Society, Religion & State (समाज, धर्म और राज्य)
समाज धर्म (व्यवस्था) और राज्य
*स्त्रोत = समाधानात्मक भौतिकवाद संस १९९८, अध्याय ८
विगत का विश्लेषण व वर्तमान की समीक्षा :-
धर्म:- जब से इस धरती पर आदर्शवादी विचार प्रभावी रहा है, तब से इतिहास के अनुसार राज्य एक कार्यक्रम रहा है। धर्म का आधार आदर्शवाद रहा, पावन गं्रथ (ईश्वर वाणियाँ) आधार रहे। ये वाणियाँ सर्वाधिक ईश्वर कृपा, कल्याण, मोक्ष संबंधी आश्वासन के आधार पर आस्था का स्रोत रहीं। इस मुद्दे पर भी आस्था निर्मित हुई कि पावन ग्रंथों के वचनों में पापियों का नाश करने के लिए ईश्वर ही स्वयं दृढ़ संकल्पित हैं। पुण्यशीलों का उद्घार करना उनका एक महत्वपूर्ण कार्य बताया गया। यह बात लोगों को पसंद आई, लोगों ने मान भी लीं। उल्लेखनीय बात यह रही कि विविध पावन ग्रंथों में पुण्य के लिए जो उपदेश दिए गए, वह विविध रूप हो गये। पुण्य के लिए जो कुछ भी विविध रुपों में कहे गये क्रिया-कलाप हैं, जिसकी पुष्टि प्राचीन पावन ग्रंथों में होना पाया जाता है, उसी को आज तक हम धर्म मानते आए हैं। मानव पुण्यशील बनने के विविध तरीकों के आधार पर वाद-विवाद किया करते हैं। अंततोगत्वा कटुता, दुष्टता के कटघरे में आ जाते हैं। यही, इतिहास के अनुसार और इस वर्तमान के अनुसार, पाए जाने वाले वाद-विवाद का प्रधान आधार रहा। इससे भी बड़ी बात यह रही है कि, ‘‘अपने पराए की दीवालें’’ बनने का महत्वपूर्ण कच्चा माल, इन्हीं पुण्यार्जन की विविधता में रही, जिसको आज तक हम लोग संस्कार मानते आए हैं।
सभी धर्म परम्पराओं में निश्चित चिन्ह जैसे:-
1. चमड़े के रंग आधार पर अथवा बाल के आधार पर।
2. अन्य वस्तुएँ, चाहे औषधि वस्तु हो या वनस्पति वस्तु हो, वह अपने ही मूल आकार में हो और कोई लकड़ी, धातु, पत्थर, कपड़े-इनका निश्चित आकार बनाकर (मूर्तियाँ वगैरह) हमने पहन लिए।
3. किसी एक धर्म परंपरा में रहने वाले, जिस आहार पद्घति को स्वीकारते हैं, दूसरा उसको निषेध मानते हैं।
4. इन्हीं के आधार पर, पावन स्थली कहलाने वाले स्वरुप, मिट्टी, पत्थर, ईंट, धातुओं से निर्मित हुई स्थली को बताते हैं।
विभिन्न धर्म कहलाने वाले, अपने-अपने मान्य, पावन स्थलियों में, अपने-अपने ढंग से प्रार्थनाएँ करते हैं। इन सभी प्रार्थनाओं का पावन स्वरुप यही हैं कि रहस्यमय ईश्वर की कृपा हो, सबका कल्याण हो, पापियों एवं दुष्टों का नाश हो। प्रार्थना करने वाले स्वयं के उद्घार की चाहत प्रस्तुत करते हैं। इन बातों में यह भी विचित्रता देखने को मिलती है कि जो जिस धर्म की पावन स्थली है, उस स्थान में दूसरे धर्म वाले आदमी के पहुँचने पर, वह स्थल ही अपवित्र हो गया ऐसा माना जाता है। इनमें उल्लेखनीय बात यह है कि क्रमांक (1) में बताए गए आधार पर, चमड़े, बाल के जो चिन्ह बनते हैं, वह केवल पुरुषों तक ही देखने को मिलता है। इसी के साथ कपड़े को विविध तरीके से, धर्म चिन्ह के आधार पर, बनी हुई बनावटों को भी, पुुरुषों में देखने को मिलता है। नारियों में विशेषकर धातु-पत्थर, वनस्पतियों, वस्तुओं से बनी हुई चीजें जो पावन ग्रंथों द्वारा स्वीकार्य रहता है, उसको पहन लेते हैं (जैसे माला आदि)। ये धर्मग्रंथ बताते हैं कि इसी को पहनना है या उसको नहीं पहनना है। नारियाँ, धार्मिक ग्रंथों की अनुमति व रुढि़यों के अनुरुप कपड़े पहनती दिखाई पड़ती हैं। पचास वर्ष पहले निश्चित धर्म समुदाय का पहनावा अलग दिखता था, अब पहनने वालों के मन की पसंदगी के आधार पर पहनावा दिखाई पड़ता है। पहनने-ओढऩे में कट्टरता कुछ लोगों में है भी। क्रमश: यह कट्टरता अब लचीली होने की संभावना दिखाई पड़ती है।
अभी तक के इतिहास और मानव परंपराओं में हुए परिर्वतन सहित आज की स्थिति को संयुक्त रूप में देखने पर पता चलता है कि किसी रुढि़ का पालन (रुढि़ का तात्पर्य संज्ञानशीलता अर्थात् जानना, मानना, पहचानना, ये तीनों चीजें न हो, केवल मान लिया हो। यही रुढि़याँ तर्क संगत न होने के आधार पर ही अंतर्विरोध और बाह्य विरोध का कारण होती है) शब्द, साहित्य, कला और आहार-विहारों में की गई अभिव्यक्ति पूजा, पाठ, प्रार्थना के तरीके, किसी वस्तु या पद के प्रति प्रतिबद्घताएँ, तभी परिवर्तित होते हुए देखने को मिला जब :-
1. रुढि़यों (सामुदायिक, धर्म व राज्य संविधान) के आधार पर आचरण जिसने किया है, उसे अंतर्विरोध हो जाए।
2. समुदायगत रुढि़याँ पीढ़ी से पीढ़ी बड़ी आस्था से संपन्न की जाती हैं और इन्हें शोक संवेदनाओं के क्षणों में भी व्यक्त किया जाता हैं। जिसमें स्वीकृतियाँ रहती हैं ऐसी रुढि़यों के प्रति उसी समुदाय में अंतर्विरोध हो जाए।
3. किसी अधिकार के प्रति किसी की प्रतिबद्घता (जैसे शासन सत्ता में बैठे हुए शीर्ष व्यक्ति से प्रदत्त अधिकार और अधिकारी सहित, अधिकार प्रयोग, अधिकार वितरण) में यदि अंतर्विरोध हो जाए।
4. किसी वस्तु के प्रति एक से अधिक व्यक्तियों के बीच स्वत्व की प्रतिबद्घता हो।
ऐसी स्थितियों में अंतर्विरोध होने पर प्रतिबद्घताएँ, मान्यताएँ, रुढि़याँ विकेन्द्रित होकर परिवर्तन के लिए अनुकूल परिस्थिति बनती हैं। हम परिर्वतन के आधार पर बिन्दुओं को पहचानने के लिए तत्पर होते हैं। आवश्यकता को स्वीकार करते हैं तब यह पता लगता है कि-
1. सत्ता परिवर्तन, हस्तांतरण, विकेन्द्रीकरण- इन प्रकारों से सोचा गया।
2. धर्म परितर्वन इसमें दो प्रकार की अपेक्षा मानव मानस में रही।
वह (एक) धर्म में जो रुढि़याँ है उनसे बाज आकर दूसरी धर्म रुढियों को स्वीकारना।
(दो)जो तर्क की कसौटि में आते नहीं, उन तमाम रुढि़यों का तर्क संगत होने के क्रम में अथवा उनकी निरर्थकता, मानव मानस में स्पष्ट हो जाये।
इस प्रकार की तमन्ना लेकर बहुत से यति, सति, संत, तपस्वी, महापुरुष, प्रचारक, धर्मप्रचारक, सत्य प्रचारक, प्रचार साहित्य के रूप में प्रयत्न करते रहे, अथक प्रयास करते रहे। यहाँ उल्लेखनीय बात यही है कि जहाँ-जहाँ इसके अंतर्विरोध हुए, रुढि़यों में थोड़ी ढिलाई दिखी, तब इन प्रचारों की भलमनसाहत सफल हुआ मान लेते हैं। जब एक निश्चित धर्म समुदाय में अंतर्विरोध के फलस्वरुप रुढि़यों में ढिलाई हुई थी, वही समुदाय जब बाह्य अर्थात् उससे भिन्न समुदायों के सम्मुख विरोधों से घिरते हैं तब उन समुदायों अथवा उस समुदाय में रुढि़ की मंशा और दृढ़ हो जाती है।
राज्य में भी इस बात को ऐसा परखा जा सकता है कि जब जब देशवासियों में अंतर्विरोध होता हैं तब तब देश में भी अनेक भूखंड अथवा अनेक देश बनने की इच्छा व्यक्त होती है। वहीं जब बाह्य विरोध होता है अर्थात् बाह्य देशों से आक्रमण की स्थिति बनती हैं, तब देश की अखण्डता अथवा सीमा सुरक्षा के प्रति लोग प्रतिबद्घ हो जाते है। इस प्रकार की घटनाओं को इस धरती पर मानव कई बार दुहरा चुका हैं । अब सत्ता परिवर्तन, सत्ता विकेन्द्रीकरण और सत्ता हस्तांतरित होने वाली बात, हर धर्मगद्दी व राजगद्दी में बारंबार सत्ता हस्तान्तरण के साथ परिवर्तन और परिवर्तन के साथ विकेन्द्रीकरण, विकेन्द्रीकरण के साथ हस्तांतरण होता ही रहा है।
इतिहास के अनुसार इस घटना के स्वरुप को, विभिन्न रुपों में देखा गया है-
1. सत्ता में बैठे हुए आदमी को बल पूर्वक हटा दिया गया और दूसरा बैठ गया। इसमें विश्वासघात के विविध विन्यासों को देखा गया। जनमानस के न चाहते हुए- छल, कपट, विश्वासघात पूर्वक हटा दिया गया और दूसरा बैठ गया।
2. विश्वासघात के ही स्वरुप में दम्भ, पाखंड पूर्वक जन-मन चाहे आश्वासनों के आधार पर गद्दी में बैठे हुए आदमी को हटा दिया है।
3. वंशानुगत अधिकार के अंतर्गत गद्दी पर बैठ गया। ऐसा सर्वाधिक घटनाओं में गद्दी पर बैठा हुआ आदमी मरने लगा है, मरने की तैयारी में हैं अथवा मर गया है। ऐसी स्थिति में वंशानुगत विधि से, गद्दी में बैठने की घटनाओं को देखा गया।
4. गद्दी पर बैठा हुआ आदमी स्व प्रसनन्ता से दूसरे व्यक्ति को बैठाया।
इतिहास के अनुसार ऐसे, विविध घटना क्रम स्मरण करने के लिए उपलब्ध हैं। इन्हीं चार विधियों से सत्ता को हस्तांतरित होते हुए देखा गया हैं और सत्ता हस्तांतरित हुई हैं । सत्ता प्राप्त व्यक्ति जो गद्दी में बैठा रहता है, उसका मूल रूप, मूल महिमा मूलत: विकरालता और सर्वाधिक सुविधा, यही रहते आया। शक्ति केन्द्रित शासन करने को सर्वाधिकार अथवा एकाधिकार से चली आई है।
शक्ति केन्द्रित शासन का तात्पर्य यही माना गया हैं कि संविधान लिखित या मौखिक, इन दोनों विधियों से पालन होना राज्य का तात्पर्य हैं, अर्थात् वैभव का तात्पर्य है। राज्य सत्ता का तात्पर्य यही हैं कि पालन न होने की स्थिति में उसे डंडा, बंदूक, तोप, प्रेक्षपण-विक्षेपण वध-विध्वंसात्मक कार्य करने का अधिकार हो। ऐसा मौलिक अधिकार गद्दी में बैठे हुए आदमी के पास होना या आदमी में होना मान लिया जाता है। इन्हंीं से आबंटित पद अथवा नाम के रूप में होना परंपरा में देखा गया। उनके लिए प्रदत्त, सत्ता सहज अधिकार का तात्पर्य भी यही हैं। लोक जीवन, लोक कार्य, लोक व्यवहार अपनी जिम्मेदारी से होना है। अभी तक कोई शक्ति केन्द्रित शासन ऐसा देखने को नहीं मिला, जिसमें मानव का अध्ययन सम्पन्न शिक्षा और व्यवस्था में संरक्षण विधि को लोकगम्य कराने में कोई मार्गदर्शन किया हो। इसका कोई प्रमाण इतिहास में तथा वर्तमान में देखने और समझने को नहीं मिला।
शक्ति केन्द्रित शासन और विकेंद्रीकरण की बात बारम्बार सुनने में आई। एकाधिकारवादी राजगद्दी के समय भी इस प्रकार की बातें आईं एक से अधिक व्यक्तियों के साथ मिलकर निर्णय लेने पर सत्ता सहज अधिकारों का आबंटन मौखिक, लिखित रूप में हुआ। डराने, धमकाने, मारपीट करने के अधिकारों को आबंटित करने की प्रथा चली। ऐसे सभी काम आम आदमी के साथ ही करना था और आज तक इसे करते आए। वर्तमान में भी यही कर रहा है। कहीं बड़ी तादाद से ऐसे कर्मो को करना हैं, जैसे सीमा सुरक्षा और युद्घ की तैयारियाँ। यही आज तक देखा गया है। इसे सत्ता विकेन्द्रीकरण का रूप भी मान लिया गया है।
इसके बाद गणतांत्रिक तरीके से जनादेश जैसी अद्भूत शक्ति के साथ गद्दी में बैठने की प्रथा आरंभ हुई। पहले से ही सत्ता का स्वरुप छोटे-बड़े सभी देशों के साथ यह बना हुआ है। इन जन प्रतिनिधियों के आदेशों को पालन करने के लिए संविधान सहज अनुमति बनी रहती हैं। जहाँ-जहाँ गणतांत्रिक प्रणाली प्रभावशील हुई हैं, वहाँ-वहाँ लिखित संविधान का होना पाया गया है। गणतांत्रिक शासन विधान में जनमानस का ख्याल रखा जाता है। ऐसे प्रचारों का खास तौर पर ख्याल रखते हुए इसे प्रचारित किया जाता है।
मुद्रा:- गणतांत्रिकता के लिए सांस्कृतिक आधार, आर्थिक आधार, राजनैतिक आधार मुद्रा को माना गया है। राजनैतिक लक्ष्य सत्ता हस्तांतरित करना है। सांस्कृतिक आधार की पहचान पहनावा (कैसा कपड़ा पहनते है) श्रंृगार, नृत्य, शादी ब्याह के तरीके को माना गया। इसकी विविधताओं को वैध मान लिया गया है। जैसे, सर्वाधिक आय, कम आय अथवा सर्वाधिक संग्रह (पूंजी) पैसा, कम से कम पूंजी पैसा। पूंजी का स्वरुप मुद्रा है। मुद्रा का मूल रूप एक कागज हैं । कागज का मूल रूप बाँस लकड़ी ही हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ है कि बाँस लकड़ी के ऊपर मानव कुछ लिखता है, उसका नाम मुद्रा है। मुझे लिखने वाले का दिल दरिया जैसा दिखता है। किसी कागज के टुकड़े पर सौ, किसी पर एक, किसी पर लाख, करोड़ लिखा हुआ देखने को मिलता है। मानव के आवश्यकीय वस्तु के रूप में वह मुद्रा दिखती नहीं है। यह मान लिया जाता है मुद्रा से वस्तु मिलेगी।
इस मान्यता में यह स्पष्ट हुआ है कि वस्तु का प्रतीक मुद्रा है। स्मरणीय सूत्र यह है कि ‘‘प्रतीक प्राप्ति नहीं होती और प्राप्तियाँ प्रतीक नहीं होती।’’ इसका तात्पर्य यही हुआ कि हर प्रतीक कैसा भी, कितना भी बदल सकता है। जैसा पहले भी कह चुके हैं कि कागज के टुकड़े पर ‘‘एक’’ भी लिखा जा सकता है और उस पर एक अरब भी। इसका ध्रुवीकरण करने के लिए प्रत्येक देश ने विदेशों के साथ एक आवश्यकता को अनुभव किया। उसे किसी प्रकार की धातु वस्तु(जैसा सोना) मान ली गई है। इस विधि में जिनके पास ज्यादा वस्तु हैं, वह वस्तु (अर्थात् सोना) पत्र मुद्रा को ध्रुवीकृत करता है, अधिक वस्तु (सोना, चांदी) के आधार पर तैयार की गई पत्र मुद्रा की संख्या कम दिखती हैं वह अधिक मूल्यवान दिखता हैं । वहीं जिस देश में वस्तु (सोना, चांदी) कम हो गई है अथवा जहाँ सोना जैसी वस्तुएँ कम होती जाएगी, ऐसी मुद्रा कोष से प्रस्तावित पत्र मुद्रा की संख्या बढ़ते ही आया और बढ़ता ही रहेगा। इस प्रकार जिस देश में मुद्रा कोष की आधार वस्तु (सोना) जैसे-जैसे घटती गई, उसी अनुपात में दूसरे देश का आधार मुद्रा कोष की आधार वस्तु बढ़ गई है। उतने अनुपात में घाटा कोष वाले देशों से वह वस्तुओं को खरीदता है। उसी अनुपात और अवधि से अधिक कोष वाले देश बेचते हैं। इस प्रकार मुद्रा कोष अर्थात् प्रतीक मुद्रा के आधार पर जिन वस्तुओं को कोष मान लिया गया है वह जिनके पास अधिक हो चुका है (जैसे सोना) वह बढ़ते ही जाना हैं और जिनके पास कोष कम है वह घट चुका है उनका कोष कम होते ही जाना है। फलस्वरुप प्रतीक मुद्राओं पर संख्या क्रम बढ़ते ही जाना है। फलस्वरुप देश में वस्तुओं का मूल्य बढ़ते ही जाना और विदेश के लिए वस्तुओं का मूल्य घटते ही जाना है। इस प्रकार प्रतीक मुद्रा और आधार मुद्रा कोष विधि में बिंधा गया हुआ माया जाल है। इससे स्पष्ट समीक्षा होती हैं कि अधिक कोष वाले देश को अधिक अमीर होते जाना है, क्योंकि जैसा मानना है कि धन से धन पैदा होता है, जबकि वैसा होता नहीं। इस क्रम में जो कुछ होता हैं वह शोषण है। अधिक कोष वाले देश के लिए, सभी कम कोष वाले देश, उनके कोष को बढ़ाने में सहमति पूर्वक लग गए हैं। यही प्रलोभन की महिमा है, दूसरी ओर वही कोष प्रकारान्तर से विश्व बैंक कहलाने वाले स्थल के ऋण के रूप में उन्हीं देशों को सर्वाधिक आबंटित होगा। मजबूत कोष वाले देशों की शर्तों को मानते हैं, न मानने की स्थिति में विश्व बैंक अथवा विश्व कोष से उन लोगों को ऋण नहीं मिल सकता, जब तक उनकी शर्तों को ये पूरा नहीं करते हैं। इस प्रकार, उसी के साथ भय का स्वरुप, अपने आप विश्व के सम्मुख प्रस्तुत हो चुका।
उल्लेखनीय बात यह है कि कुछ गणतांत्रिक देश आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक समानता के अधिकार की घोषणा करते हैं अथवा आश्वासन देते हैं। दूसरी और संवैधानिक रूप में सभी संस्कृतियों की रक्षा करनी हैं। फलस्वरुप संास्कृतिक समानता खटाई में चली जाती है। आर्थिक विषमता को दूर करने की परिकल्पना संविधानों में है। जिन देशों में, जिनके पास अधिक पैसा हैं, उसके दूने के लिए वह प्रत्यनशील है। जिस दिन वह पैसा दूना होता हैं, उसी क्षण से उसके दूने के लिए प्रयास करता है। आज की स्थिति में मान लो एक व्यक्ति के पास एक करोड़ है, दूसरे के पास एक रुपया है। एक रुपये वाला अपने एक रुपये को दूना करने चलता हैं। उससें भी समय लगता है। उसी प्रकार एक करोड़ रुपये वाला अपने धन को दूना करने जाता है, उसमें भी समय लगता है। करोड़ रुपये वाला आदमी रुपया दूना करने में सफल होता है, कुछ असफल होता है। एक वाला भी ऐसे ही सफल अथवा असफल होता है। समय के बारे में भी ऐसा ही सोचा जा सकता है और देखा जा सकता है। एक रुपये वाले आदमी दो रुपया कर लेता है। मान लो कि इसमें उसे दो माह लगा। उसी भाँति एक करोड़ वाला दो करोड़ जल्दी बना लेगा। उनको भी एक महीने लगा। जल्दी वाले क्रम को रखते हुए इन दोनों के समीप बिन्दु क्या है। देखा जा सकता है- इस प्रश्न का उत्तर सामान्य मानव के लिए अगम्य हो गया हैं और गणित भी व्यर्थ चला गया है। इसी भाँति अमीर देश, गरीब देशों के साथ भी है। इसमें सार्थकता क्या है? यह पूछा जाये। गरीब देशों में सार्थकता केवल उस देश की गद्दी में बैठा हुआ कुछ लोगों के हाथों में, गरीबों के अनुसार अनगिनत गणित के अनुसार अरबों रुपयों को देखा जा सकता है। अमीर देशों का क्या फायदा है, अमीर देशों का फायदा यह है कि सभी देशों की सारी वस्तुओं को सस्ते में लाकर अपने देशवासियों को आवश्यकतानुसार उपलब्ध करावेंगे। अपने देश की सारी वस्तुओं को, वन खनिजों को बचाए रखेंगे। सभी देशों के वन खनिज समाप्त होने के पश्चात् आवश्यकता के अनुसार अपने देश का उपयोग करेंगे। इस प्रकार की सूझ-बूझ स्पष्ट होती है।
इस प्रकार ‘‘गरीब देश अमीर देश हो जाये और गरीब आदमी अमीर हो जाये’’ यह बात केवल एक प्रलोभनात्मक भाषा शब्द है। देश और मानवों में लालच ही पैदा किया जा सकता है। लालच सदा ही फँसने अटकने और दरिद्र होने का रास्ता बनाता है। अस्तु, विश्व अर्थ चिंतन का जीता जागता प्रमाण दिन प्रतिदिन अटकना ही है, इसे सुलझना नहीं है। इसका कारण एक ही है- वह है पत्रमुद्रा अथवा प्रतीक मुद्रा। यही भय और प्रलोभन की महिमा है।
समाधान:- राज्य के साथ समाज और धर्म अविभाज्य वर्तमान है। धर्म के साथ समाज और राज्य अविभाज्य वर्तमान है। समाज के साथ राज्य और धर्म अविभाज्य वर्तमान है । मानव धर्म का मूल रूप में सर्वतोमुखी समाधान है, इसके लिए मानव परंपरा में परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था प्रस्तावित है। जिसका फलन समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व सहज प्रमाण है। राज्य, समाज और धर्म अलग अलग नहीं हो पाते। भाषा के रूप में कई तरीके से बात कर सकते हैं पर होता है वही जो अस्तित्व में है। अस्तित्व में मानव का होना, पहले स्पष्ट हो चुका है। मानव का स्वरुप स्वायत्त रूप में, परिवार के रूप में, ग्राम व विश्व परिवार के रूप में पहचान सकते हैं। मूलत: मानव की पहचान अर्थात् व्यक्ति की पहचान पहले कर लें अथवा विश्व मानव को पहले पहचान लें। इनकी पहचान से यह पता चलता हैं कि सर्वप्रथम एक समझदार मानव को पहचानना अति अनिवार्य है। यह भी समझ में आता हैं कि प्रत्येक मानव आकार के रूप में विविध है। मानव को पहचानने का आधार क्या होगा? यह प्रश्न स्वाभाविक रूप में विचारशील व्यक्तियों में उपजता ही है। इसका उत्तर खोजने पर पता चलता है कि हर वस्तु की पहचान उस-उस के आचरण पर ही निर्भर हैं। आचरणों को योग, संयोग, वियोग के आधारों पर पहचाना जाता है। एक दूसरे का मिलन, योग हैं। पूर्णता के अर्थ में सार्थक योग, संयोग हैं। वियोग वह है कि योग और संयोग पहले से थी उससे छूट गए। इस प्रकार वियोगात्मक आचरण के आधार पर कोई समाज रचना नहीं होती है। अब संयोग और योग की बात आता है। अभी तक जो कुछ भी आदमी, परिवार और समुदाय के रूप में दिख रहा है, ये सब योग के रूप में ही दिख रहा है, संयोग के रूप में नहीं। योग से कम स्थिति में अर्थात् वियोग की स्थिति में मानव स्पष्ट नहीं हो पाता है। कम से कम योग के आधार पर ही आचरणों को पहचानना संभव हो पाता हैं। इन्हीं आधारभूत तथ्यों के आधार पर परीक्षण संभव हो पाता है। मूलत: मानवीयतापूर्ण आचरण में सार्वभौम रूप स्पष्ट है।
मानवीय आचरण, उसकी सार्वभौमिकता के कार्य रूप को, सार्वभौम व्यवस्था के आधार पर ही देख पाना संभव हो पाता है, यही मुख्य मुद्दे की बात है। अभी तक यह मुद्दा अनुसंधान के गर्त में रहा है, अब इसके मानव सुलभ होने की संभावना बन चुकी है। ऐसी सार्वभौम व्यवस्था को अनुसंधान के उपरान्त ही सार्वभौम आचरण के परीक्षण के लिए, आपका ध्यान आकॢषत किया जा रहा है। सार्वभौम व्यवस्था को ऐसा समझा गया है कि मानव को परिवार मानव, ग्राम परिवार मानव, विश्व परिवार मानव के रूप में पहचाना जा सकता है। प्रधान बात यही है कि, परिवार में ही मानव की पहचान व प्रमाण होता है। परिवार कम से कम दो, या दो से अधिक व्यक्तियों के होते हैं। मूलत: विश्व परिवार ही अखण्ड समाज के रूप में ख्यात होता हैं । विश्व परिवार व्यवस्था ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो पाता है। अतएव मानव को परिवार में पहचानने के पहले मानव की परिभाषा आवश्यक हो जाती है, जिसके आधार पर ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था व्याख्यायित होती हैं। मानव की परिभाषा, मानव के यथास्थिति अध्ययन से ही प्रमाणित होती हैं जैसे- ‘‘मनाकार को साकार करने वाला, मन: स्वस्थता (सुख) का आशावादी एवं प्रमाणित करने वाला मानव है।’’ हर मानव परिभाषा सहज व्याख्या के रूप में प्रमाणित होने के लिए स्वायत्त और मानवीयतापूर्ण आचरण संपन्न होना है। इस प्रकार से मनाकार को साकार करने को, प्रमाणों को सामान्य आकंाक्षा अर्थात् आवास, आहार एवं अलंकार संबंधी वस्तुओं और उपकरणों, तथा महत्वाकांक्षा अर्थात् दूरदर्शन, दूरश्रवण, दूरगमन संबंधी वस्तुओं और उपकरणों को साकार करने के रूप में देखा गया है। मन: स्वस्थता अर्थात् समाधानापेक्षा एवं प्रमाणित करने वाला का आशावादी होना, सहज होते हुए भी, परम्परा में प्रमाण के रूप में स्पष्ट नहीं हो पाया है। यद्यपि हर व्यक्ति सुख, शांति, संतोष और आनंद की अपेक्षा रखता ही है। यही मन: स्वस्थता का आशावादी होने का गवाही हैं।
मन: स्वस्थता मानव सहज जागृति का तृप्ति बिंदु हैं। मानव जब तक न्याय, धर्म, सत्य सहज दृष्टियों को प्रयोग करता नहीं है तब तक जागृति का प्रमाण सत्यापित कर नहीं पाता। जागृति से वंचित होने का मूल कारण अभी तक भ्रमित परंपराएँ और उस पर बनी हुई आस्थाएँ है।
‘‘न्याय, धर्म, सत्य दृष्टियों का प्रयोग हर व्यक्ति कर सकता है।’’ यही जागृत परंपरा है। भ्रमित समुदाय परंपरा हर व्यक्ति को किसी न किसी सीमा में फँसा देती है। परिणामत: संकीर्णता में ग्रसित होना पाया जाता है। न्याय, धर्म, सत्य दृष्टियों का सहज ही विशाल, विशालतम होना पाया जाता है। जैसे, हर व्यक्ति, हर व्यक्ति के साथ अपने संबंधों को पहचान सकता है, उनमें निहित मूल्यों का निर्वाह कर सकता है, मूल्यांकन कर सकता है। प्रत्येक मानव में यही विशालता की संभावना और गति के लिए परंपरादायी है। अपने-पराए की दीवाल और परिचित-अपरिचित की दीवाल बनाए रहता है। इन्हीं कारणो वश मानव परंपरा में समझदारी नहीं होने से न्याय सहज विशाल दृष्टि का प्रयोग नहीं कर पाता। आगन्तुक व्यक्तियों के साथ अपने ही अंदाज में निश्चय हुए आयु के साथ संबोधन करना, देखा जा सकता है। जिसके साथ जैसा संबोधन हुआ रहता है उनके साथ उसी तरीके के मूल्यों का निर्वाह करते हुए देखने को मिलता है। इसमें किसी भी आयु वर्ग के मानव हो, इस मुद्दे पर ऐसा परीक्षण कर सकते हैं। आगन्तुक व्यक्तियों के आयु वर्ग के अनुसार, सहज संबोधन के रूप में किसी न किसी संबध के साथ किया जाये उनमें से कोई नकारने वाले भी मिलते हैं और सकारने वाले भी मिलते हैं। इन दोनों परीक्षणों को ध्यान में रखते हुए सोचा जाय तो इनमें कुछ और ज्ञानार्जन होने लगता है। किसी भी बच्चे से, चाहे वह छोटा हो या बड़ा, हम मिलते है। शिशु, कौमार्य सहज सांैदर्य उनमें रहता ही है, साथ ही सामने आयु वर्ग के आदमी रहे हों, दादाजी, अंकल, चाचाजी और भाई कहने योग्य हों, ऐसे संबोधन के प्रभाव में व्यक्ति पर अपना-पराया का प्रभाव, ऐसे बच्चों के बीच में बाधा नहीं डालता, निष्प्रभावी हो जाता है। दूसरी जो स्थिति बताई गई उसमें परस्पर आगन्तुकता युवा, प्रौढ और वृद्घ की हो सकती हैं। ऐसी स्थिति में यह देखने को मिलता हैं कि अपने-पराए के आधार पर ही संबोधन की स्वागत कराने के बीच में अवरोध पैदा कर देता है इसलिए कुछ लोग स्वागत कर पाते हैं, कुछ लोग आंशिक रूप में स्वागत करते हैं, तो कुछ लोग बिल्कुल भी स्वागत नहीं करते। इन तीनों स्थितियों को इस प्रकार परंपरा के भ्रमवश, परंपरा से आई हुई मान्यताओं के साथ अपना पराया होता ही है। जैसे, हिन्दू धर्म, सिक्ख धर्म, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, यूनानी धर्म, हरिजन धर्म, आदिवासी धर्म आदि और इसी प्रकार बहुत से धर्मों को गिनाया गया है। बहुत सारे धर्मों के आधार पर समुदाय चेतना देखने को मिलती है। किसी एक समुदाय के आधार पर, मान्यता भले ही रुढि़ के रूप में क्यों न हो, ऐसा होने के बाद स्वाभाविक रूप में उनके लिए बाकी सभी पराए हो ही जाते हैं। इस प्रकार अपने-पराए का चक्कर सभी व्यक्तियों के साथ प्रकारान्तर से चला है अथवा सर्वाधिक व्यक्तियों के साथ यह चक्कर लगा हुआ है। समाज मानव समाज ही होता है। ‘‘मानवत्व’’ मानव चेतना सम्पन्न परंपरा ही धर्म और राज्य का आधार होता है। समाज परंपरा में व्यवस्था होती है। समाज अखण्ड होता है। समाज समुदाय नहीं होता है। समुदाय समाज (अखण्ड) नहीं होता। सामुदायिक व्यवस्था सार्वभौम नहीं होते, इसकी गवाही मानव को मिल चुकी है।
अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का मूल सूत्र एक ही हैं यह है समाधान। समाधान=सुख। समाधान=व्यवस्था। संबंधों की पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्याकंन क्रिया- ये समाधान है। फलस्वरुप सुखी होना पाया जाता है।
स्वयं में व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी ही समाधान, समाधान ही सुख, शांति, संतोष, आनंद है। मानव धर्म सुख ही है। यह जागृति का द्योतक हैं।
न्याय पूर्वक सुख और शांति, व्यवस्था पूर्वक शांति और संतोष, तथा अनुभव पूर्वक संतोष और आनंद जीवन में प्रमाणित होता है। प्रत्येक मानव इसे अनुभव कर सकता है। ऐसे अखण्ड समाज- परिवार मूलक व्यवस्था, विश्व परिवार में व्यवहार रूप दे सकता है। व्यवस्था कम से कम 100 से 200 परिवारों के बीच में, अर्थात् 1000 से 2000 जनसंख्या के बीच स्वायत्त विधि से सफल हो सकती है। स्वराज्य की परिभाषा ही हैं-स्वयं का वैभव, स्वयं का स्वरुप मानव, मानव के समान वस्तु जीवन है। जीवन का संबोधन ‘‘स्वयं’’ अथवा ‘‘स्व’’ है। इस प्रकार जीवन का वैभव ही राज्य है। अस्तु, जीवन का वैभव- स्वराज्य। जीवन वैभव जागृति की अभिव्यक्ति हैं। जागृति का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान एवं प्रामाणिकता है। इसका व्यवहार रूप परिवार परंपरा में समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। यही एक परिवार से विश्व परिवार तक प्रमाणित होने की वस्तुएँ हैं। इसके क्रियान्वयन क्रम में सर्वमानव के लिए न्याय सुलभता, उत्पादन सुलभता, विनिमय सुलभता लक्ष्य है। इसकी अक्षुण्णता के लिए शिक्षा-संस्कार, स्वास्थ्य-संयम सहज सुलभ रहेगा। इसको ही ग्राम स्वराज्य व्यवस्था का रूप देने के क्रम में दस सदस्यीय परिवार स्वयं अपने एक परिवार के प्रतिनिधि को, पहचानने की व्यवस्था रहेगी। हर दस (10) परिवार से एक एक सदस्य ‘‘परिवार समूह सभा’’ के लिए निर्वाचन पूर्वक पहचान करेगा। ऐसे दस परिवार समूह सभा अपने में से एक एक व्यक्ति को ग्राम परिवार सभा के लिए निर्वाचन पूर्वक पहचान करेगा। ग्राम सभा में समाहित दस (10) व्यक्तियों में से सभा प्रधान को पहचाने रहेंगे। ग्राम सभा, ‘‘स्वराज्य कार्य संचालन’’ समितियों को, मनोनीत करेगी। ऐसी समितियाँ पाँच होगी-
1. शिक्षा-संस्कार समिति
2. न्याय सुरक्षा समिति
3. स्वास्थ्य संयम समिति
4. उत्पादन कार्य समिति
5. विनिमय कोष समिति
इन सबके अपने-अपने कार्य परिभाषित, व्याख्यायित रहेंगे।
ऊपर कहे स्वराज्य व्यवस्था में सभी समितियाँ सहित ढाँचे का स्वरुप-निम्नलिखित सभी स्तरों में, निर्वाचन कार्य में दस व्यक्तियों के बीच, एक व्यक्ति होगा। ग्राम सभा तक त्रि-स्तरीय समितियाँ होना आवश्यक है। चौथा- ग्राम समूह सभा। पाँचवाँ- क्षेत्र सभा। छठा-मंडल सभा। सातवाँ-मण्डल समूह सभा। आठवाँ – मुख्य राज्य सभा। नवमा- प्रधान राज्य सभा। दसवाँ – विश्व परिवार स्वराज्य सभा। इस विधि से निर्वाचन कार्य में धन या वस्तु लगने की आशंका समाप्त हो जाती है। धन या वस्तु के साथ निर्वाचन कार्य को जोडऩा स्वयं निर्वाचन कार्य की पवित्रता का हनन सिद्घ हुआ हैं। इसका साक्ष्य मानव को मिल चुका हैं।
परिवार मूलक स्वराज्य, समझदारी मूलक स्वायत्त मानव परिवार है। समझदारी की संपूर्णता ही जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन एवम् मानवीयतापूर्ण आचरण है। व्यवस्था के क्रियान्वयन करने के मूल में, प्रत्येक परिवार को जीवन विद्या में पारंगत बनाने की व्यवस्था रहेगी । जीवन विद्या का विस्तृत कार्य, प्रयोजन, संभावना, सुलभता के संबंध में ‘‘अस्तित्व में परमाणु का विकास’’- अध्याय में स्पष्ट है। ‘‘अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन’’ के रूप में ‘‘मध्यस्थ दर्शन, सह-अस्तित्ववाद’’ है। इसमें अस्तित्व दर्शन को विविध प्रकार से स्पष्ट किया गया है।
धर्म और राज्य में अन्र्तसम्बन्ध
* स्त्रोत = समाधानात्मक भौतिकवाद, संस १९९८, अध्याय ९-(४)
(1) धर्म गद्दी की असफलता:-शक्ति केन्द्रित शासन रुपी राज्य और अनुग्रह, वरदान, मोक्ष जैसे आश्वासन रुपी धर्म; अनुग्रह, वरदान, मोक्ष पाने के लिए तमाम प्रकार की साधनाएँ, तप, अभ्यास जैसी बातें धर्म के रूप में देखने को मिली। हर परंपरा में जो साधना किया, उसी परंपरा का सम्मान बढ़ते गया। परंपरा में साधना का तात्पर्य समुदाय परंपरा में प्रचलित साधना के उपक्रम से है। प्रत्येक साधक जो अथक परिश्रम से तप और अभ्यास किया, जितना समय भी किया, वह सब व्यक्ति पूजा में समा गया। जबकि प्रमाण परंपरा अपेक्षित रहा, वह अभी भी प्रतीक्षित है। ऐसी कोई साधना, उपक्रम, ज्ञान, दर्शन, कर्मकाण्ड, शिक्षा, संस्कार, अभ्यास नहीं निकल पाया जो सर्वशुभ समाधान सहज हो। कम से कम अधिकांश महापुरुष, यति, सती, संत, सिद्घ, तपस्वी, योगी इस धरती में स्थित अनेक समुदाय संबंधी कटुताएँ दूर करने के पक्ष में थे। उनसे भी उन-उन समुदायों संबंधी कटुताएँ दूर नहीं हो पाई। हर समुदाय में कर्म, धर्मशास्त्र लेकर चलने वाले समुदाय, ज्यादा से ज्यादा कट्टरता का परिचय दिये। जिसको सामान्य मानव ने यंत्रणा के रूप में पाया। हर समुदाय में जो वैराग्य विधि से साधना किये, वे सर्वशुभ चाहने वालों में से रहे। किसी समुदाय में जो भक्त होते रहे वे संसार के साथ सर्वाधिक सौजन्यता को व्यक्त किये। इष्ट देव की लीलाओं को यश के रूप में गाने में और एक दूसरे के साथ कथा, वार्तालाप, सत्संग के रूप में प्रस्तुत होने से अपने को अत्यंत गौरवान्वित अनुभव करते रहे। इसी के साथ-साथ राज्य को मानने वाले भी होते रहे। राज्य के साथ और राजा के साथ उनका ध्यान समाता गया।
(2) राज्य व्यवस्था है, न कि शासन:- अस्तित्व मूलक, मानव केन्द्रित चिंतन के आधार पर राज्य और धर्म एक नाम है। नाम के मूल में वस्तु है, यह वस्तु ही व्यवस्था है। व्यवस्था स्वयं में सह-अस्तित्व है। अस्तित्व जैसा भी अभिव्यक्त है, इसका दृष्टा जागृत मानव ही है। जो अस्तित्व रुपी दृश्य दिखता है वह नियमित, नियंत्रित, संतुलित रूप में हैं। इसका संयुक्त स्वरुप व्यवस्था के रूप में वर्तमान है। हर वस्तु अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था के रूप में हैं अर्थात् इसका नियंत्रित, संतुलित, व्यवस्थित रूप में वर्तमान होना निरंतर स्पष्ट है।
(3) व्यवस्था अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व के रूप में है, जो चारों अवस्थाओं में प्रमाणित है:-मानव भी वर्तमान में ही, दृश्य को देखता है। देखने का मतलब समझना है, समझना समझदारी का प्रमाण प्रस्तुत करना ही जागृति हैं। समझना; जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित है। यही दृष्टा पद का प्रमाण हैं। उल्लेखनीय तथ्य यही है कि मानव अस्तित्व में अविभाज्य दृष्टा है। संबंधों के आधार पर ही अस्तित्व सहज व्यवस्था समझ में आता है। अस्तित्व सहज व्यवस्था सह-अस्तित्व ही हैं। इसलिए प्रत्येक एक की व्यवस्था होते हुए, समग्र व्यवस्था में भागीदारी सूत्र से सूत्रित रहना पाया जाता हैं इसका प्रमाण है कि चारों अवस्थाएँँ, उनमें परस्पर में पूरकता, उदात्तीकरण, विकास, जागृति सहज रूप में दिखाई पड़ता है। मानव ही इसमें जागृति का प्रमाण हैं। परमाणु में विकास का प्रमाण जीवन है। पूरकता का प्रमाण सम्पूर्ण प्राणावस्था है। उदात्तीकरण का प्रमाण सम्पूर्ण प्राणावस्था की रचना हैं तथा साथ ही जीव शरीर एवं ज्ञानावस्था (मनुष्य) शरीर की रचना है।
(4) मानव समझदारी से व्यवस्था में प्रमाणित होता है, जो अस्तित्व सहज ही होती है:- अस्तित्व सहज व्यवस्था वर्तमान सहज प्रमाण के रूप में वैभव हैं। जब-जब मानव व्यवस्था का अनुभव करता है, तब-तब वर्तमान में विश्वास, भविष्य के प्रति आश्वासन होना पाया जाता है। भविष्य के प्रति आश्वस्त होने का तात्पर्य विधिवत् योजना और कार्य योजना होने से है। वर्तमान में विश्वास का तात्पर्य समझदारी सहित दायित्वों, कर्तव्यों का निर्वाह हैं। जिसे भले प्रकार से कर चुके हैं, कर रहे हैं और करने में निष्ठा हैं। समझदारी का स्वरुप जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिए जागृति है। जागृति का तात्पर्य जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से है। इस प्रकार जागृति ही वर्तमान हैं, वर्तमान ही जागृति का सम्पूर्ण रूप है।
(5) स्वयं को पहचानना जीवन ज्ञान एवं जागृति ‘‘सह-अस्तित्व में अनुभव ही जागृति सहज नित्य वर्तमान है’’:- यही मुख्य बिन्दु है। मानव सहज रूप में ही वर्तमान सहज जागृति क्रम में है । स्वयं को पहचानना ही जीवन ज्ञान है। जीवन ज्ञान का अनुभव मानव में, से, के लिए सहज है। जीवन ज्ञान ही वर्तमान में स्वयं के होने के रूप में स्पष्ट करता है। होना ही वर्तमान है। अस्तित्व का स्वरुप ही नित्य वर्तमान हैं। सम्पूर्ण होना (अस्तित्व) चार अवस्थाओं में स्पष्ट है। सम्पूर्ण होने के साथ ही मानव का होना भी अविभाज्य हैं। अस्तित्व में जीवन और सत्तामयता भी अविभाज्य है। जीवन जागृत होने के उपरान्त भी अस्तित्व में ही नित्य वर्तमान होना पाया जाता है। अस्तित्व ही मूलत: वैभव है। जागृति पूर्वक जीवन अपने वैभव को व्यक्त करता है। यही दृष्टा पद, समझदारी का प्रमाण हैं। अस्तित्व वर्तमान हैं अस्तित्व और समझदारी में एकरुपता ही मूलत: व्यवस्था का सूत्र और व्याख्या है।
(6) समझदारी न होने की स्थिति में समस्या का प्रकाशन है:-अस्तित्व का सह-अस्तित्व के रूप में होना ही सूत्र और चार अवस्थाओं में होना ही नियति सहज व्याख्या स्वरुप हैं। इस प्रकार अस्तित्व ही सम्पूर्ण वस्तु हैं, जागृत जीवन ही दृष्टा है तथा मनुष्य ही दृष्टा पद को प्रमाणित करने योग्य होता है।
मानव सह-अस्तित्व में अनुभवपूर्वक दृष्टा पद प्रतिष्ठा के आधार पर ही व्यवस्था का प्रमाण हैं। मानव ही समझदारी पूर्वक हर कार्य, व्यवहार, विन्यास को, विचारों को, व्यवस्था के रूप में अभिव्यक्त कर पाता है। समझदारी के बिना कल्पनाशीलता, कर्म-स्वंतत्रता का प्रयोग अपने आप में सर्वाधिक समस्याओं को पैदा कर लेता है।
यही मानव में भ्रमवश होने वाली समस्याओं का कारण हैं कल्पनाशीलता को विचारों में भी प्रयोग करता हैं। तब वांङ्गïमय, साहित्य को भी प्रस्तुत करता है। इसी के आधार पर कला, साहित्य के नाम से भी कल्पनाएँ दौड़ पड़ती है।
(7) राज्य, धर्म का मूल रुप:- मानव में कल्पनाशीलता, कर्म-स्वतंत्रता का संपूर्ण कर्माभ्यास, व्यवहार अभ्यास की परिणित समाधान चाहना है। इसी विधि से शोध प्रक्रिया सहज संभव हो जाती है। इस प्रकार मानव का समाधान की ओर अपेक्षित रहना सहज है। इसी आधार पर प्रत्येक मानव समाधान को वरता (शोध या अनुसंधान करता) है। इस ढंग से राज्य और धर्म का मूल रूप समझदारी व्यवस्था है। व्यवस्था की अभिव्यक्ति सहज रूप में सर्वतोमुखी समाधान है। समाज रूप में संबंधों, मूल्यों को पहचानना तथा मूल्यांकन करने की विधि से समाधानित होना पाया जाता हैं। यही मानव धर्म हैं। यह जागृति का प्रमाण हैं। जागृति स्वयं समाधान और उसकी निरंतरता हैं। जागृति का प्रयोजन अस्तित्व में प्रत्येक एक के प्रति जागृत होने से हैं। जागृति का तात्पर्य जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से है। यह जीवन ज्ञान सहित सह-अस्तित्व में अनुभव है। पदार्थावस्था के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को जानना, मानना, पहचानना,, निर्वाह करना यह पदार्थावस्था के प्रति जागृति हैं। इसी प्रकार प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था में उन-उन के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के प्रति जागृत होना ही मानव के जागृत होने का प्रमाण हैं। इन प्रमाणों के साथ ही प्रत्येक मानव को वर्तमान में विश्वास होना प्रमाणित होता है।
(8) सभी अपने ‘‘त्व’’ सहित व्यवस्था है, जो सह-अस्तित्व है; क्योंकि अस्तित्व न घटता हैं न बढ़ता हैं:- जागृति पूर्वक ही मानव व्यवस्था है और वह व्यवस्था में भागीदार होता हैं, यह मानव धर्म है। क्योंकि लोहा अपने लोहत्व सहित; गाय गायत्व के साथ; दूब दूबत्व के साथ व्यवस्था हैं और समग्र व्यवस्था में भागीदार हैं। इसी प्रकार मानव मानवत्व के साथ व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी संपन्न होनी ही मानव के सह-अस्तित्व का प्रमाण है। सह-अस्तित्व सहज रूप में ही व्यवस्था है। इस प्रकार मानव धर्म, व्यवस्था और सह-अस्तित्व स्वाभाविक रूप में, अस्तित्व सहज धर्म का ही प्रकाशन हैं। सह-अस्तित्व नाम हैं इसीलिए नाम से नामी का निर्देश हो जाना, संप्रेषणा की सफलता हैं। नामी का स्वरुप है – सभी व्यवस्था सहित वर्तमान है, जिसमें मानव का भी अविभाज्य होना समझ में आता हैं। इस प्रकार – ‘‘व्यवस्था एक समग्रता सहित अभिव्यक्ति है’’ जिसमें जागृत मानव दृष्टा सहज प्रमाण है।
(9) अस्तित्व सहज राज्य, धर्म, समाज व्यवस्था और उसकी निरंतरता की व्याख्या:- मूलत: अस्तित्व ही वैभव है, वैभव ही राज्य हैं। अस्तित्व में मानव का अविभाज्य होना भी स्पष्ट हो गया हैं। सह-अस्तित्व के रूप में ही संपूर्ण वैभव हैं, क्योंकि सत्ता में सभी अवस्थाएँ अविभाज्य हैं। इनका अलग-अलग विभाजित कर देखना संभव नहीं है। सत्ता में सभी अवस्थाएँ समाहित होना दिखाई पड़ता हैं। सत्ता व्यापक हैं। सत्ता न हो, ऐसी किसी स्थली की कल्पना भी नहीं हो सकती है। सत्ता में ही संर्पूण वस्तुओं का होना पाया जाता हैं अर्थात् अस्तित्व ही संपूर्ण वस्तु हंै। सह-अस्तित्व ही मूलत: सम्पूर्ण अस्तित्व हैं। इस प्रकार समग्रता सहज अविभाज्यता का मूल सूत्र अथवा परम सूत्र सत्तामयता में संपृक्त प्रकृति ही है। इसलिए सत्ता में ही सम्पूर्ण अवस्थाएँँ नियमित, नियंत्रित, संतुलित और समाधानित रहना देखने को मिलता हैं। इन सभी तथ्यों में सह-अस्तित्व ही परम सौंदर्य, परम सुख एवं परम समाधान और परम सत्य हैं। अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व हैं। ऊपर वर्णित विश्लेषणों, निष्कषों के आधार पर धर्म और राज्य का मूल रूप सह-अस्तित्व नित्य व्यवस्था होना ही इंगित होता हैं। क्योंकि सह-अस्तित्व सहज कार्यकलाप और वैभव ही हैं सम्पूर्ण ‘‘त्व’’ सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का ताना-बाना। कोई भी अवस्था और ऐसी कोई इकाई दिखाई नहीं पड़ती है, जो इस ताना-बाना से अलग रहे। खूबी यही है कि सत्ता स्वयं अस्तित्व में अविभाज्य हैं। इस प्रकार अस्तित्व अपने में सम्पूर्ण स्वरुप और वैभव है। यही व्यवस्था है। इसलिए मानव का स्वयं में व्यवस्था होना और व्यवस्था में भागीदारी सहज कार्य में अपने को वैभवित कर पाना ही कर्म-स्वतंत्रता कल्पनाशीलता का तृप्ति बिंदु हैं। कल्पनाशीलता का तृप्ति स्वराज्य व्यवस्था में हो जाता हैं। इसकी निरंतरता का सहज वैभव होता है। यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का वैभव हैं। इसी में प्रत्येक मानव मानवत्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण प्रस्तुत कर पाता है। यही परिवार मानव होने के आधार पर परिवार मूलक विधि से सर्वसुलभ हैं, यह समझ में आता हैं। अस्तु, परिवार मूलक विधि से गुंथा हुआ विश्व परिवार ही, समाज रचना का क्रियाकलाप है और निरंतर गति है। ऐसे परिवार का भी व्यवस्था का स्वरुप होना स्वाभाविक है। व्यवस्था, अपने आप में न्याय, उत्पादन, विनिमय में भागीदारी हैं। यह परिवार से विश्व परिवार पर्यन्त सूत्रित व्याख्यायित तथ्य हैं। इन आधारों पर ‘‘व्यवस्था समाज का वैभव हैं और धर्म समाज का स्वरुप हैं।’’ मानव का मानवत्व सहित व्यवस्था होना समाज हैं और समग्र व्यवस्था हैं – न्याय, उत्पादन, विनिमय में भागीदारी। यही समग्र व्यवस्था का तात्पर्य है। इनकी निरंतरता के लिए दूसरी भाषा में, मानव परंपरा में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी निरंतर वैभवित होने के लिए, मानवीय शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम रुपी स्रोत के साथ ही मानव परंपरा का जागृत वैभव स्पष्ट हो जाती है।
(10) जागृत परंपरा मों सर्वतोमुखी समाधान एवं भ्रमित परंपरा द्वारा समस्या:- मानव परंपरा का अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिए प्रमाणित रहना आवश्यक है। इसी के फलस्वरुप परिवार मूलक स्वराज्य और अखण्ड समाज रहना और सार्वभौम व्यवस्था सहज प्रमाणित होना संभव हो जाता हैं। मानव के जितने भी कार्य-व्यवहार होते हैे उसके मूल में निर्धारित विचार का होना एक अनिवार्यता है। मानव के द्वारा हर कार्य-व्यवहार के मूल में विचार रहता हैं, उसकी दो ही अवस्था होती है:-
1. जागृति सहज विचार,
2. भ्रमित विचार।
भ्रमित विचार पूर्वक किए गए सभी कार्य-व्यवहार से समस्याओं की पीड़ा ही स्पष्ट होती हैं। उस स्थिति में मानव सहज ही समाधान को वरता है, न कि समस्या को। यह आते कहाँ से हैं यह पूछने पर स्पष्ट रूप में यही दिखाई पड़ता हैं कि भ्रमित परंपराओं वश, मानव न चाहते हुए भी भ्रमित कार्यों को कर देते हैं। जबकि जागृतिपूर्वक सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण कार्य-व्यवहार करता है।
(11) मानव हर हालत में सुख ही चाहता हैं, न जानते हुए भी समाधान ही चाहता है। इसके बावजूद समस्या उत्पन्न कर देता हैं। मानव के चाहने और होने के बीच में जानना, मानना, पहचानना एक आवश्यकता है। समुदाय परंपरा में प्रत्येक व्यक्ति अर्पित रहता है । प्रत्येक समुदाय परंपरा इस दशक तक भ्रमित है, इसका साक्ष्य ही हैं कि मानव सर्वतोमुखी समाधान, सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज और इनमें पारंगत और भागीदार होने के सारे अध्ययन को और प्रमाणों को शिक्षा पूर्वक संस्कार पूर्वक, संपन्न नहीं कर पाये हैं।
(12) रुचि मूलक कार्यकलापों का सार्वभौम न होना तथा न्याय, धर्म, सत्य का सार्वभौम होना देखा गया। इसलिए मानव, जीवन सहज रूप में शुभ चाहते हैं। रुचिवश हर समुदाय भ्रमित कार्यों को करता रहा है। जब तक रुचि मूलक विधि से मानव कार्य-व्यवहार करता है, तब तक अनर्थ करता है। सम्पूर्ण रुचियाँ इंद्रिय सन्निकर्षात्मक रूप में हैं। अर्थात् शरीर के अनुरुप हो ऐसा काम कर देते है। इन्द्रियों के साथ न्याय का स्थान नहीं हैं। न्याय सब चाहते हैं। इन्द्रियों के साथ प्रिय, हित, लाभ ही होता है। प्रियात्मक कार्यकलाप शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों को अच्छा लगने के रूप में स्पष्ट है । हित शरीर के लिए उचित-अनुचित के रूप में देखा जाता है। कम देकर अधिक लेने की प्रक्रियाओं को लाभ के रूप में देखा जाता हैं। यही क्रियाकलाप रुचि मूलक है। प्रिय, हित, लाभ का कहीं तृप्ति बिंदु मिलता नहीं है। शरीर को कितना भी अच्छा रखा जाय, तो भी शरीर की विरचना होती ही हैं। इन्द्रिय सन्निकर्ष क्रियाकलापों के साथ परेशानी यही हैं कि जब एक चीज, किसी एक मानव को अच्छी लगती हैं तो वही चीज दूसरों को बुरी भी लगती है। दूसरा बहुत अच्छा खाने वाले को भी कहीं न कहीं पेट भर जाने की स्थिति आती है, उसके बाद वही खाना खराब लगने लगता है। एक आदमी को खराब लगने की स्थिति में दूसरा आदमी जो भूखा हैं उसे वही खाना अच्छा लगता है। एक आदमी को एक संवेदना में कितना देर अचछा लगा-बुरा लगा, सबके लिए वैसा होना होता नहीं अत: अच्छा लगना, बुरा लगना सार्वभौम हो नहीं पाता हैं और लाभ का तृप्ति बिंदु कहीं होता नहीं। संग्रह का तृप्ति बिंदु होता नहीं हैं, इसलिए लाभ का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं होता, इसलिए यह सार्वभौम नहीं होता। अस्तु, ये जिनती भी चीजें गिनाई गई हैं, उनके प्रिय, हित, लाभ, भोग, सुविधा, संग्रह के आधार पर व्यवस्था होना संभव नहीं है। इसलिए इस शताब्दी के अंतिम दशक तक सार्वभौम व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी।
नियति सहज विधि से नियम, न्याय, धर्म, सत्य का सार्वभौम होना सहज हैं। मनुष्य को अनुभव पूर्वक अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा के आधार पर न्याय पूर्ण विधि से प्रस्तुत होना सहज हैं क्योंकि वह जीवन सहज है। जन्म से ही मानव न्याय का याचक होता है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहते है, और सत्य वक्ता होता है। परंपरा से यह अपेक्षा सहज ही रहती हैं कि प्रत्येक मानव संतान; न्याय प्रदायिक क्षमता से संपन्न हो, सही कार्य-व्यवहार करने योग्य योग्यता से संपन्न हो, सत्य बोध होने की अर्हता प्राप्त करने में सक्षम हो, इसी रूप में सकारात्मक पक्ष स्पष्ट होता है। इसका मतलब यही है कि जागृत परंपरा सहज वैभव यही है, कि प्रत्येक संतान में संबधों, मूल्यों और मूल्यांकन करने का ज्ञान सहज विचार और व्यवहार, अभ्यास सुलभ कार्यों में भागीदारी ही मानवीयतापूर्ण निष्ठा और परंपरा हो। जागृत परंपरा क्रम में प्रत्येक मानव संतान को सही कार्य-व्यवहार, ज्ञान, विचार और कर्माभ्यास सहज सुलभ होता है। अस्तित्व जैसा परम सत्य बोध अध्ययन पूर्वक सुलभ होता है। साथ ही जीवन ज्ञान जैसा परम ज्ञान संपन्नता सुलभ अथवा सर्वसुलभ होता है। ऐसी परंपरा ही मानव परंपरा है। ऐसी अर्हता जिन जिन परंपराओं में नहीं हैं, वे सब मानवीयतापूर्ण परंपरा के रूप में परिवर्तित होने के लिए सहज इच्छुक हैं अथवा बाध्य है।
(13) अस्तित्व में चार अवस्थाएँ, वंशानुषंगीयता एवं संस्कारानुषंगीयता:-अस्तित्व सहज रूप में ही सह-अस्तित्व, नित्य संबंध स्थिति में ही है क्योंकि पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था- ये संबंधित हैं ही। संबंध का तात्पर्य ही हैं, पूर्णता के अर्थ में अनुबंधित रहना। इसके निर्वाह होने के क्रम में चारों अवस्थाओं में विभिन्न रुपों में विधियाँ प्रभावशील हैं- ऐसा देखने को मिलता है। जैसे- सम्पूर्ण पदार्थावस्था नियम पूर्वक, संबंधों को निर्वाह करता हुआ देखने को मिलता है। नियम ‘त्व’ सहित व्यवस्था हैं, यही संतुलन हैं। यह ‘त्व’ सहित व्यवस्था सभी अवस्था में ही सार्थक होता हुआ प्रमाणित है। यह प्रमाण है कि पदार्थावस्था ही प्राणावस्था में उदात्तीकृत हुआ वैभव है। उदात्तीकृत होने का तात्पर्य, रासायनिक वैभव के रूप में परिवर्तित होने से है। क्योंकि पदार्थावस्था की वस्तुएँ स्वयं स्फूर्त विधि से रासायनिक द्रव्यों के रूप में परिवर्तित होती है। फलस्वरुप, प्राणावस्था का वैभव प्रमाणित है। प्राणावस्था का मूल रूप प्राण कोषा एवं उसमें निहित रचना विधि सहित सूत्र और विभिन्न प्रकार की रचनाएँ, बीजानुषंगीय एवं वंशानुषंगीय भेदों में देखने को मिलता है। जीव शरीर एवं मानव शरीर भी प्राण कोशिकाओं से रचित होता है। वे वंशानुषंगीय सूत्रों के आधार पर वैभवित रहते हैं। जीवावस्था और ज्ञानावस्था में जीवन और शरीर संयुक्त साकार रूप हैं, यह परंपरा देखने को मिलती है। इनमें से मानव परंपरा एक है, ंजीवों की परंपराएँ अनेक हैं। जीव परंपराएँ अनेक वंशों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। और वंशों के रूप में ही प्रमाण भी हैं। जबकि मानव परंपरा में भी अनेक वंशों के रूप में शरीर रचनाएँ देखने को मिलती है। ये सब संस्कारनुषंगी विधि से, एकरुपता को व्यक्त करते हैं, करने के लिए, अवसर संपन्न रहते हैं।
(14) जानना, मानना, पहचानना ही संस्कार है। संस्कारानुषंगीयता ही मानवीय व्यवस्था का आधार है:-दृष्टिïगोचर, ज्ञान गोचर में से पहले सह-अस्तित्व में ही पदार्थावस्था, ‘‘त्व’’ सहित नियम को परिणामानुषंगीय विधि से, संपन्न कर देते हैं। यही पदार्थावस्था के नियमित रहने का तात्पर्य हैं। प्राणावस्था में नियमित विधि से ‘‘त्व’’ सहित व्यवस्था बीजानुषंगीय प्रक्रिया पूर्वक नियंत्रित रहना पाया जाता है। जीवावस्था अपने ‘‘त्व’’ सहित व्यवस्था को वंशानुषंगीय विधि से संतुलित रूप में प्रमाणित करते हैं। मानव ज्ञानावस्था में एक मौलिक वैभव हैं। यह वैभव दृष्टा पद व जागृति सहज प्रमाणों के रूप में परंपरा हैं। ऐसा दृष्टापद जागृति सहज परंपरा में ङ्क्षनरंतर सफल होता है। मानव परंपरा संस्कारनुषंगीय अभिव्यक्ति हैं। वंशानुषंगीयता केवल शरीर तक ही प्रक्रियाबद्घ है। मानव की अभिव्यक्ति जीवन प्रधान हैं, न कि शरीर प्रधान। यद्यपि शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही मानव ख्यात है। जीवन में ही संस्कारों की स्वीकृति और जागृति प्रमाणित होती हैं। संस्कार जानने, मानने, पहचानने और प्रमाण रूप में निर्वाह करने की प्रक्रिया हैं। इसकी जागृति जानना, मानना को पहचानना और निर्वाह करना ही है। संस्कार प्रक्रिया परिवार परंपरा में, से, के लिए प्रदत्त होती है। संस्कार प्रक्रिया का यही प्रमाण हैं और चेतना विकास मूल्य शिक्षा संस्कार है। इस प्रकार संस्कार परंपरा और विधि प्रक्रिया के रूप में संस्कार स्पष्ट हो जाता है। यही मानव संचेतना सहज महिमा है। मानव का संपूर्ण संस्कार व प्रमाण जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही है। यह निभ्र्रम विधि से न्याय, धर्म, सत्य सहज प्रकाशन है। अर्थात् निभ्र्रम पूर्ण विधि से प्राप्त जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना स्वयं न्याय, धर्म, सत्य का प्रमाण ही है। यही मानवीयतापूर्ण अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन सहज रूप में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी है।
(15) न्याय:- संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति है। मौलिकता न्याय का स्वरुप सहज रूप में ही संबंध मूल्य और मूल्यांकन ही है। यह मानव संबंध, नैसर्गिक संंबंध और उत्पादन सबंध के रूप में स्पष्ट होता है। मानव संबंध व्यवहार सूत्र का स्वरुप हैं। नैसर्गिक संबंध पूरकता सहज सत्यता हैं। उत्पादन संबंध उपयोगिता सहज सबंध हैं। इनमें उपयोगिता को प्रमाणित करने के लिए प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन और कला मूल्य की स्थापना और उसके मूल्यांकन के रूप में हैं। आवर्तन विधि संपन्न विनिमय प्रक्रिया पूर्वक व्यवहारिक होना पाया जाता हैं मानव संबंध समाज रचना का आधार हैं। परिवार मूलक विधि से समाज रचना निरंतर सहज हैं। मानवत्व ही परिवार संबंधों की तृप्ति का सूत्र है। परिवार ही विश्व परिवार के रूप में अखण्ड समाज हैं। परिवार रचना के साथ व्यवस्था की अभिव्यक्ति एक अनिवार्य स्थिति हैं। व्यवस्था सहज अभिव्यक्ति क्रम में न्याय, विनिमय और उत्पादन प्रधान प्रक्रिया हैं। न्याय प्रक्रिया में स्थापित एवं शिष्ट मूल्यों का मूल्यांकन मौलिक हैं। विनिमय प्रकिया में श्रम मूल्यों का मूल्यांकन मौलिक हैं। उत्पादन कार्यों में अथवा उत्पादन विधि में श्रम नियोजन मौलिक हैं। इस प्रकार मौलिकता त्रय पूर्वक सार्वभौमिकता और अक्षुण्णता सहज होता है। इसी अभिव्यक्ति के लिए मानवीय शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम आवश्यकीय कार्यक्रम हैं। इसी के आधार पर सार्वभौम व्यवस्था और अखण्ड समाज रचना के लिए, मानव का जागृत होना पाया जाता है।