Pressure, Flow, Wave, Electromagnetic-Force (दबाव, तरंग एवं चुम्बकीय बल)
दबाव, प्रवाह, तरंग, विद्युत चुम्बकीय बल
*स्त्रोत = कर्म दर्शन, संस २००४, भाग२, अध्याय १३
दबाव- स्वभाव गति से भिन्न, सम विषम आवेश के लिए प्राप्त विवशतायें दबाव है।
प्रवाह- निरन्तर रस द्रव्य का ढाल की ओर गति प्रवाह है।
तरंग- ठोस, तरल, विरल में भिन्न-भिन्न रुप में भिन्न-भिन्न तरीके से तरंग होना पाया जाता है। ठोस वस्तु में कम्पनात्मक गति के रुप में तरंग है। तरल (पानी) में हवा के संयोग से अथवा किसी पदार्थ, जीव-जानवर, मनुष्य के संयोग से उत्पन्न प्रतिक्रिया तरंग के रुप में है। जैसे, मनुष्य के पत्थर फेंकने से, कूदने से, हवा के दबाव से पानी कम्पानत्मक गति (ऊपर नीचे होता है) सहित दौड़ता है। यही तरंग के नाम से जाना जाता है। विरल वस्तु में शब्द, विद्युत, किरण, विकिरण के रुप में तरंग होना द्रष्टव्य है।
विद्युत तरंग- यह चुम्बकीय धारा के विखंडन से उत्पन्न प्रवाह है। चुम्बकीय धारा जिन छोटे-छोटे रुप में विखंडित हो पाते हैं, वे टुकड़े किसी माध्यम से सम्प्रेषित होते हैं, अर्थात् दौड़ते हैं। माध्यम के बारे में, संपूर्ण प्रकृति विद्युत धारा का धारक वाहक होना पाया जाता है। संपूर्ण प्रकृति विद्युत ग्राही है, कम से कम या अधिक से अधिक। यह कम या अधिक होना दबाव, प्रवाह, मात्रा विधि से तय होता है।
ध्वनि तरंग- ध्वनि और भाषा-तरंग, ध्वनि एक से अधिक वस्तुओं के संघर्ष से, एक में होने वाली स्वयं स्फूर्त क्रिया से ध्वनि होना पाया जाता है। इसके प्रयोग में कोई दो पत्थर को घिसने से ध्वनि होता है। कोई भी दो धातु के आपस में टकराने से ध्वनि होता है। इसी प्रकार पत्ते हवा से हिलने पर भी ध्वनि होता है। इसी प्रकार मानव गला, तालु, ओंठ, जीभ के संयोग से ध्वनि पैदा करते हैं, इसको राग कहते हैं, यह भी ध्वनि ही है। इसी प्रकार से गाय, बैल, भैंस, बकरी, जीव-जानवर अपने-अपने ढंग से ध्वनि निष्पादित करते हैं। जीव, जानवर, चिड़िया, मेंढक आदि के ध्वनि, उन-उन प्रजाति के लिए भाषा भले ही हो, और प्रकृति के लिए ध्वनि रुप ही स्वीकार हुआ है। वैसे ही, मानव के लिए भी अपनी भाषा अर्थ संगत भले हो, अन्य प्रकृति के लिए ध्वनि होना ही प्रमाणित है। कोई-कोई जीव-जानवर ऐसे हैं, जो मनुष्य के संकेतों का अनुकरण कर लेते हैं। इस प्रकार ध्वनि और भाषा का स्पष्ट स्वरुप मानव को समझ में आता है। अर्थ को इंगित कराने वाले शब्द तरंग को भाषा तरंग कहते हैं। इन दोनों प्रकार की निष्पत्ति स्थली से जुड़े हुए जितने भी विरल पदार्थ रहते हैं, उनके ऊपर उसका दबाव होना पाया जाता है। फलत: वातावरण स्थली अणु समूह के ऊपर जो दबाव आरोपित हुई, और उनमें कम्पन तैयार हुई, इसको हम तरंग कह रहे हैं। इस विधि से तरंग, अणु से अणु को संप्रेषित होते हुए अथवा अनुप्राणित होते हुए दूर-दूर तक पहुँच जाते हैं। ऐसे शब्द और ध्वनि को विद्युतवाहिता पूर्वक प्रसारित करने की क्रिया को रेडियो, टेलीविजन तरंग माना जा रहा है। इस स्वरुप में हमें शब्द तरंग को इसलिए समझना जरुरी है कि हम मानव शब्दों को जितना भी प्रयोग करते हैं, उसकी सार्थकता को अपने नजरिये में बनाया रखना जरुरी है। क्योंकि, हम स्वयं सार्थक होना चाहते हैं। सार्थकता का स्वरुप पहले स्पष्ट हो चुका है। सार्थकता का सूत्र मानव के समझदार होने से, व्यवहार में जीने से, जीवनाकाँक्षा मानवाकाँक्षा को प्रमाणित करने से है। इसीलिए हर शब्द को सार्थकता के अर्थ में प्रयोग करना जरुरी है।
विद्युत चुम्बकीय तरंग को मानव, प्राकृतिक विधि से बिजली चमकता हुआ रुप में या प्रकाश के रुप में देखता है। इसके मूल में निश्चित दूरी में बादल के रूप में, निश्चित अच्छे घने बादल का, अपने निश्चित अच्छी दूरी में से, पास में आने से हुई ध्वनि को ही बादल गरजना कहा जाता है। इन दोनों के पास में आने से धरती के संयोजन के साथ, धरती का संबंध जुड़ने के साथ, विद्युत प्रवाह अपने आप दौड़ता है, जिसका प्रवाह जीव, जानवर, मनुष्य, पेड़, पौधे के ऊपर देखा गया। यही प्राकृतिक रूप में देखा हुआ, बिजली प्रकाश और प्रभाव है। बिजली प्रकाश राहगीर को राह देखने के रूप में तो दिखी लेकिन प्रवाह का और कोई सकारात्मक पक्ष में प्रयोग नहीं हुआ। इन दोनों स्थिति को देखा हुआ मनुष्य यह क्या है? कैसा है? बहुत कुछ सोचा, समझा। अन्ततोगत्वा चुम्बकीय धारा का विखंडन विधि से, जिसको डायनामो कहा जाता है, साइकिल के चक्के के साथ घुमा कर प्रकाश को प्राप्त किया। इसके बाद क्रम से धरती पर सभी जगह तक बिजली प्रवाह को दौड़ता हुआ, कार्य करता हुआ, सब प्रदर्शित है।
विद्युत धारा में घोषित विश्लेषण दो मुद्दों पर हैं।
- विद्युत धारा का स्रोत और
- धारा, प्रवाह में होने वाली क्रिया कलाप
विद्युत प्रवाह के मूल में चुम्बकीय धारा के विखंडन के बराबर में विद्युत धारा होना, विद्युत धारा चुम्बकीयता से मुक्त न होना, फलत: चुम्बकीय विद्युत धारा का नामकरण होना सार्थक पाया जाता है। इसमें धारा के साथ परमाणु अंश दौड़ती रहती है। ऐसी परिकल्पना दी गई। वास्तविकता रूप में यदि परीक्षण करने के लिए तत्पर हो जाये तो हम यह पाते हैं हर माध्यम में स्वभाव गति के रूप में जो अणुओं का संकोचन प्रसारण बना रहता है, विद्युत प्रवाह के माध्यम होने की स्थिति में वह संकोचन प्रसारण बढ़ जाता है। संकोचन प्रसारण विधि से ही प्रवाह और दबाव बनी रहती है। संकोचन विधि से दबाव , प्रसारण विधि से प्रवाह होता हुआ देखने को मिलता है। इसी क्रम में दौड़ता हुआ विद्युत प्रवाह अपने निकटवर्ती वातावरण में जितने भी विरल वस्तुयें रहते हैं उन पर अपना प्रभाव प्रसारित करता है फलस्वरूप विद्युत धारा के साथ-साथ उसका प्रभाव क्षेत्र बना रहता है। इस प्रभावी क्षेत्र को अत्यल्प दबाव प्रवाह रूप में भी देखा जा सकता है, सर्वाधिक दबाव प्रवाह के साथ भी देखा जा सकता है।
विद्युत प्रवाह अपने में नियंत्रण के सीमा में कोई हानिप्रद वस्तु नहीं है। न ही यह स्वयं में प्रदूषण युक्त कोई ऊर्जा है। यह विद्युत ऊर्जा अपने में प्रदूषण मुक्त ही है। इसके उपयोग से प्रदूषण पैदा करे या न करे, यह मानव विवेक पर निर्भर है। इस पर अच्छी तरह से अपने को संयत बना लेना सहज सुलभ है। दूसरी ओर इसकी अर्थात् विद्युत ऊर्जा की, विद्युत की उपलब्धि में प्रवृत्त होने की जो आवश्यकता है, यह प्रदूषण मुक्त होना तभी संभव है जब धरती की संतुलित ताप को वरीय बिन्दु के रूप में हम देख पाते हैं। आज इसी दृष्टि की आवश्यकता है। दृष्टि का स्वरूप, मानसिकता ज्ञान, विवेक, विज्ञान के रूप में सार्थक कार्य करता हुआ देखने को मिलता है।
सह-अस्तित्ववादी ज्ञान, विवेक, विज्ञान विधि से हम धरती और मानव के सह अस्तित्व को ध्यान में ला सकते हैं। मानव और धरती का सहअस्तित्व समझ में आने की स्थिति में धरती का स्वास्थ्य वरीय स्थिति में आना, प्रदूषण मुक्ति का उद्देश्य वरीय स्थिति में आना, एक स्वाभाविक प्रक्रिया रहेगी। विकल्प पहले से ही स्पष्ट है। थोड़ा सा ध्यान देने की आवश्यकता है।
जल प्रवाह बल को हम उपयोग करें न करें, प्रवाह तो हर देश काल में बना ही रहता है। ऋतु संतुलन की सटीकता, इन नदियों के अविरल धारा का स्रोत होना ही समझदार मानव को स्वीकार होता है। इसी के साथ वन, खनिज का अनुपात धरती पर कितना होना चाहिए, इसका भी ध्यान सुस्पष्ट होता है। इसमें ध्यान देने का बिन्दु यही है कि हर देश में विभिन्न स्थितियाँ बनी हुई हैं। हर विभिन्नता में वहाँ का ऋतु संतुलन अपने आप में सुस्पष्ट रहता ही है।
विकल्प विधियों में अर्थात् प्रदूषण मुक्त विधि से हम विद्युत को जितना पा रहे हैं, उससे अधिक प्राप्त कर लेना आवश्यक है, ऐसे विद्युत से सड़क में चलने वाली जितनी भी गाड़ियाँ हैं, उसके लिए बैटरी विधि से विद्युत को संजो लेने की आवश्यकता है। जिससे छोटी से छोटी, बड़ी से बड़ी गाड़ी चल सके। उसकी उपलब्धि जैसा खनिज तेल उपलब्ध होता है, ऐसा हो सकता है। इसे हर समझदार व्यक्ति स्वीकार कर सकता है। जहाँ तक खेत में चलने वाली गाड़ी, हवा में चलने वाली गाड़ी की बात है, उसके लिए वनस्पति तेल को योग्य बनाकर उपयोग करेंगे। जल पर चलने वाले जहाजों के लिए वनस्पति तेल अथवा सूर्य ऊर्जा और बैट्री विधि तीनों को अपनाये रखेंगे। इस क्रम में मानव का मन सज जाये, मानव एक बार ताकत लगाये तो प्रौद्योगिकी संसार अर्थात् प्रवाह बल के साथ जूझते मानव जाति से प्रकृति के साथ होने वाले पाप कर्म, अपराध कर्म रुक सकते हैं।
नियति विधि से मानव का प्रकटन, वनस्पति और जीव संसार का प्रकटन होने के बाद हम स्वीकार कर चुके हैं। समझ भी चुके हैं। इसके बावजूद नियति के साथ अपराध में जुड़ गये, इससे छूटना आवश्यक है। जल प्रवाह एवं सूर्य उष्मा, उक्त दोनों स्रोत पर विचार करें तो यह पता चलता है कि मानव प्रयोग करे, ना करे, प्रवाह रहता ही है। सूर्य उष्मा हर समय धरती को छुआ ही रहता है। इसको भले प्रकार से हम समझ सकते हैं। अपने ज्ञान, विवेक, विज्ञान पूर्वक प्रयोग और प्रौद्योगिकी विधि को अपना सकते हैं। तब विद्युत स्रोत, जितना चाहिए मनुष्य को उससे भी कई गुना, हमारे पास उपलब्ध रहना संभावित है।
हर मानव ऊर्जा स्रोत से धनी रहने की इच्छा रखता है। समझदार मानव उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन सुनिश्चित करने के अर्थ में जीना बना ही रहता है। इससे मानव मानव से विश्वास करने का आधार भी संभावित है। मानव के साथ परस्पर विश्वास विधि से ही उक्त दोनों प्रकार के स्रोत उपयोग कर सकते हैं। इससे ही धरती में मानव, इन नियति विरोधी, मानव विरोधी, प्रकृति विरोधी कार्यक्रम से मुक्त हो सकता है। विरोध के स्थान पर परस्पर पूरक, उपयोगी, सहकारी होना प्रमाणित होता है।
ऊर्जा क्रियाकलाप के मूल में चुम्बकीय बल संपन्नता का जिक्र हो चुका है। ऐसी चुम्बकीय बल संपन्नता कहाँ से, कैसे? इस मुद्दे पर प्रश्न अध्ययन करने में तत्पर प्रत्येक मानव में होना स्वाभाविक है। इस मुद्दे में यह स्पष्ट हो चुकी है कि व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तुयें डूबा, भीगा, घिरा हुआ है। भीगा रहने के आधार पर ऊर्जा संपन्नता, ऊर्जा संपन्नता ही बल संपन्नता, बल संपन्नता चुम्बकीय बल संपन्नता के रूप में, प्रत्येक इकाई में वर्तमान है। इसके प्रमाण में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि हर प्रजाति के परमाणु व अणु बंधन, भार, बल संपन्न है।
व्यापक वस्तु संपूर्ण वस्तु में पारगामी है। इसलिए प्रत्येक वस्तु व्यापक वस्तु में भीगा रहता है। वस्तु अपने में ऊर्जा प्रकाशन करता हुआ गवाहित होने के उपरान्त ही हम मानव, वस्तु के ऊर्जा संपन्न होने का अनुमान होना पाया जाता है। ऐसे अनुमान के अन्तर्गत ही इसका स्रोत क्या है ? इसका उत्तर व्यापक वस्तु में ही संपूर्ण वस्तुयें रहने का ज्ञान होने के उपरान्त यह पता चला कि व्यापक वस्तु ही मूल ऊर्जा है। ऊर्जा संपन्नता के रूप में प्रत्येक वस्तु चाहे वे अणु हो, परमाणु हो, परमाणु अंश क्यों न हो, ये सब इकाईयाँ ऊर्जा संपन्न रहना, इसकी नित्य क्रियाशीलता से बोध हो गया। इस विधि में प्रत्येक इकाई में ऊर्जा संपन्नता, बल संपन्नता की स्वीकृति स्थिति गति के आधार पर संपन्न हुई। ऐसी ऊर्जा संपन्नता प्रत्येक इकाई के ऐश्वर्य में, वैभव रूप में, चुम्बकीय बल संपन्नता, अणु बंधन, भार बंधन रूप में मानव को समझ में आया। यह संपूर्ण वस्तुयें अपने में संपूर्ण रहते हुए, संपूर्ण के साथ अर्थात् धरती के साथ पूरकता आवश्यकता को प्रमाणित करता हुआ देखने को मिलता है। इस मुद्दे पर भी ठोस, तरल, विरल वस्तुयें अपने-अपने जातीय वस्तु के साथ सहयोग, उपयोगिता को प्रमाणित करने में तत्पर होने के रूप में स्थिति गतियों के रूप में स्पष्ट किया गया है। इस विधि से धरती के संपूर्ण वैभव के अंगभूत जितनेे भी कार्य विन्यास है वह सब सहज अभिव्यक्ति के साथ ही हैं। मानव अपने अद्भुत शिल्प, यांत्रिकता के साथ जितने भी विद्युत धारा को उत्पादित करने के लिए, प्रवाहित करने के लिए उपक्रम करते हैं, वह उपक्रम में प्रवाह मिलता भी है। वह प्रवाह अन्ततोगत्वा धरती में ही समा कर सहअस्तित्व को प्रमाणित कर देता है।
धरती के ही अंगभूत द्रव्य के रूप में चुम्बकीय द्रव्यों को पाया जाता है। इनके परस्पर यांत्रिकता वश चुम्बकीय धारा की विद्यमानता, उसके विखंडनवश विद्युत धारा, उसके संपूर्ण प्रयोजन के अनंतर, अथवा उपयोग के अनंतर सम्पूर्ण विद्युत धारा धरती में समाकर पुन: चुम्बकीयता के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रक्रिया का जिक्र यहाँ इसलिए किये हैं कि यह विद्युत प्रवाह एक आवर्तनशील प्रक्रिया है। इसलिए इसको आवश्यकता के रूप में बनाये रखना उचित है। इसकी उपलब्धि के लिए उपक्रम विधि को पुन: संयोजन, शाश्वत स्रोतों से जोड़े जाने की संभावना समीचीन है ही। अतएव इस विधि से हम चुम्बकीयता से विद्युत प्रवाह तथा पुन: चुम्बकीयता तक पहुँच जाते हैं। चुम्बकीयता न घटने, न बढ़ने के रूप में, व्यापक वस्तु में संपृक्त संपूर्ण वस्तु को पहचान कर लेना उचित होगा।
यह तथ्य हमें समझ में आ चुका है कि चुम्बकीयता वस्तु में प्रकट होता है, ऐसे चुम्बकीय द्रव्य को ससम्मुख यांत्रिकीय विधि से निश्चित अच्छी दूरी पर स्थिर करने की स्थिति में इन दोनों की परस्परता में चुम्बकीय धारा बना ही रहता है। चुम्बकीय धारा का मतलब एक दूसरे के साथ मिलने की प्रवृत्ति। इन दोनों वस्तु के बीच कितने भी अणु परमाणु विरल रूप में रहते हैं इन्हेंं चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र में होना पाया जाता है। इसका विखंडन, इसके विखण्डित क्रम से धारा को, प्रवाह को ग्रहण करते हुए देखने को मिलता है। यही पुन:श्च माध्यम के द्वारा दूर-दूर तक पहुँचता है।
ऐसे विखंडन क्रम में क्या कोई वस्तु द्रव्य बना रहता है कि नहीं, इस मुद्दे पर यही स्पष्ट होता है कि हर अवकाश में कुछ न कुछ संख्या में अणु होते ही हैं। यही अणु चुम्बकीय धारा के प्रवाह क्षेत्र में होना भी स्पष्ट हो चुकी है। विखण्डन क्रम में, इस अवकाश में चुम्बकीय प्रवाह क्षेत्र में आये अणुओं का विघटित होना भी स्वभाविक है। इसी के साथ साथ यह भी अनुमान होता है कि चुम्बकीय प्रभाव और विखण्डन दबाव के साथ इन अणुओं का परमाणु में विघटित होने, अथवा परमाणु विघटित होकर परमाणु अंश के रूप में दौड़ लगाने की भी सम्भावना बनी रहती है (विद्युत प्रवाह के साथ)। यद्यपि प्रवाह के साथ माध्यम पर होने वाला प्रभाव , उसके फलस्वरूप होने वाली क्रिया स्पष्ट होती है। माध्यम पर विद्युत प्रवाह प्रवाहित होते ही उनमें संकोचन प्रसारण बढ़ना हो ही जाता है। इसको हर जिज्ञासु अर्थात् प्रयोग पूर्वक समझने की इच्छा रखने वाला, परीक्षण निरीक्षण कर सकता है।
जितने भी उपक्रम विद्युत प्रवाह के लिए बन चुके हैं, प्रवाहों को नियंत्रित करने, संयत करने, विभाजित करने, उपयोग करने, नापने और सुनिश्चित करने के जितने भी उपकरण बन चुके हैं, पर्याप्त लगते हैं। यदि आगे और कोई आवश्यकता होने की स्थिति में मानव में शोध अनुसंधान प्रवृत्ति है ही। इससे आपूर्ति होना संभावित है। इससे आश्वस्त होते हुए शाश्वत, निरंतर प्राप्त विद्युत निष्पादित यंत्रों को संचालित करने के लिए स्रोतों का अवश्यमेव प्रयोग करना ही हमारा सौभाग्य भविष्य होगा।
आज तक पुरुषार्थी मानव से बैटरी के रूप में जो उपलब्धियाँ हुई हैं उसमें सेल वाली बैटरी और प्लेट वाली बैटरी है। पहले सेल वाली बैटरी में एक कार्बन प्लेट होना पाया जाता है उसके चारों ओर रसायन द्रव्य और जिंक या शीशा का कवच होना पाया जाता है। इसके अंदर जो रसायन द्रव्य रहता है, वह शीशा या जिंक के साथ क्रिया करते हुए अणु के रूप में आवेशित होकर अपने प्रभाव क्षेत्र में विद्युत प्रसारण किया करता है। यह प्रभाव क्षेत्र एक के साथ एक जुड़कर कार्बन के साथ जुड़े रहते हैं। इसीलिए इसमें विद्युत प्रवाह उपलब्ध हो पाता है। इस बैटरी से बल्ब जलते हुए देखते हैं।
दूसरी विधि से प्लेट बैटरी में भी रसायन द्रव्य अम्ल लवण आदि द्रव्य होते ही हैं। अम्ल तो होते ही हैं। इनके संयोग में आये हुए धातुओं में क्रिया सम्पन्न होना स्वभाविक रहती है। इनमें धातु अणुओं को आवेशित करने के लिए प्रवाह को पहुँचाया जाता है यह विद्युत प्रवाह उस बैटरी कवच में स्थापित धातुओं पर प्रभाव डालता है। फलस्वरूप रसायन संयोग से धातुओं के अणु आवेशित होकर विद्युत ग्राही बन जाते हैं इसी को चार्ज कहते हैं। इस क्रम में विद्युत प्रभाव से उत्पन्न प्रभाव परिपूर्ण होने के फलस्वरूप उस बैटरी से प्रकाश आदि क्रिया में काम लेता हुआ, मानव यान-वाहनों में उपयोग करता हुआ देखने को मिलता है। इसमें से यंत्र संचारण के आरंभ में उसमें विद्युत प्रवाह को प्रयोजित करते हैं। यह सर्व विदित तथ्य है कि इन सब तथ्यों के साथ मानव की जो आज की स्थिति में जो क्षमता है उसके अनुसार ये सब विधियों से विद्युत प्रवाह की निष्पत्ति, उसका नियंत्रण और कार्य विधियों में पारंगत हो चुके हैं। इसलिए इन सभी मुद्दों पर जो तकनीकी विद्या है इसमें कोई बदलाव की आवश्यकता नहीं है। अगर बदलाव की आवश्यकता पड़े तो इन विद्या में पारंगत व्यक्तियों में योग्य अधिकार समाहित हैं ही