Quantity (मात्रा)
मात्रा
(*स्त्रोत = कर्म दर्शन संस २, अध्याय ३, भाग ९)
एक-एक के रूप में जो वस्तु विद्यमान है, वस्तु का तात्पर्य वास्तविकता को व्यक्त करने से है। वास्तविकतायें रूप, गुण, स्वभाव, धर्म तक एक दूसरे के साथ अविभाज्य रूप में वर्तमान हैं। अर्थात् मात्रा के साथ रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रूप में व्यक्त है। व्यक्त होने के मूल में सहअस्तित्व की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन है। सहअस्तित्व में प्रत्येक एक इकाई, व्यापक वस्तु में डूबा, भीगा, घिरा होने के रूप में स्पष्ट हो चुका है। व्यापक वस्तु संपूर्ण एक-एक में पारगामी और पारदर्शी होना भी स्पष्ट हो चुका है। प्रत्येक एक-एक व्यापक में भीगे रहने के फलस्वरूप ही ऊर्जा सम्पन्न, चुम्बकीय बल सम्पन्न होना पाया जाता है।
प्रत्येक परमाणु ही मूल मात्रा है। ऐसे अनेक परमाणुयें अणु के रूप में, अनेक अणुयें अणु रचना के रूप में, ऐसे रचनायें पदार्थ व प्राणावस्था के रूप में होना भी पहले से स्पष्ट किया है।
मूल मात्रा परमाणु होना इसलिए स्पष्ट हुआ है कि इकाई जो परिभाषित होती है यह स्वयं में व्यवस्था हो और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करती हो। इकाई व्यवस्था में न हो ऐसी इकाईयों में भी व्यवस्था में भागीदारी की प्रवृत्ति होना पायी जाती है जैसा परमाणु अंश और भ्रमित मानव। परमाणु अंश स्वयं में व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर पाता अर्थात् निश्चित आवश्यकता को व्यक्त नहीं कर पाता इसलिए हर परमाणु अंश, परमाणु में भागीदारी करने, फलत: व्यवस्था को प्रमाणित करने के अर्थ में प्रवर्तनशील है। इसका प्रमाण यह है कि हर परमाणु अंश किसी न किसी परमाणु में समा जाता है। अथवा एक से अधिक परमाणु अंश एक दूसरे को पहचानते हुए परमाणु के रूप में कार्यरत हो जाते हैं, फलत: निश्चित आचरण ही व्यवस्था के रूप में ख्यात होता है। इससे पता चलता है कि परमाणु अंश एक दूसरे को पहचानते हैं और निर्वाह करते हैं।
जैसा परमाणु अंश एक दूसरे को पहचाने बिना व्यवस्था में नहीं होता है, वैसे ही मानव मानव को पहचाने बिना व्यवस्था में जीना होता ही नहीं। मानव को पहचानने का एक ही सूत्र है – मानवत्व। मानवत्व ही आधार है, जो सर्व मानव को मानव के रूप में पहचाना जा सकता है। मानवत्व अपने स्वरूप में मानव परिभाषा का स्वरूप ही है। मन: स्वस्थता के अर्थ में ही विज्ञान विधा से भी मन:स्वस्थता का सूत्र रूप विश्लेषित और निर्धारित रहना आवश्यक है। ऐसा निर्धारण, मानव लक्ष्य के अर्थ में ही होना आवश्यक है। इसी क्रम में सहअस्तित्व वादी विधि से हम समझ चुके हैं कि मानव को अपनी आवश्यकता को सुदृढ़ रूप में पहचानने की आवश्यकता है ही। इस आवश्यकता की निश्चयता अर्थात् मानवीयतापूर्ण आवश्यकता की निश्चयता-समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व रूपी मानवत्व को प्रमाणित करने के रूप में होना पाया जाता है। इसका मतलब यही है कि हम मानव, मानवीय लक्ष्य को प्रमाणित करने के क्रम में ही, मानवीयता पूर्ण आचरण को स्पष्ट कर पाते हैं। मानवीय आवश्यकता निर्धारित होना, जानने का द्योतक है। जानना ही प्रमाणित होने का सूत्र व्याख्या है।
मात्रा सिद्घान्त भी मूल में इन्हीं अर्थों से अनुप्राणित रहना स्वभाविक है। इसलिए एक से अधिक अंश एकत्रित होकर कार्य करते हुए, अर्थात् आचरण करते हुए, परमाणुओं की अनेक प्रजातियाँ उनके आचरण के आधार पर पहचानने योग्य रहती हैं। इसे मानव पहचानता है, मानव सहज अर्हता की यह गरिमामय स्थिति बनती है। इसके मूल में जानना, मानना का पुट ही रहता है। इसी प्रकार प्राणकोषाओं से रचित रचनाओं में भी प्राणकोषाओं का रचना निश्चित रहना होता है। इसका प्रमाण ही है अनेक प्रजातियों की वनस्पतियों की रचना, इन सब में बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज तक अनुप्राणित रहना अर्थात् एक बीज से वृक्ष तक प्रेरणाएँ, वृक्ष से बीज तक प्रेरणायें, उन्हीं बीज वृक्ष में समायी रहती हैं। इन्हीं उभय प्रकार की प्रेरणा में उन प्रजाति के वृक्षों के आवश्यकता को स्पष्ट कर दिया है। इस प्रकार हम मानव किसी भी वस्तु को सुदृढ़ रूप में पहचानते हैं, उसका आधार सुदृढ़ आवश्यकता ही रहता है। इसी प्रकार चींटी से हाथी तक, कुत्ते से बिल्ली तक, गाय, बाघ, मुर्गी, कीट आदि के आचरण के बारे में मानव आश्वस्त हो गया है। इनके साथ आवश्यक विधि को मानव अपनाया भी है। यह आवश्यक विधि मानवेत्तर संसार तक प्रकारान्तर में सम्पन्न हुआ जैसा लगता भी है। जब उसी क्रम में मानव, मानव को पहचानने की स्थिति में आते हैं, तब हम संदिग्धता को महसूस करते हैं कि हम पहचान पा रहे हैं कि नहीं। इस संदिग्धता के लिए मानव परंपरा में जातिगत, विचारगत, संप्रदायगत, पद और पैसा से संबंधित विधि से विवाद बना रहता है। फलस्वरूप द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्घ प्रभावशील है। प्रभावशील होने का तात्पर्य ये दुर्घटनायें घटित होती रहती हैं।
मानव अपने को यदि मात्रा ही माने, तब भी क्या मानव की आवश्यकता स्पष्ट हुई है ? केवल मात्रा ही मानकर सोचने पर भी ऐसा लगता है, हम मानव स्वयं की आवश्यकता को निर्धारित नहीं कर पाये इसी कारण आवश्यकता अनिश्चित बनी रही और आवश्यकता के आधार पर भी हम व्यवस्था की सार्वभौमिकता को, उसके ध्रुवों को पहचान नहीं पाये। मानवत्व का एक ध्रुव मानव अपने आवश्यकता ही है, जो व्यवहार में, उत्पादन कार्य में, व्यवस्था में भागीदारी करने के रूप में प्रमाणित होता है।
मानव आवश्यकता स्वयं में सुस्पष्ट है – समाधान, समृद्घि, अभय, सह-अस्तित्व। इसका प्रमाण मूल्य, चरित्र, नैतिकता रूपी मानवीय आचरण पूर्वक सफल होता है। इसको प्रयोग करके देखा गया। यह और कोई विकल्पात्मक विधि से प्रमाणित होता नहीं। इसलिए यही मानव लक्ष्य और आचरण है। इसे सार्वभौम रूप से अथवा सर्वमानव में सफल करना ही अथवा होना ही जागृत मानव परम्परा का वैभव है। मूल्य, चरित्र, नैतिकता को प्रमाणित करने के रूप में मानव अपने से कुछ न कुछ करता ही रहा है। क्यों न ऐसा सोचा जाय कि मानव आवश्यकता के अर्थ में यह सब करना हो जाय। ऐसा निश्चय हर व्यक्ति कर सकता है। किसी आयु के अनंतर ऐसा निश्चय होने की आवश्यकता महसूस होती हुई भी देखने को मिलती है। सर्वाधिक मानव 12-14 वर्ष के आयु से 20 वर्ष के बीच सर्वाधिक रूप में, सर्वाधिक मानसिकता के रूप में समाज में न्याय, सबके अनुकूल व्यवस्था, सबको सुख मिलने की अपेक्षा, ये बनाये रहता है। परन्तु, इस मानसिकता की, किसी खेमें से जुड़कर शनै:-शनै: हत्या हो जाती है अर्थात् ये कुंठित हो जाते हैं। इसके बाद यही शेष रह जाता है, जिस संप्रदाय वर्ग मानसिकता से प्रतिबद्घ रहते हैं, अथवा माने रहते हैं उसी को हम सही मान लेते हैं, उचित मान लेते हैं। फलस्वरूप, परस्परता में द्रोह विद्रोह वाली शोषण युद्घ वाली बातों में तुल जाते हैं।
सर्वमानव किसी आयु में सर्वाधिक लोगों के लिए अर्थात् सर्वमानव में शुभ चाहते रहे, इसके पुष्टि में सह अस्तित्व रूपी अध्ययन में इसकी संभावना सुलभ हुई है। अभी एक ही मनुष्य, किसी आयु तक सबका अथवा ज्यादा लोगों का सुख चाहता और कुछ अधिक आयु के अनन्तर अपने परिवार, स्वयं की सुविधा संग्रह पर तुल जाने के रूप में देखने को मिलता है। इनमें सन्तुलन स्थापित करने के लिए मध्यस्थ दर्शन (सह-अस्तित्ववाद) के अनुसार शिक्षा सुलभ अर्थात् सह-अस्तित्ववादी शिक्षा का लोकव्यापीकरण करने की आवश्यकता है। संतुलित बिन्दु में लाने के लिए सहअस्तित्ववादी विधि को अपनाना ही होगा।
सभी वस्तुयें अपने सूक्ष्म रूप में, परमाणु के रूप में मूल मात्रा है। रचना के रूप में बड़े-छोटे इकाईयों के रूप में हमें उपलब्ध है, खनिज के रूप में उपलब्ध है। इन उपलब्धि के साथ हमारे भविष्य की डोरी बंधी रहती है। आज हमने जो कुछ भी आचरण किया, कार्य-व्यवहार किया, अव्यवस्था में आचरण किया, इसका फल परिणाम आज न हो, वर्षों में भी हो, हमें भोगना ही पड़ेगा। इस प्रयत्न से यह भी समझ में आता है कि वर्तमान में हमें सदा-सदा के लिए समझदार होना ही है। समझदार रहने के लिए आवश्यक है कि समझदारी परंपरा को बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील भी रहना है। यही मानव की स्थिति-गति का मतलब है।
हर मात्रा में स्थिति-गति एक स्वभाविक क्रिया है। स्थिति, गति के संयुक्त रूप में ही हर क्रिया को पहचाना जाता है। वस्तु के आचरण को पहचाना जाता है, गति में आचरण स्थिति में फलन बना रहता है। यही यथास्थिति का स्वरूप है। इसी में यथास्थिति का सूत्र, व्याख्या समाया रहता है। जैसे लोहे में कठोरता भौतिक आवश्यकता है। उसके स्थिति गति में ही इसका प्रमाण हो पाता है। लोहा का उपयोग करना उसका गतिशीलता का तात्पर्य हुआ। जैसा मानव अपने शक्ति को, बल को प्रभावित कर लोहे का परीक्षण करता है, तभी लोहे के प्रति विश्वास हो पाता है। इसमें मानव काफी सफल हो चुका है। बहुत सारी वस्तुओं के साथ परीक्षण-निरीक्षण किया जा चुका है। निश्चय को पाया गया है, इस निश्चयता के आधार पर अनेक प्रौद्योगिकी कार्यशील रहना देखा जा रहा है। इन्हीं में किसी प्रौद्योगिकी में भागीदारी करने की इच्छा से ही तकनीकी शिक्षा को हम आचरण करते हैं। इसमें सार्थकता भी दिखायी पड़ती है। इसका प्रमाण अनेक लोग प्रौद्योगिकी में भागीदारी करते हैं। प्रौद्योगिकी विधा में अनेक लोग सफल होते हुए भी मन: स्वस्थता में प्रमाणित होना अभी तक बना नहीं। मन:स्वस्थता के विधा में प्रमाणित होने के लिए मानव को पहचानना प्रधान हो जाता है। मानव को पहचाने बिना मन: स्वस्थता का प्रमाण होता नहीं है। मानव का पहचानना समाधान, समृद्घि पूर्वक जीता हुआ, न्याय को प्रमाणित करने से ही होता है। न्याय अपने में संबंध मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति के रूप में स्पष्ट होना पाया जाता है।
स्वयं मानवीयता पूर्ण आचरण किये बिना दूसरे मानव में मानवीय आचरण को पहचानना बना ही नहीं। इसका प्रयोग इस प्रकार से किया जा सकता है। एक व्यक्ति जो मानवीय आचरण करता है, और दूसरा भी करता है, इनकी परस्परता में कार्य व्यवहार को आंकलित किया जाय और प्रयोग अनुसंधान को भी आंकलित किया जाय तो मानवीय आचरण का मूल्यांकन परस्परता में हो पाता है, मूल्यांकन परस्परता में ही होगा स्पष्ट हो जाता है। इसी क्रम में आगे एक व्यक्ति मानवीय आचरण करता है, दूसरा करता नहीं, उस स्थिति में करने वाले को स्वयं में विश्वास रहता है, न करने वाले को स्वयं में विश्वास रहता नहीं। तीसरी स्थिति यही है – दोनों मानवीय आचरण करते नहीं है, तब व्यसनों के संवाद में, व्यसनों में सहमत होने की बात आती है, अपराधिक कार्य, अपराधिक विचारों में कुछ-कुछ सहमत होने और असहमत होने वाली स्थिति आती है, इस प्रकार जाँचने से कोई निष्कर्ष निकलता नहीं है।
उक्त घटनाओं से हमें यह पता लगता है कि हर जागृत मानव अपने में व्यवस्था रूपी आचरण पूर्वक ही अपनी पहचान बनाये रखता है। यही यथास्थिति का निश्चयन है। यथास्थितियों का निश्चयन विधि से हम यह अध्ययन कर चुके हैं। पदार्थावस्था का निश्चयन, प्राणावस्था, जीवावस्था का निश्चयन विधियाँ विश्वास योग्य हो चुकी हैं। मानव अभी तक इन तीनों अवस्थाओं में विश्वास किया है, उसी के आधार पर अपने ढंग से सफलता भी पाया है। अपने ढंग का मतलब संग्रह सुविधा के अर्थ में सफलता को प्राप्त कर चुका है। भले ही सबको संग्रह सुविधा न मिला हो। इस प्रकार हम मानव अपने आवश्यकता को सुदृढ़ रूप में, परिपक्वता विधि से, प्रमाणित करने के क्रम में ही अखण्ड समाज तक पहुँचने की संभावना है। अखण्ड समाज सूत्र सार्थक होने के उपरान्त ही सार्वभौम व्यवस्था व्याख्यायित होता है। यही विज्ञान और विवेक का सार्थक कारगर स्वरूप होगी। इस क्रम में हमारे ध्यान देने का मुद्दा मानव, मानवत्व, मानवीयता पूर्ण आचरण, अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र, व्याख्या का अध्ययन है। इन अध्ययन कार्यों में एक प्रधान मुद्दा यह है हर मानव का क्या प्रयोजन है। हर मानव का प्रयोजन यही है आचरण में सुदृढ़ता। इसके अनंतर प्रयोजन है, व्यवस्था में प्रमाण आचरण का। इसके बाद प्रयोजन की अंतिम ऊँचाई है सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी।
अभी मानव सबको पहचानते हुए मानव को पहचानने की विधा में सर्वाधिक पिछड़ा हुआ है। इसकी भरपायी ज्ञान विज्ञान विवेक पूर्ण कार्य व्यवहार से कर सकते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि तीनों अवस्था की इकाईयों में अपने त्व सहित व्यवस्था एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित हो चुकी है। इसी के फलन में मानव मनाकार को साकार करने में सफल हुआ। लोहा अपने व्यवस्था में अचूक रहना, मिट्टी, पत्थर, मणि, धातु सब अपने-अपने आचरण में अचूक रहते ही हंै। इसी आधार पर मानव इनके साथ अपने सामाजिक महत्वाकांक्षाओं संबंधी प्रौद्योगिकी व्यवस्था को अथवा उत्पादन को समृद्घ बना पाया। यदि ये सब मानव जैसा परस्पर झगड़ालू, मतभेद, विरोध, विद्रोह करने लगते तब क्या होता ? यदि इसी प्रकार अन्य प्रकृति भी अपने आचरण में स्थिरता निश्चयता नहीं रखती तो क्या होता ? किसी भी मानव का मनाकार को साकार करने की संभावना नहीं रहती। क्रमागत विधि से तीनों अवस्थायें अपनी-अपनी यथास्थिति के अनुसार निश्चित आचरण के रूप में प्रकट रहना मानव के लिए सार्थक रूप बनी। परन्तु, मानव अन्य प्रकृति के साथ जीकर सार्थक होने के लिए, मन:स्वस्थता को प्रमाणित कर ही नहीं पाया। प्रमाणित किये बिना मानव का मनुष्येत्तर सभी प्रकृति के साथ पूरक होना संभव है ही नहीं। इतना ही नहीं, मानव मानव के साथ पूरक हुए बिना अन्य प्रकृति के साथ पूरक होना बनता ही नहीं।
सहअस्तित्ववादी नजरिये से विज्ञान की क्रिया, प्रक्रिया, सार्थकता सुनिश्चित होती है क्योंकि सहअस्तित्ववादी विधि से विज्ञान का प्रयोजन मानव लक्ष्य सार्थक होने के लिए दिशा निर्धारित करना है। मानव का लक्ष्य समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व होने के कारण यह सर्व मानव में सार्थक होने की दिशा और शिक्षण के तौर तरीकों को निर्धारित करना ही विज्ञान और विवेक का प्रयोजन है।
ऐसे लक्ष्य निर्धारित करने की विधि से विज्ञान का महत्व है। इस विधि से विवेक और विज्ञान का नजरिया और कार्य दोनों स्पष्ट हुआ। यह इस आशय को भी स्पष्ट करता है कि मानव का आचरण निश्चित होने के पक्ष में –
- विज्ञान, विवेक के अर्थ में सार्थक हो जाये।
- विवेक और विज्ञान, ज्ञान के अर्थ में सार्थक हो जाये।
- ज्ञान, विज्ञान और विवेक, सहअस्तित्व के अर्थ में सार्थक हो जाये।
- ज्ञान सहअस्तित्व के अर्थ में हो जाये।
यही अनुभवमूलक सहअस्तित्ववादी ज्ञान, विज्ञान, विवेक का अर्थ है।
मात्रा मूल स्वरूप में, एक व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी करता हुआ, इकाई के रूप में पहचाना जाता है। ऐसा यह एक से अधिक अंशों के गठन के रूप में आरम्भ होता है, जिसका आकार (परिणाम) निश्चित होता है। आकार (परिणाम) के निश्चितता के पक्ष में बहुत सारा उदाहरण प्रस्तुत हो चुका है। अब यहाँ रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के प्रति स्पष्ट होना आवश्यक है। हर रूप आकार, आयतन, घन के रूप में स्पष्ट है। आकार का मतलब जैसा बना हुआ रहता है, साथ में जितने जगह में फैला रहता है, कार्य करता है अर्थात् स्थिति रहता है। जैसा एक परम्परा के बारे में सोचा जाये, कितने जगह में क्रियाशील रहता है। वैसे ही आगे अनेक अणु से बनी रचनाएं चाहे बहुत बड़ी हों, छोटी हों, इसका रूप जिस आकार में बने रहते हैं, जितना जगह घेरे रहते हैं, इसके आधार पर रूप का पहचान होता है। इसमें से आकार क्या है, आकार कैसे है का पक्ष बनावट से है, आयतन का अर्थ घिराव (फैलाव) से है। घेरने का तात्पर्य व्यापक वस्तु में सभी ओर से सीमित रहने से है, दूसरी विधि से लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई से भी है। इन विधियों से हम आकार को पहचान पाते हैं, ऐसे प्रत्येक आकार अथवा इकाई सभी ओर प्रतिबिम्बित रहता है। इकाई के सभी ओर स्थित इकाईयों पर आशित इकाई का प्रतिबिम्ब रहता ही है। इस प्रकार से एक दूसरे के पहचान की विधि बनी रहती है। पहचान विधि को बनाने की जरूरत नहीं है। इस विधि से हर वस्तु, हर वस्तु पर प्रतिबिम्बित रहता ही है। हर वस्तु प्रकाशमान है।
उक्त विधि से सोचने पर यह प्रश्न निर्गमित हो सकता है, क्या एक दूसरे को पहचानने के लिए प्रकाश की जरूरत नहीं है ? जैसा सूर्य प्रकाश धरती पर उपलब्ध है। इसका उत्तर यही है, हम अभी मानव जो कुछ भी प्रकाश पहचानते हैं, आँखों से प्रकाश को पहचानने के आधार पर ही है। जबकि, सभी वस्तु प्रकाशमान है ही। इसका कारण यही है, हर परमाणु में श्रम, गति, परिणाम रूपी क्रिया बना ही रहता है। गति के फलन में शब्द, ऊष्मा, विद्युत, तरंग प्रकट हुआ रहता है। क्रिया के मूल में ऊर्जा सम्पन्नता और चुम्बकीय बल सम्पन्नता स्वयं सिद्घ रहता ही है। इन चारों प्रकार की बल सम्पन्न इकाई के वैभव को विद्यमानता और प्रकाशमानता के रूप में प्रकाशित किये रहते हैं अर्थात् प्रकाशित रहते हैं। इससे हमें यह समझ में आता है कि हर वस्तु प्रकाशमान है। प्रकाशमानता का साक्ष्य प्रतिबिंबन के रूप में इकाई के सभी ओर होना सुस्पष्ट हो चुका है। एक दूसरे को पहचानने के लिए प्रतिबिंबन ही आधार है, यह तथ्य समझ आ चुका है। इसके लिए किसी भी एक कमरे में किसी वस्तु को रखें, स्वभाविक रूप में सभी ओर से हम बैठें, वह वस्तु हम सबकी नजरों में आता ही है। दूसरी विधि से, हमारी आंखें, चक्षु रचना के अनुसार अधिक प्रकाश के बिना अंधेरे कमरे में कोई चीज दिखता नहीं। कमरे में रखी वस्तु का प्रतिबिंबन में कोई गति होती नहीं। यह इस विधि में समझ में आता है, रात्रि बेला से संचालित होने वाले उल्लू और सदृश्य आँख वाले जीव जानवर उनके आवश्यकीय वस्तु को पहचानते ही है। जैसे उल्लू, चमगादड़ फलों को पहचानते ही हैं, हिरण घास को पहचानता है। जबकि, मनुष्य नहीं पहचानता है। मनुष्य के न पहचानने मात्र से वस्तु अपने को प्रस्तुत करने में त्रुटि करेगा ऐसा भी नहीं हुआ, पहचानने वाले और कोई नहीं है, ऐसा भी नहीं हुआ। हाथी, चींटी, उल्लू को भी दिखता है, इस बात पर विचार किया जा सकता है। शोध विधि से निष्कर्ष निकलता है कि उनकी-उनकी आवश्यकतानुसार आँखे बनी रहती हैं। उसी प्रकार पाँचों संवेदनाओं का आधार बना रहता है क्योंकि आँख से कुछ, नाक से कुछ, जीभ से कुछ, त्वचा से कुछ, कान से कुछ पहचानने की व्यवस्था जीवन्त आदमी में बनी हुई है। इसी प्रकार की व्यवस्था सभी जीव जानवरों में जरूर होगी, ऐसा सोचा जा सकता है। जैसा मेंढक का चमड़ी बनी रहती है, अनेक पक्षियों के पंख विभिन्न तरीके से बने रहते हैं, गाय का चमड़े और तरह के बने रहते हैं, इन सब में स्पर्शीयता उन-उनके आवश्यकता अनुसार भिन्न-भिन्न बने रहते हैं। इस प्रकार मानव शरीर की स्पर्शीयता भिन्न रहना स्वभाविक रहा। इस बात को हम शरीर ज्ञान से स्वीकार सकते हैं कि मानव शरीर रचना, पाँचों प्रकार की संवेदनाओं को खूबी से व्यक्त कर सकता है, प्रवृत्तियों को संप्रेषित कर सकता है। यह सौभाग्य सभी प्रकार के मानव शरीर में समानता के अर्थ को स्पष्ट करता है। प्रकारान्तर से, संवेदना सभी जीवों में होना पाया जाता है। इस प्रकार जीवावस्था, ज्ञानावस्था के मात्रा के साथ होने वाली क्रियाकलाप को स्पष्ट किये। हर रचना एक मात्रा है, इन मात्राओं में रूप विविधता आकार, आयतन के रूप में; गुण विविधता गति, कार्य और प्रवृत्ति के रूप में; स्वभाव विविधता चार अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न होने के रूप में, धर्म विविधता चारों अवस्थाओं में अलग-अलग होने के रूप में अध्ययनगम्य है। इस मुद्दे पर पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है। पदार्थावस्था अस्तित्व धर्म सम्पन्न है, जिसका नाश संभव नहीं है। प्राणावस्था, अस्तित्व सहित पुष्टि धर्म संपन्न हैं, इसका प्रमाण एक बीज अनेक में परिवर्तित होने की परंपरा है। बीज वृक्ष न्याय से ही संपूर्ण प्राणावस्था है। जीवावस्था, अस्तित्व पुष्टि सहित आशा धर्मी है। हर जीव जीना चाहता है, जीने का मतलब संवेदनाओं को व्यक्त करना है। इससे अधिक कुछ नहीं है। ज्ञानावस्था में मानव अस्तित्व पुष्टि सहित सुख धर्मी है, यह भी इसके साथ स्पष्ट किया गया है। समाधान ही सुख का प्रमाण स्वरूप है। सर्वतोमुखी समाधान, मानव अपने समझदारी को प्रमाणित करने के क्रम में व्यक्त करता है। यह अभिव्यक्ति, संप्रेषित हर मानव में, से, के लिए अध्ययन, बोध, अनुभव, प्रमाण के लिए पहुँच पाता है, स्वीकार हो पाता है। इससे यह भी पता लगता है मानव सहअस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से ही सर्वतोमुखी समाधान को व्यक्त करता है, जिससे मानव कुल का उपकार होना स्वभाविक है। मानव कुल के उपकार का तात्पर्य मानव जागृति परंपरा में, मानव सार्वभौम व्यवस्था में, मानव अखण्ड समाज में, मानव कम से कम परिवार व्यवस्था में होने से है। परिवार व्यवस्था में भी मानव, मानव के लिए अथवा परिवार के लिए प्रेरकता है ही, इस विधि से समाधान उपकार से जुड़ा ही रहता है। अथवा उपकार विधि से समाधान जुड़ा रहता है।
मानव मात्रा को, मानव को एक मात्रा माना जाय, उस स्थिति में इसका प्रयोजन क्या है, अपने आप में समझ में आता है। इसी प्रकार जीवों को भी मात्रा के आधार पर, वनस्पति और धरती के लिए पूरक होने के अर्थ में मनुष्य के लिए भी पूरक होने के रूप में अध्ययन होता है। जीवों के मलमूत्र से, श्वसन से, धरती और प्राणावस्था के लिए पूरक होना पाया जाता है। क्योंकि इसमें स्वभाविक रूप से धरती में उर्वरकता बढ़ती है। जीव संसार वनस्पति संसार के अनेक रोगों को दूर करता हुआ समझ में आता है। इसका प्रमाण जिन जंगलों में जीव-जानवर न हो, उस जंगल में पेड़-वनस्पतिेयों में अनेक रोगों का होना पाया जाता है। जिनमें अनेक जीव-जानवर रहते हैं, उन जंगलों में रोग बाधा न्यूनतम होना पाया जाता है। इसे व्यक्ति परीक्षण कर सकता है। इसी क्रम में फसल संसार में भी खरपतवार, कीड़ा, पक्षियों का आवागमन विशेषकर मधु मक्खियों का संयोग, सभी फसलों में उपकारी होना पाया जाता है। इन सबका जहाँ अभाव रहता है, फसल कम हो जाती है, वहाँ फसलों को नष्ट करने वाले कीड़े बढ़ जाते हैं, हर वर्ष नये-नये रोग तैयार हो जाते हैं। इसीलिए धरती जैसे भी सजी है, उसके ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसकी सजावट अपने आप में पूरकता, उपयोगिता विधि से ही हुआ है, इसके प्रमाण में पदार्थावस्था के बाद प्राणावस्था प्रकट हुआ है। प्राणावस्था में जितने भी प्रजातियाँ समाहित हैं, वे सब पदार्थावस्था के लिए पूरक, उपयोगी होना पाया जाता है। पदार्थावस्था अपने सभी प्रकार के परमाणु प्रजातियों के इस धरती पर संपन्न होने के उपरान्त ही प्राणावस्था का प्रगटन होना स्वाभाविक रहा है। इससे पता लगता है, प्राणावस्था के लिए पदार्थावस्था पूरक है और पदार्थावस्था के लिए प्राणावस्था पूरक है। प्राणावस्था उपयोगी इस विधि से है कि प्राणावस्था जब विरचित होता है, तब धरती में उर्वरकता बढ़ना शुरु होती है। जैसे-जैसे उर्वरकता धरती में बढ़ती है, वैसे-वैसे प्राणावस्था का उन्नयन इस धरती में होता जाता है। उन्नयन होने का तात्पर्य उन्नत होने से है। इसका स्वरूप उर्वरकता बढ़ते बढ़ते, झाड़ पौधों सभी में श्रेष्ठता भी बढ़ती गयी जिसको हम गुणात्मक परिवर्तन या विकास भी कह सकते हैं। जीव संसार के लिए प्राणावस्था उपयोगी होती है और जीवावस्था प्राणावस्था के लिए पूरक होना देखने को मिलता है। जीवावस्था के लिए प्राणावस्था की उपयोगिता इस प्रकार से देखने को मिलता है कि प्राणावस्था में ही पुरुष कोषा और स्त्री कोषा की संरचना प्रारंभ हो चुकी है। जीवावस्था में स्त्री पुरुष शरीर का रचना परस्पर भिन्न रूप में स्पष्ट हो गयी। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्राणावस्था में कोष रचनायें जितना उन्नत रहा, जीवावस्था के लिए पर्याप्त नहीं हुआ, और विकसित होने की आवश्यकता रही, चाहे विकास क्रम ही क्यों न हो। इससे यह ज्ञान स्पष्ट हो जाता है, जीवों के शरीर रचना क्रम में स्त्री पुरुष शरीर रचना का सुस्पष्ट रूप प्रकट हो गयी। जीवों के लिए आहार, प्राणावस्था से संपन्न होता आया है, इस ढंग से पूरकता और उपयोगिता सुस्पष्ट है। इस प्रकार पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था परस्पर पूरक व उपयोगी सिद्घ हुआ। सर्वप्रथम प्राणावस्था का उपयोग, किसी न किसी जीव परंपरा के शरीर रचना में, प्राणकोषाओं के तृप्ति की उपरान्त ही अग्रिम रचना विधि प्राणकोषाओं में उत्सव के रूप में उभरना स्वभाविक रहा। इसी आधार पर किसी-किसी जीव शरीर से सप्त धातुओं का समावेश और सर्वाधिक समृद्घ मेधस रचना संपन्न हुई। ऐसे शरीर में ही प्राणकोषाओं के संयोजन से होने वाली प्रजनन प्रणाली मनुष्य शरीर की रचना होना प्राकृतिक प्रणाली रही। ऐसी शरीर रचना विभिन्न परिवेशों में अर्थात् भौगोलिक परिवेश में, विभिन्न जीव शरीरों से निष्पन्न होने की संभावना भी स्पष्ट है। इसका प्रमाण इस धरती पर अनेक नस्ल के मानव शरीर रचना का होना है। इससे भी अपने नस्ल का ध्रुव बिन्दु, मूलभूत जीव शरीर से मनुष्य शरीर का निष्पत्ति होना स्वीकारा जा सकता है। हर नस्ल के साथ किसी न किसी रंग का होना स्वभाविक है ही। इस प्रकार से हम मानव वंश के शुरुआत के संबंध में अनुमान कर सकते हैं। हजारों, करोड़ों पी$िढयों बीती हुई इस परम्परा में मूल संबंधों को जीवों के साथ प्राकलित कर सांत्वना पाना, इसलिए कि विकास क्रम की कड़ी के रूप में पहचान पाना, एक आवश्यकता तो रहा। इस क्रम में हर भौगोलिक परिस्थितियों में मानव विभिन्न प्रकार की नस्ल रंग के साथ अवतरित होने के उपरान्त, अपने परंपरा को सुरक्षित करने के प्रवर्तन में सफलता प्राप्त किये हैं। क्योंकि, इस धरती पर मनुष्य की संख्या काफी बढ़ चुकी है, अन्य जीव परंपरा भी अपने रंग रूप में सुरक्षित होना द्रष्टव्य है। मानव सर्वाधिक विकसित शरीर रचना संपन्न होने के आधार पर जीवन के लिए सर्वाधिक उपयोगी होना अथवा पूर्णतया उपयोगी होना स्पष्ट है। प्रमाणित होने के क्रम में ही मानव संज्ञानशीलता का अथवा संज्ञानीयता को प्रखर रूप देने का इच्छुक है ही। इसी विधि से मनुष्य का अध्ययन ज्ञान, विवेक, विज्ञान के रूप में प्रमाणित होना एक अवश्यम्भावी घटना है। इस सहअस्तित्ववादी नजरिये से ज्ञान सम्पन्नता, विवेक और विज्ञान सम्पन्नता, मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में प्रमाणित होना आवश्यक व अवश्यंभावी रहा। इसी क्रम में सहअस्तित्ववादी नजरिये से सभी मुद्दे जो मानव पहले से ही जानना चाहता है, जो अज्ञात रहा है उन सबकी व्याख्या होना संभव हो गया।
उक्त प्रकार से अस्तित्व में चारों अवस्थाओं में पाये जाने वाले सम्पूर्ण मात्रायें, एक-एक मात्रा अपने त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने के रूप में स्पष्ट हुआ। मानव के लिए मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में ही सार्थक होने के लिए यह अध्ययन प्रस्तुत हुआ।
मात्रा विधा में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म के अध्ययन के सम्बन्ध में रूप चारों अवस्थाओं के लिए स्पष्ट हो चुकी है। अब गुण और स्वभाव के संंबंध में स्पष्ट होना आवश्यक है। स्वभाव चारों अवस्थाओं में भिन्न देखा जा रहा है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन या किसी से संगठन किसी से विघटन क्रिया के रूप में स्वभाव को पदार्थावस्था में देखा जाता है। प्राणावस्था में स्वभाव सारकता मारकता के रूप में देखने को मिलता है। सारकता, स्वयं में विपुल होने के अर्थ में, दूसरा जीव संसार के लिए उपयोगी होने के अर्थ में। मारकता का मतलब अपने बीज व्यवस्था को विपुल बनाने में अड़चन पैदा करने की क्रिया और जीव संसार के लिए रोग, मृत्युकारक होने की स्थिति से है। जीव संसार में स्वभाव को क्रूर-अक्रूर के रूप में पहचाना गया है। अक्रूर का अर्थ है दूसरे किसी जीवों का हत्या न करना, मांस भक्षण न करना, वनस्पति आहारों पर जीते रहना। इस प्रकार से क्रूर-अक्रूर दोनों स्पष्ट होते हैं। दूसरे भाषा में मांसाहारी-शाकाहारी के रूप में जाना जाता है। तीसरी भाषा में हिंसक-अहिंसक भी कह सकते हैं। ज्ञानावस्था का स्वभाव धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा होना पाया जाता है। ये ही मानव स्वभाव के रूप में स्पष्ट होता है। मानव विरोधी स्वभाव हीनता, दीनता, क्रूरता सहित परधन, परनारी/परपुरुष, परपीड़ा के रूप में गण्य है। जो इन प्रवृत्ति में रहते हैं, वे ही पशु मानव, राक्षस मानव में गण्य होते हैं। ये दोनों मानव विरोधी होना पाया जाता है। मानव विरोधी स्वभाव वाले शनै:-शनै: मानवीय स्वभाव में परिवर्तित होने की संभावना बनी रहती है। इसी आधार पर सार्थक शिक्षा का प्रस्ताव है, दूसरी भाषा में सहअस्तित्व वादी शिक्षा का प्रस्ताव है।
धीरता का तात्पर्य मानव न्याय के प्रति सुस्पष्ट और प्रमाणित रहने से है। सुस्पष्ट होने के लिए अध्ययन और परंपरा ही एकमात्र आधार है। परंपरा, अध्ययन कार्य का धारक वाहक है, अध्ययन वर्तमान में होता ही रहता है। वीरता का तात्पर्य, स्वयं न्याय के प्रति निष्ठान्वित, व्यवहारान्वित, प्रमाणित रहते हुए लोगों को न्याय सुलभता के लिए अपने तन, मन, धन को अर्पित समर्पित करने से ही है। यह भी शिक्षा विधि से ही और लोक शिक्षा विधि से ही सार्थक होना पाया जाता है। उदारता का तात्पर्य है अपने में से प्राप्त तन, मन, धन रूपी अर्थ को उपयोगिता विधि से, सदुपयोगिता विधि से, प्रयोजनीयता विधि से उपयोग करना। उपयोगिता विधि का तात्पर्य शरीर पोषण, संरक्षण, और समाज गति में प्रयोग करना है। सदुपयोगिता का तात्पर्य अखण्ड समाज में भागीदारी करते हुए वस्तुओं का अर्पण-समर्पण करना है। प्रयोजनीयता का तात्पर्य सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना है, वह भी स्वयं स्फूर्त स्वायत्त विधि से।
दया का तात्पर्य पात्रता के अनुरूप वस्तुओं को उपलब्ध कराने की क्रिया से है। कृपा का तात्पर्य उपलब्ध वस्तु के अनुसार पात्रता को उपलब्ध कराना है। यह वस्तु के अनुरूप पात्रता के अभाव की स्थिति में हो जाना पाया जाता है। करूणा का तात्पर्य वस्तु भी न हो पात्रता भी न हो इन दोनों को स्थापित करने की क्रिया है। मनुष्य दया, कृपा, करूणा पूर्वक मानव, देव मानव और दिव्य मानव के रूप में वैभवित होना पाया जाता है। ऐसे वैभव देश, धरती, मानव के लिए अत्यधिक उपयोगी होना पाया जाता है।
मात्रा सिद्घान्त, सार रूप में, इस प्रकार समझ में आता है एक-एक के रूप में विद्यमान वस्तु, इकाई मात्रा हैं। इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रूप में वर्तमान है। प्रत्येक परमाणु ही मूल मात्रा है। मूल मात्रा परमाणु होना इसलिए स्पष्ट हुआ है कि इकाई जो परिभाषित होता है, यह स्वयं में व्यवस्था हो और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता हो। इकाई हो, व्यवस्था में भागीदारी करता न हो, ऐसी स्थिति में ऐसी इकाईयों में भी व्यवस्था में भागीदारी के लिए प्रवृत्ति होना पाया जाता है, जैसा परमाणु अंश और भ्रमित मानव। अंश स्वयं में व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर पाता अर्थात् निश्चित आवश्यकता को व्यक्त नहीं कर पाता, इसलिए हर परमाणु अंश, परमाणु में भागीदारी करने, फलत: व्यवस्था को प्रमाणित करने के अर्थ में प्रवर्तनशील है। निश्चित आचरण ही व्यवस्था के रूप में ख्यात होता है। इससे पता चलता है कि परमाणु अंश एक दूसरे को पहचानते हैं और निर्वाह करते हैं। मानव, मानव को पहचानना, अभी आवश्यकता है। मानव को पहचानने का एक ही सूत्र है – मानवत्व, मानव लक्ष्य के अर्थ में ही होना आवश्यक है। मानव लक्ष्य – समाधान, समृद्घि, अभय सहअस्तित्व है। मानवीय लक्ष्य को प्रमाणित करने के क्रम में ही, मानवीयता पूर्ण आचरण को स्पष्ट कर पाते हैं। इसका प्रमाण मूल्य, चरित्र, नैतिकता के रूप में है। इसे सार्वभौम रूप से अथवा सर्वमानव में सफल करना ही अथवा होना ही जागृत मानव परम्परा का वैभव है। इसी आधार पर हर मानव स्वयं में मानवत्व सहित व्यवस्था हो पाता है, समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर पाता है, अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर पाता है। अत: अस्तित्व में हर इकाई मात्रा के रूप में ख्यात है, मानव भी मानवत्व को पहचानकर निश्चित मानवीय आचरण पूर्वक मानवीय लक्ष्य को प्रमाणित करते हुए मात्रा के रूप में गण्य होता है।