Potential and Force (State & Motion) (बल और शक्ति)

 

बल-शक्ति (स्थिति-गति)

स्त्रोत = मानव कर्मदर्शन, संस-२, अध्याय ३, भाग 11

हम मानव विगत से बल और शक्ति के बारे में बहुत सारे अनुमान लगाते रहे हैं। विज्ञान युग आने के बाद शक्ति के बारे में और निष्कर्ष निकालने का प्रयोग किया गया। अभी तक पूर्ण निष्कर्ष विज्ञान विधा से निकला ही नहीं, यह विचारणीय बिन्दु है। इस संदर्भ में विज्ञान विधा से दबाव को बल के रूप में और गति, तरंग और प्रवाह को शक्ति के रूप में पहचानने की कोशिश हुई है। इसमें बहुत सारे उदाहरण प्रस्तुत किये। विद्युत तरंग और चुम्बकीय बल के रूप में, उसी प्रकार शब्द तरंग और दबाव के रूप में, प्रवाह में होने वाले तरंग और दबाव के रूप में, इन विविध प्रकारों से अध्ययन कराने की कोशिश की गई। इन सब में यह पाया गया कि इन सबमें मध्यस्थीयकरण होने के तथ्य को नकारा गया है। ये सब अध्ययन आवेशित गति पर ही आधारित हैं। स्वभाव गति में होने पर बल और शक्ति कहाँ चले जाते हैं यह प्रश्न तो आता ही है।

इस मुद्दे पर मध्यस्थ दर्शन के नजरिये से यह पता चलता है कि स्थिति में बल, गति में शक्ति प्रकट होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ, दूसरे पर प्रभाव प्रमाणित करने के क्रम में यांत्रिक प्रक्रिया रूपी शक्ति का परिचय, पहचान होता है। स्थितियाँ होने के आधार पर पहचानने में आता है। इस तथ्य को अथवा सिद्घान्त को परीक्षण करने की बहु विधायें मानव के सम्मुख समीचीन है। समीचीनता का तात्पर्य पास में होने से, उपलब्ध होने से है। जैसे एक पत्थर, उसको हम उठाने जाते हैं, उठाते हैं, तब पत्थर एवं हमारे संयोग का जैसा भी बोध होता है जैसा भी समझ में आता है, उसको भार कहते हैं। ये भार अपने आप से धरती के साथ सहअस्तित्व सूत्र प्रमाणित करने के अर्थ में पाया जाता है। यही चीज, इस प्रकार के भार का अनुभव हर मानव में होने की स्थिति स्पष्ट है। जैसा एक खाली घड़ा, उसमें पानी भर दिया अथवा मिट्टी भर दिया अथवा आलू या अनाज भर दिया तब उसको उठावें। उठाने पर जैसा लगता है, उसको भार कहा। हर मानव अपने में मनाकार को साकार करने वाला होने के आधार पर और कल्पनाशील, कर्मस्वतंत्र होने के आधार पर भार को कैसे नापा या तौला जाय, इसको सोचा और इसका उत्तर पा गया। तौलने की विधि तय कर लिया। मापने की विधि तय कर लिया। उससे बड़ा, उससे बड़ा ट्रक और रेल आदि के वजन को भी तौलने, नापने योग्य यंत्र बना लिया। हर दिन इसको हर व्यक्ति देखता ही है। पूरा भार धरती के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के क्रम में होने वाला विन्यास है, सिद्घान्त है। इस ढंग से भार सहअस्तित्व से अनुप्राणित होना पाया जाता है। हर इकाई स्थिति में बल सम्पन्न, गति में शक्ति को प्रमाणित प्रकाशित करते हैं।

इस क्रम में यह समझ में आता है कि हर वस्तु निश्चित अच्छी दूरी में अपने अपने व्यवस्था को बनाये रखते हैं। जैसे एक परमाणु में एक से अधिक परमाणु अंश निश्चित दूरी में रहते हुए त्व सहित व्यवस्था को आचरण के रूप में प्रकट करते हैं, जिसका दृष्टा मानव है। ऐसी निश्चित अच्छी दूरी के बीच में अगर दूरी बढ़ती है तब परमाणु में मध्यांश के रूप में कार्य करता हुआ मध्यस्थ क्रिया, अपना बल प्रयोग करता है और अंशों पास बुला लेता है। अगर परमाणु अंश मध्य में क्रियारत मध्यांश के पास आने लगता है, तभी भी मध्यांश अपना बल लगा कर अंश को अच्छी दूरी में निश्चित कर लेता है। यह परमाणु में होने वाली नियंत्रण क्रिया है। इन्हीं क्रियावश परस्पर दूरी पर नियंत्रण बना रहता है। परमाणु, अणु के रूप में जब होते हैं, मध्यांशों के आधार पर ही परस्पर आकर्षण बल, चुम्बकीय बल संपन्नता के आधार पर प्रवर्तित होता है। फलत: एक परमाणु दूसरे परमाणु के साथ जुड़कर अणु बंधन सहित अणु कहलाते हैं। ऐसे अणुओं का भार संपन्न रहना स्वभाविक है। इसी भार के कारण, एक अणु के दूसरे अणु के साथ निश्चित अच्छी दूरी में रहते हुए जुड़ने की प्रवृत्ति बनी रहती है। ऐसी प्रवृत्तियों से परमाणु, अणु, अणुओं से रचित बड़े-बड़े पदार्थ, पिण्ड मानव के सम्मुख प्रस्तुत हैं, जैसे यह धरती। इस धरती के साथ धरती से जुड़ी हुई सभी वस्तु, धरती के वातावरण तक, ठोस-ठोस के साथ, तरल-तरल के साथ, विरल-विरल के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करते हैं। इसके लिए जो विन्यास धरती और धरती के अंगभूत वस्तुयें करते हैं, उन्हें ऊपर से गिरना, दौड़ना, उड़ना आदि नाम देते हैं। ऊपर से वही सब चीजें नीचे गिरती है, जो ठोस और तरल के रूप में रहती है। तरल-तरल वस्तु के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करने की आतुरता कातुरता में जो विन्यास करता है, उसे वर्षा अथवा प्रवाह कहते हैं। इसी प्रकार से जो ठोस वस्तु ऊपर से गिरती है, वह धरती के साथ होने वाला विन्यास है, जो उस वस्तु का धरती के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के प्रभाव में होता है। इसी विन्यास को गुरुत्वाकर्षण का नाम दिया है। वास्तव में यह ठोस वस्तु का, ठोस वस्तु के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करने का विन्यास ही है। यही सम्मानजनक स्वीकृति है। गुरुत्वाकर्षण में छोटे बड़े की परिकल्पना दौड़ती है। सहअस्तित्व रूप में यह देखा गया है कि प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित संपूर्ण है। इसमें छोटा बड़ा होता ही नहीं है। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है। ये दोनों सिद्घान्त स्वभाव गति और निश्चित आचरण के योगफल में संपन्न होता हुआ देखने को मिलता है। इसी क्रम में प्रत्येक वस्तु इस धरती का अंगभूत होने के फलस्वरूप, धरती के साथ सह-अस्तित्व को निभाना एक स्वभाविक प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति का विन्यास इस धरती के वातावरण तक मर्यादित रहना पाया जाता है। यह धरती भी अपने वातावरण सहित संपूर्ण है। संपूर्णता में समाहित जितने भी अंग अवयव है, ये सब संपूर्ण के साथ मर्यादित रहना पाया जाता है। मर्यादित का तात्पर्य निश्चित विन्यास से निश्चित आशय को प्रमाणित करने से है। ऐसे निश्चित आशय ठोस – ठोस के साथ, तरल – तरल के साथ, विरल – विरल के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करना ही है। सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के क्रम में जो कुछ भी क्रिया होता है, उसे हम विन्यास कहते हैं। इसका फलन सह-अस्तित्व का प्रमाण ही है। इस विधि से सहअस्तित्व ही अस्तित्व होने का समझ पूरा होता है।

सापेक्षता में छोटे बड़े का बोध होता है। संपूर्णता ओझिल हो जाता है। संपूर्णता में ही प्रत्येक एक का सम्मान हो पाता है, मूल्यांकन हो पाता है। ऐसा मूल्यांकन और सम्मान प्रतिष्ठा की पहचान करने वाला मानव ही है। मानव जब संपूर्णता के साथ सहअस्तिव में प्रत्येक एक को प्रमाणित करता है, ऐसी स्थिति में मानव अपने स्वयं के संपूर्णता की ओर ध्यान देना स्वाभाविक होना पाया जाता है। इसके विपरीत सापेक्ष विधि से छोटे बड़े की ओर ध्यान जाता है। स्वयं को बड़ा मानना एक आवश्यकता हो जाता है। उसे बरकरार रखने के लिए अन्य को छोटा बनाये रखना भी एक आवश्यकता बन जाती है। इस क्रम में द्रोह, विद्रोह, शोषण, भूखमारी, तोपमारी सारे काम संपन्न होते हैं। जिसके प्रति जब संवाद होता है तब उसकी अनौचित्यता को स्वीकार करते हैं। इस ढंग से मानव अंतर्विरोधी हो जाता है। इस प्रकार की स्थिति को हम न घर की न घाट की भाषा से संबोधित करते हैं। इसी से अनिश्चयता वाद तैयार होता है। फलत: मानव संपूर्ण प्रकार की कुंठा अथवा आवेश का शिकार हो जाता है। स्वभाव गति से दूर हो जाता है। फलस्वरूप असामाजिकता, अव्यवस्था हाथ आती है। अव्यवस्था रूपी अप्रत्याशित घटनायें घटित होती हैं। यह पूर्णतया मानव कुल के लिए अनावश्यक सिद्घ  हुआ। इसीलिए इसके विकल्प में स्वभाव गति, स्थिति, निश्चयता के साथ निश्चित योजना सहित आशावादिता संपन्न होना आवश्यक हो गया। यह सहअस्तित्व विधि से सर्वमानव के लिए समीचीन है।

मुख्य मुद्दा सहअस्तित्व प्रमाणित होना ही सूत्र है। हर कार्य विन्यास, प्रवृत्ति, प्रयास, क्रिया, व्यवहार, फल परिणाम के साथ ही सहअस्तित्व मूल्यांकित होना स्वाभाविक है। मूल्यांकन करने वाला मानव ही है।

सहअस्तित्ववादी विधि से मानव के प्रमाणित होने की दीर्घकाल से प्रतीक्षा रही है। यह प्रतिक्षा मानव में ही रही है। यह सार्थक होने के लिए सहअस्तित्ववादी क्रिया प्रणाली का अध्ययन मानव, मानवत्व सहित व्यवहार में प्रमाणित होने के लिए पर्याप्त होना पाया गया। इसीलिए इसका उद्घाटन होना आवश्यक रहा।

स्थिति गति अपने स्वरूप में दबाव और प्रवाह का संयुक्त रुप है। कुछ मिसाल में दबाव रहते हुए प्रवाह नहीं होता है। जैसे धरती के ऊपर पत्थर, धरती के ऊपर तालाब में पानी प्रवाह दिखाई नहीं पड़ता। धरती के ऊपर नदी में प्रवाह दिखाई पड़ती है। पानी के प्रवाह में दबाव सुस्पष्ट है। दबाव रहता ही है। पानी का प्रवाह ढाल की ओर, ढाल अन्ततोगत्वा समुद्र तक जुड़ना। इसलिए सभी नदी का पानी समुद्र तक पहुँचना, स्वभाविक विधि से अथवा नियति विधि से सुस्पष्ट हो चुका है। पानी का हर दबाव, प्रवाह दूसरे प्रकार के प्रवाह, दबाव में परिवर्तित हो सकता है। इसमें से दबाव ही परिवर्तन का प्रधान  कारण है। जैसा पानी का वाष्प निश्चित दबाव के उपरान्त निश्चित प्रकार के यंत्रों को संचालित करने योग्य हो जाता है। जिसके फलन में चुम्बकीय विद्युत को पाया जाता है। इसमें से चुम्बकीयता दबाव के रुप में, विद्युत तरंग प्रवाह के रुप में होना स्पष्ट हो चुकी है। इससे यह पता लगता है कि कोई भी बल, दूसरे प्रकार के बल और प्रवाह का कारक बन सकता है। इसी विधि से तैलीय वस्तु को उष्मित करते हुए अर्थात् जलाते हुए कुछ यंत्रों को संचालित करना मानव परंपरा में सुलभ हो गया है। ऐसे यंत्रों से भी अनेक प्रकार के कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। जैसे धरती, पानी, हवा में चलने वाले यंत्रों के रुप में देखने को मिलता है। ऐसे तेल दहन प्रक्रिया से विद्युत पैदा करने वाले यंत्रों को संचालित किया जाता है। फलत: विद्युत चुम्बकीय प्रवाह और दबाव होता है। इसी प्रकार विकिरणीय द्रव्यों से भी उष्मा उद्गमन प्रक्रिया पूर्वक विद्युत प्रसारीय यंत्रों को भी संचालित किया जाना मानव ने अभ्यास किया है। इनके विसर्जन अर्थात् खनिज, कोयला, तेल और विकिरणीय द्रव्यों का विसर्जन अथवा अवशेष प्रदूषण का कारण बन बैठा है। इस मुद्दे पर पहले अध्ययन कर चुके हैं। इसके विकल्प के संदर्भ में भी प्रस्ताव के रूप में पानी के प्रवाह बल की ओर ध्यानाकर्षण किया गया है। इसी के साथ हवा और समुद्री तरंग की ओर भी ध्यान जाना आवश्यक है। सूर्य उष्मा की ओर भी मानव का ध्यान जाना, चुम्बकीय विद्युत धारा को प्राप्त करने के क्रम से उत्साहित होने की आवश्यकता है। तभी मानव का प्रदूषण कारी नियति विरोधी, विकास विरोधी, जागृति विरोधी, मानव विरोधी, धरती के वातावरण विरोधी, महा अपराध परंपरा से मुक्ति पाना संभव है। यह अस्तित्व विधि से स्थिति गति को जाँचने पर पता लगता है (जाँचने का मतलब परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण पूर्वक निश्चय करने से है) कि सभी इकाईयों की स्थिति में बल, गति में शक्ति का प्रदर्शन, प्रकाशन किये रहते हैं। ऐसी स्थिति, छोटे से छोटे और बड़े से बड़े, सम्पूर्ण इकाईयों में समान रुप में होना पाया जाता है। स्थिति गति संपन्न इकाई व्यवस्था व व्यवस्था में भागीदारी के रुप में होना पहले से स्पष्ट हो चुका है। स्थिति में बल संपन्नता का मतलब स्वयं में व्यवस्था का प्रमाण, गति में शक्ति का मतलब समग्र व्यवस्था में भागीदारी है। मूलत: हर इकाई व्यापक वस्तु में संपृक्त रहने के फलस्वरुप ऊर्जा संपन्नता, बल संपन्नता होना दृष्टव्य है। ऐसी हर इकाई के मूल में परमाणु ही है। परमाणु ही भौतिक, रासायनिक, जीवन क्रिया के रुप में कार्य करता हुआ सुस्पष्ट है। जीवन क्रिया के रुप में जितने भी परमाणु भागीदारी करते हैं, अर्थात् कार्य करते हैं, वे सब अणु बंधन, भार बंधन से मुक्त रहते हैं। अन्य सभी परमाणु जो भौतिक रासायनिक क्रिया में भागीदारी करते हैं, ये सब अणु बंधन, भार बंधन से युक्त रहते हैं। ऐसे अणु बंधन, भार बंधन वश ही छोटी रचना, बड़ी रचना के रुप में रचित होना पाया जाता है। सबसे छोटी रचना परमाणु ही है। परमाणु ही अणु और अणु रचित रचना के रुप में वैभव को प्रकट करते हैं। ऐसे वैभव का स्वरुप सहअस्तित्व सूत्र से ही अनुप्राणित रहता है। जैसा, एक परमाणु में एक से अधिक अंश होना, एक अणु में एक से अधिक परमाणु होना, अणु रचना में एक से अधिक अणु होना, ये सब अपने आप में सहअस्तित्व सूत्र से अनुप्राणित रहने वाले प्रमाण है। रचनाओं में भौतिक रचना, रासायनिक रचना ही होते हैं। इन रचनाओं में एक दूसरे के लिए पूरक और उपयोगी होना सुस्पष्ट हो चुका है। इन सभी प्रजाति के अणु में, स्थिति और गति दोनों की अभिव्यक्ति निरंतर वर्तमान है। ये कभी रुकने वाला नहीं है। सदा-सदा से ये क्रियाकलाप और प्रकाशन वर्तमान ही है। इसीलिए मानव इन सबका अध्ययन करने योग्य इकाई के रुप में प्रस्तुत है। इसीलिए स्वयं भी स्थिति में व्यवस्था, गति में समग्र व्यवस्था में भागीदारी को मानव को प्रमाणित करना है। तभी मन: स्वस्थता का प्रमाण, परंपरा में प्रस्तुत होता है। मन: स्वस्थता के बिना मानव में सर्वतोमुखी समाधान होना संभव ही नहीं है। इसीलिए मन: स्वस्थता मानव के लिए अत्यावश्यक अथवा परम आवश्यक उपलब्धि है।

इसी क्रम में समझदारी के आधार पर मानव अपने में सर्वतोमुखी समाधान रुपी मन: स्वस्थता के सूत्र में वैभवित होना स्वभाविक है। ऐसा वैभव ही अर्थात् समाधान संपन्नता ही समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करने में योग्य हो जाता है अथवा सफल हो जाता है। यही सफलता मानव परंपरा में, से, के लिए त्राण और प्राण है। त्राण का मतलब स्थिति है, प्राण का मतलब गति है। गति में प्रेरणा होना, वातावरण में अथवा प्रभाव क्षेत्र में व्यवस्था प्रमाणित होना, स्थिति में स्वयं व्यवस्था ही वैभव का सार्थक स्वरुप है। ऐसे वैभव को बनाये रखने में मानव में आशावादी प्रवृत्ति है ही। इसी प्रकार परमाणु में स्थिति में बल, गति में शक्ति का अर्थात् प्रभाव क्षेत्र संपन्न होना पाया जाता है। इस परस्पर प्रभाव क्षेत्र का सुरक्षित रहना ही परस्परता में अच्छी दूरी है। ऐसे प्रभावों से संपन्न हर इकाई परस्परता में अपने-अपने मौलिकता को बनाये रखने में सफल है, इसी का नाम है नियंत्रण।

परस्परता में अच्छी दूरी इस तरह से स्पष्ट हुई कि परस्परता में एक दूसरे का प्रभाव क्षेत्र बना रहे, सुरक्षित रहे। यह प्रभाव क्षेत्र व्यापक वस्तु में ही होना पाया जाता है। स्थिति भी, आकार, आयतन, घन भी व्यापक वस्तु में ही होना पाया जाता है। ये आकार क्रिया सहित ही होना पाया जाता है। हर परमाणु में क्रिया श्रम, गति, परिणाम के रुप में है। श्रम अपने में यथास्थिति का वैभव, गति अपने में प्रभाव को फैलाने का वैभव, परिणाम भिन्न यथास्थिति का वैभव होना पाया जाता है। इस प्रकार हर परिणाम मात्रात्मक व गुणात्मक श्रृंखला में सजा हुआ है। इसी में परिणाम धु्रव, दीर्घ परिणाम के रुप में होना पाया जाता है। ये मुख्य रुप में यथास्थितियों की स्थिरता, अस्थिरता की गणना में स्पष्ट होती है। प्रत्येक यथास्थितियाँ सहअस्तित्व सूत्र से सूत्रित होने के आधार पर पूरकता और उपयोगिता के अर्थ में सार्थक रहता है। इस प्रकार सभी वस्तु की सार्थकता समझ में आती है। एक अणु का भी ऐसा ही इतिहास है, एक अणु दूसरे अणु के साथ भी, परमाणु का प्रभाव क्षेत्र संबंधी क्षेत्र नियंत्रण बनाये रखते हुए एक दूसरे के साथ जुड़ कर पिण्ड रुप हो जाते हैं। इसमें मानव का कोई योगदान नहीं रहता है। ये सारे क्रिया कलाप, पूरकता और उपयोगिता विधि से जागृति और उसकी निरंतरता तक में सार्थकता को प्रमाणित किये रहते हैं। सभी अवस्थायें एक दूसरे के साथ जुड़ी हुई होती हैं। जैसे भौतिक क्रिया कलाप को रासायनिक क्रियाकलाप से, रासायनिक क्रिया कलाप को जीवों के क्रिया कलाप से और भौतिक रासायनिक क्रिया कलाप को मानव के क्रियाकलाप से अलग रखते हुए कोई कार्य व्यवहार संपन्न नहीं होता है, ना ही संपन्न किया जा सकता है। ये सब मानव के साथ अविभाज्य रुप में जुड़े ही रहते हैं। इनकी मर्यादायें निभाते ही रहते हैं। इनके साथ मर्यादा निभाने के लिए मानव को जानकारी होने की आवश्यकता है।

मनुष्येत्तर संपूर्ण प्रकृति मानव के लिए उपयोगी होते हुए मानव, मनुष्येत्तर प्रकृति के लिए पूरक होने से वंचित रहना ही संपूर्ण समस्याकारी प्रवृतियों का आधार रहा है। इससे क्रमागत विधि से जो कुछ भी उपलब्धियाँ मनाकार को सार्थक करने में हुई, उसका भी उपयोग सदुपयोग का रास्ता इसीलिए अड़चन में पड़ गया कि मन: स्वस्थता का भाग अपने आप में उपेक्षित रहा। इसीलिए इस वर्तमान में मन: स्वस्थता का अति आवश्यक होना समझ में आता है। सहअस्तित्व विधि से ही मन: स्वस्थता सर्वसुलभ होना पाया जाता है, यही सर्वशुभ की संभावना सुस्पष्ट है। मानव अपने में समाधान संपन्नता के उपरान्त ही मन: स्वस्थता को प्रमाणित करने में समर्थ होता है। समझ की परिपूर्णता ही मन: स्वस्थता का स्वरुप है। समझ सहअस्तित्व सहज स्वीकृति है। इस प्रकार संपूर्ण ज्ञान स्वीकृति के रुप में है। स्वीकृति, अस्वीकृति का अधिकार हर मानव में निहित है ही।

स्थिति गति का वैभव धरती, सौर व्यूह, अनेक सौर व्यूह, आकाश गंगा, सभी आकाश गंगा में होना पाया जाता है। इसका प्रमाण यह है, परमाणु से लेकर धरती तक सभी अपने अपने स्थिति गति में प्रमाणित होने तक अध्ययन गम्य हो जाता है। यहाँ तक अध्ययन हर मानव के लिए सुलभ है। इसके अनन्तर ऐसे ग्रह गोलों की स्थिति गति की स्वीकृति होती है। इसी प्रकार आकाश गंगा भी अनेक सौर व्यूहों का क्रियाकलाप होने के आधार पर स्थिति गति की स्वीकृति होती है। इसी के साथ व्यापक वस्तु की स्वीकृति रहती है। अतएव स्वीकृति की विशालता में से अपनी आवश्यकताओं को, प्रमाणों के रुप से अध्ययन करना मानव की एक आवश्यकता है। स्वीकृति के आधार पर अध्ययन होने की व्यवस्था मनुष्य की आवश्यकता अनुसार निर्भर है। जानने मानने की विशालता, व्यापक और अनंत के संबंध में स्वीकार चुके हैं। व्यापक और अनंत के बारे में जानने मानने के आधार पर किसी एक देशीय अध्ययन से, एक इकाई के अध्ययन से ऐसी सभी इकाईयों के रुप, गुण, स्वभाव, धर्म के प्रति आश्वस्त होना स्पष्ट हो चुका है। यह भी स्पष्ट हो चुका है कि समुद्र के एक बूंद पानी के परीक्षण से पूरे समुद्र का पानी कैसा है, इसको हम स्वीकार लेते हैं। लेकिन जितना है, इसको मापने कौन तैयार होता है, अपनी आवश्यकता के अनुसार नापते है। मानव की आवश्यकता भी सीमित है। नापने की क्रियाकलाप के परीक्षण से पता चलता है कि यह जोड़ना घटाना ही है, नापने में 1, 2, 3 ही लगता है। तौलने में भी। इसी प्रकार घटाना भी बनता है, एक तरफ जोड़ते हैं, एक तरफ घटता भी है। जोड़ने, घटाने दोनों को मिलाने से यथास्थिति ही हाथ लगती है। जैसा है, जितना है, यही यथास्थिति है। ऐसी यथास्थिति न ज्यादा है, न कम है, न घटता है, न बढ़ता है। इस स्थिति से अस्तित्व न घटता, न बढ़ता है। इस विधि से हमारी परीक्षण करने की सीमायें, अपनी आवश्यकता पर निर्भर रहना स्पष्ट हो जाती है। जोड़, घटाने के क्रम में ऋण अनन्त, धन अनन्त रुपी अर्थ मानव स्वीकार चुका है। इस प्रकार से अस्तित्व में अनन्त की कल्पना अथवा स्वीकृति, कुछ हद तक संख्याकरण न कर पाने के रुप में मानव परंपरा में स्वीकृत हो चुकी है। अभी तक व्यापक वस्तु का बोध अप्रचलित है। व्यापक वस्तु का बोध होने के उपरान्त अनन्त वस्तुएं कैसे हैं, इसका उत्तर मिल गया। अतएव समझदारी रुपी अध्ययन, व्यापक में अनन्त अविभाज्य होने का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान होने का आधार होना पाया गया। इसी क्रम में हर इकाई अपने स्थिति, गति के साथ वर्तमान है। वर्तमान का तात्पर्य वर्तते रहना है। वर्तते रहने का तात्पर्य क्रियाशील रहना है। क्रियाशील रहने का तात्पर्य आचरण स्पष्ट रहना है। आचरण स्पष्ट रहने का तात्पर्य स्थिति में त्व सहित व्यवस्था, गति में समग्र व्यवस्था में भागीदारी से है। यह धरती एक सौर व्यूह सूर्य के साथ जुड़े सभी ग्रह गोलों के समूह में भागीदारी करती हुई समझ में आती है। सभी ग्रह गोल अपने-अपने स्थिति गति में अनवरत कार्यरत हैं। एक दूसरे के हस्तक्षेप के बिना सभी एक दूसरे को पहचानते हुए निश्चित आचरण कर रहे हैं और सौर व्यूह की व्यवस्था में भागीदारी कर रहे हैं।

इसीलिए स्थिति है ही, गति भी है। इसी आधार पर धरती की स्थिति गति सबंधी अध्ययन भी हमारे समझ आना स्वभाविक है। इसी क्रम में एक सौर व्यूह अनेक सौर व्यूह के साथ निश्चित अच्छी दूरी में कार्य विन्यास करते हुए, सौर व्यूह त्व के वैभव को प्रकाशित करता है। ऐसे अनेकानेक सौर व्यूहों को अथवा ग्रह-व्यूहों को आज कल वैज्ञानिकों ने आकाश गंगा नाम दिया। आकाश गंगा भी अनेक होना पाया जाता है। ये सभी परस्परता में अच्छी दूरी में रहते हुए बड़ी व्यवस्था को बनाये रखने में भागीदारी करते हैं।..