The Atom, Development & Awakening (परमाणु, विकास एवं जाग्रति)

 

(1) परमाणु संरचना एवं अणु रचना

* स्त्रोत = कर्म दर्शन, संस २, अध्याय ३, भाग १, २, ३ 

परमाणु संरचना को पहचानने की कामना मानव में सुदूर विगत से ही पायी जाती है।

मानव विघटन विधि से मूल वस्तु तक पहुँचने के लिए सोच, विचार, प्रयोग किया। विघटन के अंत में कोई निश्चित मूल वस्तु की अपेक्षा भी बनी रही।

उक्त मानसिकता के साथ प्रयोग करता हुआ मानव इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि किसी भी वस्तु को विघटित करते रहेंगे तो कोई ऐसी स्थिति में पहुँचेंगे जहाँ विघटित इकाईयाँ स्वचालित रूप में कार्य करता हुआ समझ में आता है। ऐसी कार्यरत इकाई को हम परमाणु कहते हैं। यह सब  कैसे कार्यरत है इसको समझने की इच्छा भी मानव में बनी रही है।

परमाणु के मध्य में एक या अधिक अंश और परिवेशों में घूमता हुआ एक या अधिक अंश होने की व्यवस्था है। इससे कम में परमाणु की बात बनती नहीं। मध्य या परिवेश में अंश की संख्या बढ़ती जाये, यह मानव कल्पना में आ ही जाती है।

इस संदर्भ में दो मुख्य प्रश्न ध्यान में आये

1. परमाणु अंश परस्परता में पहचान कैसे बना पाये

2. पहचानने के उपरांत वे व्यवस्था में  क्यों हो गये ?

इस सोच को आगे बढ़ाने पर समझ में आया कि सहअस्तित्व ही इसका प्रधान कारण है, क्योंकि व्यापक वस्तु ऊर्जा में ही संपूर्ण एक एक वस्तु डूबी, भीगी, घिरी है। व्यापक वस्तु इन सब में पारगामी है। इस प्रकार सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं बड़ी से बड़ी इकाई का व्यापक में संपृक्त रहने के आधार पर ऊर्जा सम्पन्न रहना स्पष्ट हुआ। ऊर्जा संपन्नतावश ही बल संपन्नता एवं चुम्बकीय बल संपन्नता होना समझ में आता है। इस बल संपन्नतावश ही सूक्ष्म परमाणु अंश में परस्परता को पहचानने और व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति है। एक दूसरे की पहचान को इस बल के प्रमाण के रूप में स्वीकार करने के लिए मनुष्य का होना आवश्यक है। मनुष्य ही प्रवृत्ति, कार्य, फलन को पहचानने के सहज अधिकार से संपन्न है। इसी क्रम में मनुष्य जब एक दूसरे को पहचानते हैं, वहाँ व्यवस्था के रूप में ही अपने को प्रस्तुत करते हैं। जहाँ-जहाँ इस अर्थ को पहचानने में चूक किये रहते हैं, अव्यवस्था के रूप में कार्य व्यवहार करते हुए समस्या का कारण बनते हैं। इस तरह यह समझ में आता है कि प्रत्येक परमाणु अंश (व्यापक में संपृक्त होने के आधार पर) एक दूसरे को पहचानने के फलस्वरूप ही व्यवस्था में कार्यरत हैं। व्यवस्था का कार्यरूप निश्चित आचरण ही है।

उक्त प्रकार से प्रत्येक परमाणु अंश भी ऊर्जा सम्पन्न होने के फलस्वरूप एक दूसरे को पहचानना स्वाभाविक होता है, इस पहचानने का प्रयोजन संयुक्त रूप में आचरण करना, इसे एक शाश्वत नियम के रूप में समझा गया। इससे यह भी सूत्र निकलता है कि ऐसे पहचानने  के आधार पर  ही गठन-संगठन होना और गठन-संगठन का व्यवस्था के अर्थ में प्रमाणित होना, नित्य वर्तमान है। इस प्रकार व्यापक वस्तु में ही संपूर्ण एक-एक वस्तुएँ संपृक्त होना और इसे सहअस्तित्व के रूप में समझ पाना सुलभ हो गया है। इस क्रम में सहअस्तित्व नित्य प्रभावित होना, हम मानव को स्वीकार होता है।

सह अस्तित्व ही मूल सूत्र और व्यवस्था का आधार हुआ। हर स्थिति गति के मूल में सहअस्तित्व सुस्पष्ट है। इस प्रकार सहअस्तित्व ही विविध कार्य (क्रिया), उन-उन के आचरण का आधार होना सुस्पष्ट हुआ।

परमाणुओं में कार्यरत अंशों के संख्या भेद होने से ही आचरण भेद होना पाया गया। ऐसे आचरण भेद के आधार पर ही परमाणु की प्रजाति और प्रजातियों की संख्या का निर्धारण करने का मानव ने प्रयास किया। इस धरती पर 108 प्रजातियों के परमाणु होने का दावा मानव अभी तक कर चुके हैं और प्रजाति के परमाणु को खोज करने की आशा बनाये हुए हैं।

परमाणु को इस प्रकार समझने पर व्यवस्था केन्द्रित मानसिकता में हम मानव स्पष्ट हो जाते हैं। फलस्वरूप, मानव अपने में सहज व्यवस्था को पहचानने को तत्पर होना सहज रहा। इस क्रम में मानवीयतापूर्ण आचरण को समझना मानव के लिए सहज हो गया। इससे मूल्य, चरित्र, नैतिकता का संयुक्त अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन मानव परंपरा में, से, के लिए व्यवस्था का आधार होना पाया जाता है।

इसी तथ्यवश पशु-संसार, वनस्पति-संसार और खनिज संसार – ठोस, तरल, विरल रूप में जितने भी प्रजाति गणित है, सभी के मूल में परमाणु ही है तथा जीवन भी परमाणु है। हर प्रजाति का परमाणु निश्चित आचरण करता है। इसलिए मानव भी (जो जीवन और शरीर का संयुक्त रूप है) निश्चित आचरणपूर्वक व्यवस्था में जीना चाहता है। परमाणु संरचना की महिमा आचरण में ही स्पष्ट होना और आचरण अपने में क्रिया के रूप में होना सहज रहा।

परमाणु रचना के संदर्भ में यह भी स्पष्ट होता है कि परमाणु अंश एक दूसरे के सहअस्तित्व में ही प्रमाणित होते हैं। असीम अवकाश (व्यापक) में अलग रहने वाला परमाणु अंश व्यवस्था रूपी आशय को प्रमाणित किये नहीं रहता है, इसलिए असीम अवकाश में घूर्णन रूप में कार्य करता हुआ, दूसरे अंश की तलाश में रहता है। अंतत: वह किसी दूसरे परमाणु में समाहित हो जाता है, या दूसरे परमाणु अंश के साथ निश्चित परमाणु बना लेता है। इससे यह पता लगता है कि परमाणु गठन के उपरांत ही व्यवस्था का प्रकाशन, व्यवस्था प्रकाशित होने के क्रम में आचरण का प्रकाशन होता है। यही भौतिक, रासायनिक और जीवन क्रियाकलाप के रूप में स्पष्ट है।

परमाणु संरचनाऐं एक से अधिक अंशों पर आधारित रहना स्पष्ट हो चुकी है, यह भी स्पष्ट हो चुकी है कि हर प्रजाति का परमाणु स्वचालित रहता है। इनका आचरण निश्चित होता है।

हर परमाणु की रचना मध्यांश तथा परिवेशों में कार्यरत अंशों के रूप में समझ में आती है। परिवेशों में जितने भी अंश कार्य कर रहे हैं, उतने अंश मध्य में होते ही हैं, उससे अधिक होना भी संभावित है। परिवेशों का मतलब मध्यांश के सभी ओर चक्कर काटता हुआ अंशों से है। ऐसे परिवेश एक व एक से अधिक होते हैं। ये परिवेश चार से अधिक होने पर घटने और चार से कम होने पर बढ़ने की संभावना सदा-सदा बनी रहती है। ऐसे परमाणु विभिन्न संख्यात्मक स्थितियों में अपने-अपने प्रजाति के स्वरूप में विद्यमान रहते हैं। इन परमाणुओं में निहित मध्यांशों की संख्या के आधार पर भार निर्भर रहता है। इसी स्वरूप में निहित भार वश एक परमाणु दूसरे परमाणु को पहचानते हुए एकत्रित होते हैं, इसे हम अणु कहते हैं। ऐसे अणु ठोस, तरल, विरल रूप में पाये जाते हैं। ठोस रचनाएँ धरती जैसे बड़े-बड़े रचना के रूप में स्पष्ट हो चुकी हैं। तरल वस्तु ही रासायनिक संसार की आरंभिक वस्तु मानी जाती है। यह सब यौगिक विधि से घटित होते हैं। इसमें मानव का कोई योगदान नहीं होता, मानव केवल इसको अध्ययन करता है। अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि इनके साथ सहज कार्य व्यवस्था को पहचानना संभव हो पाता है। रसायन द्रव्यों के आधार पर ही पुष्टि-तत्व, रचना-तत्व के योगफल में प्राणकोषाओं का क्रियाकलाप स्पष्ट होता है।

भौतिक रासायनिक क्रियाकलाप के मूल में परमाणु और अणु ही क्रियाकलाप करता हुआ पहचानने में आता है। इस प्रकार अणु अपने स्वरूप में निरंतर व्यवस्था के रूप में ही काम करता है। व्यवस्था के रूप में काम करने का प्रमाण व्यवस्था क्रम में आगे की स्थिति गति स्पष्ट होने से है (वर्तमान होने से है)।

प्रत्येक परमाणु और अणु अपने प्रजाति का एक सीढ़ी होना पाया जाता है। सीढ़ी होने का तात्पर्य उसकी यथास्थिति, उसकी निरंतरता से ही है। जैसे दो अंश के परमाणु के रूप में एक यथास्थिति है। यही एक सोपान है। इनका निश्चित आचरण होना ही इनका वैभव है। ऐसा निश्चित आचरण होना ही, आगे सोपान का आधार होना बन जाता है, बना ही रहता है। विभिन्न संख्यात्मक अंशों वाले परमाणु, अणुओं का निश्चित आचरण स्थापित हुआ ही रहता है। यही एक अद्भुत स्वयंस्फूर्त व्यवस्था स्वरूप, मानव के समक्ष सुस्पष्ट है।

ऐसे भौतिक अणु-परमाणु रासायनिक क्रियाकलाप में भागीदारी करता हुआ प्रत्येक स्थिति गति के रूप में अध्ययन गम्य है। इन सभी अणु परमाणुओं का सुस्पष्ट प्रयोजन, धरती जैसी बड़ी-बड़ी रचना के रूप में स्पष्ट होता है। यह इस बात का द्योतक है कि धरती पर रासायनिक क्रिया आरंभ होने के पहले जितने प्रजाति के परमाणु अणु होना आवश्यक है, यह नियति सहज विधि से ही संपन्न हुआ रहता है। नियति सहज विधि का तात्पर्य ही सहअस्तित्व विधि से है। सभी प्रजाति के परमाणु-अणु से संपन्न होने के उपरांत ही यौगिक प्रवृत्ति व प्रक्रियायें संपन्न होती रहती है। इस धरती पर इसका गवाही सुस्पष्ट है।

उक्त सभी प्रकाशन, पदार्थावस्था में अणु परमाणु प्रजाति के आधार पर होना, अणु परमाणुओं की प्रजातियाँ परमाणु अंशों की संख्या पर निर्भर रहना सुस्पष्ट है। अंशों की संख्या बदलना और बदलने के फलस्वरूप ही परिणाम है। ऐसे परिणाम निरंतर बने ही रहते हैं। इसी क्रियाकलाप का नाम है प्रस्थापन-विस्थापन। परमाणुओं में प्रस्थापन-विस्थापन, परिणाम सहज आशय को पूरा करने के लिए ही बना रहता है। इसी में एक दूसरे के साथ पूरक होने की प्रक्रिया का आशय भी संपन्न हुआ रहता है। किसी भी परमाणु से कुछ अंश विस्थापन होने से पूर्व वह परमाणु आवेशित रहना पाया जाता है, आवेशित होने के फलस्वरूप ही किसी परमाणु से विस्थापित होना संभव होता है। वह अंश किसी परमाणु में समा जाता है। इसी क्रिया का नाम प्रस्थापन है। इस प्रकार विस्थापित होने के बाद, विस्थापित परमाणु स्वभाव गति में होता है, प्रस्थापित परमाणु प्रस्थापित अंश को समा लेने के बाद उत्सवित होकर स्वभाव गति प्रतिष्ठा में होता है। स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही हर परमाणु, अणु, अणु रचनाऐं निश्चित आचरण को संपन्न करता हुआ स्पष्ट होता है। निश्चित आचरण ही व्यवस्था का प्रमाण है। इस क्रम में विकास का आशय समाहित रहता है।

(2) विकासक्रम, विकास

विकास क्रम में अनेक प्रजाति के अणु, परमाणु, अणु रचित रचनाऐं सुस्पष्ट हैं। जैसे धरती एवं अनेक ग्रह-गोल अस्तित्व में विद्यमान है। ये सभी रचनाऐं ठोस, तरल, विरल के रूप में ही वर्तमान हैं। इस धरती पर ये तीनों स्थितियाँ सुस्पष्ट हैं। इनमें से तरल वस्तु के रूप में जो पानी है, वही सर्वप्रथम यौगिक क्रिया का वैभव है। पानी का धरती के संयोग के आधार पर अम्ल और क्षार होना पाया जाता है। इनका निश्चित मात्रा तक उदय होने के बाद ही ब्रह्माण्डीय ऊष्मा के संयोजन से, प्रतिबिंबन (परस्परता में पहचानने का आधार) प्रभाव से पुष्टि तत्व व रचना तत्व के रूप में द्रव्य रचनायें होना पानी में पाया जाता है। इसके मूल रूप को ‘काई’ कहा जाता है। ऐसे काई के अनन्तर ही प्राणकोषाओं से रचित रचनायें एककोशीय, द्विकोशीय, बहुकोशीय विधि से घटित हो चुकी है। यह एक रचना में विकास क्रम को प्रदर्शित करता है। यह धरती अपने में मृदा, पाषाण, मणि, धातु के रूप में बड़ी रचना के रूप में विद्यमान है। यौगिक क्रिया वैभव के रूप में प्राणकोषाओं से रचित रचनाओं को वनस्पति संसार कहते हैं। ये सभी वनस्पति संसार धरती से अभिन्न रहते ही हैं, धरती के साथ जुड़े ही रहते हैं। इससे यह पता लगता है कि धरती के रूप में वैभवित द्रव्यों के संयोजन से ही यौगिक क्रिया वैभव संपन्न होना और इसके मूल स्वरूप से भिन्न व्यक्त होने का उत्सव होना होता है। यही रासायनिक उर्मि है। रासायनिक द्रव्यों के उत्सव को हम उर्मि कह रहे हैं।

हर प्राणकोषा में प्राण सूत्रों का होना पाया जाता है। इसी में रचना-तत्व व पुष्टि-तत्व निश्चित मात्रा में समाया रहता है और रचना विधि निहित रहता है। ऐसे प्राणसूत्र अपने में श्वसन क्रिया संपन्न रहते हैं। इनमें अपने जैसे सूत्रों को विपुलीकरण करने का उत्सव बना रहता है। इसके लिए रासायनिक द्रव्यों की उपलब्धि, निश्चित उष्मा का योग आवश्यक रहता ही है। ऐसी प्राणकोषायें जीवों के, मनुष्य के, शरीर के, हड्डी के पोल में भरे रसों में निर्मित होना पाया जाता है और यह शरीर की आवश्यकतानुसार वितरित होता है। इसी के साथ प्राणसूत्रों के संयोजनवश अनेक सूत्र और कोषा निर्मित होते हैं। फलस्वरूप ऐसी कोशिकायें रसायन द्रव्यों के साथ, रक्त के रूप में अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए, शरीर की रचना में कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। वनस्पति संसार में, रस संचार तंत्रणा में पत्ती और जड़ की क्रियाकलाप से रस संचय होता है, फलस्वरूप प्राणकोषायें बनती रहती हैं। इस प्रकार रचनायें, रचनाओं में विकास प्रवृत्ति, प्राणकोषाओं में समाहित रहना सुस्पष्ट है। इसका प्रमाण रचनाओं में विविधता ही है। वर्तमान में पायी जाने वाली विभिन्न रचनायें, रचना में विकासक्रम की गवाही है। इस क्रम में मनुष्य शरीर रचना तक का वैभव इस धरती पर स्पष्ट हो चुका है।

प्राणकोषाओं से रचनायें छोटे बड़े पौधे, वृक्ष, लता, गुल्म के रूप में होते हुए आगे छोटे, बड़े जीवों के शरीर के रूप में अपने को स्पष्ट करती है। वनस्पति संसार की रचनाओं में कार्यरत प्राणकोषाऐं विकसित होकर रचना विधि में परिवर्तन को व्यक्त करती हैं जो जीव शरीर संसार की रचनायें, वह भी मनुष्य शरीर तक की रचना का आधार बनती है, यह सुस्पष्ट हो चुकी है। प्रकृति में चार अवस्थायें द्रष्टव्य है। पदार्थावस्था मृदा पाषाण आदि के रूप में। प्राणावस्था पेड़-पौधे, वनस्पति संसार के रूप में। जीवावस्था और ज्ञानावस्था शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में द्रष्टव्य है। प्राणावस्था व जीवावस्था के शरीर के रचना क्रम में स्वदेज संसार होना भी पाया जाता है। यह ऐसे देखने को मिलता है कि वनस्पति संसार का अवशेष सूखा पत्ता आदि जब एकत्रित होते हैं, पानी और ऊष्मा पाकर अनेक भुनगी-कीड़े अपने आप पैदा हो जाते हैं। यही आगे अण्डज संसार के रूप में प्रदर्शित होते हैं। इस विधि से ये गुणवत्ता को स्थापित करता हुआ देखने को मिलता है। यह स्वेदज संसार जलचर, भूचर, नभचर के रूप में देखने को मिलता है। अण्डज संसार बलवती होते हुए आकाश में उड़ता हुआ पक्षियों के रूप में, बड़े-बड़े जलचरों और भूचरों के रूप में देखने को मिलते हैं। ऐसे अण्डज संसार पिण्डज संसार को जोड़ता है। पिण्डज संसार अपने में अण्डज संसार से विकसित रचना है। अण्डज, पिण्डज संसार के उपरांत रासायनिक द्रव्यों का विश्लेषण-संश्लेषण सप्त धातुओं के रूप में होता हुआ मनुष्य शरीर रचना तक सुस्पष्ट हुई है।

इन सारे रचनाओं का क्रम और मनुष्य शरीर के अध्ययन से यही पता लगता है कि मनुष्य शरीर में मेधस रचना की समृद्घि पूर्णतया सुस्पष्ट हुई है। इसका प्रमाण यही है कि मानव में कल्पना-शीलता, कर्मस्वतंत्रता और उसकी तृप्ति के रूप में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने को मेधस के माध्यम से व्यक्त करने योग्य इकाई है। मनुष्येत्तर संसार पहचानना, निर्वाह करने तक सीमित है। पहचानना, निर्वाह करने का आधार भी बल संपन्नता ही है। यही ऊर्जा संपन्नता, बल संपन्नता जीवंत स्वस्थ मानव में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित हो चुकी है। यह मेधसतंत्र समृद्घ होने की गवाही भी है। उक्त विधि से रचनाओं में विकास होने की रूप रेखा विदित होती है। इसके पहले यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि परमाणु में ही विकास होता है। ऐसे विकसित परमाणु गठनपूर्ण होते हैं, यही चैतन्य इकाई है, यही जीवन है। जीवन ही शरीर को जीवंत बनाये रखते हुए समझदारी को प्रमाणित करता है।

 

 (3) परमाणु में विकास

इससे पहले रचनाओं में विकासक्रम स्पष्ट हुआ है। यह विकासक्रम परमाणु, अणु, अणुरचित पिण्ड, वनस्पति संसार, पशु-शरीर, मनुष्य-शरीर की रचना तक, रचना में विकास क्रम को स्पष्ट किये है। मनुष्य शरीर सर्वोच्च विकसित रचना के रूप में अध्ययन गम्य है।

मनुष्य शरीर सर्वोच्च विकसित रचना इसलिये है कि मनुष्य शरीर में मेधस रचना पूर्णतया विकसित हो चुकी है। सुदूर विगत से ही मानव न्याय, धर्म, सत्य संबधी तथ्यों का उद्घाटित करने का इच्छुक रहा है। इस क्रम में जितने भी प्रयोग हुए हैं और आगे भी सूझ-बूझ को विकसित करने की आवश्यकता बनी रही। प्रयासों के क्रम में आदर्शवादी, भौतिकवादी सूझबूझ प्रयोग में आई। फल-परिणाम मानव कुल में आंकलित हो चुका है।

न्याय की अपेक्षा आज भी सर्वाधिक मानव में बनी हुई है।

उक्त क्रम में अस्तित्व को सहअस्तित्व के रूप में समझने के लिए, अभिव्यक्त करने के लिए प्रयास प्रस्तुत है। अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होने के आधार पर रचनाओं में विकासक्रम स्पष्ट हुआ। हर रचनाओं के मूल में परमाणु होना स्पष्ट है। परमाणुओं में विकासक्रम होना, विकास होना भी समझ में आता है।

परमाणु में विकास का तात्पर्य परमाणु के गठनपूर्ण होने से है। मानव में एक बात की चाहत बनी ही है – यथास्थिति, वैभव, उसकी निरंतरता – यह स्वाभाविक रूप में स्वीकृत है। परमाणुओं में अंशों का घटना-बढ़ना, परिणाम के स्वरूप में हम समझ चुके हैं। परिणाम का अमरत्व, उसकी निरंतरता की अपेक्षा मानव में ही कल्पना, भास, आभास, प्रतीति के रूप में पाया जाता है। इसके लिए बहुत सारे प्रयास होना भी स्वाभाविक है। सहअस्तित्ववादी विधि से यह स्पष्ट हो गया है कि विकास क्रम में अनेक रचनायें, स्थिति-परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर हो चुकी है। इसके मूल में परमाणु ही कार्यरत रहना स्पष्ट हो चुका है। ऐसा परिणामरत परमाणु ही गठन तृप्त पद में घटित हो जाता है। इस घटना के लिए स्वाभाविक क्रिया परिणाम विधि ही है।

परिणाम क्रम में परमाणुओं को भूखे और अजीर्ण पदों में समझना सहज हो गया है। अजीर्ण परमाणु अपने गठन में से समाहित कुछ अंशों को बहिर्गत करने के प्रयास में रहते हैं। ऐसे परमाणु विकिरणीय वैभव से सम्पन्न रहते हैं। विकिरणीयता को ऐसा समझा जा सकता है कि परमाणुओं में क्रियाशीलता सदा-सदा बनाए रखता है, क्रियाशीलता के फलन में ध्वनि, ताप, विद्युत अपने आप निष्पन्न होता ही है। व्यापक वस्तु में भीगे रहने के फलस्वरूप ऊर्जा सम्पन्नता, बल सम्पन्नता बनाये रखते हैं। यही बल सम्पन्नता, चुम्बकीय बल के रूप में गण्य होता है। अतएव, विकरणीय परमाणु अपने गठन में अजीर्णता को व्यक्त किये रहते हैं, क्योंकि अपने गठन से कुछ अंशों को बहिर्गत करने का प्रयास बना ही रहता है। इस क्रम में विकरणीयता इस प्रकार से उपार्जित हुआ रहता है कि अजीर्ण परमाणु में मध्यांशों की ओर ताप का अन्त:र्नियोजन होता है। इसी क्रम में विद्युत भी बना ही रहता है। यही दोनों प्रक्रिया के फलस्वरूप विकरणीयता प्रगट रहती है।

भूखे परमाणुओं में कुछ और अंशों को अपने में समा लेने की सम्भावना बनी ही रहती है। इसीलिए भूखे परमाणु नाम है। परमाणुओं में अजीर्ण और भूखा होना तृप्त परमाणुओं के अर्थ  में ही समझ में आता है (मानव ही उसका अध्ययन करने वाला है)। ऐसा तृप्त परमाणु ही अर्थात् गठन तृप्त परमाणु ही जीवन पद में होना पाया जाता है। फलस्वरूप, गठनपूर्ण परमाणु में बल और शक्ति अक्षय हो जाते हैं। अक्षयता का तात्पर्य ही है कि कितना भी व्यक्त करें, खर्च करें, घटता ही नहीं है। कितना भी आशा, विचार, इच्छा, प्रमाणों को व्यक्त करें, घटता ही नहीं है, और प्रखर होते रहते हैं। इसलिए अक्षय नाम दिया है। ऐसी अक्षयता को हर मानव अपने में परीक्षण पूर्वक पहचान सकता है।

मानव ही अस्तित्व में एक इकाई है जो स्वयं का भी अध्ययन कर सकता है और सम्पूर्ण का भी अध्ययन कर सकता है। इसी महिमावश मानव अपने पद-प्रतिष्ठा के रूप में ज्ञानावस्था में होना स्पष्ट किया जा चुका है। हर नर-नारी ज्ञानावस्था में समान वैभव है। यही परस्पर समानता का सूत्र है। इस सूत्र को भुलावा देना ही भ्रम का द्योतक है।

इस प्रकार जीवन अपने में एक गठनपूर्ण परमाणु के रूप में होना और चैतन्य क्रियाकलाप के रूप में होना तथा मानव शरीर द्वारा मानव परम्परा में प्रमाणित होना सुस्पष्ट है। इस वैभव प्रतिष्ठा को बनाये रखने में हर मानव को आश्वस्त होने, विश्वस्त होने की मूल आवश्यकता के रूप में अध्ययन करने, समझने और इसे प्रमाणित करने के कार्य में प्रवृत्तियाँ प्रवर्तित हैं। इस प्रकार परमाणु में विकास का मंजिल गठनपूर्ण पद ही है।

उक्त विधि से यह सुस्पष्ट हो गया है कि भौतिक क्रिया, रासायनिक क्रिया, जीवन क्रिया के मूल में परमाणु ही है। जीवन परमाणु गठनपूर्ण है और भौतिक, रासायनिक क्रिया में भागीदारी करते हुए परमाणु गठनशील है। गठनशीलता विधि से भार बंधन, अणु बंधन होना पाया जाता है। वहीं जीवन परमाणु भार बंधन, अणु बंधन से मुक्त रहना पाया जाता है। इसका प्रमाण हर मानव में निहित आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और प्रमाणों को भौतिकीय तुला पर आंकलन और संख्याकरण न कर पाना ही है। भौतिकीय तुला एक उपाय है भार को पहचानने का। इस गवाही से यह स्पष्ट है कि भौतिक परमाणु ही विकासक्रम में गुजरते हुए, गठनपूर्ण पद में संक्रमण घटना सम्पन्न होना मानव को समझ में आता है। दूसरे विधि से परमाणु ही गठनशील पद में जड़ और गठनपूर्ण पद में चैतन्य है। विकासक्रम के बिना विकास का अध्ययन ही नहीं होता। चैतन्य परमाणु, (जीवन ही) परम्परा के रूप में, विकास, विकसित पद, जागृति क्रम, जागृति को अध्ययन व प्रमाणित करता हुआ पाया जाता है। इस तथ्य के आधार पर मानव परम्परा में ही जागृति प्रमाणित होने की व्यवस्था है अर्थात् जागृतिपूर्वक ही मानव परम्परा वैभवित होने की व्यवस्था नियति विधि से बनी हुई है। नियति विधि का तात्पर्य सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व वैभव विधि, प्रक्रिया, फल, परिणाम, उसकी निरंतरता से है।

परमाणु में विकास, गठनपूर्ण पद में अथवा गठनपूर्ण परमाणु के रूप में है। मानव ‘है’ का अध्ययन करता है। अध्ययन का तात्पर्य अनुभव के प्रकाश में स्मरण पूर्वक अर्थात् शब्दों का स्मरण पूर्वक, अर्थों से इंगित वस्तुओं का, अस्तित्व में पहचान पाना है। इस प्रकार शब्दों का स्मरण, शब्दों के अर्थ से इंगित वस्तुएं अस्तित्व में सुपष्ट होना ही जागृति है। सुस्पष्टता का तात्पर्य स्वयं में अनुभव, कार्य-व्यवहार में प्रमाण होना ही है।

परमाणु में विकास का मतलब यह स्पष्ट हुआ कि परमाणु गठनपूर्ण पद में होना और गठनपूर्ण परमाणु जागृत होना, यही नियति है। यह मानव परंपरा में ही प्रमाणित होता है। इसको मानव परम्परा में व्यक्त करने योग्य शरीर रचना पहले से बन चुकी है। इस शरीर के द्वारा अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए मानव ने भाँति-भाँति के प्रयोग किये। परन्तु, परमाणु में विकास का आशय गठनपूर्ण परमाणु है, ऐसा परम्परा में व्याख्यायित न हो पाने के आधार पर जीवन पद का अध्ययन नहीं हो पाया। जीवन में घटित होने वाली जागृति के प्रकाश में ही जीवन पद का अध्ययन होना पाया जाता है। इसलिये इसका जिक्र यहाँ करना स्वाभाविक रहा।

गठनपूर्ण परमाणु भ्रमवश शरीर को जीवन समझने तक, परमाणु में विकास को समझने में समर्थ नहीं रहता है। भौतिक, रासायनिक विकासक्रम में मानव शरीर तथा परमाणु में विकास पूर्वक जीवन और जीवन जागृति को प्रमाणित करने के क्रम में ही मानव परंपरा में जागृति को प्रमाणित करना होता है। जागृति के प्रमाण का मतलब ही है न्यायपूर्वक, समाधानपूर्वक, यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता पूर्वक प्रमाणित होना। प्रमाणित होने का मतलब परम्परा में होना ही है। उक्त पाँचों विधाएं प्रमाणित होने के क्रम में पीढ़ी से पीढ़ी प्रमाणित होना स्वाभाविक है, यही जागृत परम्परा है।

मानव में यह वैभव देखने को मिलता है कि वह उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील प्रमाणित किया हुआ शोध अनुसंधान को शिक्षा पूर्वक, अध्ययन पूर्वक, अभ्यास पूर्वक लोकव्यापीकरण करता हुआ पाया जाता है।

उक्त विधा में अभी तक मनाकार को साकार करने का जितना भी प्रयोग हुआ, वह सब लोकव्यापीकरण हुआ। और मन:स्वस्थता के लिए जितना भी प्रयोग हुआ, लोकव्यापीकरण नहीं हुआ। जबकि मानव की परिभाषा ही मनाकार को साकार करने वाला, मन:स्वस्थता का प्रमाण प्रस्तुत करने वाला है (आशावादी तो है ही)।

परमाणु में विकास के चलते गठनपूर्णता एक संक्रमण घटना रही। संक्रमणीयता का तात्पर्य पुन: पूर्व स्थिति में न आने वाला। परिणाम से मुक्ति का तात्पर्य परमाणु में से कुछ अंश घटने, बढ़ने की घटना से मुक्ति।

सहअस्तित्ववादी विधि से शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव परम्परा वैभवित है। जीवन जागृति ही मन:स्वस्थता का प्रमाण है। जीवन में ही सम्पादित होने वाली, वैभवित होने वाली, अनुभव मूलक विधि से, अनुभवों का बोध बुद्घि में, चिंतन चित्त में, न्याय धर्म सत्य पूर्वक समुचित तुलन क्रिया वृत्ति में (विचारण क्रिया) और मूल्यों का आस्वादन क्रिया मन में होना पाया जाता है। मूल्यों का आस्वादन क्रिया पूर्वक कार्य-व्यवहार तभी सम्भव है जब सम्बन्धों का पहचान स्वीकार्य रहता है। सम्बन्धों को पहचानने के उपरांत ही मूल्यों का निर्वाह कर पाता है।

संबंधों के साथ मूल्य, मूल्यों के साथ वस्तुओं का अर्पण-समर्पण, वस्तुओं के अर्पण-समर्पण के साथ उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता प्रमाणित होता हुआ अर्थात् वैभवित होता हुआ पाया जाता है। यही परमाणु में विकास और जागृति का तात्पर्य है। केवल मानव ही जागृति का प्रमाण प्रस्तुत करने योग्य इकाई है।

जागृति का सम्पूर्ण स्वरूप जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही है। पदार्थावस्था, प्राणावस्था और जीवावस्था ये सब पहचानना, निर्वाह करने के साथ अपने आचरण को ‘‘त्व’’ सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित करते हैं। जबकि मानव में पहचानना, निर्वाह करना के साथ जानना, मानना एक आवश्यकीय प्रक्रिया रही है। इसे भली प्रकार से केवल मानव कुल में ही प्रमाणित होना पाया जाता है। जानना, मानना के साथ ही मानव ज्ञानावस्था में होने के तथ्य को प्रमाणित करता है।

मूल रूप में परमाणु ही सारे क्रियाकलापों का मूल वस्तु है। परमाणु में विकासक्रम और विकास के फलस्वरूप भौतिक, रासायनिक और जीवन क्रिया का होना पाया जाता है। गठनशील परमाणु के रूप में संसार का वैभव पदार्थावस्था, प्राणावस्था से लेकर समृद्घ मेधस रचना के रूप में दिखाई पड़ता है।

परमाणु में विकास का पहला चरण गठनपूर्णता के रूप में स्पष्ट होता है, जिसके फलस्वरूप जीवन एक चैतन्य इकाई के रूप में अक्षय क्रिया होना पाया जाता है।

जीवन परमाणु का जागृत होना (क्रियापूर्णता) परमाणु में विकास का दूसरा चरण है और इस जागृति को मानव परंपरा में प्रमाणित करना (आचरणपूर्णता) अंतिम चरण है।

इस प्रकार गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता इन तीनों चरणों में परमाणु में विकास व जागृति पूरा होता है। परमाणु में विकास का अर्थ यही है।