Knowledge in Realization (अनुभव ज्ञान)

 

अनुभव दर्शन

*संस -२ 

प्राक्कथन (द्वितीय संस्करण)

यह अनुभव दर्शन सह-अस्तित्व रूपी अस्तित्व में अनुभूति और उसकी महिमा व गरिमा की अभिव्यक्ति है। अस्तित्व में सह-अस्तित्व, सह-अस्तित्व में विकास, विकास क्रम में विकास ही जीवन घटना एक यथार्थ स्थिति है। जीवन जागृति ही अनुभव योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा एवं प्रकाशन है। इसी क्रम में मानव अस्तित्व में अविभाज्य वर्तमान होना, अनुभूत होता है। अस्तित्व में अविभाज्य अंगभूत मानव में ही जीवन जागृति की अभिव्यक्ति होने की संभावना नित्य समीचीन है। प्रत्येक मानव में, से, के लिए अनुभव-क्षमता समान रूप से विद्यमान है, इसी सत्यतावश अनुभवाभिव्यक्ति की पुष्टि सार्वभौम रूप में होती है। अस्तु अनुभव दर्शन को अभिव्यक्त करते हुए प्रामाणिकता का अनुभव कर रहा हूँ। प्रामाणिकता ही आनंद और अनुभव सहज अभिव्यक्ति है।

यही संप्रेषणा में समाधान, व्यवहार में न्याय और उसकी निरंतरता है। अनुभव जीवन में जागृति का द्योतक है। सम्पूर्ण क्रिया, चाहे वह जड़ हो अथवा चैतन्य हो, स्थिति में बल और गति में शक्ति के रूप में वर्तमान है क्योंकि स्थिति के बिना गति सिद्घ नहीं होती। इसी सत्यता के आधार पर, अनुभव ही स्थिति में आनन्द अर्थात् प्रामाणिकता, अभिव्यक्ति ही अर्थात् गति में प्रमाण तथा समाधान है।

अस्तु ! अध्ययनपूर्वक जीवन जागृति व अनुभव बल के अर्थ में यह अभिव्यक्ति सहज-सुलभ हुआ है। इसे मानव को अर्पित करते हुए परम प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ।

अमरकंटक    – ए. नागराज

अध्याय – तीन

जड़-चैतन्यय क्रिया समूह ही विराट् है।

इकाइयाँ विकास के अंतरांतर वैविध्यता से रहित नहीं है।

असंख्य विविधता का समूह ही विराट् है।

विराट ही प्रकृति है।

ब्रह्म व्यापक और स्थिर है अत: उसमें कोई तरंग,कम्पन, स्पंदन और गति नहीं है।

‘‘यह’’ पारगामी है।

‘‘यह’’ आकार-प्रकारात्मक सीमा से बाधित नहीं है। अत: इसमें कोई  संकल्प-विकल्प नहीं है।

सत्ता में समाहित अनंत क्रियाएं गतिशील, स्पंदनशील, कंपनशील और तरंगित पाई जाती हैं। जिसके फलस्वरूप परिणाम-परिपाक-पूर्वक प्रकृति चार अवस्थाओं में प्रकट है।

प्रत्येक क्रिया सीमित, सत्ता में सम्पृक्त  है अत: ब्रह्म परिणामादि क्रिया का कारण नहीं है।

क्रिया- समूह ब्रह्म में ही संपृक्त है। यह निर्णय ज्ञानावस्था सह इकाईयों में सहज है।

ब्रह्म संकल्प-विकल्पादि क्रिया नहीं है।

ब्रह्म क्रिया होने का वर्तमान में कोई पुष्टि या प्रमाण नहीं है। यह व्यापक रूप में होना पुष्टि प्रमाण उपलब्ध है।

 

अनुभव में वर्तमान क्रिया प्रतिष्ठा है। भूत और भविष्य केवल अनुमान में है। अनुमान साधार व निराधार के भेद से गण्य है। जो स्पष्टता तथा अस्पष्टता को प्रकट करता है।

नियम-प्रक्रिया-लक्षण  सहित  साधार  अनुमान  अन्यथा निराधार-अनुमान है।

प्राप्त की अनुभूति और प्राप्य की उपलब्धि प्रसिद्घ है।

प्रत्येक इकाई विराट् का एक अंश है। वह विराट् का संकेत ग्रहण करने के लिए प्रवृत  है, इसलिए

प्रकृति निर्माण के आरम्भिक क्रम तथा ब्रह्म के अस्तित्व के आरंभिक काल के संबंध में कोई प्रमाण नहीं है। वर्तमान में सत्ता और सत्ता में समाहित प्रकृति ही प्रत्यक्ष है। प्रकृति और सत्ता के आदि और अन्त की चर्चा विगत और आगत में है। जिसके अंतराल का कोई प्रमाण नहीं है। गणना ऋण धन-अनंत की स्थिति में प्रस्तुत हुई है। इसलिए

निराधार अनुमान, प्रत्यक्ष या साधार (योजनाबद्घ अनुमान) नहीं है। यह प्रसिद्घ है।

आकार-आयतन-धनोपाधियुक्त अनंत लोकों का आधार भी ब्रह्म में ही है।

सूत्र, छंद, वाक्य, शब्द के द्वारा क्रिया मात्र का वर्णन है। साथ ही ज्ञानानुभूति के लिए उपदेश पूर्वक इंगित भी है।

ब्रह्म सहज वर्णन पारगामी व्यापक और पारदर्शीयता के रूप में  है। ‘‘यह’’ केवल भास, आभास, बोध तथा अनुभवगम्य है। इसका बोध मानव की क्षमता, योग्यता, पात्रता पर आधारित है।

प्रत्येक इकाई का आधार ब्रह्म में ही है। सबको मूल प्रेरणा ‘‘यह’’ में ही प्राप्त है। प्रकृति सत्ता मेे संपृक्त है, इसलिए-

 

ब्रह्म में प्रेरणा पाने, प्रदान करनेे के लिए संकल्प-विकल्पादि की पुष्टि नहीं है।

नियंत्रण ही प्रेरणा है। व्यापक में ही प्रकृति नियंत्रित है।

ब्रह्म से रिक्त-मुक्त-क्रिया एवं स्थान नहीं है।

ब्रह्म व्यापक और क्रिया सीमित है। अत: सम्पूर्ण क्रिया ब्रह्म में संपृक्त (आश्लिष्ट-संश्लिष्ट) है। इसलिए प्रकृति ब्रह्म में नियंत्रित है।

सम्पृक्तता में ही नियंत्रण, नियंत्रण ही प्रेरणा व प्रेरणा ही ज्ञान है।

ब्रह्म में ज्ञानावस्था में जागृति में,  से, के लिए गति है। ब्रह्म ही व्यापक, व्यापक में हर इकाई नियंत्रित, नियंत्रण ही प्रेरणा, प्रेरणा ही नियम-न्याय-धर्म-सत्य, नियम-न्याय-धर्म-सत्य ही प्रेम, प्रेम ही अनुभूति, अनुभूति ही जागृत जीवन, जागृत जीवन ही आनंद, आनंद ही ब्रह्मानुभूति और ब्रह्म में ही ज्ञान है।

लक्ष्य की ओर त्वरण-क्रिया ही प्रेरणा व प्रमाण है।

प्रकृति मूलत: ब्रह्म में नियंत्रित व प्रेरित है। वह सदा चार अवस्थाओं में अभ्युदयशील है, इसलिए –

मानव का लक्ष्य मात्र अनुभूति ही है। विराट् अपने में स्थित जड़-प्रकृति का उपयोग जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था की इकाई के रूप में अहर्निश करता आया है। मानव को आनंद सहज निरंतरता पद-मुक्ति के अतिरिक्त नहीं है। यही दिव्य मानव पद है।

जागृति पूर्वक प्रत्येक क्रिया की प्रेरणा में अनुभव से अधिक अनुमान है।

मानव द्वारा जड़ प्रकृति के आस्वादन से आनंद की निरंतरता नहीं है।

श्रम का क्षोभ ही विश्राम की तृषा है। ब्रह्मानुभूति ही पूर्ण विश्राम है।  पूर्ण विश्राम ही सर्वतोमुखी समाधान सहज प्रमाण है।

 

क्रिया मात्र की वस्तुस्थिति का दर्शन-ज्ञान होना एवं सत्य में अनुभव होना प्रसिद्घ है।

ब्रह्म नित्य-सत्य-व्यापक-अखण्ड-ज्ञान एवं शाश्वत है। यह स्थूल, सूक्ष्म, कारण क्रिया और परिणाम से रहित, देश, कालातीत, आनंद स्वरूप एवं पूर्ण है।

शब्द एवं उसकी गति भी ब्रह्म में समाहित है। ब्रह्म शब्द से शून्य भी इंगित है। प्रकृति की पूर्ण विवेचना के उपरांत भी ब्रह्म के सदृश कोई और नहीं है तथा उसके संदर्भ में अन्य कोई अनुभव भी नहीं है। प्रकृति का उससे पृथक अस्तित्व नहीं है।

क्रिया और इकाइयों का सान्निध्य एवं सहवास प्रसिद्घ है। वह विरोध अथवा निर्विरोध पूर्वक स्वागत एवं आस्वादन भाव सहित आशा, आकाँक्षा तथा इ’छा के रूप में मानव में प्रत्यक्ष है।

ब्रह्म ही परमात्मा है। यही पूर्ण सत्ता है।

आत्मा का नित्य अभीष्ट होने के कारण इसकी संज्ञा परमात्मा है।

इकाईयाँ परिमित,परमात्मा अपरिमित है।

प्रत्येक ज्ञानात्मा अपने अभिन्न अंगों सहित एक मानव शरीर को संचालित करते हुए मानवीयता एवं अतिमानवीयता से परिपूर्ण होने के लिए प्रयासरत है। फलत: परमात्मानुभव करता है।

ज्ञानात्मा मानवीयता तथा उससे अधिक जागृति के सीमावर्ती स्वभाव एवं कर्मों में व्यवहाररत और आकाँक्षु है। इसके विपरीत भ्रमवश अमानवीयतात्मक स्वभाव-दृष्टि पूर्वक विषयोपभोग में भी रत पाया जाता है।

 

अमानवीयता के लक्षण मानवेतर जीव में आंशिक रूप में विद्यमान है।

मानव अमानवीयता पूर्वक भोग, दृष्टि व स्वभाव से ह्रास की ओर अग्रसर होता है।

प्रत्येक ज्ञानात्मा भ्रम पर्यन्त शरीर त्याग के समय सुख या दुख, सुरूप या कुरूप के प्रभाव से पूर्णत: प्रभावित हो जाता है। जो स्वप्रभावीकरण है। यही जन्म परिपाक प्रक्रिया है।

स्वप्रभावीकरण प्रक्रिया का बोध मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि की शक्तियों की अंतर्नियोजन प्रक्रिया से स्पष्ट हो जाता है।

मानव दूसरे के देह त्याग की क्रिया को देखता है। उस समय उसमें पाये जाने वाले लक्षण भी स्वप्रभावीकरण प्रक्रिया की पुष्टि है।

संस्कारों के प्रभाव का प्रत्यक्ष रूप मन, वृत्ति, चित्त और बुद्घि की सक्रियाशीलता है जो ‘‘ता-त्रय’’ की सीमा में व्यक्त होती है।

प्रत्येक कर्म के स्फुरण के मूल में संस्कार है। प्रत्येक कर्म संस्कारदायी है। क्रिया की प्रतिक्रिया व परिपाक प्रसिद्घ है।

 

आस्वादन एवं चयन क्रिया का प्रभाव मन पर, विश्लेषण एवं तुलन क्रिया का प्रभाव वृत्ति पर, चित्रण एवं चिंतन क्रिया का प्रभाव चित्त पर, संकल्प एवं बोध का प्रभाव बुद्घि पर होता है।

सत्य बोध योग्य संस्कारों से समृद्घ होने तक बुद्घि ही अहंकार के रूप में स्पष्ट है।

अहंकार ही भ्रम एवं अज्ञान का कारण है।

आत्मा का संकेत ग्रहण करने में बुद्घि की अक्षमता ही अहंकार है।

गुणात्मक संस्कारों द्वारा ही अहंकार से मुक्ति है। साथ ही इससे अभिमान रहित संकल्पोदय होता है।

भ्रम से मुक्त होने के लिए सत्यासत्य के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्षों के दृ$ढ संकल्प में परिणित होने की दृष्टि से शोध की अनिवार्यता है।

सिद्घांत व प्रक्रिया पूर्वक सत्यता का उद्घाटन ही शोध है।

सुप्रवृत्तियों एवं सुसंस्कारों के लिए परिवार एवं समाज सहज परम्परा के अध्ययन से प्राप्त वस्तुबोध तथा परिवेश गत प्रेरणाएं सहायक तथ्य हैं ।

 

कृतघ्नता, स्तेय, परिग्रह, असत्य भाषण, परनारी या पर-पुरूष- व्यसन, अभिमान, द्रोह, विश्वासघात, निन्दा, दायित्व हीनता व कत्र्तव्यहीनता, उत्पादन में अप्रवृत्ति, आलस्य व प्रमाद, उपभोग की अनियंत्रित एवं तीव्र प्रवृत्ति, रहस्यता, दिखावा एवं हिंसा कुसंस्कारों के लक्षण हैं।

कृतज्ञता, अस्तेय, अपरिग्रह, सत्यभाषण, स्वनारी-स्वपुरूष गमन, सरलता, दया, स्नेह पूर्वक विश्वासपालन, यथार्थ वर्णन, कत्र्तव्यों व दायित्वों का वहन, अधिक उत्पादन कम उपभोग, उत्साह एवं चेष्टा, रहस्यहीनता, सहजता एवं निर्बैरता सुसंस्कारों के लक्षण हैं। लक्षणों के आधार पर ही स्वभाव, तदनुसार ही मूल्यांकन क्रिया है। लक्षण विहीन मानव नहीं है।

मानवता स्वतंत्र या स्वे’िछक जीवन के प्रति प्रतिबद्घ है। वह केवल यांत्रिक नहीं है। इसलिए प्रत्येक मानव इकाई संवेदनशील संज्ञानशील है एवं पूर्ण होने के लिए प्रयासरत है।

समाधान एवं अनुभव योग्य क्षमता पर्यन्त जागृति भावी है। संवेदनशीलता संज्ञानीयता पूर्वक ही नियन्त्रित होती है। यह क्रम प्रत्यावर्तन सहित परावर्तन पर्यन्त श्रंृखलाबद्घ पद्घति से होता रहेगा। प्रत्यावर्तन क्रिया से ही प्रतिभा की अभिव्यक्ति मानव में मानवीयता एवं अतिमानवीयता के रूप में प्रत्यक्ष है। इन्हीं (प्रत्यावर्तन) क्रिया संपन्नता द्वारा वांछित का, लक्ष्य का तथा कार्यक्रम व पद्घति का प्रसारण होना भी भावी है। इसी से अन्य (अप्रत्यावर्तित) ज्ञानात्माओं की अपने में प्रत्यावर्तन योग्य व्यंजना सम्पन्न होना प्रत्यक्ष है।

 

प्रत्यावर्तन पूर्वक प्राप्त व्यंजनाएँ जागृति के लिए गुणात्मक गति है।

गुणात्मक व्यंजना से सुबोध, सुबोध से सुसंस्कार, सुसंस्कार से  गुणात्मक संवेदना (संज्ञानीयता पूर्वक संवेदना नियंत्रित) रहना, गुणात्मक संवेदना से सत्य संकल्प तथा सत्य संकल्प से गुणात्मक व्यंजनाओं की निरन्तरता है।

स्थिति एवं क्रिया संकेत-ग्रहण क्षमता ही व्यंजनीयता है।

संकेत-ग्रहण -प्रक्रियाबद्घ ज्ञान, प्राप्य को पाने, उसे सुरक्षित रखने के कार्यक्रम में अभिव्यक्त है। प्राप्त के अनुभव के क्रम में ं भास-आभास एवं प्रतीति ही ज्ञापक (सत्यापित होना) है।

मानव दूसरों के लिए भी संकेत प्रसारित करता है।

संकेत-ग्रहण-क्रिया ही अनुमानारोपण तथा अनुमानांकुर भी है। जो संकल्प, इ’छा, विचार व आशा है।

पाँचों इन्द्रियों द्वारा रसों की व्यंजना मन पर, इन्द्रिय समूह तथा मन के द्वारा तात्विक व्यंजना वृत्ति पर, इंद्रिय मन तथा वृत्ति के द्वारा भावों (मौलिकताओं) की व्यंजना चित्त पर तथा इन्द्रिय मन, वृत्ति और चित्त के द्वारा स्थितिवत्ता एवं सत्यवत्ता की व्यंजना बुद्घि पर उनके जागृति और अभ्यास के स्तर के अनुरूप पायी जाती है।

 

वातावरणस्थ क्रिया-संकेत-ग्रहण एवं प्रसारण क्षमता ही व्यंजना है।

प्रत्येक संकेत के पूर्व-अधिष्ठित आशा, विचार, इ’छा और संकल्प को वे संकेत पुनराकार प्रदान करते हैं। जो वर्तमान में प्रत्यक्ष है। फलत: मानव में अनेक वैविध्यताएं कुशलता, निपुणता, कला, विचार और आशा के रूप में प्रकट होती है साथ ही पांडित्य में, से, के लिए ही एकता है।

शरीर के द्वारा व्यवहार, हृदय के द्वारा शरीर, प्राण के द्वारा हृदय और मन के द्वारा प्राण का संचालन प्रसिद्घ है।

मन का संकेत संवेग के रूप में है। वह प्राण के द्वारा मेधस पर प्रसारित होता है। मेधस से तरंग में अनुवर्तित होकर शरीर को क्रिया-व्यापार में रत होने के लिए बाध्य कर देता है। बाह्य-प्रकृति के संकेत इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। यह परानुक्रम-संकेत-ग्रहण प्रक्रिया है।

आशा और विचारों के स्पंदन के अनुरूप प्राणोद्दीपन और प्राणोद्दीपन के अनुरूप आशा और विचारों का स्पंदन प्रसिद्घ है। यही प्रक्रिया काम, क्रोध, भय, भ्रंाति, मोह, शोकादि क्लेश परिपाकी क्रियाओं में स्पष्टतया परिलक्षित होती है।

 

स्पंदन-प्रतिस्पंदन क्रिया प्रक्रिया सहित ही संतुलन-असंतुलन, समाधान-समस्या, स्नेह-द्वेष, शांन्ति-अशान्ति, संतोष-असंतोष, गौरव-तिरस्कार, आदर-अनादर, विश्वास-अविश्वास, श्रद्घा-अश्रद्घा, धैर्य-अधैर्य एवं कृतज्ञता-कृतघ्नतापूर्ण कार्य व व्यवहार को मानव सभी आयामों, कोणों तथा स्थितियों में निभ्र्रान्ति अथवा भ्रांतिपूर्वक संपन्न करता है।

प्रत्यावर्तन ही पूर्वानुक्रम है। इसी पद्घति से आत्मा का प्रभाव बुद्घि पर, बुद्घि का प्रभाव चित्त पर,चित्त का प्रभाव वृत्ति पर, वृत्ति का प्रभाव मन पर पाया जाता है। यही आत्म-नियंत्रित अभिव्यक्ति है। यही अनुभवमूलक जीवन एवं जीवन की पूर्णता है।

आत्मानुशासित जीवन ही अनुभव पूर्ण है।

अनुभवमय अस्तित्व में ही परमानंद, आनंद, संतोष, शांति और सुख पूर्ण आप्लावन की निरंतरता है।

ब्रह्मानुभूति में परमांनद, आत्मानुभूति में आनंद, बुद्घि की अनुभूति में संतोष, चित्त की अनुभूति में शांति एवं वृत्ति की अनुभूति में सुख है। यही अनुभवसमुच्चय है।

अनुभवसमुच्चय ही अभ्युदय की परम उपलब्धि एवं लक्ष्य है।

 

अभ्युदयशील सामाजिकता ही अनुभव-समु’चय ग्रहण करने योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता प्रदान करती है। यही परम्परा का आधार भी है।

मानवीयता का संरक्षण, संवर्धन, आचरण एवं संयम ही सामाजिकता है।

धीरता, वीरता, उदारतापूर्ण स्वभाव, पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा पूर्ण विषय प्रवृत्तियाँ तथा न्याय, धर्म एवं सत्यता पूर्ण दृष्टि ही मानवीयता की महिमा है। जिसके संरक्षण हेतु संस्कृति, सभ्यता एवं विधि व्यवस्था का प्रणयन शिक्षापूर्वक एवं जागृति के लिए सर्वसुलभ होता है। अनुभवपूर्ण मानव में मानवीयतापूर्ण व्यवहार स्वभावत: पाया जाता है।

मानवीयतापूर्ण व्यवहार ही सामाजिकता है।

अखण्डता सार्वभौमता सहज सामाजिकतापूर्ण जीवन ही अतिमानवीयता के प्रति जिज्ञासा है।

‘‘नित्यम् यातु शुुभोदयम’’

 

अध्याय – चार

आधारहीन कल्पना ही स्वप्न है।

आगन्तुक गुण ही कल्पना है। आगन्तुक गुण का तात्पर्य मानवेत्तर प्रकृति के अनुसार जीने की कल्पना करना है।

स्वभाव गुण (अर्जित गुण) और आगन्तुक गुण ये गुण के दो भेद प्रसिद्घ है।

शरीर शक्ति का नियोजन, उत्पादन, उपयोग, वितरण व सद्उपयोग में प्रसिद्घ है।

क्रियाकलाप में गुणों का आदान-प्रदान, चैतन्य जीवन में स्वभाव मूल्यों का आदान-प्रदान दृष्टव्य है।

चैतन्य  की  स्वभाव  गति  शक्तियों  का  इन्द्रिय-व्यूह  द्वारा प्रकटीकरण तथा उसकी गुणगत प्रक्रिया का संकेत-ग्रहण पूर्वक समर्थन अथवा असमर्थन भी उसी से सम्पन्न होता है।

मानव में आगन्तुक अथवा अर्जित स्वभाव (मौलिकता) ही प्रत्यक्ष है।

जागृत मानव में मूल प्रवृत्तियों के मूल में स्वयं में मौलिकता स्वीकृत रहता ही है।

जागृत चैतन्य इकाई स्वयं में विश्वास पूर्वक मूल्यांकन करती है।

जागृत स्वभाव समाधानपूर्ण मूल प्रवृत्तियों के रूप में प्रत्यक्ष है। भ्रमित जीवन में क्लेश तथा जागृत जीवन में हर्ष स्पष्ट है।

संस्कारपूर्वक ही मूल प्रवृत्तियों का उदय होता है। परिमार्जन पूर्वक ही पुनराभिव्यक्ति होती है।

मन, वृत्ति, चित्त और बुद्घि के क्रमानुवर्ती संवेगों के मूल में पायी जाने वाली इ’छाओं में अपेक्षाकृत तीव्र इ’छाएँ अर्जित स्वभाव है। जो प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान रहते हैं। सूक्ष्म एवं कारण कोटि की इ’छाएँ प्र’छन्न रूप में अवस्थित रहती हैं। यह संस्कारों में पाया जाने वाला सूक्ष्म भाग है। संपूर्ण इ’छाएँ संस्कारगत एवं व्यवहारगत रूप में स्थित है जो प्रमाणित है।

तीव्र इ’छा को मनाकार व मन: स्वस्थता का रूप प्रदान करने के लिए मानव इकाई तन, मन व धन का नियोजन करती है।

संवेग तीव्र, मन्द और सूक्ष्म भेद में दृष्टव्य है जो क्रम से तीव्र इ’छा, कारण और सूक्ष्म इ’छाओं पर आधारित है।

इ’छा गति बराबर संवेग है।

 

दर्शन = आकाँक्षा = इ’छा = संवेग = प्रज्ञागति = ज्ञान विज्ञान व विवेकपूर्ण प्रमाण = दर्शन  है।

प्रवेश पूर्वक पारदर्शकता पूर्वक स्थिति संकेत-ग्रहण एवं प्रसारण क्रिया ही प्रज्ञा है। अनुभव योग्य क्षमता ही सत्ता में समाहित इकाई की पारदर्शकता है। यहीसर्वो? क्कृड्ढष्टलग् जागृति है। सत्ता में प्रकृति संपृक्त रहना प्रमाणित है, साथ ही सत्ता में इकाई का अनुभव पूर्ण होना भी प्रमाणित है।

पूर्णता के अर्थ में संकेतानुसार वेग ही संवेग है। संचेतना में  संवेदना नियंत्रित रहती है।

ज्ञानावस्था की इकाई में किसी भी प्रकार के संस्कार से संस्कारित होने के पूर्व किसी न किसी पूर्व संस्कार की विद्यमानता स्वभाव के रूप में पायी जाती है। पूर्व संस्कार अध्ययन एवं वातावरण अग्रिम संस्कारों की स्थापना के लिए अनिवार्य कारण है। संस्कारगत स्वभाव दो श्रेणियों में गण्य है।?-

‘- मानवीयतापूर्ण,?-

‘- अतिमानवीयतापूर्ण,

अमानवीयतावादी प्रवृत्ति है, जो संस्कार नहीं है।

ब्रह्मानुभूति योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता से संपन्न होने पर्यन्त गुणात्मक संस्कारपूत होना आवश्यक है। यही अभ्यास पूर्वक अभ्युदय का प्रमाण है।

समाज ही व्यक्ति के संस्कारों के परिमार्जन, परिवर्तन और प्रस्थापन का कारण है। अभ्युदयकारी अध्ययन, व्यवस्था एवं तदनुसार आचरण ही समाज है।

 

अखण्ड समाज ही व्यवस्था एवं शिक्षा पूर्वक जागृत वातावरण को उत्पन्न करता है।

प्राकृतिक वातावरण की तुलना में जागृत वातावरण संस्कार आरोपण क्रिया में विशिष्ट सशक्त कारण है।

मानवेत्तर प्रकृति का उत्पादन पूर्वक उपयोग, सद्उपयोग, प्रयोजन पूर्वक पोषण जागृत मानव करता है। वह उसको अपने उत्पादन के निमित्तक?े अञ्जग्ष्ट पदार्थ के रूप में प्रयुक्त करता है।

भ्रमित चैतन्य पक्ष द्वारा जड़ पक्ष  में  बलात् ग्रहण और इतर चैतन्य इकाइयों पर विचार पूर्वक संप्रेषण या संक्रमण होता है। साथ ही, ज्ञान, विवेक और विज्ञान पूर्वक सामाजिक एवं सहअस्तित्व पूर्ण होता है।

सामाजिकता की स्थापना आक्रमण अथवा बल प्रयोग से संभव नहीं है अपितु जागृति के लिए अपेक्षितउ? ष्ट्वग् अथवा गुणात्मक संस्कारों द्वारा ही यह संभव एवं सुलभ है।

स्वभाव ही सामाजिकता का मूल्याँकन करता है। उसी (स्वभाव) के आधार पर, उसी के लिए, उसी को सुसंस्कारों से सम्पन्न करने के लिए ही अध्ययन है।

अध्ययन की पुष्टि, प्रकाशन, प्रचार, प्रदर्शन से है। इसकी सफलता या असफलता सामाजिकता के संरक्षण के लिए की गयी व्यवस्था पर आधारित है।

मानवीयता तथा अतिमानवीयता से संपन्न प्रत्येक मानव इकाई के स्वभाव को अवि’िछन्न बनाने योग्य वातावरण का निर्माण करना, शिक्षा एवं व्यवस्था का आद्योपांत कार्यक्रम है। यही आप्तों की आकाँक्षा है।

अनुभूति ही आप्तत्व है। अनुभूति केवल सह-अस्तित्व रूपी परम्् सत्य में है। वह क्षमता, योग्यता एवं पात्रता पर निर्भर है। वह जागृति पर; जागृति इ’छाओं पर; इ’छाएँ संस्कारों पर; संस्कार वातावरण, अध्ययन एवं पूर्व संस्कारों पर तथा संस्कार वातावरण अध्ययन एवं पूर्व संस्कार अनुभूति सहज परम्परा पर आधारित होना रहना पाया जाता है।

 

अनुभूति वर्ग, मत,  संप्रदाय, पक्ष, भाषा की सीमाओं से बाधित नहीं है।

अनुभूति योग्य अर्हता को उत्पन्न कर देना ही संस्कार है।

ब्रह्मानुभूति योग्य अर्हतार्पयन्त संस्कार पूत होना भावी है।

‘‘नित्यम् यातु शुभोदयम्’’

 

 

 

दासत्व में क्रम से न्याय, समाधान और अनुभूति योग्य क्षमता सम्पन्नता प्रमाणित नहीं होती है।

आत्मा मध्यस्थ क्रिया की प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित है। मध्यस्थता ही समाधान, समाधान ही न्याय, न्याय ही मध्यस्थता या समत्व है। अनुभूति योग्य अवसर मानव को प्राप्त है, इसलिए-

आत्मा इकाई के गठन के मध्य में स्थित पायी जाती है अत: वह मध्यस्थ क्रिया है। अन्य चारों स्तरीय अंश अंतरांतर परिवेश में आत्मा के सभी ओर भ्रमणशील है, इसलिए सम एवं विषम क्रियाएं हैं।

इकाई का नियंत्रण मध्यस्थता में ही है।

जड़-क्रिया का नियंत्रण नियम में, सामाजिकता का नियंत्रण न्याय में, आशा विचार एवं इ’छा का नियंत्रण समाधान में, अनुभव का नियंत्रण ब्रह्मानुभूति में ही है।

अनंत क्रिया समूह ही प्रकृति एवं विराट् है। प्रत्येक क्रिया विराट् का एक अंश है। प्रत्येक परमाणु भी एक सूक्ष्म विराट् है।

लक्षण पूर्वक ही नियम, न्याय, समाधान व अनुभव दर्शन है।

 

नियम में अपरिणाम-अपरिवर्तन, अपरिपाक, न्याय में असंदिग्धता, धर्म में निर्विषमता एवं सह-अस्तित्व समाधान में स्वर्गीयता व समृद्घि और अनुभव में आनंद की निरंतरता है, इसके लिए ही मानव तृषित है ।

नियम, न्याय, धर्म, सत्य शब्द भी ब्रह्मानुभूति सहज अर्थ को इंगित करते हैं। इन सबमें व्यापक ही इंगित है। व्यापक पूर्ण ही है। जागृत मानव में स्वतंत्रता ही समाधान, समाधान ही समत्व, समत्व ही सहज समाधि, सहज समाधि ही आनंद, आनंद ही जीवन जागृति, जागृति ही स्वतंत्रता है।

स्वतंत्रता की कामना प्रत्येक मानव में विद्यमान है।

जड़ प्रकृति के साथ नियम पूर्वक उत्पादन, समाज में न्याय पूर्वक व्यवहार, स्वयं में समाधान पूर्ण विचार एवं सत्ता में अनुभवपूर्ण क्षमता से संपन्न होना ही मानव इकाई का परम जागृति है। यही स्वतंत्रता का आद्यान्त लक्षण  है।

स्वतंत्र मानव इकाई जागृति सहज प्रमाण है तथा अन्य उसका अनुसरण करने में या पूर्ण जागृति के निकट है।

जागृति पूर्ण मानव इकाई अन्य के अभ्युदय के लिए सहायक है।

स्वतंत्र मानव इकाइयों  की संख्या वृद्घि हेतु मानवीयता सहज व्यवहार उत्पादन तथा व्यवस्था का अध्ययन व आचरण की एकसूत्रता आवश्यक है।

मानव इकाई पूर्ण जागृति पूर्वक ही अनुभव वेत्ता सिद्घ हुई है। जड़ अवस्था से विकास पूर्वक चैतन्य अवस्था प्राप्त होती है। ये चैतन्य इकाइयाँ ही जीवात्मा तथा ज्ञानात्मा के प्रभेद से गण्य है।

 

मानवाकार शरीर को ज्ञानात्मा अपनी आशा, विचार एवं इ’छानुसार संचालित करता है। जीवात्मा मानवेतर पशु- पक्षी आदि जीव शरीरों को आशानुरूप संचालित करता है। ज्ञानात्मा ही जागृतिपूर्वक जागृत मानवात्मा, देवात्मा या दिव्यात्मा में गण्य है। क्रम से इन्हीं को मानव, देव मानव और दिव्य मानव की संज्ञा प्रदान की गई है।

दिव्य मानव को ब्रह्मानुभूति, देव मानव को ब्रह्म प्रतीति और मानवीयतापूर्ण मानव को ब्रह्म का आभास और अमानव में भी ब्रह्म भासता है। इसलिए जिनको चार विषयों में भोग, अतिभोग करते हुए सुख भासता है जिसकी निरंतरता नहीं हो पाती है यही अमानव में जागृति सहित अपेक्षा है।

आनंद की निरंतरता की आशा, आकाँक्षा और  जिज्ञासा मानव में पायी जाती है। जागृतिपूर्वक ब्रह्मानुभूति के लिए मानव प्रयासरत है, इसलिए-

क्रिया तथा ब्रह्म में लक्षण भेद है।

क्रिया अनंत संख्या में अनेक अवस्थाओं सहित स्थूल, सूक्ष्म और कारण भेद से प्रत्यक्ष है। ब्रह्म अखण्ड, पूर्ण, व्यापक है।

 

जड़ (स्थूल) क्रिया का परिणाम, परिवर्तन, परिपाक प्रत्यक्ष है।

चैतन्य क्रिया में आशा, विचार, इ’छा और संकल्प सक्रियता और  उसका परिमार्जन, विकल्प भी प्रसिद्घ है। सत्यानुभव-योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता से परिपूर्ण होने तक स्वीकृति रूपी परिपाक, परिमार्जन और जागृति सहज विकल्प की श्रृंखला बनी हुई है, जो पूर्णता एवं स्वतंत्रता हेतु मार्ग है।

सत्यानुभव आत्मा में, बोध बुद्घि में, प्रतीति चित्त में, आभास वृत्ति में एवं भास मन में होता है।

अनुभव-क्षमता की आंशिकता में बोध,बोध की आंशिकता में प्रतीति, प्रतीति की आंशिकता में आभास एवं आभास की आंशिकता में भास-क्षमता प्रसिद्घ है, जो साक्ष्य में प्रत्यक्ष होने वाली संज्ञानीय क्रियायें हैं। यही ज्ञानावस्था सहज महिमा है।

पाँच संवेदन क्रियाओं द्वारा आस्वादन एवं स्वागत क्रिया की अभिव्यक्ति होती है। स्वागत भाव-पक्ष का बोधपूर्वक अनुभव भी होता है।

स्वागत एवं आस्वादन क्र्रिया मानव में प्रसिद्घ है।

 

स्वागत भाव में अनुभव के लिए, आस्वादन भाव में भोगों के लिए अनुमानांकुर है।

भोग पूर्वक आस्वादन केवल जड़ पक्ष में, से, के लिए है। अनुभवाकांक्षी स्वागत भाव सत्य में ही है।

लोक सत्य, वस्तु स्थिति सत्य एवं वस्तुगत सत्य के रूप में तथा व्यापक स्थितिपूर्ण प्रसिद्घ है। यह प्रमाण सिद्घ है। दर्शन क्षमता की अपूर्णता की स्थिति में अनुमान, अध्ययन और अनुभव के लिए प्रयास का उदय होता है।

लक्षण और लक्ष्य के योगफल में अनुमान का उदय होता है। विज्ञान एवं विवेक-ज्ञान ही प्रमाण है जो अनुभव समाधान व्यवहार व प्रयोग ही है।

वस्तु स्थिति सामयिक सत्य है।

काल-क्रिया-परिणाम से मुक्त नित्य, सत्य ब्रह्म ही है।

संवेदनाओं के आस्वादन की अपेक्षा में स्वागत भाव का अधिक हो जाना ही जागृति की ओर गति है। इसके विपरीत भोगों में प्रवृत्ति है जो अजागृति व ह्रास का लक्षण है।

 

आत्मा कारण (मध्यस्थ) क्रिया है। अस्तित्व एवं आनंद ही उसका आद्यांत लक्षण है।

ज्ञानावस्था में मानवीयता पूर्ण मानव ही उत्पादनशील व्यवहारशील, विचारशील एवं अनुभवशील इकाई है।

मानव में कार्य व्यवहार-काल,विचार-काल एवं अनुभव काल प्रसिद्घ है। उत्पादन व्यवहार एवं विचार की उपादेयता अनुभव की आशा एवं आकाँक्षा में ही है।

ब्रह्म के अतिरिक्त और कोई सत्ता नहीं है।

मानव अपने से कम विकसित के साथ उत्पादन, समान के साथ व्यवहार, अधिक श्रेष्ठ का सान्निध्य और व्यापकता में  अनुभव करता है, करना चाहता है या करने के लिए बाध्य है।