इस प्रकार से रोटी और बेटी का संबंध विशालता क्रम में सार्थक होना दिखाई प$डता है । यह सार्थकता परिवार मानव विधि से और व्यवस्था मानव विधि से सम्पन्न होना जागृत परंपरा सहज मानव में, से, के लिये एक शिष्टता पूर्ण गति है । इस प्रकार धर्म, रा’य व्यवस्था सभा और परिवार विधि से व्यवस्था के रूप में संंबंधित होने जिसके व्यवहारान्वयन क्रम में रोटी और बेटी का एकरूपता अथवा विशालता अपने-आप स्पष्ट हो चुका है। अतएव जागृत मानव परंपरा में उक्त चारों विधाओं में अर्थात् रोटी, बेटी में एकता और रा’य और धर्म में एकता का अनुभव होना हर व्यक्ति के लिये आवश्यक है । इसका अभिव्यक्ति हर मानव का, मानव परिवार का मौलिक अधिकार है । इन्हीं मौलिक अधिकारों को प्रमाणित करने के क्रम में ही सभी मानव अपने-आप को इन चारों विधाओं में स्वयं स्फूर्त विधि से अर्थात् जागृति पूर्वक गतिशील होने मानव सहज प्रवृत्ति है।

व्यवस्था संबंध –

व्यवस्था में जीने का प्रमाण परिवार में होता है । समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज क्रम में व्यवस्था संबंध को पहचानने की आवश्यकता उत्पन्न होती है । जैसा परिवार में न्याय-सुरक्षा का प्रमाण संबंध, मूल्य, मूल्यांकन तन, मन, धन का सद्ुपयोग-सुरक्षा विधि से प्रमाणित हो जाता है । यही परिवार मानव का मानवीयतापूर्ण परिवार का परिभाषा है । इसीलिये परिवार में परस्पर हुई पिता-पुत्र, भाई-बहन, मित्र, गुरू, शिष्य, पति-पत्नि, माता-पिता इन संबंधों में संबोधन सहज संबध चिन्हित होता है और उत्पादन-कार्य में भागीदारी प्रमाणित रहता ही है। हर परिवार में वस्तुओं का उपयोग, सदुपयोग भी साक्षित रहता है । विनिमय-कार्य के लिये और विशाल संबंध की आवश्यकता बनी रहती है । एक परिवार की आवश्यकता जितने प्रकार की वस्तुओं की बना रहता है उनमें से कुछ वस्तुओं को किसी भी परिवार में उत्पादित होना स्वाभाविक है विनिमयपूर्वक एक परिवार में उत्पन्न वस्तु को दूसरे परिवार प्राप्त कर लेना ही वस्तुओं का आदान-प्रदान का तात्पर्य है । इस विधि से विनिमय एक आवश्यकीय क्रियाकलाप है; यह स्पष्ट हो जाता है । व्यवस्था के आयामों में विनिमय एक आयाम है । व्यवस्था रूप में ही संपूर्ण आयाम सहित परंपरा स्पष्ट होती है यथा मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा अन्य सभी चार आयामों के लिये स्त्रोत और संतुलन सूत्र होना पाया जाता है । प्रत्येक आयाम में मानव अपने संतुलन पूर्वक कार्य-व्यवहार करने के क्रम में हर सूत्र व्याख्यायित हो जाता है। यथा मानवीय शिक्षा-संस्कार में ये देखने को मिलता है कि यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता रूप में समझा हुआ को संस्कारों के रूप में; किया हुआ को प्रमाणों के रूप में दूसरी भाषा में जिया हुआ को अथवा जीने की विधि को प्रमाण के रूप में देखा जाता है । समझने का जो कार्यक्रम है जिसमें समझाने वाली क्रिया समाहित रहती हैं यही संस्कार का कारण है यह अध्ययन पूर्वक सम्पन्न होना पाया जाता है ।

शिक्षा-संस्कार ही परस्परता में संतुलन विधि से प्रमाणों का सूत्र और जीने की विधि में उसका व्याख्या स्वाभाविक रूप में संपन्न होता है । यही शिक्षा-शिक्षण और संस्कार में संतुलन का तात्पर्य है अर्थात् हर व्यक्ति में समझा हुआ सभी समझदारी जीने की कला में प्रमाणित होता है । समझदारी का संपूर्ण स्वरूप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान, व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का होना पाया जाता है । व्यवस्था क्रम में ही न्याय-सुरक्षा अपने में संतुलन को प्रमाणित होना एक अनिवार्यता है । न्याय का स्वरूप संबंध, मूल्य-मूल्याँकन उभय तृप्ति के रूप में देखने को मिलता है । सुरक्षा का स्वरूप जिसके साथ वस्तुओं का सदुपयोग हुआ रहता है वह उसका सुरक्षा को प्रमाणित किया रहता है । इस क्रिया का मूल स्त्रोत संबंधों में विश्वास ही है । यह अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व का वैभव है । इससे स्पष्ट है कि जागृत मानव तन, मन, धन सहित ही संपूर्ण संबंधों के साथ प्रमाणित होना पाया जाता है । जागृत मानसिकता का तात्पर्य अनुभव मूलक विधि से कार्य करने, अनुभवगामी विधि से फलित होने का क्रियाकलाप; क्योंकि संपूर्ण अनुभव मूलक क्रियाकलाप स्वाभाविक रूप में अनुभवगामी विधि से आर्वतित होना देखा गया है । अनुभव जीवन सहज परम जागृति का नाम है । इसका संपूर्ण स्वरूप जीवन ज्ञान में परिपूर्णता, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पूर्णता और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में परिपूर्णता के स्वरूप में देखने को मिलता है और भले प्रकार से यह जी कर देखा गया है । अस्तु, मानव परंपरा में अनुभवमूलक प्रणाली से अनुभवगामी प्रणाली सहज आर्वतनशीलता वश ही न्याय सुलभता व तन, मन, धन का सुरक्षा अपने-आप में सदुपयोग सहित प्रमाणित हो जाता है । तन, मन, धन का सदुपयोग का तात्पर्य ही है सम्बन्धों का निर्वाह ।

तन, मन, धन हर मानव में प्रमाणित वैभव सहज तथ्य है । हर जागृत मानव, जागृत परिवार मानव सहज रूप में अर्थ का सदुपयोग और सुरक्षा करने में समर्थ रहता ही है यह समर्थता ही मौलिक अधिकार के रूप में ज्ञात होता है । संपूर्ण मौलिक अधिकार जागृति के सहित प्रमाण के रूप में देखने को मिलता है । ऐसी जागृति शिक्षा-संस्कार विधि से ही सम्पन्न होना स्पष्ट है । संपूर्ण प्रकार के अभ्यास भी प्रकारान्तर से समझने का अथवा समझदारी में परिपूर्णता संपन्न होने का क्रियाकलाप है । परिपूर्णता का परीक्षण मानव के हर कार्य-व्यवहार, विचारों में स्पष्टतया मूल्यांकित होता है। इसे प्रत्येक मानव अपने ही क्रियाकलापों-विचारों के निरीक्षण विधि से स्पष्ट करता है । यथा किया गया परिणाम, सोचा गया की दिशा स्वयं में ही स्पष्ट होना देखा गया है । यही विश्लेषण का तात्पर्य है । यह वैभव अथवा महिमा हर मानव में प्रचलित रूप में संपन्न होता हुआ प्रमाणित होता है । इसका मूल कारण जीवन ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा संपन्न रहना है । प्रत्येक मानव जीवन सहित ही मानव संज्ञा में, से संबोधित है ।

मानवीय व्यवहार

*स्त्रोत – मानव व्यवहार दर्शन, संस २००९, अध्याय ७ 

●    व्यवहार के लौकिक एवं पारलौकिक दो भेद हैं ।

●    लौकिक व्यवहार-जागृत मानव परम्परा में पुत्रेषणा, वित्तेषणा एवं लोकेषणात्मक कार्य-व्यवहार है । भ्रमित मानव परम्परा में कार्य व्यवहार चार विषयों में ग्रसित रहना पाया जाता है ।

::    यह भ्रमित मानव कोटि में दृष्टव्य है ।

::    विषय चतुष्टय :- आहार, निद्रा, भय और मैथुन ।

●    पारलौकिक व्यवहार :- आत्मा और सह-अस्तित्व की ओर अभिमुख व्यवहार की पारलौकिक संज्ञा है ।

●    जो जिसको लक्ष्य मानता है, वह उसको पाने के लिए प्रयासरत है। मानव लक्ष्य समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व ही है ।

●    लक्ष्य भेद से प्रयास, प्रयास भेद से प्रगति, प्रगति भेद से फल, फल भेद से प्रभाव, प्रभाव भेद से अनुभव, अनुभव भेद से प्रतिभाव, प्रतिभाव भेद से स्वभाव, स्वभाव भेद से यर्थाथ, यर्थाथ भेद से भाव तथा भाव भेद से लक्ष्य भेद है ।

::    लक्ष्य :-              जागृति पूर्वक ही मानव लक्ष्य सुनिश्चित होता है । यह समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व सहज प्रमाण है ।

::    प्रयास :-                         लक्ष्य की उपलब्धि के लिये यत्नपूर्वक किए गए कार्य की प्रयास संज्ञा है ।

::    प्रगति :-                         पूर्व से भिन्न आगे गुणात्मक विकास की ओर गति को प्रगति की संज्ञा है । श्रेष्ठता और गुरुमूल्य की और गति ।

::    फल :-                जिस अवधि के अनंतर क्रिया प्रणाली बदलती है, उस अवधि को फल की संज्ञा है ।

::    प्रभाव :-             बदलने के लिए जो स्वीेकृति है, उसको प्रभाव की संज्ञा है ।

::    अनुभव :-           अनुक्रम से प्राप्त समझ अथवा अनुक्रम में निहित प्रभावों की पूर्ण स्वीकृति ही अनुभव है ।

::    अनुक्रम :-           क$डी से क$डी अथवा सी$ढी से सी$ढी जु$डी हुई विधि । सह-अस्तित्व में ही अनुक्रम व अनुभव  है ।

::    प्रतिभाव :-         अनुभव के अनंतर बोध, साक्षात्कार के रूप में प्रमाणित करने हेतु प्रवृत्ति ही प्रतिभाव है ।

::    स्वभाव :-           प्रतिभाव से युक्त स्वमूल्यन की स्वभाव संज्ञा है ।

::    आसक्ति :-          ह्रास अथवा भ्रम की ओर होने वाली या की जाने वाली गलतियों को सही मान लेना आसक्ति है । यही अमानवीयता है ।

::    भाव :-               मूल्यांकन एवं मौलिकता की भाव संज्ञा है । भाव मौलिकता है, यथा जिस अवस्था और पदों में जो अर्थ, स्वभाव और धर्म के रूप में होते हैं, वह उसकी मौलिकता है । मानव सुखधर्मी है । धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा  स्वभाव है ।

भाव = मौलिकता = मूल्य = जिम्मेदारी, भागीदारी = फल परिणाम = मूल्यांकन ।

जबकि भ्रमित मानव में हीनता, दीनता, क्रूरता स्वभाव है। तथा आसक्ति और प्रलोभन को धर्म माने रहता है ।

●    लोक व लोकेश भेद से लक्ष्य, अंतरंग एवं बहिरंग भेद से यत्न, व्यष्टि एवं समष्टि भेद से प्रयास, ह्रास एवं विकास भेद  से प्रगति, न्यून व पूर्ण भेद से फल; सम, विषम तथा मध्यस्थ भेद से प्रभाव, इंद्रिय एवं इंद्रियातीत भेद से अनुभव, सहज एवं असहज भेद से प्रतिभाव, विहित एवं अविहित भेद से प्रवृत्ति व आसक्ति तथा उ_ और नीच भेद से भाव की स्थिति मानव में है । जीवन ही लक्ष्य का धारक-वाहक है ।

●    परिणामवादी लक्ष्य को लोक तथा उससे मुक्त को लोकेश; मन, वृत्ति, चित्त एवं बुद्घि से किए गए कार्य को अंतरंग तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों द्वारा किए गए कार्य को बहिरंग, इकाईत्व को व्यष्टि तथा संपूर्ण को समष्टि, अवनति की ओर ह्रास तथा उन्नति की ओर विकास, जिस प्राप्ति से वांछित आशय की पूर्ति हो उसे पूर्णफल तथा अन्यथा में न्यून फल, उद्भव वादी प्रभाव को सम, विभववादी प्रभाव को मध्यस्थ तथा प्रलयवादी प्रभाव को विषम; शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंधेन्द्रियों द्वारा किए गए व्यवहार मात्र से प्राप्त जानकारी को इन्द्रियानुभव तथा मन, वृत्ति, चित्त तथा बुद्घि द्वारा आत्मा में होने वाले अनुभव को प्रमाणित करने की प्रवृत्तियों को अतीन्द्रियानुभव या इन्द्रियातीत अनुभव, यथार्थ की ओर जो प्रेरणा है उसे सहज प्रतिभाव तथा उसके विपरीत में असहज प्रतिभाव; न्याय, धर्म तथा सत्य के प्रति जो निष्ठा है उसे विहित स्वीकृति तथा उसके विपरीत में अविहित आसक्ति, समाधानवादी भाव को उ_ भाव तथा समस्यावादी प्रवृत्ति को नीच भाव की संज्ञा है ।

●    मन के कार्य पुष्टि मनन, वृत्ति के कार्य पुष्टि तुलन, चित्त के कार्य  पुष्टि चिंतन पूर्वक साक्षात्कार एवं  बुुद्घि के कार्य पुष्टि बोध संज्ञा है ।

●    अज्ञान के मूल में अहंकार (अबोधता) तथा ज्ञान के मूल में आत्मबोध तथा सह-अस्तित्व रूपी परम सत्यबोध  को पाया गया है ।

●    स्फुरण, प्रेरणा तथा क्रांति के भेद से मनन,  संतुलन अथवा असंतुलन के भेद से तुलन, अर्थपूर्ण अथवा आरोप के भेद से चित्रण तथा अनुभवमूलक विधि से सत्य बोध है ।

●    संतुलन पूर्वक (श्रेय) प्राप्त सम्वेग को स्फुरण एवं प्रेरणा और असंतुलन पूर्वक (प्रेय) प्राप्त सम्वेग की प्रतिक्रांति संज्ञा है ।

●    न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य दृष्टिकोण से की गयी तुलना को संतुलित तथा प्रियाप्रिय, हिताहित,  लाभालाभ दृष्टिकोण से की गयी तुलना को असंतुलित वृत्ति की संज्ञा दी जाती है ।

●    न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य दृष्टिकोण से किए गए चिंतन व चित्रण को यथार्थ तथा प्रियाप्रिय, हिताहित , लाभालाभ के दृष्टिकोण से किए गए चित्रण को अयथार्थ चित्रण की संज्ञा है ।

●    अनुभव की साक्षी में किए गए बोध की सत्यबोध तथा इसके विपरीत में संवेदनाओं को सत्य मानना ही भ्रम है यही असत्य है । असत्य को सत्य मानना ही अहंकार है । जिस प्रकार असत्य का अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार अहंकार का भी  अस्तित्व नहीं है । असत्य को सत्य मानने का कार्य चित्त में चित्रित होता है। यह कल्पना के आधार पर घटित होता है ।

●    कर्त्तव्य की ओर अग्रेषित संवेग को स्फुरण तथा प्रेरणा एवं विवशता पूर्वक प्राप्त बौद्घिक प्रयास एवं शारीरिक चेष्टा को प्रतिक्रान्ति की संज्ञा है । श्रेष्ठता की ओर क्रांति और नेष्ठता की ओर प्रतिक्रांति संज्ञा है ।

●    समस्या रहित अथवा समस्या के समाधान का अनुभव करने को संतुलन और समस्या सहित अथवा समस्या को उत्पन्न करने वाली क्रिया को प्रतिक्रान्ति या असंतुलन के नाम से अंकित किया गया है ।

●    समस्या बौद्घिक संकट है तथा विवशता भौतिक समस्या (दरिद्रता) है ।

●    सर्वांगीण दर्शन सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान की संज्ञा है और उसके विपरीत में आरोप की संज्ञा है ।

●    अपरिणामवादी सत्ता में सह-अस्तित्व की पहचान के सहित अनुभव सहज समझदारी को सत्यबोध और उसके विपरीत को भ्रम की संज्ञा है ।

●    तीव्र सम्वेग वह है जो क्रिया के रूप में अवतरित होता है ।

●    सम्वेग का दबाव, उसकी गति एवम् पिपासा का निर्धारण इच्छा तथा प्रयोजन से नियंत्रित है ।

●    मानव की परस्परता में जो सम्पर्क एवं सम्बन्ध है वह निर्वाह के लिए, जागृति सहज विधि से उपयोग, सदुपयोग के लिए है । जागृति के लिए जो सम्पर्क एवम् सम्बन्ध का प्रयास है, वह सामाजिकता के लिए है । निर्वाह के लिए जो सम्पर्क एवम् सम्बन्ध का प्रयास है, वह कर्त्तव्य पालन करते हुए वर्तमान को संतुलित रखने के लिए और भोगेच्छा से जो सम्पर्क एवम् सम्बन्ध का प्रयास है, वह मात्र इन्द्रिय लिप्सा एवम् शोषण के कारण है । जिससे असंतुलन और समस्या वश पीड़ा होता है ।

●    जागृति के लिये किये गये व्यवहार को पुरुषार्थ, निर्वाह के लिये किये गये प्रयास को कर्त्तव्य तथा भोग के लिये किये गये व्यवहार को विवशता के नाम से जाना गया है ।

●    कर्त्तव्य व आवश्यकता का भाव मानव में है ।

::    कर्त्तव्य :-            संबंधों की पहचान सहित निर्वाह क्रिया, जिससे निष्ठा का बोध होता है ।

::    दायित्व :-           संबंधों की पहचान सहित मूल्यों का निर्वाह सहित मूल्यांकन क्रिया जिससे तृप्ति का बोध होता है ।

●    कर्त्तव्य की पूर्ति है, भोगरूपी आवश्यकता की पूर्ति नहीं है ।

●    कर्त्तव्य की पूर्ति इसलिये सम्भव है कि वह निश्चित व सीमित है।

●    भोगरूपी आवश्यकताऐं (सुविधा-संग्रह) की पूर्ति इसलिये सम्भव नहीं है कि वह अनिश्चित एवम् असीमित है ।

●    यही कारण है कि कर्त्तव्यवादी प्रगति शान्ति की ओर तथा भोगवादी प्रवृत्ति अशान्ति की ओर उन्मुख है ।

●    समस्त कर्त्तव्य सम्बन्ध एवम् सम्पर्क की सीमा तक ही है ।

●    सम्वेग से ही चयन क्रिया है जो संग्रहवादी, पोषणवादी, दोहनवादी, त्यागवादी या शोषणवादी है । यह समस्त क्रियाएँ आशा की प्रक्रिया में है ।

●    कर्त्तव्य की पूर्ति के बिना मानव का जीवन सफल नहीं है ।

●    भौतिक समृद्घि तथा बौद्घिक समाधान से परिपूर्ण जीवन ही सफल जीवन है ।

●    आवश्यकता से अधिक उत्पादन तथा सह-अस्तित्व में ही भौतिक समृद्घि है तथा अस्तित्व में अनुभव स्वयं निर्भ्रमता एवं बौद्घिक समाधान है ।

●    विज्ञान एवम् विवेक का समन्वित अध्ययन तथा कर्माभ्यास ही निर्भ्रमता सहज प्रमाण ।

●    मानवीयतापूर्ण जीवन में आवश्यकताएँ सीमित एवम् मर्यादित हो जाती हैं । अतिमानवीयतापूर्ण जीवन में तो आवश्यकताएँ और भी संयत हो जाती है ।

●    जो जितना भ्रम और भय का पात्र है, वह साधनों को सुखी होने के लिये उतना ही महत्वपूर्ण मानता है । जैसे भय त्रस्त मानव आयुध एवम् आश्रय पर, लोभ त्रस्त मानव संग्रह पर , द्वेष त्रस्त मानव नाश पर, अज्ञानी दूसरों को दोष देने पर, अभिमान त्रस्त दूसरों की उपेक्षा एवम् घृणा करने पर ही सुखी होने का प्रयास करता है, जबकि स्व-पात्रता ही सुखी एवम् दु:खी होने का कारण है ।

●    वातावरण एवम् अध्ययन सुपात्र अथवा कुपात्र बनाने में सहायक हैं ।

●    मानवीयता पूर्ण व्यवहार, उत्पादन,  अध्ययन कार्य  व नीतियों में पारंगत होने पर ही मानव सुखी होता है ।