Light & Reflection (प्रकाश एवं प्रतिबिम्ब)

 

प्रकाशन और प्रतिबिम्ब

*स्त्रोत = समधात्मक भौतिकवाद, संस १९९८, अध्याय ६ 

अस्तित्व में प्रत्येक एक प्रकाशमान हैं। प्रकाशमानता के मूल में सत्ता में संपृक्त बल संपन्न रहना ही हैं। बल संपन्नता ही प्रत्येक एक में, क्रियाशीलता का मूल तत्व हैं। प्रत्येक क्रिया श्रम, गति, परिणाम के रूप में स्पष्ट है ।

सत्ता अर्थात् स्थिति पूर्ण सत्ता में सम्पूर्ण वस्तुओं का सम्पृक्त एवं स्थितिशील होना देखने को मिलता है। ‘स्थिति’ बल का ही द्योतक हैं। बल स्थिति में होता है। शक्ति गति रूप में वर्तमान है। स्थिति और गति अविभाज्य हैं। गति ही शक्ति के नाम से ख्यात हैं। शक्तियाँ सम, विषम, मध्यस्थ रूप में प्रकाशित होती हुई देखने को मिलती हैं। सम्पूर्ण वस्तु स्थिति का, गति सहित वर्तमान होना पाया जाता है। इसी को ‘‘स्थितिशील’’ नाम दिया गया हैं। स्थिति शील प्रकृति में विकास बीज समाया रहता है, क्योंकि स्थिति पूर्ण में संपृक्त प्रकृति का पूर्णता में, से, के लिए गर्भित होना सहज हैं।

(1) बिम्ब का प्रतिबिम्ब:-सह-अस्तित्व सहज रूप में ही अविभाज्य वर्तमान के रूप में स्थिति पूर्णता में स्थितिशीलता वर्तमान होना दिखता हैं। दूसरे शब्दों में, स्थिति पूर्णता में स्थिति शीलता वर्तमान होना दिखता है। इसी आधार पर हम इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि स्थितिशील प्रकृति का क्रियाशील रहना, इसी में श्रम, गति, परिणाम के रूप में वर्तमान में प्रकाशित व प्रमाणित हैं। अस्तित्व में संपूर्ण भौतिक-रासायनिक वस्तुएँ, परिणामानुषंगीय विधि से, अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था में प्रमाणित व समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में विद्यमान है। व्यवस्था में भागीदार होना नित्य प्रमाणित हैं। प्रत्येक इकाई रूप, गुण, स्वभाव, धर्म सहज अस्तित्व हैं। इनका ससम्मुखता में प्रतिबिम्बित, परस्परता में प्रभावित, आदान-प्रदान रत होना और मूल्यांकित होना पाया जाता है।

प्रत्येक में अनंत कोण संपन्नता के आधार पर ससम्मुखता में बिंब का प्रतिबिम्ब होना पाया जाता है। परस्परता में प्रतिबिम्बन वस्तु का परस्पर पहचानने का प्रमाण हैं। गुण, शक्तियों के रूप में एक दूसरे पर प्रभावित करना भी पाया जाता है। यही प्रभाव व प्रभाव क्षेत्र हैं। यह दोनों क्रिया जड़ प्रकृति में देखने को मिलती हैं। जीव प्रकृति में मूल्यांकन अर्थात् स्वभाव की पहचान जीवों में देखने को मिलती हैं। यह विशेषकर मैत्री और विरोध करने के रूप में स्पष्ट होती हैं। मानव ज्ञानावस्था सहज वैभव हैं, इसलिए स्वभावों का मूल्यों के रूप में आदान-प्रदान धर्म का मूल्यांकन अर्थात् समाधान का मूल्यांकन परस्परता में सहज रूप में होना पाया जाता है। जीवों में, स्वभावों की पहचान अपनी वंश परंपरा में और वंशों की परस्परता में प्रकट होना पाया जाता हैं।

बिंब स्वयं में आकार, आयतन, घन के समान होता है। इकाई का चौखट इसी स्वरुप में होता हैं अथवा इसकी सीमा इसी स्वरुप में होती हैं। प्रत्येक एक सभी ओर से सीमित रहता ही हैं। प्रत्येक एक के सभी ओर सत्ता दिखाई पड़ती हैं। प्रत्येक एक सत्ता में ही दिखाई पड़ता हैं, इसलिए घिरा हुआ, डूबा हुआ प्रमाणित होता है। सत्ता पारगामी हैं। प्रत्येक एक ऊर्जा संपन्न, बल संपन्न और क्रियाशील है। इस आधार पर यह प्रमाणित है। इन प्रकरणों के अलावा और भी एक अद्भुत बात ध्यान में रखने योग्य हैं कि हर परस्परता में सत्तामयता देखने को मिलती हैं, जिसको हम शून्य, व्यापक, विशालता, अवकाश आदि नाम दे रखे हैं। यह सब एक ही वस्तु हैं, जिसकी वास्तविकता वर्तमान और व्यापकता है। व्यापक वस्तु न हो, ऐसी कोई स्थली कहीं नहीं हैं। यही सत्यता, सत्तामयता स्वयं व्यापक होने के तथ्य को, स्पष्ट करता है।

किसी वस्तु को, किसी वस्तु की अपेक्षा में केवल नापा जा सकता है। नाप-तोल का सभी प्रबंधन, मानव सहज आवश्यकता व कल्पनाशीलता की उपज हैं। हर वस्तु अपने रूप, गुण, स्वभाव और धर्म तथा उसके वातावरण से संपूर्ण है। आकार, आयतन, घन को नापना संभव हैं। सभी गुणों को नापना सम्भव नहीं हैं। सम, विषम आवेशों को नापना संभव हुआ हैं। मध्यस्थ बल वर्तमान व स्वभाव गति के मूल में मध्यस्थ शक्ति का होना जाना जाता हैं। मध्यस्थ शक्ति को नापना संभव नहीं हो पाया हैं। जबकि मध्यस्थ शक्ति ही नियंत्रक है, इसे मानव समझ और समझा सकता है। इस आधार पर सम, विषम प्रभाव परस्परता में होना देखा जाता है। ऐसी प्रभावन क्रियाकलापों में मात्रात्मक परिवर्तन होना पाया जाता है। ये सब चीजें मानव में दृष्टïा विधि से ही समझ में आता है। मानव में न्याय, धर्म, सत्य दृष्टियाँ और कल्पनाएँ भ्रमवश अस्पष्ट रहते हुए भी बहुत दूर-दूर तक दौड़ती है। इसी के आधार पर देखना बन पाता है। देखने का तात्पर्य समझना ही हैं। समझा नहीं तो देखा नहीं। समझने की सम्पूर्ण वस्तुएँ हैं-

स्थिति सत्य,

वस्तु स्थिति सत्य,

वस्तुगत सत्य।

स्थिति सत्य अपने आप में सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य-प्रकृति के रूप में वर्तमान हैं। जिसकी समझदारी अर्थात् दर्शन मानव में, से, के लिए ही संभव व प्रमाणित होता है, जिसमें पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था, ये सभी अवस्थाएँँ अविभाज्य रूप में सत्ता में संरक्षित व नियंत्रित रहना पाई जाती हैं।

वस्तु स्थिति सत्य ‘‘दिशा, काल, देश’’ के रूप में स्पष्ट है। परस्परता में दिशा हैं। इकाई में अनंत कोण हैं। हर वस्तु देश के रूप में उसी के रचना के समान होता है। क्रिया की अवधि, काल के रूप में, अस्तित्व में ही मानवकृत गणना है।

वस्तुगत सत्य प्रत्येक एक में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म सहित दृष्टव्य हैं।

रूप के आधार पर परस्परतायें नियंत्रित रहना परमाणु, अणु, अणु रचित पिंडों में देखने को मिलता है। रूप और गुण के आधार पर संपूर्ण प्राणावस्था की कोषा और कोषाओं से रचित सभी रचनाएँ नियंत्रित रहना स्पष्ट हैं। जीवावस्था के रूप, गुण, स्वभाव के आधार पर नियंत्रित रहना देखने को मिलता हैं। इसी आधार पर मानव का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के आधार पर नियंत्रित होना समीचीन है।

प्रतिबिंबन, सहजता से प्रकाशमानता हैं और इसमें प्रकाश समाया रहता हैं, जो अनुबिम्बन और प्रतिबिम्बन में वैभव हैं। वस्तुत: परस्पर सम्मुखता ही हैं, प्रतिबिम्बन होना और पहचानना। अस्तु, प्रत्येक वस्तु अपनी संपूर्णता के साथ व्यक्त रहता ही हैं। प्रतिबिंबन परस्पर भास होने के लिए अति आवश्यकीय तत्व हैं। प्रतिबिंबन मध्यस्थ स्थिति का ही द्योतक हैं। धरती मध्यस्थ स्थिति में हैं, संपूर्णता के साथ है। इसका प्रतिबिंबन सभी ओर होता है। इसी प्रकार धरती में जितनी वस्तुऐं हैं सभी अपनी संपूर्णता के साथ प्रतिबिंबित रहती ही हैं। सूर्य, सौरव्यूह, अनंत सौर व्यूह एक दूसरे पर प्रतिबिंबित रहते हैं। इस प्रकार प्रतिबिंबन, परस्पर प्रकाशमानता और प्रकाश का ही स्वरुप हैं। अस्तु, प्रकाशन और प्रतिबिंबन, गति या दबाव नहीं है। यद्यपि प्रत्येक वस्तु में निहित गुणों का परार्तवन होना पाया जाता है। जैसे- ऊष्मा, चुम्बकीयता, विद्युत, भार ये सब एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। प्रभाव क्षेत्र भी इन्हीं का वैभव है।

इसी आधार पर ऊष्मा, चुम्बकीयता व विद्युत प्रभाव परावर्तित होती हैं। तप्त बिंब की स्वभाव गति, जो विकास क्रम के अनुसार स्पष्ट हो चुकी हैं। ऐसी स्थिति स्थापित होने के लिए संपूर्ण वातावरण, धरती सहित अनेक कम ताप वाले यह गोल सूर्य से परावर्तित अधिक ताप को आबंटित कर लेते हैं। फलस्वरुप सूर्य का पूरकता विधि से अधिक ताप से मुक्त होने की संभावना भी बनी रहती है।

ताप मूलत: किसी इकाई के आवेश के समान होता है। कोई ग्रह-गोल में अंत: आवेश जितना अधिक होता है, उतना ही न्यून और न्यूनतम संख्यात्मक अंशों के परमाणु प्रजाति के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसी क्रम में परम तप्त बिंब के रूप में जो सूर्य है, उसमें जितनी भी वस्तुएँ है, वह सब न्यून संख्यात्मक परमाणु प्रजाति के रूप में ही अवस्थित हैं। जैसे-जैसे सूर्य ठंडा होता जायेगा, उसी में पूरक नियम के अनुसार अनेक संख्यात्मक प्रजाति के परमाणु स्थापित हो जाएँगे। इस प्रकार सूर्य में ऊष्मा का परावर्तन बिंब का प्रतिबिंबन स्पष्ट हो जाता है।

(2) बिंब का प्रतिबिंब, अनुबिंब, प्रत्यानुबिंब होता है:-हर वस्तु का प्रतिबिंबित होना और प्रकाशित रहना, सहज सत्य हैं। ऐसी प्रतिबिंबन क्रियाओं में तप्त परम बिंब का प्रतिबिंबन भी होता है। उसी के साथ अनुबिंबन, प्रत्यानुबिंबन होता है। जिसके ऊपर जिसका प्रतिबिंब पड़ा रहता है, वह वस्तु भी प्रतिबिंबित होने वाली हैं। इस आधार पर अनुबिंब विधि स्पष्ट होती है। जो कुछ भी प्रतिबिंबित हैं, वह प्रत्येक, जो जो प्रतिबिंबन है, उसके समुच्चय सहित ही उसका अनुबिंब, प्रति अनुबिंब होना पाया जाता है। इसे ऐसा भी समझ सकते हैं कि किसी एक व्यक्ति के ऊपर चार व्यक्तियों का प्रतिबिंब पड़ा हो, उसका प्रतिबिंबन, उन सभी प्रतिबिम्ब में समेत होता है। पहले से जिसका प्रतिबिंब रहा है, वे सब अनुबिंब में गण्य होते हैं। अनुबिंब जिस पर आता है, उस पर प्रतिङ्क्षबब भी रहता है। इसी प्रकार प्रत्यानुबिंब होता है। इस विधि से प्रत्येक अपारदर्शक वस्तु की परछाई स्वयं, तप्त बिम्ब का प्रतिबिम्ब, अनुबिम्ब, प्रत्यानुबिम्ब विधि से, शैन: शैन: परछांई की लम्बाई छोटी होती जाती है। परछांई की  लंबाई जहाँ समाप्त होती हैं, उसकी परछांई दिखाई नहीं पड़ती हैं। इस प्रकार से, प्रकाश के टेढ़ी होने की परिकल्पना की जा सकती हैं, जबकि सत्य ऐसा नहीं हैं। सत्यता यही हैं कि अनुबिंब, प्रत्यानुबिंब विधि से प्रकाशन, परछांई के सभी ओर निहित रहती हैं। विरल अणुओं पर अनुबिंब, प्रत्यानुंङ्क्षबब विधि से फैलने के आधार पर परछांई प्रकाश में ही छुप जाती हैं। ये तप्त परम बिंब का, प्रकाशन विधि क्रम हैं। कम या सामान्य ताप बिंब का प्रतिबिम्ब भी स्वाभाविक रूप में परस्परता में रहता ही है।