World Organization (परिवार मूलक ग्राम स्वराज्य व्यवस्था)

 

परिवार मूलक ग्राम स्वराज्य व्यवस्था का स्वरूप

 * स्त्रोत =  अवर्तानशील अर्थशास्त्र , संस २, अध्याय ११ 

v  अविकसित के प्रति आसक्ति (आकर्षण) से ही विवशता है जो विकास को अवरूद्घ करती है। ह्रास की सूचना रहते हुए भी विकास के स्पष्ट ज्ञान एवं निष्ठा के अभाव में मानव विवशता पूर्वक पतन की ओर गतित है।

v  न्यायपूर्ण व्यवहार ही मानवीयता पूर्ण व्यवहार है। मानवीयता पूर्ण व्यवहार से तात्पर्य है मानवीयता के प्रति निर्विरोधपूर्ण व्यवहार जिसको समझना व समझाना अखंड मानव समाज की दृष्टि से आवश्यक है। इसके लिए अध्ययन व चेतना विकास मूल्य शिक्षा अनिवार्य है।

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को एक परिवार सभा व्यवस्था से ग्राम परिवार सभा व्यवस्था और विश्व परिवार सभा व्यवस्था का संयुक्त अविभाज्य रूपी अवधारणा और वर्णन विश्लेषण से स्पष्ट हो चुका है। अर्थव्यवस्था समग्र व्यवस्था में अंगभूत है। जिसमें से एक आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था है, दूसरा व्यवहारवादी समाज शास्त्र और व्यवस्था और तीसरा मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान व्यवस्था। व्यवस्था का मूल अवधारणा समझदार व्यक्ति में, से, के लिए वर्तमान स्वयं में विश्वास, परिवार में समाधान-समृद्घि, राष्ट्र में अभय और अंतर्राष्ट्र में सह-अस्तित्व  सहज प्रमाणित होना है। इन प्रमाणों के आधार पर ही विश्व मानव व्यवस्था का स्वरूप सह-अस्तित्व सहज अखण्डता सार्वभौमता के आधार पर परिशीलन किया गया है। हर विधाओं में मानव द्रोह-विद्रोह रूपी काला दीवाल के सम्मुख आ चुका है या आने वाला है। इसलिए इसकी समाधान, अखण्डता, सार्वभौमता के अर्थ में और समाधान- समृद्घि, अभयता के अर्थ में ही आवश्यकता, अनिवार्यता समीचीन होना देखा गया। इसी क्रम में इसके लोकव्यापीकरण को और उसकी महत्ता को समझा गया। फलस्वरूप मानव सम्मुख इसे प्रस्तुत करने का प्रयास है।

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था क्रम में मानव कुल संक्रमित होने के उपरांत अथवा परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था को मानव कुल अपनाने के उपरांत जन प्रतिनिधि को पाने के लिए, पहचानने के लिए और प्रस्तुत होने के लिए अर्थात् जन प्रतिनिधि के प्रस्तुत होने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया और भाग-दौड़ में धन व्यय शून्य हो जाता है। फलस्वरूप पैसे से पदाभिलाषा का सूत्र समाप्त हो जाता है। पहले से मानव, स्वायत्त मानव और परिवार मानव के रूप में पदस्थ रहते ही हैं। यह स्वयं स्फूर्त आकाँक्षा है ही।

स्वायत्त मानव का स्वरूप, परिवार मानव का स्वरूप के सम्बन्ध में अवधारणाएँ स्पष्ट हो चुकी हैं। अतएव परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का अवधारणा इस ग्रंथ का अध्ययन करने वाले मनीषी को सुलभ हुआ रहता ही है।

परिवार मूलक स्वराज्य का अंतरसम्बन्ध पाँच आयामों से सूत्रित-सम्बन्धित एवं व्याख्यायित रहना ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का प्रमाण होता है। इनमें से हर आयाम दूसरे आयाम के साथ अविभाज्य रूप में सूत्रित रहता है। यही व्यवस्था का तानाबाना है। इस विधि से हर स्तरीय परिवार  सभा, उसकी रचना और कार्य विधि में सामरस्यता और एकात्मता स्पष्ट हो जाता है। कार्यप्रणाली में दूसरे स्तरीय परिवार सभा के साथ सामरस्यता, एकरूपता के आधार पर ही सामरस्यता का अनुभव होना हर स्तरीय परिवार सभा का उद्देश्य और निष्ठा की समानता ही एकात्मता का तात्पर्य है। एकात्मता का तात्पर्य स्पष्ट उद्देश्य और निष्ठा के स्वरूप में है। सार्वभौम उद्देश्य के सम्बन्ध में विविध प्रकार से स्वरूप को स्पष्ट किए हैं। उल्लेखनीय तथ्य यही है कि सार्वभौम उद्देश्य समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व है। प्रत्येक मानव का जीवन सहज उद्देश्य भी समान है यह है जीवन जागृति। हर मानव जागृतिपूर्वक ही अपने को ज्ञान, दर्शन, विज्ञान, विवेक सम्पन्नता सहित मानवीयतापूर्ण आचरण सहित जीने की कला को वरता है। इस प्रकार जागृति ही अनुभव, विचार, व्यवहार (परिवार और समाज) और व्यवस्था में जीने के स्वरूप में प्रमाणित होना पाया जाता है। इन सभी अवयवों पर भी मनस्वियों का ध्यानाकर्षण अवधारणा सुलभ होने के अर्थ में प्रस्तुत किया गया है।

मानव अपने जीवन जागृति और सर्वमानव शुभ के अर्थ में जीने की कला विधि सहज ही व्यवस्था का स्वरूप होना नियति क्रम और जागृति क्रम का तृप्ति बिन्दु है। इसीलिए यह दोनों सम्पूर्ण मानव का उद्देश्य, प्रत्येक जीवन का उद्देश्य समान होने के फलस्वरूप इन्हीं दो ध्रुवों के मध्य में सम्पूर्ण व्यवस्था का ताना-बाना स्पष्ट हुआ है। यह मूलत: अस्तित्व स्थिर और विकास और जागृति निश्चित होने के लिए सह-अस्तित्व सहज सूत्र पर ही आधारित है। इन तथ्यों को सुदृढ़ रूप में जानने-मानने के लिए अस्तित्व ही नित्य वर्तमान और सह-अस्तित्व का स्वरूप होना प्रतिपादित हो चुका है।

इस चित्र में स्पष्ट किया गया पाँचों आयाम रेखाकार और वर्तुलाकार विधि से अन्तर सम्बन्धित और कार्यरत रहते हैं। रेखाकार विधि से अन्तर्संबंध, वर्तुलाकार विधि से पांचों समितियों को अविभाज्य सम्बन्ध आवर्तनशीलता के रूप में देखने को मिलता है। इसके मूल में मानव ही मानवीय शिक्षा-संस्कारपूर्वक स्वायत्त मानव, परिवार मानव (समाज मानव) और व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना ही परिवार मूलक के स्वराज्य व्यवस्था का अबाध गति है। इस क्रम में ग्राम परिवार व्यवस्था में विनिमय कोष का कार्य का सामान्य चित्र जो उत्पादन और विनिमय सुलभ रूप को स्पष्ट करता है :-

इस चित्र में ग्राम में उत्पादनों का सामान्य ध्यानाकर्षण किया है। सामान्य का तात्पर्य हर गाँव में एक ही परिवार में सभी प्रकार के उत्पादन सीमाओं को बांधना संभव नहीं है। विभिन्न प्रकार के उत्पादन होना वांछनीय है। अतएव जिन-जिन ग्रामों की सीमा में जो-जो उत्पादन कार्य सम्पन्न होता है, उसका विनिमय कार्य को श्रम विनिमय विधि से सम्पन्न करना ही विनिमय कोष का प्रधान कार्य है।

‘‘वस्तु और कोष का अलग-अलग कोई स्थान नहीं होता।’’ क्योंकि अस्तित्व में वस्तु और उसका मूल्य अविभाज्य रूप में देखा जाता है। यही विधि/तथ्य सम्पूर्ण उत्पादित वस्तुओं में भी दिखाई पड़ता है। जैसे एक वाहन को छोटा या बड़ा सामने रखकर देखें इसका उपयोगिता मूल्य, सुन्दरता मूल्य और वह वाहन अलग-अलग हो सकता है ? इस पर कितना भी सोचा जाए अंत में यह अविभाज्य है। यही मानव जाति से कहना बनता है।

‘‘उत्पादित वस्तुओं में उपयोगिता मूल्य बना ही रहता है।’’ हर वस्तुओं का उपयोगिता मूल्य और कला मूल्य मानव के श्रम नियोजन का ही फलन है। मूल्यांकन श्रम का ही हो पाता है न कि प्रतीक वस्तुओं का। इस तथ्य पर भी पहले विश्लेषण-निष्कर्ष प्रस्तुत किया जा चुका है। इसी विधि से मानव परंपरा में हर परिवार, हर स्तरीय परिवार स्वाभाविक रूप में समृद्घि, समाधान, अभय और सह-अस्तित्व में ओत-प्रोत रहना अथवा यह सर्वसुलभ रहना ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का एक अनिवार्यता है  क्योंकि सर्वमानव का यही लक्ष्य है। ‘समृद्घि का आधार आवश्यकता से अधिक उत्पादित वस्तु, सदुपयोग और सुरक्षा के योगफल में होना देखा गया।’ इसका प्रमाण और उसकी निरंतरता अखंड समाज और सार्वभौम व्यवस्था में गति का होना पाया जाता है। अतएव वस्तु और उसका मूल्य स्वाभाविक रूप में अविभाज्य बना रहता है। इसलिए विनिमय-कोष  व्यवस्था सुन्दर, सुखद, समाधानपूर्ण मानव मार्ग है।

श्रम मूल्यांकन प्रणाली को पाने के लिए सहज ही हर स्तरीय समीति में अर्हताएँ और समाधानपूर्ण विधि अपनाना सहज है। क्योंकि जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान के योगफल में सर्वतोमुखी समाधान करतलगत रहता ही है। इसी क्षमता के उपयोगवश मूल्यांकन क्रियाकलाप सम्पन्न होता है। इसकी पुष्टि में पहले भी इंगित कराया जा चुका है हर व्यक्ति सत्य में अनुभूत होना चाहता ही है। स’चाई को प्रमाणित करना चाहता ही है। यह सर्वसुलभ होना समीचीन है क्योंकि जीवन ज्ञान, सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान मानव सहज रूप में ही स्पष्ट हो पाता है और किसी अन्य प्रकृति के आधार पर इसका प्रमाण स्थापित नहीं हुआ है यथा जीवावस्था, प्राणावस्था और पदार्थावस्था सहज कृतियाँ हर मानव में, से, के लिए दृष्टव्य हैं। इन सबका यथास्थिति परिपूर्ण अध्ययन, इनका अन्तर्सम्बन्ध, इनकी अविभाज्यता क्रम में उपयोगिता-पूरकता, परस्पर पूरकता, उसका प्रयोजन रूपी सह-अस्तित्व, दृष्टा, कर्ता, भोक्ता केवल मानव में ही मौलिक रूप में ज्ञान-विवेक व विज्ञान विद्यमान है। इसीलिए मानव सम्पूर्णता के साथ हो, सार्वभौम व्यवस्था को और प्रत्येक मानव अपने में व्यवस्था होने के स्वरूपों को स्पष्टतया अध्ययन करता है। इसी क्रम में आवर्तनशील अर्थव्यवस्था समग्र व्यवस्था का अंगभूत होना सह-अस्तित्व सहज प्रणाली है।

मूल्यांकन सम्बन्धी निश्चयन हर ग्राम से आरंभ होकर विश्व परिवार विनिमय-कोष तक सम्बद्घ रहना आवश्यक है। शिक्षा पूर्वक हर व्यक्ति में निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य सुलभ होता है। फलस्वरूप उत्पादन कार्य में दक्ष होना पाया जाता है। इसी आधार पर प्रत्येक व्यक्ति में स्वायत्तता पूर्ण लक्ष्य अध्ययन काल से ही समाहित रहता है। सम्पूर्ण उत्पादन की कोटि और स्वरूप स्पष्ट हो चुका है। समृद्घि का सर्वाधिक आपूर्ति आहार, आवास, अलंकार सम्बन्धी वस्तुओं, उपकरणों और सामग्रियों सहित प्रत्येक ग्राम सीमा में जो कुछ भी प्राकृतिक ऐश्वर्य, जलवायु, वन, खनिज, नैसर्गिकता के रूप में रहते ही हैं। इन्हीं आधारों पर या इन्हीं के पृष्ठभूमि में मानव अपना श्रम नियोजन करने का कार्यक्रम बनाता है। हर परिवार अपने प्रतिष्ठा के अनुरूप आवश्यकताओं का निर्धारण करने में मानवीयता पूर्ण शिक्षा संस्कार के बाद ही समर्थ होना पाया जाता है। ऐसे परिवार मानवों से सम्बद्घ परिवार अपने आवश्यकता की तादात, गुणवत्ता सहित आवश्यकताओं को अनुभव करेंगे और उत्पादन-कार्य को अपनायेंगे। हर गाँव में साधारणतया कृषि, पशुपालन, ग्राम शिल्प, कुटीर उद्योग, हस्तकला, ग्रामोद्योगों को अपनाना सहज है। इसी आधार पर हर परिवार के लिए आवश्यकतानुरूप उत्पादन कार्य का अवसर समीचीन होना स्पष्ट है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट है कि सम्पूर्ण आवश्यकताएँ शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति में ही उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील है। इसी स्पष्ट नजरिये से जीवन ज्ञान सम्पन्न हर मानव को आवश्यकताएँ सीमित दिखाई पड़ती हैं और आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन श्रम शक्ति मूलत: जीवन शक्ति की ही अक्षय महिमा होने के आधार पर आवश्यकता से अधिक उत्पादन में विश्वास स्वाभाविक है। यह स्वायत्त मानव  में अभिव्यक्त होने वाले आयामों में से उत्पादन-कार्य भी एक आयाम है। इस विधि से आवश्यकताएँ सीमित संयत होना पाया जाता है। इसी सूत्र के आधार पर अपने उत्पादन कार्यों को विभिन्न वस्तुओं के रूप में परिणित करने में निष्ठान्वित होते हैं।

एक ग्राम में कम से कम 100 परिवार की परिकल्पना की जाती है। पाँचों आयाम सम्बन्धी व्यवस्था सफल होने के लिए कम से कम 100 परिवार का होना एक आवश्यकता है। 100 परिवार के बीच सामान्य आकाँक्षा सम्बन्धित सभी अथवा सर्वाधिक वस्तुएँ ग्राम में ही उत्पादित होना सहज है। उत्पादन कार्यों में परिवार मानव जब संलग्न होता है, उसे निरीक्षण-परीक्षण करने पर पता लगता है कि प्रत्येक उत्पादन कार्य निपुणता-कुशलता, पांडित्य सम्पन्न मानसिकता, विचार, इच्छा, समय खंड, हस्तलाघव और निश्चत साधन के योगफल में होना पाया जाता है। जहाँ तक साधनों की गणना है यह परंपरा के रूप में पीढ़ी से पीढ़ी अधिक साधन सम्पन्न होने की व्यवस्था है। यहाँ यह भी ध्यान रखना आवश्यक है मानव, जलवायु, धरती, वन, खनिज जैसी नैसर्गिकता में और अनंत और व्यापक ब्रह्मांडीय किरणों के वातावरण में होता हुआ देखने का मिलता है। इसी के साथ-साथ मानवकृत उप-वातावरण सहज ही गण्य होता है। अभी यहाँ मानवकृत वातावरण में परिवर्तन, परिवर्धन पर ध्यान देने की आवश्यकता है। नैसर्गिकता पर किए जाने वाले हस्तक्षेपों, श्रम नियोजनों, प्रतिफलों, उसकी उपयोगिता, सदुपयोगिता और प्रयोजनशीलताओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। यह मानवकृत वातावरण में से एक पक्ष है। इसी के साथ-साथ मानवकृत वातावरणिक सूत्र जुड़ा ही रहता है। अन्य वातावरण का तात्पर्य नैसर्गिक और ब्रह्मांडीय वातावरण अविभाज्य वर्तमानित रहने से है। इस प्रकार समग्रता के साथ ही यह धरती, धरती की समग्रता के साथ ही मानव, मानव के समग्रता के साथ ही व्यवस्था और समाज परिकल्पना अध्ययन, योजना और क्रियान्वयन क्रम में मानवीयतापूर्ण मानव के वैभव की पहचान होती है। इसी विधि से मानव समाज और व्यवस्था का अविभाज्य स्वरूप को परिवार और परिवारमूलक व्यवस्था के रूप में देखा गया है। जो स्वयं स्वराज्य और धर्म अविभाज्य रूप और उसका प्रमाण होना पाया गया है। अस्तु समग्र मानव को ध्यान में रखते हुए पाँच आयाम सम्पन्न व्यवस्था को परिपूर्णता के रूप में अध्ययन किया गया है। इसी के अंगभूत उत्पादन, विनिमय-कोष के आधार पर अथवा कार्यप्रणाली के आधार पर ग्राम से आरंभित स्वराज्य वैभव सूत्रों के अंगभूत होने के कारण ग्राम सभा से विश्व सभा तक इसकी लम्बाई पहुँचना स्वाभाविक है।

ग्राम सभा से मनोनयनपूर्वक व्यवस्थित विनिमय कोष व्यवस्था सूत्र और उत्पादन कार्य सूत्र यह दोनों अवि’िछन्न रूप में विशाल और विशालता की ओर सम्बद्घ होना समीचीन है। जैसा ग्राम सभा क्षेत्र में कार्यरत उद्यमों के अतिरिक्त कुटीर और लघु उद्योगों को ग्राम समूह समिति में स्थित उत्पादन कार्य समिति सम्पन्न करेगा और विनिमय कोष समिति विनिमय कार्यों को समपन्न करेगा। क्षेत्र सभा-समिति लघु उद्योगों और मध्यम उद्योगों के बारे में, से सम्बन्धित उत्पादनों को सम्पन्न करेगा और ग्राम क्षेत्र समिति से मनोनीत विनिमय कोष समिति इसका विनिमय कार्य सम्पन्न करेगी। क्षेत्र विनिमय कोष समिति ग्राम समूह समितियों के, से अक्षुण्ण सम्बन्ध बनाए रखने के आधार पर विनिमय कोष समिति से आदान-प्रदान विधि से गतिशील रहना सहज है। इसी प्रकार मण्डल और मण्डल समूह सभाओं से मनोनीत उत्पादन कार्य समिति और विनिमय-कोष समितियों के परामर्श से मध्यम कोटि के उद्योगों और वृहद उद्योगों को गतिशील बनाएगा, विनिमय-कोष पूर्वक ग्राम सभा तक विनिमय विधान (आदान-प्रदान) को बनाये रखेगा। इसी प्रकार मुख्य राज्य और प्रधान राज्य सभाओं से मनोनीत उत्पादन कार्य समिति द्वारा वृहद् उद्योगों को और उत्पादनों को समृद्घ बनाने का कार्य करेगा। इनसे मनोनीत विनिमय-कोष समिति द्वारा आदान-प्रदान विधि सम्पन्न होगी। विश्व राज्य परिवार सभा से मनोनीत उत्पादन कार्य और विनिमय कोष समितियों के द्वारा सम्पूर्ण राज्य में संतुलन को बनाए रखने का कार्य करेगा और आवश्यकतानुसार विश्व राज्य सभा द्वारा मनोनीत उत्पादन कार्य समिति विश्व समृद्घि के अर्थ में वृहद उद्योगों को स्थापित कर उत्पादन कार्य को सम्पन्न करेगा। विनिमय कोष द्वारा वस्तुओं का आदान-प्रदान कार्य सम्पन्न होगा । इसी प्रकार अन्य समितियों का भी सम्बन्ध अपने-अपने स्थिति में और ग्राम परिवार सभा से विश्व परिवार सभा तक रहेगा। इसी में दूरसंचार, परिवहनों का धारकता, वाहकता, उसकी रखरखाव की व्यवस्था सुपरिमार्जित रूप में बना रहेगा। शिक्षा-संस्कार पूर्वक आवश्यकीय सभी तकनीकी शिक्षा को जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहित सह-अस्तित्व मानसिकता से सम्पन्न कराने की व्यवस्था रहेगी। फलस्वरूप न्याय सुलभता और स्वास्थ्य-संयम समितियों का अंतरसम्बन्ध अपने-अपने विशालता सहित सम्पूर्ण कार्य करने की व्यवस्था रहेगी ।

कार्य मूल्य (श्रम मूल्य) की पहचान और मूल्यांकन

मानव में, से, के लिए जो कुछ भी कार्य वर्तमान में प्रकाशित संप्रेषित और अभिव्यक्त होता दिखाई पड़ता है यही जागृति के अनंतर उपयोगिता व कला के संयुक्त रूप में, सदुपयोगतापूर्वक पूर्णता को इंगित कराने के प्रमाणों में सार्थक होने के स्वरूप और पूर्ण जागृति (प्रामाणिकता) को वर्तमान में प्रमाणित करने के स्वरूपों में देखना समीचीन है। उपयोगिता, कला का प्रकाशन जीवन सहज आशा, विचार, इच्छा एवं उपयोगिता में अनुकूलता के अनुरूप, स्वरूप प्रदान करने के क्रम में इन अक्षय शक्तियों का नियोजन प्राकृतिक ऐश्वर्य पर स्थापित और सफल हो जाता है। इसी का नाम उत्पादन है। उत्पादन का परिभाषा यही है कि-

प्राकृतिक ऐश्वर्य पर कार्य (श्रम) नियोजनपूर्वक उपयोगिता व कला मूल्यों की स्थापना सहित सामान्य आकाँक्षा और महत्वाकाँक्षा के रूप में वस्तुओं को रूप प्रदान करने की क्रिया।

मानव द्वारा मानवेत्तर प्रकृति पर उपयोगिता एवं सुन्दरता की स्थापना किया जाना।

उपयोगिता मूल्य एवं उत्थान की दिशा में तन, मन और प्राकृतिक ऐश्वर्य में किया गया गुणात्मक परिवर्तन।

उत्पादन-कार्य सम्बन्धी परिभाषा से यह स्पष्ट हो जाता है मानव अपने कर्ता पद को प्रयोग करने में समर्थ है। सम्पूर्ण कार्य कर्ता पद प्रतिष्ठा सहज वैभव है। प्राकृतिक ऐश्वर्य पर ही श्रम नियोजन पूर्वक उत्पादन का अर्थ सार्थक होना पाया जाता है। इसके साथ मानव के कर्ता पद की महिमा और उसका संयोग ही है कि प्रत्येक मानव में कर्तव्य (करने का प्रमाण) नित्य प्रभावी है अर्थात् नित्य प्रकाशमान है और वर्तमान है।

मानव परंपरा भी एक अनुस्यूत प्रक्रिया है। यह परंपरा मानव शरीर रचना रूपी प्रजनन क्रिया के रूप में परंपरा स्थापित है। यह स्वाभाविक रूप में ही ब्रह्मांडीय वातावरण, नैसर्गिक समृद्घि के योगफल में सम्पन्न हुआ होना देखा  गया है। होने का तात्पर्य वर्तमान में प्रमाण ही है। इस विधि से मानव शरीर रचना का स्वरूप प्रणाली प्रजनन के नाम से इंगित होना सर्वविदित है। मानवीयता का आधार जागृत जीवन है। जीवन नित्य चैतन्य क्रिया है। जीवन अपने जागृति को प्रमाणित करने के लिए सुस्पष्ट हो चुका है। अर्थ प्रणाली का प्रयोजन भी हमें स्पष्ट हो चुका है कि शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति के अर्थ में उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनीयता के अर्थ में प्रमाणित होते हैं। उपयोगिताएँ न्याय से सूत्रित, सदुपयोगिता समाधान से और प्रयोजनीयता प्रामाणिकता से सूत्रित है। इसी क्रम में समृद्घि का अनुभव सहज हो पाता है। न्यायपूर्वक ही परिवार-समाज, सर्वतोमुखी समाधान पूर्वक ही परिवार समाज-व्यवस्था और प्रामाणिकता पूर्वक ही जागृतिपूर्ण परंपरा का प्रमाण मानव में नित्य प्रवाहित होने की व्यवस्था है। प्रवाहित होने का तात्पर्य पीढ़ी से पीढ़ी में अंतरित होने, परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक स्वीकृत होने और निष्ठापूर्वक हर पीढ़ी में प्रमाणित होने से है। यही परंपरा का तात्पर्य है। इस विधा में अर्थात् आवर्तनशील अर्थशास्त्र और व्यवस्था क्रम में यही प्रधान बिन्दु है कि यह व्यवस्था मानवीयतापूर्ण व्यवस्था का अंगभूत  है। अर्थशास्त्र अपने अकेलेपन में कोई परिभाषा प्रतिष्ठा नहीं होती है। इसका साक्ष्य लाभोन्मादी धन का विज्ञान साक्षित कर चुकी है। अतएव अर्थशास्त्र व्यवस्था मानवीयतापूर्ण व्यवस्था परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के अंगभूत वरतने वाली अविभाज्य कार्य के रूप में होना अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था समीचीन हैं।

मूल्यांकन के मूल में मानव ही प्रधान वस्तु है। प्रत्येक समझदार मानव अपने स्वायत्तता सहित सम्पूर्ण है। परिवार मानव के रूप में प्रमाण है। ‘परिवार मानव’ स्वायत्त मानवों का सीमित संख्या है जो परस्पर सम्बन्धों को पहचानते हैं, मूल्यों का निर्वाह करते हैं, मूल्यांकन करते हैं उभयतृप्ति पाते हैं और परिवार सहज आवश्यकता के अनुसार उत्पादन कार्य को अपनाए रहते हैं, ऐसे उत्पादन कार्य को सफल, सार्थक बनाने के लिए आवश्यकता से अधिक पाने के लिए सभी पूरक रहते हैं। यही परिवार व्यवहार और परिवार कार्य को स्पष्टतया प्रमाणित करते हैं। परिवार में दस समझदार का होना आवश्यक है। यही वैभव अखंड समाज अथवा विश्व परिवार के स्वरूप में भी इतना ही व्यवहार और इतने ही कार्य रूप में होना पाया जाता है। इसीलिए परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का नाम दिया है। इसी परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था का अंगभूत आवर्तनशील अर्थशास्त्र को समझा गया है। इस आवर्तनशीलता क्रम में मूल्यों का मूल्यांकन करने के संबंध में स्पष्ट विश्लेषण, कार्यरूप, उसका सम्बन्ध सूत्र, उपयोगिता, सदुपयोगिता की ओर गति को पहचानने की आवश्यकता है। जिससे अखण्डता-सार्वभौमता अक्षुण्ण हो सके।

विश्लेषण का स्वरूप वस्तु सहज व्याख्या ही है। क्योंकि सम्पूर्ण वस्तुएं अपने स्वरूप में विद्यमान है, वर्तमान हैं और व्यवस्था के अर्थ में वैभव है यथा जल, वायु, वन, खनिज धरती में सहज ही देखने को मिल रहा है। वनों में वन्य प्राणी, वन्य जीव और इस धरती में मानव कुल को हम पाते हैं। मानव परंपरा भी अपने आदिम स्वरूप से आज तक झेलता हुआ परंपरा के रूप में मूल्यांकित है। वन्य जीवन भी परंपरा के रूप में ही दिखते हैं। वन-वनस्पति और अन्न समुदाय भी परम्परा के रूप में हैं। ये सभी परम्पराएं अर्थात् मानवेत्तर सभी परम्पराएं अपने नियमों से निबद्घ और व्यवस्था के रूप में होना पाया जाता है। मानव ही अपने व्यवस्था को पहचानना एक आवश्यकता के रूप में रहा है और परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था के रूप में होना अनिवार्य है। इस प्रकार विश्लेषणों का स्वरूप स्पष्ट है, कार्य रूप अपने-आप में व्यवस्था के रूप में होना स्पष्ट हैं।

संबंध सूत्रों को मानव जागृतिपूर्वक विकास संबंध, रचना संबंध, जीवन संबंध, जागृति संबंध के रूप में देखने को मिलता है। यह भी पहले स्पष्ट हो चुका है परमाणु में विकास का संबंध परमाणु अंशों के परस्परता में होना देखा गया है। क्योंकि हर परमाणु निश्चित परमाणु अंशों की संख्या के साथ ही अपने वैभव को व्यवस्था के अर्थ में स्थापित कर पाता है। इसी क्रम में गठनपूर्ण परमाणु (चैतन्य इकाई) जीवन पद में अपने को स्पष्ट करता है। विकास का चरमोत्कर्ष बिन्दु गठनपूर्णता ही है।

प्रत्येक परमाणु अपने भार बंधनवश अणुबंधनपूर्वक रचनाओं को प्रमाणित किया उसमें से एक रचना यह धरती है। इसी धरती में प्राणावस्था के वनस्पति संसार, जीवास्था के जीव संसार, ज्ञानावस्था के मानव परंपरा का शरीर रचना और पदार्थावस्था में रासायनिक-भौतिक रचनाएं हमें दिखती हैं। रासायनिक-भौतिक रचना रूपी जीव शरीरों द्वारा वंशानुषंगीय विधि से व्यवस्था को जीवन ही प्रमाणित करता है और मानव संस्कारानुषंगीय (समझदारीपूर्ण) विधि से अपने व्यवस्था के रूप में प्रमाणित करने का प्रयास जारी है। इन्हीं प्रयास क्रम में मानव परिवार मूलक स्वराज्य विधि से व्यवस्था में भागीदार होने का स्वरूप स्पष्ट हो गया है। अतएव प्रत्येक रचना और प्रत्येक जीवन अपने में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदार होने का तथ्य स्पष्ट होता है। यह सह-अस्तित्व विधि से ही सार्थक होता हुआ प्रमाणित है। मानव भी सह-अस्तित्व विधि से व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी को प्रमाणित कर सकता है। मानव ही जीवन जागृति के प्रमाणों को दृष्टा, कर्ता, भोक्ता विधियों से प्रमाणित करता है।

उपयोगिता को हम पहले से ही स्पष्ट किए हैं। यह क्रम से न्याय, धर्म और सत्य प्रधानता सहज प्रकाशन है। इस के आधार पर परिवार मानव, व्यवस्था मानव और जागृतिपूर्ण मानव (प्रमाणिक मानव) के रूप में अपने को प्रमाणित करने की गति में तन, मन, धन का उपयोग, सदुपयोग और प्रयोजनशील होने का तथ्य अभिहित है। इस प्रकार आवर्तनशीलता का आधार और सूत्र व्यवस्था ही है और व्यवस्था सूत्र के क्रम में ही वस्तुओं का सदुपयोग होना सहज है।

सदुपयोगिता क्रम और विधि से ही सम्पूर्ण मानव में आवश्यकताएँ संयत होते हैं, समृद्घ होने की संभावना बढ़ती है। फलत: उत्पादन कार्य करने के साधनों की वृद्घि एवं समय, घटने की संभावना भी जुड़ी रहती है। क्योंकि आवश्यकता से अधिक साधन (समान्याकाँक्षा, महत्वाकाँक्षा के) एक पीढ़ी दूसरे पीढ़ी के लिए अर्पित करता रहेगा। यह मानव सहज कीर्ति है। इसी क्रम में सदुपयोगिता विधि से साधन अधिक होने के आधार पर ही समृद्घि सर्वसुलभ होना सहज है। समृद्घि के आधार पर ही उत्पादन मात्रा नियंत्रित होना भी सहज है। गुणवत्ता की ओर मानव का स्वाभाविक रुप से ध्यान होना पाया जाता है। क्योंकि हर मानव समृद्घि कल्पना के साथ ही गुणवत्ता की ओर परिकल्पना तो कर रहा है। जबकि अभी परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था इस धरती पर प्रचलित नहीं हुआ। इसके बावजूद मानव परोपकारी नेतृत्वशील व्यक्तियों को अधिकाधिक साधनों के साथ (भले ही राक्षसीयता से क्यों न हो एकत्रित किया हुआ) प्रयुक्त होता आंकलित हुआ।

परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था विधि में हर परिवार समृद्घ होना स्वाभाविक है। यह भी अभी तक स्पष्ट हो चुका है कि जागृत मानवों का समुदाय ही परिवार मानव और विश्व परिवार मानव के रूप में जीने में समर्थ होता है।

वस्तु मूल्यांकन के लिए मानव का शक्ति नियोजन, समय और साधन सहित प्राकृतिक ऐश्वर्य की समीचीनता का योगफल, इसमें शरीर का संयोजन निपुणता, कुशलतापूर्ण मानस और पांडित्य के साथ कार्य करना भी एक आवश्यकता है। जैसे एक आदमी हल चलाने में गति, पत्थर फोड़ने में गति, घर बनाने में गति, इसी प्रकार हर क्रियाकलापों में हर व्यक्ति का गति स्पष्ट हो जाता है। दूसरा विभिन्न कार्यों के अनुसार गति विविधता का होना भी देखा गया है। जैसे कृषि कार्य की गति, पशुपालन की गति, ग्राम शिल्प की गति, हस्तकला की गति, कुटीर उद्योग की गति, गृह निर्माण में गति, अलंकार द्रव्यों को निर्मित करने में गति, यंत्र रचनाओं में गति अलग-अलग होना भी देखा गया है। मानव का ही कार्य गति मूलत: परिमापन का आधार है। इसी के साथ उत्पादन का तादात सामने आता है। हर उत्पादन सदुपयोगिता में, प्रयोजनशीलता में आवर्तनशील होता है। फलस्वरूप मूल्यांकन सुलभ होता है। इसी क्रम में अर्थात् आवर्तनशीलता क्रम में होने वाली तृप्ति क्रम में उसकी निरंतरता की प्रवृत्ति मानव में उदय होना स्वाभाविक है, क्योंकि मानव में जीवन शक्तियाँ अक्षय रूप में विद्यमान है ही। इसी विधि से हर वस्तु का उत्पादन और तृप्ति उसकी निरंतरता और सम्भावना समीचीन रहता ही है।

जितने समय में जो वस्तु जिस तकनीकी मानसिकता पूर्वक हस्तलाघव सहित परिमापित रूप में स्पष्ट हो गई, उसे एक उत्पादन अथवा एक श्रम के रूप में पहचानना सहज है। उसी के समान कार्य (श्रम) के साथ विनिमय होना स्वाभाविक है। ऐसी हर वस्तु का मात्रा और गुण के साथ श्रम  परिमापन मानव सहज उपलब्धि है और सुगम है। इसके साथ एक परिशीलन वस्तु अवश्य ही मानव के मन में आता है क्या प्रत्येक मानव का हस्तलाघव, निपुणता, कुशलता, पाण्डित्य एक सा हो पाता है? इसका उत्तर यही मिलता है कि परिवार में जितने भी समझदार व्यक्ति रहते हैं उनसे वह लक्षित कार्य पूरा होता ही रहता है। परिवार में एक दिन एक आदमी उत्पादन में कम पूरक हुआ, दूसरे दिन ‘यादा पूरक हुआ, इसकी नापतौल की आवश्यकता नहीं बन पाती। वस्तु उत्पादन कार्य को सीखने-करने में ‘यादा कम रहता है यही प्रधान मुद्दा है। किसी वस्तु के उत्पादन में अकेले से कुछ होता ही नहीं है। एक से अधिक लोगों के बीच में ही किसी वस्तु का उत्पादन संभव है। मूल्यांकन के लिए एक से अधिक व्यक्तियों का होना ही है। विनिमय के लिए और व्यक्ति परिवार की आवश्यकता ही है। व्यक्ति के सीमा में कोई उत्पादन का निर्णय नहीं होता। इस बात को पहले से ही स्पष्ट किया है हर मानव किसी न किसी मानवीयतापूर्ण परिवार में प्रमाणित होगा। हर मानव बहुआयामी अभिव्यक्ति है इसलिए उत्पादन-कार्य एक आयाम है। परिवार में लक्ष्य उत्पाद है न कि श्रम ‘यादा कम।

विनिमय कार्य विधि की यह सही बेला है। मानव ने पहले भी एक बार विनिमय का प्रयास किया। उस प्रयास में उत्पादन कार्य के मूल्यांंकन का आधार श्रम मूल्य नहीं रहा। उसके विपरीत लाभ मानसिकता उस समय में भी व्यापारी में बना रहा। लाभ मानसिकताएँ शोषण मूलक होते ही हैं। इसमें संग्रह-सुविधा का पुट रहता ही है। यह आज भी स्पष्टतया दिखाई पड़ता है। इस आधार पर मानव अपने व्यवस्था का अंगभूत अथवा  समग्र व्यवस्था के अंगभूत रूप में अर्थ और आर्थिक गति को पहचानने की स्थिति में यह पता लगता है कि अस्तित्व में सम्पूर्ण विकास सहज सीढ़ियाँ आवर्तनशीलता और पूरकता विधि सम्पन्न है। सह-अस्तित्व में निरंतर पूरकता और विकास ही समाधान के रूप में स्पष्ट है। इसी क्रम में मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा को पहचानने के उपरांत ही स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने की आवश्यकता को अनुभव किया और जागृतिमूलक विधि से ही परिवार मूलक स्वराज्य मानव सहज पद होना मानव का अभिलाषित, आकांक्षित और आवश्यकता के रूप में पहचाना गया। सर्वशुभ सर्वसुलभ होने के लिए आवर्तनशील अर्थव्यवस्था की समग्र व्यवस्था के अंगभूत कार्यक्रम होना देखा गया है। इसी विधि से पहला आर्थिक असमानताएँ समाप्त होते हैं और समृद्घि के आधार पर हर समझदार परिवार में प्रमाण सुलभ होना सहज है। दूसरा, प्रतीक मूल्य से छूटकर प्राप्त मूल्यों से तृप्त होने का सूत्र सहज रूप में रहा है उसमें जागृति प्रमाणित होती है। तीसरा, संग्रह का भूत संघर्ष के साथ शोषण के साथ जुड़ा ही रहता है, यह सर्वथा दूर होकर परिवार मानव के रूप में हर व्यक्ति अपने दायित्व, कर्तव्यों का निर्वाह करने का उत्सव सम्पन्न होने का अवसर सर्वदा समीचीन रहता ही है। चौथा, परिवार मानव विधि से ही स्वराज्य व्यवस्था उसके अंगभूत आवर्तनशील अर्थव्यवस्था गतिशील होने के क्रम में ही विश्व परिवार और व्यवस्था के साथ सूत्रित होने का कार्यक्रम मानव जागृति सहज वैभव के रूप में होना समझा गया। और यह इस तथ्य का द्योतक है समुदायों के सीमाओं में स्वीकृत प्रत्येक मानव दिशाविहीनता, लक्ष्यविहीनता फलत: सार्वभौम कर्तव्य विमूढ़ता से ग्रसित हो गया है। इस पीड़ा से छूटने का सर्वसुलभ कार्यक्रम और मार्ग प्रशस्त होना समीचीन है।

इस धरती में नैसर्गिकता के परिप्रेक्ष्य में इस धरती के साथ जुड़ी हुई अनंत ब्रह्मांडीय किरणों-विकिरणों का आदान-प्रदान रूपी अनुस्यूत वातावरणों के परिप्रेक्ष्य में सुखद सुन्दर ये धरा अपने में सजी-धजी थी। इन तीनों परिप्रेक्ष्यों के साथ मानव अपने ही भ्रमवश व्यक्त किए गए भय-प्रलोभन के आधार पर ही जितने भी विसंगतियाँ निर्मित किया है। विसंगतियाँ सदा ही पीड़ा का कारण होता है। यह तथ्य सबके समझ में आ चुका है। अस्तु, इन तीनों परिप्रेक्ष्यों में संगीतीकरण विधि को पहचानने का अवसर अभी भी समीचीन है। इस सौभाग्यमयी अवसर को सार्थक बनाने का मार्ग, विधि, ज्ञान, दर्शन, विवेक, विज्ञान, तर्क, निर्णय यह सब समग्र व्यवस्था में भागीदारीपूर्वक समाधानित होने का, सूत्र का अध्ययन और स्वीकृतियाँ अर्थात् संस्कार मानव के लिए समीचीन हो गया है। इसे जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शनज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरणज्ञान के रूप में पहचाना गया है।