Space, Direction, Distance, Expanse… (देश, दिशा, दूरी, विस्तार)
देश, दिशा, दूरी, विस्तार आयाम, कोण
*स्त्रोत = कर्मदर्शन संस #२, अध्याय ३, भाग १४
हर मानव इन सभी मुद्दों को जाँचना चाहते हैं। ज्ञान के लिए, समझने के लिए। दूरी का क्या मतलब क्या है? प्रयोजन है? इस पर हर मानव का ध्यान जाता ही है।
दूरी के मूल में मानव, मानव में समाहित आँख और आँख पर प्रतिबिबिम्बित विभिन्न वस्तुएं हैं। यह मूलत: स्थिति की स्वरूप हुई। मानव की आँखों में विभिन्न वस्तुएं प्रतिबिम्बित रहती हैं। मानव की भाषा के अनुसार, कुछ चीजें पास में दिखती हैं। कुछ दूरी में दिखती हैं। इसी आधार पर दूर-दूर में सूरज, चाँद, तारे को देखते हैं। पास-पास में धरती, हवा, जल, पहाड़, पौधे, कीड़े-मकोड़े, पशु पक्षी, मानव को देखते हैं। इस प्रकार से मानव के आँखों पर वस्तुएं सदा-सदा प्रतिबिम्बित रहती ही हैं। हम देख पायें तभी भी रहते हैं, न देख पायें तब भी रहते हैं। इन्हीं तथ्य के आधार पर दूरी और माप की व्याख्या दूसरों को समझाना भी चाहते हैं। स्वयं समझना भी चाहते हैं। दूर में हो, पास में हो, हर इकाई व्यापक वस्तु में ही समायी रहती है। समाये रहते हुए भी पास और दूर हमको दिखाई पड़ते हैं। इस विधि से दूरी का मतलब यह हुआ, सत्ता में डूबी हुई स्थिति का हम अनुभव करते हैं। इस आधार पर दूरी को नापने का तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि हम एक दूसरे के बीच में व्यापक वस्तु को ही नाप के रूप में पाते हैं। यह दो विधि से सम्पन्न हो पाता है। जैसा दूर-दूर में सूरज, चाँद, तारे को देखते हैं। इन्हीं दूरी को धरती पर दो ध्रुवों को अथवा दो शंकुओं को स्थापित कर इन दोनों के मिलन बिन्दु के रूप में सूरज, चाँद, तारे को एक लक्ष्य बना कर इन दोनों के विभिन्न कोणों के आधार पर, इन दोनों के मिलन बिन्दु के आधार पर दूरी का पता लगा देते हैं। इसका नाम है अज्ञात दूरी को ज्ञात करना। दूसरा विधि है, ज्ञात दूरी की ज्ञात करना। ऐसा घटना किसी भी रचना पर ही होना पाया जाता है। रचना ज्ञात रहता है। दूरी अज्ञात रहता है। जैसे धरती में एक किलोमीटर, दो किलोमीटर आदि अनेक प्रकार के हम नाप किया करते हैं। यह धरती स्वयं में एक रचना है। किसी एक शंकु में अथवा धु्रव बिन्दु से नाप शुरु करते हैं, जिसकी दूरी नापना है, वहाँ तक नाप लेते हैं। यह दूरी ज्ञात थी, उसको नाप लिया। नापने की क्रिया का हमको बोध होता है। जिसको नापा, इसका भी बोध होता है। अब नाप क्या चीज है। इसका भी बोध होना आवश्यक है।
भौतिक तुला में छोटी वस्तुओं को तौलने की जब मानव को आवश्यकता हुई, तब, भौतिक तुला के सूक्ष्मतम तौल को निश्चित बिन्दु मानकर उसके दशांश, शतांश के आधार पर विखण्डन विधि को, गणितीय विधि से, अपनाया। इसी क्रम में आगे बढ़ कर इलेक्ट्रानिकी, प्रौद्योगिकी विधि से एक-एक वर्ग इंच में लाखों विभाजन, लाखों में वर्ग को विभाजित कर संख्या करण कर लिया। इसके उपयोग को इलेक्ट्रानिक रिकार्डर के रूप में प्रयोग किया ही जा रहा है। आगे-आगे पीढ़ी के लिए प्रयोग करने के लिए ये सब उपलब्ध हैं। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई को मापने के क्रम में नापने वाला वस्तु किसी न किसी धातु अथवा लकड़ी से बनी रहती है। ऐसी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई अथवा सभी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई व्यापक में समायी हुई है, यह तथ्य हमें विदित है। एक वस्तु दूसरे वस्तु के बीच में जो कुछ मापते हैं, धु्रव से धु्रव के बीच में व्यापकता को ही मापे रहते हैं। इन दोनों के बीच दूरी को निश्चित दूरी मान लेते हैं, संख्याकरण कर लेते हैं। स्पष्ट भरोसा रखते हैं। यह ध्यान में लाने का मतलब यही है कि हम कुछ भी मापेंगे दूरी के रूप में, परस्परता के बीच व्यापक वस्तु ही है। इस प्रकार के सभी मापदण्ड के स्वरूप में व्यापक वस्तु को माप कर एक-एक वस्तु माप लिया ऐसा मानते हैं। जैसा लम्बाई, वैसा ही चौड़ाई, वैसा ही ऊँचाई है। जिसमें ही सारी इकाई आती है। जैसा यह धरती व्यापक वस्तु में डूबे, घिरे, भीगे रहने के आधार पर वस्तु के नाम पर वस्तु में ही हर वस्तु को ही मापे रहते हैं। सहअस्तित्व परम सत्य होने के कारण माप का प्रयोजन, प्रक्रिया सफल हो जाता है। इसी क्रम में तौल का कार्य भी सफल हो जाता है। विखण्डन प्रणाली भी मापदण्ड के आधार पर सफल होती है। मानव सौभाग्यशाली होने के आधार पर ही अर्थात् संयमशीलता पूर्वक जीने के आधार पर ही मानव सूक्ष्मतम संकेत से स्थूलतम संकेत तक के लिए, घटाने बढ़ाने के मापदण्डों को करतल गत कर चुके हैं। इस प्रकार मापदण्ड अंतत: स्वयं में किसी वस्तु का अथवा गति, दबाव, तरंग, शब्दों का सूक्ष्मतम, स्थूलतम गति, दबाव को चढ़ाने घटाने के रूप में पहचानने की विधियाँ हैं। ये ज्यादातर दूर संचार के लिए अनूकूल हुआ है।
विस्तार
(विस्तार अपने में रचना की अवधि के बराबर होता है।) कोई रचना, इकाई जितने दूर में फैली हुई है, वह उसका विस्तार है। रचना के मूल में यह तथ्य हमें विदित हो गया है कि परमाणु से अणु, अणुओं से अणु रचनाएं, छोटे, बड़े होने की बात स्पष्ट हो चुकी है। यह धरती जैसी अनेक धरती भी अणुओं से रचित रचनाएँ हैं। कई अन्य ग्रह गोल में भी इस धरती की तरह ठोस, तरल, विरल वस्तुयें हो सकती है। अनेक तरह के ग्रह, गोल हमारे आँखों के सम्मुख प्रतिबिम्बिति रहते ही हैं। हम यह भी जानते हैं, दूर-दूर में बहुत सारी धरतीयाँ हो सकती हैं। इस धरती के संबंध में भी कोने-कोने को पहचानने के लिए प्रयत्न हुआ। अन्य धरतीयों को पहचानने की इच्छा मानव में रहती ही है। इसके लिए प्रौद्योगिकी विधि से प्रयास काफी वर्षों से किया जा रहा है। यह सब अपने गति से प्रयासों के अनुपात से सम्भव होता ही रहेगा। मुख्य मुद्दा इस धरती पर मानव, परस्पर विश्वास के साथ पर रहने का है।
अपने विश्वास पर जीने के लिए पहले समझ चुके हैं – स्वयं में विश्वास होना है। श्रेष्ठता का सम्मान करने में, व्यक्तित्व की कसौटी में, प्रतिभा को प्रमाणित करने में, व्यवहार में सामाजिक होने, व्यवसाय में स्वावलम्बी होने से है। विश्वास प्रतिष्ठा हर मानव चाहता है। स्वयं में विश्वास का मतलब इतने में सार्थक होना पाया जाता है। तभी इस धरती पर सदा-सदा के लिए मानव परंपरा आश्वस्त होना बनता है।
इस धरती का विस्तार अपने में निश्चित हो चुका है। मानव के मापदण्ड से भी। धरती का स्थल अपने में स्वयं सिद्घ है। यह धरती, विभिन्न प्रजातियों के अणुओं का सह-अस्तित्व पूर्ण रचना स्पष्ट है। इस पर स्वयं में रासायनिक संरचनायें भी प्रकट होकर मानव शरीर पर्यन्त प्रमाणित हो चुकी हैं। मानव, शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में, पूरी धरती, अनेक ग्रह गोल, ब्रहमाण्डीय किरणों तक का अध्ययन करने का अधिकारी है। इन सब का उपकार मानव को उपलब्ध हो चुका है। इसी के साथ, मानव का अध्ययन मानव के लिए अधूरा ही रहा। इसी की आपूर्ति आवश्यक रही। इसके लिए समुचित विधि ज्ञान, विवेक, विज्ञान रूप में स्पष्ट हुई। इस क्रम में रचना के फैलाव को विस्तार के रूप में हम समझने लगे हैं। इस विस्तार को माप दण्डों के आधार पर संख्याकरण भी कर लिया। मील, किलोमीटर आदि संज्ञा से इस धरती के विस्तार मानव के लिए पर्याप्त सामग्री सहित प्रस्तुत है ही। इसी धरती के विस्तार के ऊपरी हिस्से में अटूट ऐश्वर्य प्रस्तुत है ही। सबसे प्रमुख ऐश्वर्य जंगल है। इन सबको बनाये रखने के लिए, ऋतु संतुलन की आवश्यकता पर ध्यान गया, जिसे पहले स्पष्ट कर चुके हैं। इसलिए धरती के विस्तार को समझते हुए, ऋतु संतुलन को बनाये रखने के लिए निष्ठा, प्रवृत्ति, सक्रियता आवश्यक है।
देश
इस विस्तार को ही हम देश के नाम से जानते हैं। प्रचलित विधि से, अनेक देशों का नाम पहचाना गया है। यदि हम पूरे ईमानदारी से सोचें तो किसी भी एक रचना का विस्तार ही देश होता है। जैसे, यह धरती अपने में एक निश्चित विस्तार संपन्न है ही। धरती स्वयं में, न तो विभाजित है, न विखण्डित है। इस धरती की अखण्डता अपने आप में सबको विदित है। इसके बावजूद अनेक देश, राज्य के नाम पर इसे विभाजित करने का प्रयत्न रहा है। इस धरती का अखण्ड होना, स्वयं में इस धरती पर मानव अपने को अखण्ड समाज के रूप में पहचानने का प्रेरणा भी है। मानव अपने अखण्डता को पहचानने के उपरान्त ही, इस धरती पर मानव के सुरक्षित होने की संभावना उदय होती है। मानव विखण्डित रहते तक धरती के क्षति ग्रस्त होते रहने की संभावना बनी है। अतएव धरती अपने में एक रचना होते हुए, इसी रचना में अविभाज्य रूप में विद्यमान सभी इकाईयाँ, धरती की अखण्डता के साथ जुड़े ही हैं। इसी प्रकार हर रचना, हर धरती की रचना अपने आप में इकाई संपूर्ण है। ऐसे अखण्ड धरती के उदाहरण के रूप में इस धरती को पहचान सकते हैं। धरती पर चारों अवस्था प्रमाणित हो जाय, विकसित धरती का अथवा विकासशील धरती का तात्पर्य यही है। इसी आधार पर इस धरती की रचना और उसकी महिमा, मानव को बोध होता है। अखण्डता विधि से मानव में, से, के लिए अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था अध्ययन व प्रमाणित करने की व्यवस्था मानव के लिए सुलभ हो गयी है।
इस धरती पर हर वनस्पति, जीव और मानव एक-एक रचना है। ये सब धरती के साथ ही वैभव हैं। ये सभी रचना की एक-एक अवधि हैं। हर धरती, पेड़, पौधे, जीव जानवर, मनुष्य अवधि गत रचना के रूप में प्रमाण हैं। ये सब अपने-अपने अवधि के आधार पर अवधियों को प्रमाणित कर रहे हैं। जैसे धरती का लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई को मापा जाता है। वैसे ही मनुष्य की लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई को मापा जाता है। इसी क्रम में पेड़, पौधे, पत्थर, मणि, धातु भी अपने-अपने ढंग की रचना होना, उसका माप तौल के साथ पहचान होना पाया जाता है। इस विधि से रचना की महिमा, रचना के साथ उसकी अवधि, इनमें परस्पर पूरकता और उपयोगिता अपने आप स्पष्ट होती रहती है।
रचना के आधार पर ही विरचना और पुन: रचना की बात स्पष्ट होती है। धरती अपने में रचना, इसकी निरंतरता के अर्थ में, विकास क्रम में विकास को स्पष्ट करने और जागृति को स्पष्ट करने के अर्थ में विद्यमान है। क्योंकि, इस धरती पर चारों अवस्थायें प्रमाणित हो चुकी हैं। धरती अपनी रचना तक सीमित रहती है। इस धरती पर सभी अवस्था और पद प्रमाणित हो चुकी है, शून्याकर्षण में वर्तमान हो चुकी हैं। इस आधार पर रचना अगर सम्पूर्ण वैभव संपन्न होता है, तब ये चारों अवस्थायें प्रकट हुआ करते हैं। चारों अवस्थाओं सहित इस धरती की महिमा और गरिमा सुस्पष्ट हो चुकी है। जैसे, धरती पर चारों अवस्थायें नहीं होते, तब मानव भी नहीं होता। मानव, होने के पश्चात् ही, भ्रमवश धरती विरोधी कार्य किया है। वहीं जागृति पूर्वक इस धरती के अनुकूल अर्थात् विकास और जागृति को प्रमाणित करने के क्रम में मानव अपने को व्यवस्थित कर लेना, प्रमाणित कर लेना, कार्य व्यवहार को स्पष्ट कर लेना आवश्यक व समीचीन है।
दिशा और दृष्टि
दिशा के संबंध में मानव सूर्य के सम्मुख खड़े हो कर आगे, पीछे, दाहिने, बायें के रूप में दिशा को पहचानना प्रचलित है। इसे नाम भी दिया जा चुका है- पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, यह भी प्रचलित है। इसके बाद दिशा के मूल उद्गमन और प्रयोजन के बारे में सोचना एक स्वभाविक क्रिया रही। हर मुद्दा सह-अस्तित्व में, से, के लिए ही निर्धारित होना पाया जाता है। इस प्रकार दिशा भी सहअस्तित्व के अर्थ में ही निर्धारित होना स्वभाविक है। सह-अस्तित्व में पूरकता, उपयोगिता विधि समाया ही रहता है। इस क्रम में दिशा को पहचानने के लिए किसी एक को धु्रव रूप में पहचानना आवश्यक है। जैसा मनुष्य को धरती के साथ हम धु्रव रूप में पहचानते हैं। एक बिन्दु अनेक अंशों का केन्द्र बना जाता है। केन्द्र से कुछ दूरी पर दो अंशों को सरल रेखा से जोड़ने पर कोण बन जाता है। इस विधि से प्रत्येक एक अनन्त कोण संपन्न होना समझ में आता है अंशों का संयोजन विधि से ही कोण होना स्पष्ट होता है।
उक्त प्रकार से हर वस्तु एक केन्द्र बिन्दु, हर केन्द्र बिन्दु में अनन्त अंश जुड़े रहते हैं। जैसा पहले 45 अंश को एक जुट में दूर-दूर तक फैलाने से एक वस्तु के सभी ओर 8 दिशा हो जाती हैं। इसी प्रकार 90 अंश के विभाजन विधि से 4 दिशा बन जाती है, 180 के विभाजन करने पर दो दिशा बन जाती है। इस प्रकार दिशा निर्धारण करने के लिए एक वस्तुयें अनेक अंशों के केन्द्र होने की विधि से समझ में आता है। दूसरी विधि यही है, एक वस्तु के सामने दूसरी वस्तु, धरती के सामने सूरज के बारे में पहले से ही हम जानते हैं। इन दोनों विधा से कोण (किसी केन्द्र के) अंशों के आधार पर स्पष्ट होता है। क्योंकि सूरज भी चांद भी अनन्त अंश का ही केन्द्र है। जब कभी सूरज के आधार पर दिशा निर्धारित होगी, सूरज के 90 अंश अथवा 180 अंश पर होगी। 90 अंश दिशा को पहचानने वाले के आधार पर बनता है 180 अंश दिखने के आधार पर बनता है।
देखने वाले के रूप में मनुष्य को हम पहचान चुके हैं। मनुष्य दृष्टि को जिस ओर दौड़ता है, वह दोनों आँखों के साथ 90 अंश ही बनता है, इसी का नाम दृष्टि पाट है। 90 अंश का शुरुआत बिन्दु में है। यह बिन्दु ठीक दोनों आँखों के पीछे, दोनों चक्षुओं के स्नायु जुड़ने वाली जगह पर ही होती है, यह मेधस तंत्र में ही स्थापित रहता है, भौतिक रासायनिक तंत्र के रूप में स्थापित रहता है। चक्षु तंत्र अपने में रासायनिक रचना तंत्र और जीवंतता सहित मानसिकता के साथ क्रियाशील रहता है। इसका मतलब यह हुआ कि मानव (जीवन) की उपस्थिति में ही दिशा, काल आदि बोध होने की बात किया जा सकता है। यांत्रिक विधि से भी यदि हम दिशा, काल संबंधी क्रिया करते हैं, तो उसमें भी पहले कही हुई सभी क्रियायें मानव से संबंधित रहते ही हैं। अतएव यंत्र प्रमाण के मूल में मानव ही प्रमाण है। स्वयं प्रमाण के मूल में भी मानव ही है, क्योंकि मानव ही प्रमाणित करने वाली इकाई है। किताब प्रमाण के मूल में भी मानव ही प्रमाण है। इस प्रकार मानव का प्रमाण विधि को समझने के क्रम में मानव चक्षु तंत्र को समझना भी आवश्यक रहता है।
दृष्टि पाट अपने में से हर मानव के चक्षु तंत्र में 90 अंश का विस्तार बनाती है। इसी क्रम में दृष्टि पाट में आने वाली सभी वस्तु निश्चित अच्छी दूरी में रहने पर उसका विस्तार चक्षु तंत्र द्वारा बोध हो पाता है। बोध होने की क्रिया जीवन में ही होती है। चक्षु तंत्र द्वारा भी मानव जीवन और शरीर का अविभाज्य रूप होने के आधार पर समझ में आता है। ऐसी वैभव संपन्नता एक आवश्यक प्रक्रिया है। यह हर मानव में शोध पूर्वक पहचाना जा सकता है अपने में भी, अन्य में भी।
दिशा, देश को पहचानने के लिए दृष्टि संपन्नता का होना एक अनिवार्य स्थिति है। इसके बिना दिशा निश्चयन, पहचान और उपयोगिता का प्रमाण संभव नहीं है। इसमें प्रधानत: दृष्टि के संदर्भ में, दृश्य को पहचानने के संदर्भ में, इन पहचानने के आधार पर उपयोगिता, पूरकता, प्रयोजन को प्रमाणित करने के संदर्भ में, मानव ही एक मात्र समर्थ इकाई है। मानव को दिशा को निर्धारित कर लेने की आवश्यकता इस धरती पर है। धरती से बाहर विद्यमान ग्रह गोल से भी वास्ता है। इस क्रम में आकाश में गतित होने के लिए भी दिशा निर्धारण एक आवश्यक स्थिति है। जल यात्रा में भी आवश्यक है। धरती पर गाँव से गाँव जाने के लिए दिशा निर्धारण अतिआवश्यक है। जागृतिक्रम, जागृति को पहचानने के लिए भी निश्चित दिशा चाहिए। इस प्रकार मनुष्य की प्रवृत्तियाँ बहु आयामी होने के आधार पर, बहु कोणीय होने के आधार पर, दिशा निर्धारण होने के आधार पर ही कार्य निर्धारण होना पाया जाता है।
भूचर, जलचर, नभचर विधि से हमें जहाँ गतित होना है, उसके लिए गम्य स्थली को निर्धारित करने की आवश्यक रहती ही है। ऐसे निर्धारण के उपरान्त ही निश्चित लक्ष्य, गम्य स्थली के लिए निश्चित दिशा विधि से ही पहुँच पाते हैं। इसे हर व्यक्ति, छोटे से छोटे, बड़े से बड़े मुद्दे पर परीक्षण कर सकता है।
इसके आगे यह भी सुस्पष्ट हो गया कि दृष्टि के बिना दिशा अपने में निर्धारित होती ही नहीं। दृष्टि के साथ ही दिशा निर्धारण हो पाता है। दृष्टि का केन्द्र मानव ही है। मानव में ही दृष्टि समाहित रहती है। चक्षु तंत्र के साथ-साथ सोच, विचार, साक्षात्कार, चित्रण सहित बोध, अनुभव क्रियायें मानव में संपन्न होती हैं। इसके लिए मानव में जीवन और शरीर के सह-अस्तित्व को पहचाने रहना आवश्यक है। इस मुद्दे पर पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है।
दृष्टि मानव में सह-अस्तित्व विधि से ही सभी आयाम, कोण, परिप्रेक्ष्यों में सार्थक होना स्पष्ट है। इसीलिए दृष्टि पूर्वक ही लक्ष्य, दिशा निर्धारण होना समझ में आता है।
कोण
कोण के संदर्भ में, किसी एक इकाई को एक केन्द्र बिन्दु के रूप में पहचानने के उपरान्त बिन्दु में अनेकानेक अंश समाया हुआ सुस्पष्ट हो चुका है। कितने भी अंशों की हम परिकल्पना कर सकते हैं, उससे अधिक अंश एक बिन्दु में जुड़ा ही रहता है। ऐसे जुड़ी हुई निश्चित बिन्दु पर समानान्तर रेखा (आधार रेखा) को जोड़ने वाली लक्ष्य रेखा को स्थापित करने पर कोण स्पष्ट हो पाते हैं। हर दो अंशों को जोड़ने पर निश्चित अंशों का कोण बन ही जाता है। इस प्रकार हरेक में एक से अनन्त कोण समाया ही है। सीधा, समकेन्द्रीय रेखाओं के आधार पर ही अंशों का पहचान होता है। समकेन्द्रीय रेखा का मतलब एक बिन्दु से जुड़ी हुई सभी ओर फैली हुई रेखा है, इसको अंश विभाजन रेखा के नाम से पहचाना गया है। इसी विधि से समकेन्द्रीय रेखा, एक बिन्दु में बहुत सारा जुड़ा हुआ, चित्र को हम हर व्यक्ति बना सकते हैं। ऐसे परस्पर रेखाओं की जैसे-जैसे केन्द्र से दूरी बढ़ती है, वैसे-वैसे परस्पर रेखा की दूरी भी बढ़ती जाती है। इसी क्रम में दृष्टि पाट की पहचान हो जाती है। स्पष्ट भी होती है, स्वीकार भी होती है। अंश, कोण, विस्तार, दूरी ये सब मानव दृष्टि के गम्य तथ्यहै ? इसीलिए मानव की दृष्टि को आधार में रखते हुए, हर तथ्यों को पहचानने की विधि बनती है। इसी प्रकार दूसरे विधि से किसी समतल रचना पर दो धु्रवों को पहचानने के अनंतर, इसी समझ के आधार पर तीन धु्रवों को पहचानने के अनंतर, धु्रवों को धु्रवों से जोड़ने पर कोणों का पहचान होती है। हर कोण किसी न किसी निश्चित संख्यात्मक अंशों का चित्र होना पाया जाता है। इस प्रकारदिशा दिशा और कोण दोनों स्पष्ट होते हैं। इसी के साथ दूरी भी स्पष्ट होती है।
आयाम
हम आयाम संबंधी भाषा प्रयोग करते ही आये हैं। कोई भी एक वस्तु छ: ओर से सीमित होते हुए, तीन आयाम की ही बात करते हैं। इसमें भी मानव की दृष्टि ही प्रधान आधार है। किसी भी वस्तु के छ: ओर मानव के आखों में प्रतिबिम्बित होने के लिए कम से कम तीन प्रकार (ओर) से देखने की आवश्यकता बनी रहती है। इसी को हम तीन आयाम कहते हैं। इकाई अपने स्वरूप में व्यापक वस्तु में भीगी, डूबी, घिरी है। व्यापक वस्तु पारदर्शी होने के आधार पर मानव के दृष्टि पाट में वस्तु का अवस्थिति, परिस्थिति और वस्तुओं का प्रतिबिम्ब चक्षु में होने को दृग बिन्दुओं के रूप में देखा जा रहा है। दृग बिन्दु के रूप में प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तुयें अपने संपूर्ण आकार आयतन का 180 अंश तक मानव के चक्षु पर प्रतिबिम्बित हो सकते हैं, इससे ज्यादा नहीं हो पाते हैं। चक्षु पर प्रतिबिम्बित होने वाली सभी वस्तुएं,अपने में से आंशिकता को ही प्रतिबिम्ब रूप में होना, परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक कर सकता है। इसे हर मानव प्रयोग कर सकता है। प्रयोग के लिए विविध वस्तुयें मानव के सम्मुख रखा ही है। इसमें एक मानव, मानव के सम्मुख खड़े होकर होकर देखने पर लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई और बनावट संबंधी, निश्चित अच्छी दूरी से देखने पर, 180 अंश अर्थात् मानव रुपी वस्तु का आधा भाग ही दिखता है। बाकी आधा भाग ओझिल ही रहता है। इस प्रकार आँखों से जो दिखता है, वह अधूरा है। आँखों से देखकर केवल उसके आधार पर जो निर्णय करते हैं, वह भी अधूरा है। इस पर आधारित जितने भी कार्यक्रम हैं, उनका भी अधूरा होना स्वभाविक है। मानव अपने तृप्ति पाने के क्रम में अधूरापन को स्वीकारता नहीं। इस मुद्दे पर पहले ही सामान्य रूप में स्पष्ट किया जा चुका है कि गणित आँखों से अधिक, समझ से कम है। अर्थात् गणित भाषा से जो बोध होता है, वह आँखों से अधिक होता है, जबकि आँखों के आधार पर भी बोध होने की बात कहीजाती जातीहैं है, अथवा चित्रित होने की बात आती है। चित्र भी नजर के आधार पर बना रहता है, वह भी अधूरा रहता है। चित्र में आकार आयतन का 180 अंश ही दिख पाता है। नजरों में भी 180 अंश ही समा पाता है। जबकि गणितीय भाषा से जो बोध होता है, वह आकार, आयतन का पूरा बोध कराता है। आँखों में घन का कोई प्रतिबिंबन होता ही नहीं। इसके आगे यह भी स्पष्ट किया है कि गणितीय विधि से जो कुछ भी हमको समझ में आता है, उससे अधिक गुणात्मक और कारण भाषा से समझ में आता है। क्योंकि हर वस्तु की संपूर्णता रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का समु’चय है। रूप, गुण, स्वभाव, धर्म संबंधी व्याख्या पहले किया जा चुका है। मानव में, से, के लिए हर वस्तु का बोध रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के साथ ही संपूर्ण बोध और तृप्ति का कारण बन पाता है। इनमें से कोई भाग ओझिल रहने से मानव को तृप्ति होना संभव नहीं है। सम्पूर्ण समझ के आधार पर लिया गया निर्णय और कार्य व्यवहार समाधान कारक होगा। यह बात समझ में आती है। समस्या को मानव स्वीकारता नहीं। समाधान को स्वीकारता है। हरदिशा, दिशाबन, कोण, आयाम में संपूर्णता के आधार पर लिये गये निर्णयों के साथ समाधान र्निगमित होता है। इसे भले प्रकार से हर मानव जाँच सकता है।
उक्त प्रकार से आँखों के आधार पर निर्भर होकर जितने भी प्रयोग, निर्णय मानव जाति ने किया है, वह सब परिणामत: अनगिनत समस्या का स्वरूप हो चुका है। यंत्र प्रमाण, आँखों से अधिक हो नहीं सकता। यही सबसे बड़ा प्रमाण है। विज्ञान की चेष्टा आँख को प्रयोग करना, आँखों को और ज्यादा सूक्ष्मतम रूप में देखने के लिए औजारों को बना लेना, कर्माभ्यास में आ चुका है। अर्थात् पावरफुल लैंस, लाखों-करोड़ों गुणा बड़ा दिखाने वाला, अरबों-खरबों गुणा दिखाने के लिए इलेक्ट्रानिक लैंस भी प्रयोग में आ चुकी है। इन सबके उपरान्त भी आँख में जो होता है, आँख को अरबों गुणा कारगर बना ले, अर्थ उतना ही निकलता है। इसीलिए ज्ञान, विज्ञान, विवेक संयुक्त विधि से सहअस्तित्ववादी नजरिया से संपूर्ण को पहचानना कारण, गुण, गणितात्मक भाषा से संप्रेषित हो पाना, बोध हो पाना, फलस्वरूप मानवाकाँक्षा, जीवनाकाँक्षा रुपी लक्ष्य को पाना ही एक मात्र आवश्यकता है। इस पर तुलने के लिए दिशा और दृष्टि बहुत आवश्यकीय क्रिया है। दिशा को हम इस प्रकार से समझे-भौगोलिक विधियों से दिशा को हम जानते ही हैं, खगोलीय विधि से भी दिशा को जानते हैं। अब इसके साथ और दो भाग जो ओझिल हैं- विकास की दिशा और जागृति के लिए दिशा की पहचान होने की आवश्यकता है। विकास के लिए दिशा रासायनिक, भौतिक और जीव संसार के साथ पूरकता और उपयोगिता विधि से अपने कार्य व्यवहार अर्थात् मानव अपने कार्य व्यवहार को निर्णीत करना ही और आचरण में लाना ही, फल परिणाम को पाना ही, विकास की दिशा का मतलब है। जागृति दिशा का तात्पर्य भी यही है कि समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी पूर्वक मानव में संगीत को, सामरस्यता को प्रमाणित करना, जीवनाकाँक्षा और मानवाकाँक्षा को प्रमाणित करना है। इन दोनों मुद्दों पर मानव को सफल होने की आवश्यकता है। इसके लिए सहअस्तित्ववादी नजरिया ही नित्य समाधान है।
मानव संतुष्टि की नजरिये से रूप, गुण, स्वभाव, धर्म रुपी आयामों को स्पष्टता से हृदयंगम करने के उपरान्त ही हर मानव विकास और जागृति के संदर्भ में समाधानात्मक निर्णय संपन्न होना, फलस्वरूप जागृति और विकास की दिशा में सार्थक हो पाना होता है। यही सारांश है।