Society & Norms (समाज और नीति)

 

समाज और विधी

*स्त्रोत = व्यवहारवादी समाजशास्त्र , संस १, अध्याय ९ 

पूर्णता के अर्थ में स्वत्व, स्वतंत्रता, उपकार संयुक्त रूप से वैभव संपन्न परंपरा है :-

वधि का कार्यरूप नियम और न्याय सम्मत विधि से किया गया कार्य-व्यवहार है । नियम और न्याय में नित्य संगीत ही समाधान के रूप में होना ख्यात है । मूलत: विधि अपने सूत्र रूप में नियम और न्याय ही है । नियमों को तीन प्रकार से पहले वर्णित कर चुके हैं । न्याय को संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति संतुलन के रूप में स्पष्ट किया गया है । सम्बन्धों को मानव संबंध और नैसर्गिक सम्बन्ध के विधि से प्रस्तुत किया जा चुका है । नियम और न्याय सूत्र में, से मानव संबंधों में न्याय प्रधान नियम और नैसर्गिक सम्बन्धों में नियम प्रधान न्याय का अनुभव मानव सहज रूप में किया जाना जागृति का द्योतक है ।

मानव संबंधों को सात प्रकार से नाम सहित प्रयोजनों को इंगित कराया है । संबंध क्रम से पोषण, संरक्षण, अभ्युदय, जागृति, प्रामाणिकता, जिज्ञासा, यतित्व, सतीत्व, विकास-प्रगति, दायित्व-कर्तव्य प्रयोजनों का स्वरूप है । इन प्रयोजनों के अर्थ में हर संबंधों का कार्यकलाप साक्षित होना ही विधि है। दायित्व और कर्तव्य के सम्बन्ध में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी, परिवार और समाज में भागीदारी एक आवश्यकीय स्थिति और गति होना स्पष्ट किया जा चुका है । यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि दायित्व और कर्तव्यों के साथ ही मौलिक अधिकारों का प्रयोग सार्थक होता है । जितने भी प्रयोजन है वह सब मानव कुल में ही प्रमाणित होता है। वह _. माता – पिता, _. भाई – बहन, _. गुरू – शिष्य,       _. मित्र, ‘. पति – पत्नी, _. स्वामी (साथी) – सेवक (सहयोगी), _. पुत्र – पुत्री। इस प्रकार से _ संबंध । इसमें से पति-पत्नी संबंधों को छो$डकर बाकी सभी सम्बन्ध पुत्र-पुत्रीवत्, माता-पितावत््, गुरूवत्, शिष्यवत्, मित्रवत्, भाई-बहिनवत्, स्वामी-सेवकवत् के रूप में पहचाना जाना सहज है । इसमें सर्वाधिक अथवा विशाल रूप में होने वाले प्रतिष्ठा को मित्र के रूप में पहचाना जाना स्वाभाविक है ।

इन सभी सम्बन्धों के साथ सार्थकता अथवा प्रयोजनों की अपेक्षा परस्पर स्वीकृत रहा करता है जैसा – माता-पिता से अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व का होना प्रत्येक संतानों में अपेक्षित-प्रतीक्षित रूप में मिलता है । हर संतान के साथ माता-पिता की अपेक्षा जागृति, प्रामाणिकता सहित समाधान, कर्तव्य और दायित्व सहज निष्ठा का अपेक्षा, प्रतीक्षा, आवश्यकता के रूप में सर्वेक्षित होता है । हर शिष्य अपने गुरू से प्रामाणिकता, समाधान और वात्सल्य की अपेक्षा रखता है । हर विद्यार्थी से गुरू की अपेक्षाएं तीव्र जिज्ञासा, ग्राह्यता सहित अवधारणाओं के रूप में देखना बना ही रहता है ।

भाई-बहनों के परस्परता में अभ्युदय अर्थात् सर्वतोमुखी समाधान, वर्तमान में विश्वास सहित पूरकता का अपेक्षा बना ही रहता है । इसी प्रकार मित्र सम्बन्धों में भी होना पाया जाता है ।

पति-पत्नी सम्बन्धों में परस्पर व्यवस्था, व्यवस्था में भागीदारी परिवार मानव का सम्पूर्ण दायित्व-कर्तव्य, अपेक्षा, प्रतीक्षा बना ही रहता है।

स्वामी (साथी)-सेवक (सहयोगी) सम्बन्ध में स्वयं स्वीकृत प्रणाली, स्वयं स्वीकृत विधि से व्यवस्था में भागीदारी निर्वहन के आधार पर घोषणा कार्यप ्रणाली है । इस क्रम में भाई सम्बोधन या बहन सम्बोधन समुचित रहता है । इसी की आवश्यकता है । व्यवस्था सम्बन्ध में परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक की समान सम्बोधन होना और कार्यों की समानता भी प्रमाणित होना पाया जाता है । यह स्वाभाविक विधि है हर सभा में एक प्रधान व्यक्ति को निर्वाचित कर लेना, पहचानना, अधिकार सम्पन्न रहना एक आवश्यकता बना रहता है । यह जनतांत्रिक प्रणाली, पद्घति, नीतियों को प्रमाणित करने का गठन कार्य है । अतएव सभा प्रणाली में भाई-बहन-मित्र सम्बोधन में समानता, दायित्वों, कर्तव्यों का वहन करने में स्वयं स्फूर्त स्वीकृत विधि से सम्पादित होता है । यही जनतांत्रिकता का तात्पर्य है । इसी विधि से विरोध विहीन, विवाद विहीन, सामरस्यता और समाधान पूर्ण अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में कार्यरत रहना पाया जाता है । इसकी आवश्यकता सर्वमानव में होना पाया जाता है । इसकी नित्य समीचीनता जागृति विधि पूर्वक स्पष्ट हुआ है ।

यहाँ इस तथ्य पर ध्यान रहना आवश्यक है कि प्रत्येक सम्बोधन में प्रयोजनों का अभीष्ट बना ही रहता है । अभीष्ट का तात्पर्य अभ्युदय को अनिवार्यता के रूप में स्वीकारा गया अनुभव मूलक मानसिकता से है । इस प्रकार सम्बोधन के साथ प्रयोजन उभय पक्ष में स्वीकृत होना, इंगित होना ही सार्थकता है । सम्बोधन की सार्थकताएँ व्यवहार, कार्य, आचरण, प्रवृत्ति का मूल रूप होना देखा गया । क्योंकि हर मानव में विचारपूर्वक ही कार्य-व्यवहार सम्पन्न होना देखा जाता है ।

सम्बन्ध का तात्पर्य स्वयं में पूर्णता सहित हर मानव में पूर्णता के अर्थ में अनुबंधित रहना स्वाभाविक है । यह मानव में ही प्रमाणित होने वाला मौलिक अभिव्यक्ति है। यही ज्ञानावस्था का परिचायक है । इसी के साथ मानव को, इसकी अपेक्षा, आवश्यकता नियति सहज विधि से देखने को मिलता है । अर्थात् मानव संबंध के अनुरूप प्रयोजनों को प्रमाणित करने में निष्ठा स्वयं स्फूर्त होता है । अपेक्षाओं के अनुसार सार्थक होना, चरितार्थ होना ही सम्बन्धों का सम्पूर्ण प्रयोजन है । प्रयोजनों का सूत्र अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था, परिवार मानव और स्वायत्त मानव रूप में ही मानव परंपरा में देखने को मिलता है । यही प्रयोजनों का मूल रूप है । इसे ज्ञानावस्था का स्वरूप भी कहा जा सकता है । जागृत मानव परंपरा में यह सार्थकता का स्वरूप शिक्षा-संस्कारपूर्वक परंपरा में स्थापित होता ही रहेगा । जागृत शिक्षा-संस्कार के सम्बन्ध में स्पष्ट किया जा चुका है । जागृतिपूर्ण परंपरा अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व विधि से अनुप्राणित रहने के आधार पर ही जागृत मानव परंपरा का अक्षुण्णता समीचीन रहना पाया जाता है । अतएव सम्पूर्ण सम्बन्ध और उसका सम्बोधन निश्चित प्रयोजन के अर्थ में अपेक्षित रहना ही सम्बोधन का तात्पर्य है । इसमें हर व्यक्ति जागृत रहना यह प्राथमिक दायित्व है । इन्हीं दायित्वों, मौलिक अधिकारों का प्रयोजन सहज ही सफल हो पाता है । फलस्वरूप मानव परंपरा में जीने की कला विधि के रूप में प्रमाणित होता है । विधि का प्रमाण स्वयं सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति, मानव परिभाषा के अनुरूप हर मानव अपने मौलिक अधिकार रूपी स्वतंत्रता का प्रयोग करना, तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा करना और स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार में निष्ठान्वित रहना विधि है । यही सम्पूर्ण उत्सवों का आधार होना पाया जाता है।

मानव समाज में उत्सव

मानव समाज का स्वरूप अपने अखण्डता में प्रमाणित होना स्पष्ट किया जा चुका है क्योंकि समुदाय समाज होता नहीं, समाज समुदाय होता नहीं । समाज और उसका वैभव अनुभवमूलक प्रणाली से किया गया अभिव्यक्ति विन्यास, विचार विन्यास, व्यवहार विन्यास और कार्य विन्यास ही है । विन्यास का तात्पर्य विवेक सहित न्यायपूर्वक किया गया संप्रेषणा है । इस विधि से समाज अपने अखण्डता के स्वरूप में ख्यात होना स्वाभाविक है । अखण्ड समाज अपने परिभाषा में पूर्णता के अर्थ में किया गया तन, मन, धन  रूपी कार्यकलापों का निरन्तर गति अथवा अक्षुण्ण गति से है । इस प्रकार परिभाषा के रूप में भी पूर्णता अपने-आप में इंगित होना पाया जाता है । पूर्णता का स्वरूप परिवार मूलक स्वरा’य व्यवस्था और स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होना पाया जाता है । परिवार मूलक स्वरा’य व्यवस्था क्रम में व्यवस्था स्वयं क्रिया पूर्णता और उसकी निरन्तरता का द्योतक और प्रमाण है । स्वानुशासन जागृति पूर्णता का प्रमाण है । यही आचरण पूर्णता का स्वरूप है । पूर्णता के अनन्तर उसकी निरन्तरता का होना देखा गया है । क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता और उसकी निरंतरता सदा-सदा के लिये गतिशील रहना ही समाज गति का तात्पर्य है । ऐसी स्थिति मानव परंपरा में अस्तित्व सहज अनुभूति, अस्तित्व ही सह-अस्तित्व सहज होने के आधार पर विचार शैली, अस्तित्व में ही विकास और जागृति प्रमाणित होने के क्रम में मानव ही जागृति को प्रमाणित करना सम्पूर्ण अखण्डता का सूत्र है । ऐसे जागृति पूर्णता को परम्परा के रूप में प्रमाणित करने की विधि से व्यवस्था एक सहज क्रियाकलाप है । व्यवस्था सर्वमानव में स्वीकृत तथ्य है । फलस्वरूप सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज के आधार पर क्रियान्वित होना स्वाभाविक है । इस प्रकार मानव में क्रिया पूर्णता आचरण पूर्णता ही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होता है । यह सर्वमानव में स्वीकृत अथवा स्वीकृत होने योग्य तथ्य है । इसका कारण जीवन महिमा ही है । जीवन सदा-सदा जागृति और जागृति पूर्णता के लिये उन्मुख रहता ही है । इसीलिये शैशव अवस्था से ही जागृति स्वीकृत होना रहता है और अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था भी स्वीकृत रहता है। इसकी आपूर्ति करना ही जागृत मानव परम्परा का प्रमाण है या तात्पर्य है ।

जागृति पूर्वक ही सम्पूर्ण उत्सव समारोह सार्थक होना पाया जाता है। यहाँ सार्थकता का तात्पर्य अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था क्रम में उसकी निरंतरता का आशा-आकांक्षा सहित होने वाली उत्साह-आकांक्षा का अभिव्यक्ति-संप्रेषणा और प्रकाशन ही उत्सव के रूप में देखने को मिलता है । उत्सवों को प्रधानत: अखण्ड समाज के अर्थ में और सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में समारोह सम्पन्न होना एक आवश्यकता है ।

अखण्ड समाज विधि में होने वाले उत्सवों को संस्कारोत्सवों के रूप में पहचाना जाता है । इन सभी संस्कारों में जीवन जागृति ही परम लक्ष्य होना पाया जाता है । संस्कारों का अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन क्रम में ही उत्सवानुभूति होना, उसकी सार्थकता का होना देखा गया है । इस क्रम में जन्म संस्कारोत्सव, जन्मदिनोत्सव, नामकरणोत्सव, शिक्षा-संस्कारोत्सव (धर्म-कर्म, दीक्षा-व्यवहार, उत्पादन संस्कार) विवाहोत्सव मुख्य हैं । नैसर्गिक उत्सव ऋतुकाल के अनुसार मनाने की व्यवस्था है । क्योंकि सम्पूर्ण वनस्पति संसार भी ऋतुकाल के अनुसार उत्सवित होने के स्वरूप में देखा जाता है। यह सर्वविदित तथ्य है ।

जन्म संस्कार उत्सव –

मानव परंपरा में हर माता-पिता संतान प्राप्ति के साथ अपने में गौरव और सम्मान का अनुभव करना और होना पाया जाता है । इसी सम्मान और गौरव के समर्थन में उत्सव का स्वरूप बनता है । उत्सव  में उत्साह और प्रसन्नता मूल स्रोत है । किसी उद्देश्य, किसी प्रयोजन, किसी वस्तु प्राप्ति के अर्थ में ही उत्साह-प्रसन्नता का प्रमाण मानव कुल में सफलता के अर्थ को प्रतिपादित करता है। जैसे-एक पति-पत्नी की कोख से संतान प्राप्ति अपने-आप में शरीर-सम्बन्ध का फलन के रूप में होना देखा गया है। हर मानव शरीर और जीव शरीरों की रचना गर्भाशय में ही होना देखा गया है । अत्याधुनिक संसार में भी इसके लिये कई कृत्रिम उपायों को खोजा गया है । सफलता अभी भी विचाराधीन है । कृत्रिम विधि यदि सफल भी होता है तो इसकी सफलता में भी गर्भाशय सहज सटीक वातावरण को कृत्रिम रूप में निर्मित करने के उपरान्त ही सफल होने की व्यवस्था है ।

ऐसे कृत्रिम गर्भाशय संरचना वातावरण संबंधी कृत्यों को समान करने के लिये जितना श्रम, जितना वस्तु, जितना समय लगता है, लग सकता है वह सर्वाधिक निरर्थकता अपव्यय के खाते में जायेगा । अस्तित्व में यही सिद्घान्त है जो जिसको अपव्यय करेगा उससे वह वंचित हो जायेगा। कृत्रिम गर्भाशय निर्माण विधि स्वयं अपव्ययता के आधार पर ही मानव मन में कल्पित हो पाता है । इस अपव्ययता क्रम में स्वाभाविक सार्थक नियति सहज विधि से रचित शरीर रचना के अंगभूत गर्भाशय की आवश्यकता, विशेषकर मानव शरीर में गर्भाशय की आवश्यकता एवं तत्संबंधी उत्सव से मानव वंचित होना भावी हो जाता है । इससे यह पता लगता है कि इस मुद्दे पर कृत्रिम उपायों की निरर्थकता का हर सामान्य मानव स्वीकार कर सकता है । अतएव प्रकृति सहज ी-पुरूष शरीर रचना उसका सम्पूर्ण अंग-अवयवों का उपयोग-सदुपयोग-प्रयोजनीयता क्रम में शरीर स्वस्थता और जीवन स्वस्थता रूपी संयमता के संयोगपूर्वक ही विधि-विहित कार्यकलापों में प्रवृत्त होना पाया जाता है । यह जीवन जागृति पूर्वक ही सफल होना देखा गया है । ऐसा जीवन जागृति मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा पूर्वक सर्व सुलभ होने के तथ्य स्पष्ट हो चुका है ।

संतान जन्मोत्सव के अवसर पर जागृत मानव परंपरा सहज जीवन जागृति की कामना, शरीर स्वस्थता की कामना इसके पुष्टि पोषण विधाओं का चर्चा-संवाद, गीत, गायन, नृत्य आदि कृत्यों से उत्सव समारोह को सफल बनाना इन्हीं कृत्यों से हर माता-पिता में संतान प्राप्ति के महत्वपूर्ण घटना के आधार पर सम्मान और गौरव का उमंग की पुष्टि बन्धुजन, बहुजन द्वारा सम्पन्न होता है । यही जन्म संस्कार उत्सव का तात्पर्य है । इससे स्पष्ट हो गया कि शैशवता की स्थिति में अभिभावक और बन्धुजनों का कामना ही भावी किशोर, यौवन, प्रौ$ढ अवस्थाओं में प्रमाणित होने का सम्पूर्णता ही कामनाओं के रूप में सामूहिक प्रस्तुति, स्वीकृति सहित प्रसन्नता और उत्साह का संयुक्त रूप में व्यक्त करना ही सार्थक उत्सव का स्वरूप है ।

नामकरण उत्सव

का भी जन्म उत्सव के अनुरूप ही कार्य सम्पन्न होना पाया जाता है । इस उत्सव में विशेषकर सार्थक नाम संबोधन और निर्देशन के रूप में सम्पादित किया जाना सामूहिक रूप में स्वीकृत होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया को सम्पादित करते समय सभी आयु वर्ग के लोग अपने-अपने प्रसन्नता उत्साह के साथ नाम चयन करना होता ही है । इसके सार्थकता के सम्बन्ध में उमंगपूर्ण वार्तालाप, गायन-गीत का प्रदर्शन सहित उत्सव सम्पन्न होना मानवीयतापूर्ण नामकरण संस्कार का स्वरूप होता है । इसका सार्थकता सम्बोधन और निर्देशन ही है । हर व्यक्ति सम्बोधन के लिये नाम का प्रयोग करना और कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को निर्देशित करना ज्ञानावस्था का सहज प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया केवल मानव में ही देखने को मिलता है । ज्ञानावस्था की मौलिकता नाम-निर्देशन, स्वीकृति, अनुभूति का सहज गति है । इन्हीं गति के आधार पर ज्ञानावस्था का मानव हर क्रियाकलाप में सार्थकता अर्थात् उपयोगिता और प्रयोजनीयता के आधार पर व्यवहार सुलभ, व्यवस्था सुलभ, होना पाया जाता है । अतएव जन्म संस्कार के साथ-साथ नामकरण संस्कार एक सार्थक उत्सव होना पाया जाता है ।

जन्मदिन उत्सव संस्कार –

जन्मदिनोत्सव को सम्पादित करने की उमंग, उमंग का तात्पर्य उत्साह और प्रसन्नता सहित आशय को व्यक्त करने से है । आशय जन्म दिवस का स्मरण बीते हुए वर्षों की गणना से सम्बन्धित रहता है । यह सर्वविदित है । इस क्रम में शैशवावस्था तक जीवन जागृति कामना सहित मानवीयतापूर्ण आचरण सम्पन्न होने, जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत होने के कामनाओं सहित चर्चा, वार्तालाप, कामना गीत के साथ गायन, नृत्य, वाद्य के साथ उत्सव सम्पन्न करने का कार्यक्रम हर शैशवावस्था तक उत्सव में भाग लेने वाले हर व्यक्ति से हर व्यक्ति को सम्मान व्यक्त करता हुआ शिशु और आशय आकांक्षा सहित आशीषों को प्रस्तुत करने वाले हर व्यक्ति उत्सव में भागीदारी के रूप में देखने को मिलता है । ऐसे उत्सव मानव सहज जागृति परंपरा का ही पुनर्उद्गार ही रहता है । ऐसी जन्मदिनोत्सव को जैसा ही शैशवावस्था से कौमार्य अवस्था आता है अथवा जिस जन्मदिनोत्सव तक अपने मूल्यांकन करने में सक्षम हो जाते हैं, जिसको अभिभावक भले प्रकार से मूल्यांकन कर सकते हैं । इसी जन्मदिवस से हर मानव संतान से अपना मूल्यांकन  कराने और सत्यापित करने की विधि अपनाना आवश्यक रहता ही है । ऐसा सत्यापन सहज अभिव्यक्ति की पुष्टि में उत्साह और प्रसन्नता को व्यक्त करने का समारोह बंधु-बांधव और अभिभावक मित्रों के साथ-साथ अनुभव करना बनता है । ऐसी सम्पूर्ण अनुभूति का आधार का मापदण्ड जीवन जागृति, मानवीयतापूर्ण आचरण शैशवावस्था  से किया गया आज्ञापालन, सहयोगवादी कार्यकलाप, अनुसरण किया गया कार्यकलाप अर्थात् अभिभावक एवं आचार्यों के साथ किया गया अनुसरण क्रियाकलाप और उसके प्रयोजनों के साथ उन-उनके सभी अभिमत किशोरावस्था से ही व्यक्त होना स्वाभाविक रहता ही है । स्वयं स्फूर्त आशा, आकांक्षा के संदर्भ में भी प्रोत्साहनपूर्वक संप्रेषित करने का अवसर प्रदान करना उत्सव समारोह का एक कर्तव्य के रूप में होना पाया जाता है। मुख्य रूप में जिनका जन्मदिनोत्सव मनाया जाता है उनका उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन सम्बन्धी मूल्यांकन पर ‘यादा से ‘यादा ध्यान आकर्षित करने का कार्यक्रम जन्मदिनोत्सव का प्रधान उद्देश्य और कार्यक्रम है । इस प्रकार जन्मदिनोत्सव के सम्पूर्ण अवयव स्पष्ट हो जाता हैं । इसी के साथ यह भी परस्पर प्रेरणा का आधार होता है कि जन्मदिनोत्सव जिनका मनाया जाता है उस समय उनका साथी, मित्र, भाई सब अपने-अपने सत्यापन विधि को अपनाना मानव परंपरा के लिये आवश्यकीय मौलिक प्रयोजन सिद्घ होना सहज है ।

शिक्षा-संस्कार व्यवस्था :-

मानव जाति, धर्म, कर्म, व्यवहार, दीक्षा, संस्कार – हर मानव में, से, के लिये और मानव परंपरा में, से, के लिये एक अनिवार्य अध्ययन, अवधारणा, अनुभव प्रमाण है । इसी क्रम में मानव परंपरा अपने संपूर्ण वैभव को स्वायत्त मानव, परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना सहज है । फलस्वरूप अखण्ड समाज में भागीदारी पूर्वक समाज मानव और सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारीपूर्वक व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना शिक्षा-संस्कार का सार्थक प्रयोजन है ।

शिक्षा-संस्कार का आधार रूप अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन, मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववादी विधि) से सम्पन्न होना देखा गया है । यही परम जागृति का द्योतक है । यही जागृत मानव परंपरा की आवश्यकता है । मध्यस्थ दर्शन का तात्पर्य मध्यस्थ जीवन, मध्यस्थ बल, मध्यस्थ शक्ति, मध्यस्थ सत्ता सहज विधि से अध्ययन कार्य को सह-अस्तित्व सूत्र में पूर्णतया सजा लिया गया । यही शिक्षा का महत्वपूर्ण उपलब्धि है । मध्यस्थ जीवन का स्वरूप नियम, न्याय, धर्म, सत्य पूर्ण विधियों से जीने की कला ही है । यही परिवार मूलक स्वरा’य के रूप में स्वतंत्रता और स्वानुशासन के रूप में प्रमाणित होना देखा गया है । यही मध्यस्थ जीवन का वैभव है । ऐसा स्वरा’य और स्वतंत्रता हर मानव में, से, के लिये एक चाहत होता ही है । जैसे :- हर मानव संतान को जन्म से ही न्याय का याचक, सही कार्य-व्यवहार का इ’छुक, सत्य वक्ता होने के रूप में देखा गया है । इन्हीं आशयों की पूर्ति के लिये नियम, न्याय, सर्वतोमुखी समाधान, जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान सहज तथ्यों को अवधारणा में स्थापित कर लेना ही मानवीयतापूर्ण शिक्षा का स्वरूप और कार्य है । इस कार्य विधि के अनुसार मानव परंपरा अपने जागृति को प्रमाणित करता है । यही जागृत मानव परंपरा का तात्पर्य है।

मध्यस्थ सत्ता अपने आप में व्यापक रूप में विद्यमान है। इसे हर दो वस्तुओं के बीच में रिक्त स्थली के रूप में देख सकते हैं । इसी रिक्त स्थली का नाम मध्यस्थ सत्ता है । क्योंकि इसी में सम्पूर्ण प्रकृति भीगा, डूबा, घिरा हुआ दिखाई प$डता है। ऐसी सत्ता हर एक में पारगामी होना और हर परस्परता में पारदर्शी होना देखने को मिलता है । यही मध्यस्थ सत्ता है । इसी सत्ता में संपृक्त मानव, जीवन और शरीर का संयुक्त रूप में विद्यमान है । सम्पूर्ण प्रकृति संपृक्त है ही । मानव अपने में मध्यस्थ सत्ता में संपृक्तता को अनुभव करने का अवसर समान रूप में होना पाया जाता है ।

मध्यस्थ जीवन अस्तित्व में दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहज विधि में अपने में विश्वास करना, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान, प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबन पूर्वक हर मानव में प्रमाणित करना समीचीन है । इसी आधार पर मानव अपने मौलिक अधिकार संवेदनशीलता और संज्ञानशीलता में संतुलन को पाकर नित्य समाधान सम्पन्न होने का अवसर नित्य समीचीन है । यही जागृत परंपरा है । फलस्वरूप मध्यस्थ जीवन प्रमाणित होता है ।

सर्वतोमुखी समाधान स्वयं न तो अधिक होता है न कम होता है । अधिक कम होने के आरोप ही सम-विषम कहलाता है । अस्तित्व स्वयं कम और ‘यादा से मुक्त है इसीलिये अस्तित्व स्वयं मध्यस्थ रूप में होना पाया जाता है । यही सह-अस्तित्व का स्वरूप है । सह-अस्तित्व स्वयं समाधान सूत्र, व्याख्या और प्रयोजन है । मानव अस्तित्व में अविभा’य है। मानव जागृति पूर्वक ही समाधान सम्पन्न होने की व्यवस्था है और हर मानव स्वयं भी समाधान को वरता है । इसीलिये अस्तित्व सहज अपेक्षाएँ सब विधि होना पाया जाता है । सम-विषमात्मक आवेश सदा ही समस्या का स्वरूप होना पाया जाता है । मानव सदा-सदा ही जागृति और समाधान को वरता है । समाधान संदर्भ मध्यस्थ है । नियम और न्याय के संतुलन में समाधान नित्य प्रसवशील है । यही जागृति का आधार है । यही उत्सव का सूत्र है । उत्सव की परिभाषा पहले से की जा चुकी है । शिक्षा-संस्कार का शुरूआत जब कभी भी आरंभ होता है जिस तिथि में होता है शिक्षा-संस्कार के आरंभोत्सव के रूप में अनुभव के रूप में सम्मान करना एक आवश्यकता है क्योंकि हर मानव संतान अभिभावकों और सुहृदयों के अपेक्षा के अनुरूप जागृत होना एक आवश्यकता है। जागृत परंपरा में हर मानव संतान का अभिभावक, सुहृदय बन्धुओं का जागृत रहना स्वाभाविक है । इसी आधार पर जागृत मानव संतान में जागृति की अपेक्षा होना एक स्वाभाविक, नैसर्गिक तथ्य है । अस्तु, जागृति सहज अपेक्षाएँ अग्रिम पी$ढी में संस्कार का आधार होना भी स्वाभाविक है । इसी के आधार पर जिस दिन से शिक्षा का आरंभ होता है उस दिन सभी बंधु-बांधव मिलकर विधिवत जागृति की अपेक्षा संबंधी चर्चा, परिचर्चा, गोष्ठी, गायन आदि विधियों से सम्पन्न करना जागृति क्रम संस्कार के लिये अपेक्षित है ।

जिस समय में शिक्षा-संस्कार सम्पन्न हो जाते हैं उस समय में जागृति का प्रमाण सभा, उत्सव सभा के बीच हर पारंगत नर-नारी अपने को स्वायत्त मानव के रूप में सत्यापित करने, परिवार मानव के रूप में कर्तव्य और दायित्वशील होने और अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में अपने निष्ठा को सत्यापित करने के रूप में उत्सव समारोह को सम्पन्न किया रहना मानव परंपरा में एक आवश्यकता है ।

जाति सम्बन्धी मुद्दे पर मानव जाति की अखण्डता को पूर्णतया स्वीकारा हुआ मानसिकता जिसके आधार पर सम्पूर्ण सूत्रों का प्रतिपादन करना हर स्नातक के लिये एक आवश्यकता और परंपरा के लिये एक अनिवार्यता बना ही रहेगा । इस उत्सव में ‘यादा से ‘यादा पहले से पारंगत और प्रौ$ढ लोग मूल्यांकित करने के रूप में उत्सव का पहल बनाए रखने की एक आवश्यकता इसलिये है कि हर स्नातक अपने उत्साह का पुष्टि विशाल और विशालतम रूप में प्रमाणित होने की प्रवृत्ति उद्गमित होना देखा गया है।

धर्म और दीक्षा संस्कार को जागृति पूर्णता, स्वानुशासन, प्रामाणिकता के रूप में प्रतिपादित करना हर स्नातक व्यक्ति का अपने ही उद्देश्य और मूल्यांकन के विधि से एक आवश्यकता बना ही रहता है । जिसके आधार पर प्रौ$ढ और बुजुर्ग लोग समय-समय पर आवश्यकतानुसार मूल्यांकन कर सके और तृप्ति पा सके । उत्सव कार्य में एक आवश्यकता यह बना ही रहता है ।

कर्म और व्यवहार संस्कार का सत्यापन हर मानव अपने स्वायत्तता में निष्ठा के रूप में सत्यापित करना स्वाभाविक कार्य है । अतएव इसे व्यवहार में सामाजिक और व्यवसाय में स्वावलंबन के रूप में ही पहचाना जाता है । जिसका सत्यापन हर स्वायत्त मानव (नर-नारी) करता है । यह उत्सव का स्वरूप में एक अंग बनके रहना आवश्यक है । ऐसी शिक्षा-संस्कार सम्पन्नता का उत्सव हर ग्राम में हर वर्ष सम्पन्न होना स्वाभाविक है आवश्यकता भी है क्योंकि अग्रिम पी$ढी के लिये यह उत्सव प्रेरणा स्रोत बनकर ही रहता है । संस्कार मर्यादा बोध कराने वाला पारंगत आचार्य ही रहेंगे ।

स्नातक अवधि में पहुँचा हुआ सभी गाँव के स्नातकों का संयुक्त उत्सव सभा सम्पन्न होना भी आवश्यकता है । यह शिक्षण संस्था में ही समारोह रूप में सम्पन्न होना सहज है । इस उत्सव का प्रयोजन परस्पर स्नातकों का सत्यापन, श्रवण, साथ में अध्ययन अवधि में बिताये गये दिनों की स्मृति के साथ मूल्यांकित करने का शुभ अवसर समीचीन रहता है । इस अवसर के आधार पर हर एक स्नातक को अन्य स्नातक सत्यापन के आधार पर प्रामाणिकता को मूल्यांकित करने का अवसर बना रहता है । इस अवसर का सटीक प्रस्तुति और सदुपयोग उत्सव के स्वरूप में वैभवित होना  स्वाभाविक है । इन्हीं के साथ इनके सभी आचार्यों का मूल्यांकन और आशीष, आशीष का तात्पर्य स्नातक में जो स्वायत्तता स्थापित हुई है वह नित्य फलवती होने स्वायत्त मानव, समाज मानव, व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होने के आशयों को व्यक्त करने के रूप में उत्सव अपने आप में शुभ, सुन्दर, समाधानपूर्ण होना देखा जाता है ।

 विवाह संस्कारोत्सव :-

सम्बन्धों को पहचानना ही संस्कार है। ऐसे सम्बन्ध अस्तित्व सम्बन्ध, मानव सम्बन्ध और नैसर्गिक सम्बन्ध के रूप में जानना और पहचानना जागृत मानव में स्वाभाविक क्रिया है। अस्तित्व सम्बन्ध सह-अस्तित्व के रूप में, नैसर्गिक सम्बन्ध जल, वायु, वन, धरती के रूप में, मानव सम्बन्ध अखण्ड समाज-सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में सम्बन्धों को पहचानना एक आवश्यकता है । हर जागृत मानव में यह सार्थक होता है । मानव सम्बन्ध क्रम में पति-पत्नी सम्बन्ध एक सम्बन्ध है। ऐसे सम्बन्ध के स्वरूप कार्य के बारे में पहले ही सभी सम्बन्धों के साथ आवश्यकता, लक्ष्य, उपयोगिता के सम्बन्ध में विश्लेषण और विवेचना कर चुके हैं ।

यहाँ उत्सव के सम्बन्ध में स्वरूप प्रक्रिया को प्रस्तुत करना आवश्यक समझा गया है । विवाह सम्बन्ध में बंधु-बांधव, अभिभावक, मित्र, सुुहृदय मनीषियों की सम्मति, प्रसन्नता, उत्साह के साथ निश्चयन होना इस संबंध संस्कारोत्सव की पूर्व भूमि है । उभय पक्ष के अभिभावक उत्सवित रहना सहज है । ऐसे पृष्ठभूमि के साथ विवाहोत्सव सम्पन्न होना मानव परंपरा में एक आवश्यकता है । क्योंकि संयत जीवन प्रणाली के लिये सम्बन्धों का पहचान उसके निर्वाह के साथ उत्सवित रहना संस्कार का ही द्योतक है । संस्कार का परिभाषा भी यही ध्वनित करता है कि पूर्णता के अर्थ में सम्पूर्ण कृत-कारित-अनुमोदित, कायिक, वाचिक, मानसिक विधियों से सदा-सदा निर्वाह करने की स्वीकृति । यही सम्बन्ध की पहचान का तात्पर्य है । ऐसा सम्बन्ध निर्वाह सदा-सदा के लिये सुखद, सुन्दर, समाधानपूर्ण होना पाया जाता है । यही नित्य उत्सव का आधार और परिणाम है क्योंकि किसी सम्बन्ध को सुखपूर्वक निर्वाह करना आरंभ होता है उसी के साथ सुन्दरता और समाधान प्रभावित किया रहता है । समाधान सहित किसी सम्बन्ध को निर्वाह करना आरंभ करते हैं उसी समय से समाधान और सुख प्रभावित किया रहता है । इसी प्रकार सुन्दरतापूर्वक किसी सम्बन्ध को निर्वाह करना आरंभ करते हैं उसी के साथ समाधान और सुख प्रभावित किया रहता है । इसका प्रधान प्रक्रिया स्वरूप को हम देख पाते हैं कि अस्तित्व सम्बन्ध को समाधान पूर्वक निर्वाह करते हुए सुख, सुन्दरता को अनुभव किया जाता है । नैसर्गिकता के साथ सुन्दरतापूर्वक सम्बन्ध का निर्वाह करते हुए स्थिति-गति में सुख और समाधान का अनुभव करना सहज है । मानव सम्बन्धों में सुखपूर्वक सम्बन्ध निर्वाह करता हुआ गति-स्थिति में सुन्दरता और समाधान का अनुभूत होना देखा गया है । यही पूर्णता का स्वरूप है उसकी अक्षुण्णता स्पष्ट है ।

सम्पूर्ण उत्सव में लक्ष्य सुख, सुन्दर, समाधान का अनुभव; विचारों में उ2वलता, कार्य-व्यवहार में उदात्तीकरण ही उत्साह और प्रसन्नता का उत्कर्ष होना देखा गया है । यह जागृतिपूर्वक ही सम्पन्न होना पाया गया है।

विवाह संस्कारोत्सव मुहूर्त में स्वाभाविक रूप में कन्या वर पक्ष के बन्धु-बांधव, मित्रों का उपस्थित रहना वांछनीय कार्य है । वधु-वर स्वाभाविक रूप में स्वायत्त मानव के रूप में पारंगत परिवार मानव के रूप में प्रमाणित रहने के आधार पर ही उभय अर्हता का निश्चय होना पाया जाता है । जैसे ही किसी शोभनीय स्थली में उभय पक्ष के सभी लोग एकत्रित होते हैं उसमें सभी आयु-वर्ग के लोगों का रहना स्वाभाविक है। सभा स्थल के एक ओर कन्या पक्ष के माता-पिताओं से संबंधित बन्धु-बान्धवों का होना, उन्हें क्रम से मातृ पक्ष के लोगों को माता के तरफ कतार से, पिता पक्ष के सभी लोगों को पिता के साथ कतार से बैठाया जाना शोभनीय होता है । इसी प्रकार वर पक्ष का भी कतारीकरण विधि से आसनासीन कराना होता है । इस कार्य में वधु-वर सहित उनके सभी मित्रगण भी प्रवृत्त रहते हैं। तीसरे ओर वधु का मित्रों की ओर तथा चौथे ओर वर के मित्रों का कतारीकरण विधि से आसनासीन कराया जाता है । तदोपरान्त आसनासीन वधु के माता-पिता के मध्य में रिक्त आसन पर वधु का आसीन होना उसी प्रकार वर के माता-पिता के मध्य में वर का आसीन होना सभा स्थल का शोभा सम्पन्न होती है । उसके तुरंत बाद वधु के पिता अपने आशय को व्यक्त करते हैं कि ‘‘मैं अमुक नाम वाला अपने पत्नी का नाम सहित, हम आपकी सम्पूर्ण जागृति और प्रामाणिकता सहित मेरे पुत्री अमुक नाम वाली जो यहाँ आपके सम्मुख प्रस्तुत है इनको मानवीय संस्कारों को समय-समय पर प्रस्थापित करते आया हूँ । इनका पोषण-सुरक्षा और सुशीलता को हम दोनों पति-पत्नी प्रेरक-कारक रहे हैं । हमारा विश्वास है कि मेरी पुत्री परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होने में समर्थ है । अतएव अब हम इस समारोह में अमुक नाम वाले जिनके माता-पिता का नाम सहित वर के साथ विवाह करने के लिए हम कृत संकल्पित हैं । मेरे इस संकल्प के साथ मेरे तथा मेरी पत्नी के सभी बंधुओं, मेरी पुत्री के सभी मित्रों की सम्मति है ।’’ इसी के साथ हर्ष ध्वनियाँ सम्मत उ_ारण करता हुआ सम्पन्न होगा ।

इसी प्रकार वर पक्ष का पिता अथवा अभिभावक ऐसा ही विश्वासपूर्वक प्रस्तुत होना स्वाभाविक है । इसके तुरंत बाद सभा को संबोधित करता हुआ विवाहोत्सव का मार्गदर्शन करने वाला व्यक्ति विवाह के मार्मिक प्रतिबद्घता की आवश्यकता पर सम्बोधित करेगा । इसके तुरंत बाद जितने भी सभासद रहते हैं वधु-वर के, से उन-उनके साथ आत्मीयतापूर्वक विवाहोत्सव की औचित्यता पर अपने-अपने सम्मति व्यक्त करेंगेे । पुन: हर्ष ध्वनि सम्पन्न होगी । इस बीच मंगलगीत, सौभाग्य गीत, परिवार मानव गीतों का सुस्वर गायन सम्पन्न होगा । इसमें हर नर-नारी का भाग लेना स्वाभाविक रहेगा । तदुपरांत वर-वधुओं के गले में उन-उनके माता-पिता फूल-माला पहनायेंगे ।

सभा के मध्य में बनी हुई मण्डपाकार के समीप वधु-वर पहुँच कर एक-दूसरे को माला पहनायेंगे, पुन: हर्ष ध्वनि मंगल ध्वनि का होना स्वाभाविक है।

इसके उपरान्त विवाहोत्सव के मार्गदर्शक व्यक्ति के अनुसार सुखासन पर बैठे हुए वधु-वर दोनों पारी-पारी से बैठे हुए स्वयं को स्वायत्त मानव के रूप में होने का सत्यापन करेंगे और परिवार मानव के रूप में जीने के संकल्प को दृ$ढता से घोषित करेंगे । इसके उपरान्त

_.   दोनों अपने-अपने माता-पिता का नाम सहित व्यवस्था मानव के रूप में जीने का संकल्प लेगें ।

_.   परिवार मानव के रूप में जीने का संकल्प करेंगे ।

_.   दोनों बारी-बारी से कायिक-वाचिक-मानसिक, कृत कारित, अनुमोदित सभी कार्य-व्यवहार विचारों में एक दूसरे के पूरक होने का संकल्प करेंगे ।

_.   परिवार तथा अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का दायित्व कर्तव्यों को निर्वाह करने का संकल्प करेंगे ।

‘.    तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा करने का संकल्प करेंगे ।

_.   सम्बन्ध-मूल्य-मूल्यांकन-उभयतृप्ति को प्रमाणित करने का संकल्प करेंगे ।

_.   मानवीयतापूर्ण आचरण में पूर्ण निष्ठा बरतने का संकल्प करेंगे ।

इस प्रकार किये जाने वाले हर संकल्प के साथ हर्ष ध्वनि पूरी सभा में होना स्वाभाविक है और उत्सव का मार्गदर्शक हर संकल्प के उपरान्त उसकी महिमा आवश्यकता और प्रयोजनों का प्रबोधन करेंगे । इसी क्रम में आवश्यकतानुसार संकल्पों के बीच-बीच आनुषंगीय गीत का भी प्रकाशन तथा प्रदर्शन किया जाना स्वाभाविक रहेगा । इस प्रकार संकल्प समारोह सम्पन्न होने के उपरान्त सर्वप्रथम उभय पक्ष के माता-पिता, वधु-वर को परिवार मानव के रूप में सफल होने की कामना करेंगे । पुष्प-वर्षा के साथ-साथ वधु-वर से अधिक आयु एवं समान-आयु वाले इसी प्रकार आशीष करेंगे । वधु-वर से छोटे आयु वाले सभी लोग आपके परिवार जीवन से हम सब प्रेरणा पाते रहेंगे ऐसी शुभकामना व्यक्त करेंगे और पुष्प वर्षा करेंगे ।

अंत में हर्ष ध्वनि के साथ समारोह सम्पन्न होगा । इसी के साथ-साथ वधु-वर के माता-पिता सबको कृतज्ञता अभिनंदन प्रस्तुत करेंगे । इसके तुरंत बाद वधु-वर दोनों को पारितोष अर्पित करना चाहेंगे, करेंगे । इस प्रकार विवाहोत्सव कार्य को सम्पन्न करना एक अनिवार्य स्थिति है ।

दिन, समय, बेला, मुहूर्त के सम्बन्ध में भी मानव परंपरा में विचार विधि कल्पना में आना स्वाभाविक है । इस मुद्दे पर प्रधान रूप में जागृति के उपरान्त, जागृत परंपरा में मानवीयतापूर्ण संचेतना अर्थात् जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने सहज कार्य-व्यवहार, विचार सम्पन्न करने की शुभ व सुन्दर समाधानपूर्ण स्थिति-गति रहेगी । मानव ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में होने के कारण विवाह के लिये अनुकूल समय को ऋतु काल के अनुसार निर्णय लेना और ब्रह्माण्डीय किरण विधि से ग्रह-गोल-नक्षत्रों का स्थिति-गतियों को आवश्यकतानुसार पहचानना स्वाभाविक रहेगा । इसी के साथ दिन, वार, तिथियों को पहचानना रहेगा ही । ये सभी बिन्दुओं पर मानव सर्वतोमुखी प्रवृत्तियों का द्योतक है । इस क्रम में स्वाभाविक है बसन्त और शीत ऋतुओं में मानव को सभी देश-काल में विवाहोत्सव का अनुकूलता बना ही रहता है । मानवीयता पूर्ण परंपरा के साथ सभी ब्रह्माण्डीय किरण अनुकूल रहना स्वाभाविक रहता है । क्योंकि मानवीयतापूर्ण परंपरा का अवतरण में भी ब्रह्माण्डीय किरणों का सानुकूलता बना ही रहता है । इसी सत्यतावश ब्रह्माण्डीय किरणों का सानुकूलता में विश्वास होना स्वाभाविक है । इसके उपरान्त भी हर देश जो अक्षांश-देशान्तर रेखा विधि से धरती पर देश का चिन्हित होना उस देश पर ब्रह्माण्डीय किरणों के प्रभावों को पहचानना मानव जागृति सहज कृत्य और परीक्षण है । इस विधि से भी शुभ-बेला को पहचान सकते हैं । सर्वसुलभ बेला यही है कि ऋतु-काल, परिस्थितियाँ उभय परिवार के लिये अनुकूल होना ही सार्वभौम औचित्यता है।

समारोह

मानव परंपरा ज्ञानावस्था की अभिव्यक्ति संस्कारानुषंगीय विधि से जागृति पूर्णता को प्रमाणित करने वाला होने के कारण सभी उत्सवों में सम्बन्ध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति, तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करना समीचीन रहता ही है । जिसकी अक्षुण्णता होना देखने को मिलता है । अतएव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के लिये पूरक है, सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज के लिये पूरक होना देखा गया है । इसी क्रम में अखण्ड समाज का अध्ययन और अवधारणा पूर्वक अनुभव सहज होना देखा गया है । इसके लिये अर्थात् संस्कार के लिये उत्सव के प्रकारों को स्पष्ट किया जा चुका है । सार्वभौम व्यवस्था का स्वरूप सभा विधि से अखण्ड समाज का स्वरूप परिवार विधि से चरितार्थ होना देखा गया है । सभी सभाओं में समारोह सम्पन्न होना एक आवश्यकता बना रहता है। इन समारोह की प्रधान अभिव्यक्ति सभा और सभा से अनुशासित पाँच-पाँच समितियों का कार्यकलाप उसकी स्थिति-गति का मूल्यांकन और सभा का उद्देश्य के आधार पर सफलताओं का आंकलन मूल्यांकन हर्ष-ध्वनियों के साथ समारोह का उत्साह और प्रसन्नता का मूल्यांकन किया जाता है। हर सभा का अपने उत्सव को व्यक्त करने का निश्चित उपलब्धियों के साथ होना ही देखा गया है जैसे परिवार में समाधान; समृद्घि; परिवार समूह में न्याय, उत्पादन में समारस्यता; ग्राम मुहल्ला परिवार सभा में न्याय, उत्पादन विनिमय कार्यों में संतुलन और सामरस्यता समाधान का आधार बना रहता है । यही नित्य उत्सव का स्वरूप है । हर समारोह में, कम से कम ग्राम परिवार सभा में समारोह का सभी सम्भावनाएँ समीचीन रहता ही है ।

ग्राम-मुहल्ला सभा से मनोनीत-अनुशासित पाँच समितियों का कार्यरत रहना स्वरा’य व्यवस्था का वैभव है । इन वैभव के सफलताओं को देखने सुनने के लिये पूरे ग्राम मुहल्लावासी को उत्सुक रहना आवश्यक है । ग्राम सभा से निश्चित नियंत्रित विधि से एक-एक समिति का मूल्यांकन कार्यक्रम का तौर-तरीका जो अपनाये गये थे उसके आधार पर सफलता का समारोह सम्पन्न करना आवश्यक रहता ही है । इसका समयावधि ग्राम सभा के समयानुसार सम्पन्न होना व्यवहारिक है । इसी के अनुसार न्याय-सुरक्षा समिति के सफलताओं को समीक्षा कर पूरा ग्रामवासियों को अवगाहन कराने का कार्य सम्पन्न किये जाने के रूप में देखने को मिलता है । इससे सम्पूर्ण ग्रामवासी न्याय-सुरक्षा सुलभ होने में विश्वस्त एवं आश्वस्त होने का अवसर समारोह समय में स्वाभाविक रूप में देखने को मिलता है । इसी उमंग के साथ भविष्य के प्रति भरोसा करना स्वाभाविक होता है । वर्तमान तक की सफलता भविष्य के प्रति आश्वस्तता का हर संगम स्थिति, गति, उत्साह और प्रसन्नता के स्वरूप में ही प्रमाणित होना देखा गया है । इसी प्रकार उत्पादन-कार्य समिति, विनिमय-कोष समिति, स्वास्थ्य-संयम कार्य समिति, मानवीयतापूर्ण शिक्षा-संस्कार समितियों का वर्तमान तक के सफलता, भविष्य में आश्वस्त होने का सफल योजना के अवगाहन तक का समारोह प्रसन्नता में अभिभूत होना, स्वाभाविक है । ऐसी अभिभूति के साथ ही हर्ष ध्वनि सफलता का कीर्ति गायन, भविष्य में सफलता का आकांक्षा, सम्भावना सहित कर्तव्यों और दायित्वों की स्वीकृति और उसका उद्गार सहित हर्ष ध्वनि गीत-संगीत का वातावरण बनाया जाना समारोह-वैभव का प्रतिष्ठा रहेगा । अस्तु, ग्राम सभा बनाम पाँचों समितियों सहित सफलता का आंकलन अग्रिम योजनाओं का प्रकाशन समारोह का सारतत्व रहेगा । यही व्यवस्था मूलक समारोहों की महिमा है । इसी प्रकार हर स्तरीय समितियों में समारोह कार्य सम्पन्न होना स्वाभाविक रहेगा । यह विश्व परिवार पर्यन्त व्यवहारान्वयन होना देखने को मिलता है । सम्पूर्ण मानव इस धरती मे समारोह और उत्साहपूर्वक संतुष्ट होते हैं  । इसकी नित्य समीचीनता जागृति परंपरा पर्यन्त बनी ही रहेगी ।