Stability & Orderliness in Existence (अस्तित्व में स्थिरता एवं व्यवस्था)

 

सहअस्तित्व स्थिर है,  विकास और जागृति निश्चित है

 * स्त्रोत = कर्म दर्शन, सं २, अध्याय ३, भाग ५ 

सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व स्थिर है। सहअस्तित्व में ही विकास और जागृति निश्चित है। इस धरती पर हम मानव इस तथ्य का अध्ययन करने योग्य स्थिति में हो चुके हैं। शुभ का दृष्टा, कर्त्ता, भोक्ता, उसके मूल में शिक्षा संस्कार से पाई गयी ज्ञान, विज्ञान, विवेक का धारक-वाहक केवल जागृत मानव ही है। ये तथ्य अपने को भली प्रकार से समझ में आता है। सहअस्तित्ववादी दर्शन, ज्ञान, विज्ञान, विवेक पूर्वक ही हर मानव सर्वशुभ घटनाक्रम में अपने को व्यवस्था सहज रूप में प्रमाणित करते हुए, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना बन जाता है। यही सर्व शुभ कार्यक्रम का पहुँच और प्रगट रूप है। इसके लिये अर्थात् सार्वभौम ज्ञान, विज्ञान, विवेक के लिये अध्ययन ही मात्र एक स्रोत है। ज्ञान, विज्ञान का स्वरूप अपने में सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व दर्शन ज्ञान, चैतन्य प्रकृति रूपी जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण रूपी क्रिया व्यवहार ज्ञान और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का ज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान है। इनमें से सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व को चार अवस्थाओं में और चार पदों में अध्ययन करना बन पाता है। इसका मूल स्वरूप व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तुओं का डूबा, भीगा, घिरा रहना ही है। यही सहअस्तित्व रूपी नित्य स्वरूप है। यह अपने में घटना-बढ़ना होता ही नहीं, फैलना सिकुड़ना होता ही नहीं, हर हाल में होना ही बना रहता है। इकाईयों की परस्परता में, निश्चित अच्छी दूरियों में, हर इकाईयों में स्वभाव गति प्रमाणित होने की व्यवस्था है ही। क्योंकि, हर परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंशों को पहचानने की स्थिति में ही परमाणु गठन के फलन में निश्चित आचरण चरितार्थ होता हुआ समझ में आया है। निश्चित आचरण का ही स्वभाव-गति नाम है। इसलिये स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही हर इकाई अथवा संपूर्ण इकाईयाँ त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में  भागीदारी करता हुआ देखने, समझने में आता है। स्वयं के अध्ययन से भी यही स्थिति उद्घाटित होती है। इस अर्थ में विकास और जागृति निश्चित है।

हम मानव की स्वभाव गति में ही अर्थात् स्वभाव गति सम्पन्नता के उपरान्त ही, मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति होती है। ऐसी स्वभाव गति, जागृति के उपरान्त ही होना पायी जाती है। जागृति तभी प्रमाणित होती है, जब मानव समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी सम्पन्न हो जाता है, फलत: भागीदारी पूर्वक अपने महिमा, यथा स्थिति को प्रमाणित करता है। दूसरे क्रम में यह भी समझ में आया कि मानव ही समझदार होने योग्य है। मानव स्थिरता, निश्चयता को समझने के उपरान्त ही स्वयं निश्चयता और स्थिरता के लिये ईमानदार हो पाता है, जिम्मेदार हो पाता है । फलस्वरूप भागीदारी पूर्वक प्रमाणित हो पाता है। इसलिये मानव को समझदार होना आवश्यक है इसकी अपेक्षा अर्थात् समझदारी की अपेक्षा सर्वमानव में होना पाया जाता है।

सह-अस्तित्व, पूरकता, और व्यवस्था

* स्त्रोत = समाधानात्मक भौतिकवाद, संस १९९८, अध्याय ६ 

सह-अस्तित्व पूरकता और व्यवस्था

इस अध्याय में युद्घ के स्थान पर सह-अस्तित्व, शोषण के स्थान पर पूरकता, अव्यवस्था के स्थान पर व्यवस्था और संग्रह के स्थान पर समृद्घि के लिए प्रेरणा है।

‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’ भौतिक-रासायनिक वस्तुओं को व्यवस्था के रूप में अध्ययनगम्य कराता है।

अस्तित्व ही अध्ययन की सम्पूर्ण वस्तु हैं। सह-अस्तित्व में ही रासायनिक-भौतिक वैभव विद्यमान हैं। भौतिक वस्तुएँ ठोस और विरल रूप में विद्यमान हैं। जबकि रासायनिक द्रव्य ठोस, तरल, विरल रूप में वैभवित है। भौतिक क्रिया-कलापों के मूल में, आधार बिन्दु के रूप में परमाणु है । परमाणु आधार होने का तात्पर्य वह अपनी स्वभाव गति में स्वयं एक व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी है यह प्रमाणित होता है। परमाणु के स्वभाव गति में होने का प्रमाण, अनेकानेक परमाणु मिलकर अणु के रूप में व्यक्त होने से है। ऐसे अनेक अणुओं का बड़े-छोटे पिण्डों के रूप में रचित रहना दृष्यव्य हैं। इसी तथ्य के आधार पर यह धरती बड़े से बड़े पिण्ड के रूप में दिखती हैं। यह सब स्वभाव गति सहज अस्तित्व का वैभव हैं- यह समझ में आता है। परमाणु अपने में एक से अधिक अंशों के सह-अस्तित्व में व्यवस्था है। प्रत्येक परमाणु एक से अधिक अंशों के साथ ही स्वयं व्यवस्था होने, समग्र व्यवस्था के साथ भागीदार होने के प्रमाण को प्रस्तुत करता है। परमाणु अपने में व्यवस्था के रूप में हैं, इस क्रम में एक से अधिक अंशों के साथ ही सह-अस्तित्व अवश्यम्भावी हुआ। इसके मूल में अस्तित्व हैं, सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य-प्रकृति के रूप में, इस तरह सह-अस्तित्व नित्य वर्तमान है। इस प्रकार अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व के रूप में नित्य प्रभावी एवं वर्तमान है । वर्तमान ही वस्तुओं में वास्तविकता का प्रकाशन है। वास्तविकता, तात्विक रूप में, वस्तुओं की बनावट और उसके वैभव सहज योगफल के समान (बराबर) होता हैं। प्रत्येक वस्तु का संपूर्ण वैभव उसके वातावरण अथवा प्रभाव क्षेत्र सहित गम्य होता है। अस्तित्व में प्रत्येक एक, सत्ता में संपृक्त वैभव होने के फलस्वरुप बल सम्पन्नता, चुम्बकीय बल सम्पन्नता के रूप में प्रमाणित है। इसी सत्यवता वश, प्रत्येक अंश में भी बल सम्पन्नता अस्तित्व सहज है। इसका प्रमाण है- एक से अधिक अंश ही, परस्पर निश्चित दूरी में होते हुए, व्यवस्था को व्यक्त करते हैं। प्रत्येक परमाणु एक से अधिक अंशों से गठित रहता ही हैं। प्रत्येक परमाणु में गतिपथ सहित परमाणु अंश कार्यरत रहते हैं। कम से कम दो अंशों से संपन्न अथवा गठित परमाणु गति पथ सहित होता है। ऐसे दो अंशों के परमाणु में भी मध्य में एक अंश होता हैं और उसके सभी ओर चक्कर काटता हुआ एक दूसरा अंश देखने को मिलता है। ऐसे परमाणु अपने स्वभाव गति में अणुओं के रूप में और पिण्डों के रूप में होते हैं। ऐसे सीमित संख्यात्मक अंशों से गठित प्रत्येक परमाणु अपनें में एक व्यवस्था है- यह प्रमाण मिलता ही हैं। किसी एक संख्यात्मक अंशों से संपन्न सम्पूर्ण परमाणु एक ही प्रजाति के होते हैं। इनमें किसी भी प्रकार का व्यतिरेक नहीं होता है। उन प्रजाति के परमाणु अपने में व्यवस्था के आधार पर सक्षम होते हैं। यही स्वभाव गति प्रतिष्ठा का सहज प्रमाण हैं। केवल अंशों के रूप में, अर्थात् किसी परमाणु में समाया न हो ऐसे अंश इस धरती और धरती के वातावरण में न्यूनतम अथवा नहीं के बराबर होते हैं।

न्यूनतम संख्या में यदि कोई अंश हो तो वह आवेशित गति में ही होता है। ऐसे अंश का स्वभाव गति प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठित किसी परमाणु के साथ संयोग होना अवश्यभावी रहता है। तभी वह अंश संयोग में आए किसी परमाणु में समा जाता हैं।  इसका प्रमाण यही है कि एक परमाणु अपने स्वभाव गति में हो, दूसरी प्रजाति का अर्थात् स्वभाव गति से भिन्न, संख्यात्मक अंशों से गठित परमाणु आवेशित हो; ऐसी स्थिति में आवेशित परमाणुओं में से कुछ संख्यात्मक अंश बहिर्गत होना चाहते हैं और आवेशित अवस्था में किसी अवधि में कुछ अंश उस परमाणु से बहिर्गत होता भी है। उस स्थिति में यह देखने को मिलता है कि जो परमाणु स्वभाव गति प्रतिष्ठा में स्थित रहा वह परमाणु बहिर्गत अंशों को अपने गठन में आत्मसात करता हैं अर्थात् अपनाता है। फलस्वरुप वह स्वयं समृद्घ होता है। अस्तित्व सहज रूप में, उक्त विधि से, भौतिक वस्तुओं का क्रियाकलाप बुनियादी तौर पर अध्ययनगम्य होता है।

सम्पूर्ण वस्तुएँ सत्ता में ही सम्पृक्त हैं एवं बल संपन्न हैं। इस कारण प्रत्येक अंश में, अंश के अंशों में भी व्यवस्था के रूप में व्यक्त होने का मूल बीज समाया हुआ है। इसकी साक्षी ऊर्जा सम्पन्नता ही है। सत्ता में संपृक्तता ही निरंतर मूल ऊर्जा स्रोत का आधार हैं। सत्तामयता सम्पूर्ण प्रकृति को नित्य प्राप्त हैं । सत्ता इस रूप में व्यापक ऐश्वर्य को सह-अस्तित्व में ही वर्तमान सहज रूप में अभिव्यक्त किया है। इसीलिए सम्पूर्ण अस्तित्व निरंतर व्यक्त है।

मानव परंपरा में व्यक्त और अव्यक्त की चर्चाएँ रही हैं। जबकि अस्तित्व सहज रूप में संपूर्ण अस्तित्व व्यक्त रूप में देखने को मिलता हैं। सत्तामयता ही परम सूक्ष्म अस्तित्व कहा जा सकता है। मानव को अपनी समझदारी को व्यक्त करने के लिए भाषा का प्रयोग करना भी एक आवश्यकता है। जीवावस्था एवं स्वेदज में भी ध्वनियों के आधार पर पुरानी पीढ़ी के कार्यकलापों को पहचानते एवं संपन्न करते हुए देखने को मिला।

भाषा और मानव भाषा:

भाषा और मानव भाषा में जो महत्ताएँ हैं, उन तत्वों को यहाँ समझ लेना प्रासंगिक होगा। इसके मूल में मानव को एक जाति के रूप में पहचानना एक अनिवार्यता है- क्योंकि संघर्ष युग से समाधान की ओर संक्रमित होने के लिए मानव को एक जाति के रूप में पहचानना बहुत आवश्यक है। इसमें अर्थात् मानव को एक जाति के रूप में पहचानने में जो कठिनाइयाँ गुजरीं, उसे मानव के विभिन्न इतिहासों में स्पष्ट किया गया है। पुन: इस बात को ध्यान में लाना आवश्यक है कि किसी नस्ल, रंग, जाति, सम्प्रदाय, वर्ग अथवा धर्म कहलाने वाले मत-मतान्तर अथवा मतभेदों से भरे हुए धर्म, पंथ, भाषा या देश के आधार पर सम्पूर्ण मानव को एक जाति के रूप में एक इकाई के रूप में पहचाना नहीं जा सका। मानव की एक जाति के रूप में, एक इकाई के रूप में पहचानने के लिए मूल तत्व सार्वभौम व्यवस्था ही है। जिस व्यवस्था का सूत्र मानवत्व ही है।

मानवत्व सहित मानव स्वयं व्यवस्था है; यही सर्वतोमुखी समाधान, सुख, परम सांैदर्य और मानव धर्म हैं। इस प्रकार मानव धर्म के आधार पर ही एक इकाई के रूप में मानव को पहचाना जा सकता हैं। इस प्रकार समाधान युग में संक्रमित होने के लिए मानव को एक इकाई के रूप में पहचानना अनिवार्य स्थिति है अथवा परम आवश्यकता हैं। इसी के साथ मानव भाषा को पहचानना भी आवश्यकता के रूप में अथवा अनिवार्यता के रूप में आई। बोलने का तरीका, ध्वनि, उच्चारण, मानव सहज कर्म स्वतंत्रता और कल्पनाशीलता के चलते अनेक प्रकार से अभ्यस्त हो सका है। मानव भाषा का अर्थ एक ही होता है अथवा सभी भाषाओं का अर्थ एक ही होता है। यह भाषा अस्तित्व में किसी वस्तु, कार्य, देश, काल, प्रक्रिया, परिणाम, स्थिति, गति का निर्देशित व इंगित होना हैं। अर्थात् भाषा का अर्थ अस्तित्व सहज वर्तमान ही होता है। जैसे कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, गधा, बैल, बाघ, भालू, धरती, पानी, आकाश, तारागण, सौर व्यूह, मानव आदि जितने भी नाम लेते हैं ये अभी तक भी सभी भाषाओं में इनके लिए प्रयुक्त ध्वनि गति तरंग और उसको प्रस्तुत करने की अंग अवयवों का उपयोग और तरीका- ये सब मिलकर भाषा का स्वरुप होता हैं। जैसे- हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के नाम हैं। इन भाषाओं से इंगित होने वाली वस्तुएँ अस्तित्व में हैं, अस्तित्व से हैं, अस्तित्व के लिए हैं। इस आधार पर पानी के लिए कोई भाषा बोली जाये उसका अर्थ वस्तु के रूप में पानी ही है। प्रत्येक वस्तु के लिए कोई भाषा अपने तरीके से प्रस्तुत हो उस अर्थ में मिलने वाली वस्तु अस्तित्व में ही है। इस प्रकार मानव किसी भी प्रकार से भाषा का प्रयोग करें उसमें अर्थ रुपी वस्तु अस्तित्व में होना प्रमाणित होता है। इस प्रकार कोई भी भाषा हो या कितनी भी भाषाएँ हों उसका आश्य या अर्थ अस्तित्व में किसी निश्चित वस्तु को निर्देशित करना ही है।

‘‘वाद : सम्पूर्ण अस्तित्व ही व्यक्त समझ में आने से है या अव्यक्त समझ में नहीं आने से है।’’ इस विवाद में मानव फँसा रहा। अस्तित्व समझ में नहीं आया है, क्योंकि अभी तक प्रचलित दोनों वादों (भौतिकवाद, अध्यात्मवाद) अस्तित्व में से किसी एक भाग को सर्वस्व मान कर अथवा वस्तु मानकर सारी कल्पनाओं को फैला दिया। ऐसी फैलाई हुई कल्पनाएँ खासी मोटी वांङ्गïमय बनकर मानव के सम्मुख रखी हुई हैं। ऐसे मोटे वाङ्गïमय से निपटना अर्थात् मूल रूप में परिशीलन करना हर व्यक्ति के बलबूते में नहीं है। इसलिए सर्वाधिक व्यक्ति किसी एक वाद के पीछे चल देते हैं। इस विधि से प्रत्येक व्यक्ति के आगे एक वांङ्गïमय या एक मानव ही रह जाता हैं। इससे और भी एक निश्चयात्मक समीक्षा समझ में आती है कि वांङ्गïमय की राशियाँ दो ही प्रजाति में है। एक प्रजाति के मूल में रहस्य ही रहस्य हैं जिसकी थाह पाना किसी के लिए संभव हुआ ही नहीं। दूसरी प्रजाति के मूल में अनिश्चयता और अस्थिरता जुड़ी है। हर व्यक्ति इस बात को समझ सकता हैं कि अनिश्चयता, अस्थिरता और रहस्य की लंबाई चौड़ाई को मापना किसी के लिए भी संभव नहीं हैं। इसलिए ये दोनों वाद मानव मानस के लिए ‘‘यही सत्य है’’- ऐसा अंगुलि न्यास कर सकें अथवा इंगित करा सकें ऐसा कोई ध्रुव वस्तु हाथ नहीं लगा।

अस्तित्व:- सत्य में पूर्णतया इंगित होने, तृप्त होने, गतिशील होने और नित्य निश्चित होने के रूप में हम प्रत्येक मानव को अस्तित्व में, से, के लिए देख सकते हैं। अस्तित्व न घटता है, न बढ़ता है इसलिए अस्तित्व स्थिर है यह दिखाई पड़ता हैं। अस्तित्व नित्य वर्तमान है, इसीलिए,  अस्तित्व निरंतर स्थिर है यह दिखाई पड़ता हैं। अस्तित्व स्वयं किसी के लिए बाधा नहीं हैं और अस्तित्व पर किसी की बाधा अथवा हस्तक्षेप भी नहीं हैं। अस्तित्व निरंतर सामरस्य है, समाधान है, इसीलिए अस्तित्व ही परम सत्य है।

सत्ता:- अस्तित्व में सत्ता व्यापक रूप में हर किसी को दिखती हैं। दिखने का मतलब समझ में आने से हैं । अस्तु, प्रत्येक मानव में, से, के लिए सत्ता व्यापक रूप में विद्यमान है। यह दिखता है। जैसे एक दूसरे के बीच में जो कुछ भी शून्य दिखाई पड़ता है वह मूलत: सत्ता ही है। भौतिक -रासायनिक वस्तुएँ और जीवन जैसी वस्तु (वास्तविकता) सत्ता में संपृक्त है। इसीलिए प्रत्येक एक सत्ता में घिरा और डूबा हुआ दिखाई पड़ता हैं ऐसा दिखने के आधार पर ही एक दूसरे की दूरी की कल्पना मानव करता हैं और दिखाई पड़ता है। जैसे सूर्य से धरती की दूरी दिखती हैं। यह धरती तथा ऐसे ही प्रत्येक धरती सत्ता में डूबा, घिरा और भीगा हुआ है। डूबा, घिरा दिखना स्वयं एक दूसरे के बीच में जो वस्तु है- इसी को देखना हुआ, यही सत्ता है।

भ्रम:- रासायनिक, भौतिक वस्तुएँ ठोस, तरल और विरल रुपों में विद्यमान हैं। विरल अवस्था में भी प्रत्येक अणु अथवा सम्मिलित एक से अधिक अणु ‘‘एक’’ के रूप में ख्यात हैं। इसी भांति परमाणु में निहित अंशों में, उन अंशों को यदि विखण्डित किया जाये तो प्रत्येक खंड ‘‘एक’’ ही कहलाएगा। यह क्रिया व्यवहार रूप में तो होती नहीं तथापि मानव की कल्पना सहज वैभव को गणित के रूप में पहचाना गया है। गणित विधि से मूलत: मानव की कल्पनाशीलता विधि से, विखंडन की परिकल्पना है। इस विधि से भी, परमाणु में निहित एक अंश को, अनेकानेक खंडों में विभक्त करने के पश्चात भी प्रत्येक खंड ‘‘एक’’ ही कहलाता है। इस प्रकार किसी का तिरोभाव नहीं हो सकता। इस सत्य के खिलाफ मानव की कल्पनाशीलता प्रादुर्भाव और तिरोभाव के चक्कर में पडक़र अथवा भ्रम में ग्रसित होकर परेशान ही हुई है। अस्तित्व में कोई ऐसी चीज नहीं है, जो पैदा होती हो अथवा जो हैं वह मिट जाता हो; यह दोनों क्रियाएँ अस्तित्व में नहीं हैं। इसी भ्रमपूर्ण कल्पनावश मानव परेशान रहा हैं। इससे यह भी समझ में आता है कि ‘‘जो था, वही होता है; जैसे अस्तित्व में पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था थी’’ । इसकी गवाही इस धरती पर स्पष्ट हैं। इसका दृष्टा मानव ही हैं। इस ज्वलंत उदाहरण से ‘‘जो था वही होता है, और जो था नहीं वह होता नहीं।’’

इस मुद्दे पर बुद्घिजीवी अपने विवेक का प्रयोग कर सकते हैं । इस धरती के पहले किस धरती पर ये चारों अवस्थायें कहाँ थी, यह पूछ सकते हैं। इसमें दो दोष ऐसा आता है – देश और काल। अस्तित्व सहज वैभव में अर्थात् अस्तित्व सहज नित्य वर्तमान रुपी वैभव में देश और काल हस्तक्षेप नहीं कर पाते।

भ्रमित मानस: – वर्तमान की अक्षुण्णता को अथवा निरंतरता को किसी और विधि से प्रयोग करना संभव नहीं हैं। जो कुछ भी विधियाँ हैं, वे सब अस्तित्व सहज है। उन सबकी निरंतरता है। किसी भी एक और विधि को देश, काल में सीमित नहीं किया जा सकता। जब कभी भी कोई बात सीमित होती हैं, वह निषेध ही है। अद्भुत बात यह है कि अस्तित्व में निषेध नहीं है। निषेध का स्थान नहीं है, निषेध का गति नहीं हैं, निषेध का स्थिति नहीं है। निषेध शब्द आप हमारे सम्मुख आते रहा हैं यह मानवकृत ही है। उसी क्रम में यहाँ मानव उपयोग किया गया है। अब यह प्रश्न होता हैं कि निषेध शब्द है क्या? इसका सहज उत्तर यही हैं कि ‘‘यह भ्रमित मानस का प्रकाशन है।’’ यह भ्रमित कल्पना का प्रकाशन है और भ्रमित इच्छाओं का प्रकाशन हैं। इन चारों प्रकार से भ्रमित प्रकाशन का आधार केवल मानव ही हैं। अब यह भी प्रश्न हो सकता है कि मानव भ्रमित होता क्यों है? भ्रम में फंसता क्यों है? इसका उत्तर अस्तित्व सहज रूप में देखा गया हैं कि मानव एक ऐसी वस्तु (वास्तविकता) है, जिसमें मानवेतर प्रकृति से भिन्न मौलिक वर्चस्व सम्पन्नता सहज उत्सव जैसा – विधि एवं निषेध से नियंत्रित होना है। इनमें से प्रथम- कर्म स्वतंत्रता है। दूसरा- कल्पनाशीलता है। तीसरा- कर्म करते समय में स्वतंत्र, फल भोगते समय में परतंत्र हैं। चौथा- अपनी परिभाषा में मनाकार को साकार करने वाला मन:स्वस्थता का आशावादी एवं प्रमाणित करने वाला है। ये सब मौलिकताएँ प्रत्येक मानव में निरीक्षण, परीक्षण पूर्वक देखना सहज है। इन्हीं सब ऐश्वर्यों के चलते जागृति पूर्वक मानव ही अस्तित्व में दृष्टा है- यह मौलिकता भी मानव की झोली में रखी हुई है। ये सब रहते हुए भ्रमित होने का मूल तत्व यहीं हैं, सशक्त तत्व यही हैं-

1. अभी तक बनी हुई व्यक्तिवादी, समुदायवादी परंपराएँ है।

2. नैसर्गिकता है।

3. वातावरण है।

सम्पूर्ण अस्तित्व में प्रत्येक एक व्यापक में स्थित अनंत सहज वातावरण ही है। ‘‘नैसर्गिकता’’ धरती, हवा, पानी और हरियाली एवं जीवों के रूप में देखने को मिलती हैं । प्रत्येक मानव को संस्कार परंपरा से ही मिलते हैं। यह सब नित्य प्रमाण ही हैं। इन्हीं के आधार पर केवल मानव की देन रुपी शिक्षा-संस्कार से ही मानव का भ्रमित होना देखा जा रहा है। इस मोड़ पर बुद्घिजीवी कहलाने वाले यह भी पूछ सकते हैं कि भ्रम-निभ्र्रम की बात छेडऩे वाला आदमी भ्रमित नहीं है? इस बात को पहचाना कैसे जाये? क्योंकि पहले जिस वातावरण, नैसर्गिकता और परंपरा की बात कही गई हैं उसी में से किसी परंपरा में यह आदमी भी है। इस प्रकार से प्रश्न होना मानव की कल्पनाशीलता सहज वैभव है।

भ्रम-निभ्र्रम:- इस प्रश्न का उत्तर अस्तित्व में दृष्टा(जागृत व्यक्ति) व्यक्ति दे सकता है। इसीलिए इस व्यक्ति ने भ्रम-निभ्र्रम की बात उठाई है। सहज रूप में अस्तित्व में पढ़ लिया है, देख लिया है, समझ लिया है। यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि भौतिक-रासायनिक वस्तुओं को जब अवस्था के रूप में अध्ययन करने के लिए – ‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’ संकल्पित हो गया, तब यह विश्वास करने के लायक है कि जो-जो बातें कही गई हैं वे अध्ययन के लायक हैं। इनके लिए किन्हीं पूर्व ग्रंथों का उद्धरण नहीं हैं। इसलिए इन बातों का अध्ययन करके जो भी इसे समझना चाहे, इसे समझा जा सकता है तथा इन बातों पर विश्वास किया जा सकता हैं। इस आधार पर यह जो कुछ भी प्रस्तुत है, वह मूलत: ‘‘अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन’’ है। यह बात पहले भी कही जा चुकी है। इसको पढऩे वाला और अध्ययन करने वाला मानव ही होगा और हर मानव अस्तित्व में ही वर्तमान हैं। इन सहज तथ्यों को स्वीकारना पर्याप्त हैं। भ्रम-निभ्र्रम मानव में, मानव से, मानव के लिए जागृति क्रम से स्पष्ट होता हैं। जो था, वही वर्तमान हैं। इन दोनों बातों के लिए पुष्टि प्रस्तुत की जा रही है। इस सहज तथ्य में मानव ही देखने समझने योग्य हैं। अस्तित्व स्वयं वर्तमान है और अस्तित्व में मानव अविभाज्य रूप में वर्तमान है। यही ध्रुव बिन्दु हैं, जहाँ निर्णय कर सकते हैं कि जो भी हैं, वही होता है। यही उत्तर पाने की स्थिति हैं। मानव के सम्मुख मानव सहित चारों अवस्थाओं में प्रकृति सत्ता में दिखती हैं। इन चारों अवस्थाओं की प्रकृति, इस धरती में दिखती हैं। यह धरती स्वयं एक सौरव्यूह के अंगभूत कार्यरत दिखाई पड़ती हैं । यह सौरव्यूह अनंत सौरव्यूहों के अंगभूत रूप में कार्यरत दिखाई पड़ता है। दिखने से तात्पर्य समझने से ही हैं। समझने की क्षमता प्रत्येक मानव में जीवन सहज रूप में समाई हुई हैं। जीवन तात्विक रूप में गठनपूर्ण परमाणु है। यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है। जीवन में ही आशा, विचार, इच्छा और संकल्प तथा प्रामाणिकता रुपी अक्षय शक्तियाँ कार्य करती हुई, प्रत्येक मानव में दिखाई पड़ती है जिसका अध्ययन किया जा सकता है। इसी प्रकार मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि, आत्मा रुपी अक्षय बल प्रत्येक मानव में क्रियारत है। इसका विश्लेषण भी पहले स्पष्ट किया जा चुका है। स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि जीवन सहज शक्ति और बल अविभाज्य रूप में कार्यरत रहते हंै। इसके अध्ययन के लिए वस्तु मानव है और अध्ययन संभव है। इसी विधि से प्रत्येक मनुष्य द्वारा स्वयं को अध्ययन करना भी संभव हो गया। इसके लिए जीवन विद्या कार्यक्रम योजना और ज्ञान प्रमाणित होने को आगे प्रस्तुत किया गया है। ऐसा अक्षय बल, अक्षय शक्ति संपन्न जीवन ही जागृति पूर्वक दृष्टापद में वैभवित होने और प्रमाणित होने का कार्य सहज ही कर पाता है; जब से मानव परंपरा जागृत हो जाये तभी से।

परम्परा जागृत होने के क्रम में ही विकल्पात्मक दर्शन, विकल्पात्मक विचारधारा और विकल्पात्मक शास्त्रों को अर्पित करने के क्रम में ही यह ‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’ एक प्रबंध है। इस प्रबंध में अस्तित्व सहज अध्ययन प्रस्तुत करना हमारी प्रतिबद्घता है। अस्तित्व निरतंर व्यक्त रूप है। इसका प्रमाण वर्तमान है। अस्तित्व स्वयं समाधान रूप है। मानव की भ्रमित बुद्घिवश सम्पूर्ण समस्याएँ मानव के लिए, समुदाय कल्पनावश मानव से निर्मित हैं। इस बीच नैसर्गिकता के साथ जो कुछ भी अपराध, अत्याचार मानव ने किया है, उसके कुछ परिणाम मानव को भयभीत करने के रूप में घटनाएँ देखने सुनने को मिल रही हैं। जैसे- प्रदूषण, ऋतु असंतुलन, भूमि के वातावरण में असंतुलन आदि। मानव के साथ मानव समुदाय चेतना के आधार पर विकसित, अविकसित के आधार पर जो कुछ भी द्रोह, विद्रोह और शोषण हुआ है, उससे युद्घ का प्रभाव और भावी महायुद्घ की संभावना ने मानव को आकुल-व्याकुल कर दिया हैं। आज मानव के पास समाधान की कोई दिशा न होने से मानव के प्रताडि़त, शोषित होने को स्वीकारने की विवशता में मानव आ गया है। पर इसका निराकरण एक विधि से हैं- वह है ‘‘समाधान विधि’’। अस्तित्व स्वयं समाधान है, इसीलिए अस्तित्व सहज विधि से ही सर्वमानव के समाधानित होने का सूत्र और संभावना समीचीन हैं। इसकी आवश्यकता को अधिकांश लोग अनुभव कर रहे हंै।

पूरकता विधि से समाधान:-

अस्तित्व में समाधान, दर्शनक्रम में किसी एक की भी ख्याति समाप्त नहीं हो सकती, चाहे मानव कितना भी समस्यात्मक प्रयत्न कर ले। अर्थात् कोई न कोई मानव संतान ही सर्वशुभ समाधान के लिए प्रयत्नशील रहता ही है। इससे यह ज्ञान, विवेक और प्रक्रिया सुलभ होती हैं कि एक दूसरे को मिटाने की आवश्यकता नहीं। सभी अवस्थाओं का अपना-अपना उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन अस्तित्व सहज विधि से ही अनुबंधित है। यही पूरकता विधि है। मानव में यह पूरकता विधि संबंधों को पहचानने के आधार पर या संबंधों को निर्वाह करने के प्रमाणों के आधार पर सार्थक होती हैं । प्रत्येक मानव में यह अध्ययनगम्य होता हैं कि जहाँ-जहाँ हम संबंधों को पहचान पाते हैं, वहाँ-वहाँ मूल्यों का निर्वाह होना पाया जाता है। इस तथ्य के आधार पर अस्तित्व में परस्पर संबंध एक मौलिक अनुबंध है। ये भी अनुबंध पूर्णता और उसकी निरंतरता के लिए अनुबंधित हैं। पदार्थावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से जीवावस्था, जीवावस्था से ज्ञानावस्था अनुबंधित हैं ही इसका प्रमाण इन सब का वर्तमान ही है। इसी आधार पर ज्ञानावस्था से जीवावस्था, जीवावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से पदार्थावस्था की परस्परता में अनुबंध है। इनमें से मानव के अतिरिक्त सभी अवस्थाओं ने अपने अनुबंध को पूरकता विधि से प्रमाणित किया है। क्योंकि पदार्थावस्था के अनंतर प्राणावस्था, पदार्थावस्था प्राणावस्था के अनंतर जीवावस्था, पदार्थावस्था प्राणावस्था जीवावस्था के अनंतर ज्ञानावस्था का प्रार्दुभाव, प्रकाशन इस धरती पर हुआ है। इस धरती पर मानव की समझ में यह भी आता हैं कि जीवावस्था, प्राणावस्था और पदार्थावस्था परस्पर पूरक हैं। वे सब मानव के लिए पूरक है हीं; पर बीसवीं शताब्दी के अंत तक मानव ने जो कुछ किया है, उससे मानव का अन्य तीनों अवस्थाओं की प्रकृति के साथ पूरक होने के स्थान पर विरोधी होना व विद्रोही होना प्रमाणित हुआ है। इसका प्रमाण प्रबुद्घ विकसित कहलाने वाले लोगों की ही आवाज है कि:-

1.         प्रदूषण बढ़ गया जबकि प्रदूषण का कारक तत्व केवल मानव हैं।

2.         धरती पर वातावरण असंतुलित हो गया हैं, बिगड़ रहा है।

3.         समुद्र मेें पानी का सतह बढऩे लगा है।

4.         वन संपदा उजड़ गया है।

5.         ऋतु असंतुलित हो रहे है।

6.         जनसंख्या बढ़ रहा है।

ये सब कहने वाले विकसित देश है, विकासशील देश है। अविकसित देश इन देशों के निष्कर्षों को मान ही रहे है।

विकसित-अविकसित:- इस वर्तमान में विकसित देश, विकासशील देश और अविकसित देशों का वर्गीकरण भी एक विडम्बनात्मक एवं हास्यास्पद तरीके से हुआ हैं इनमें:-

1.         विकसित देश उन्हीं देशों को कहते हैं जो सर्वाधिक समर शक्तियों से संपन्न है।

2.         विकसित देश उन्हीं को कहते हैं जिस देश मेें सर्वाधिक लोग सर्वाधिक आहार-विहार सुविधाओं को भोगते हैं और संग्रह करते है।

3.         विकसित देश उन्हीं को कहते हैं जहाँ अधिक लोग भोग, अतिभोग, बहुभोग की ओर गतिशील है।

4.         विकसित देश उन्हीं को कहते हैं जिस देश की पूंजी अनेकानेक देशों में व्यापार कार्यों में लगी रहती हैं और व्यापार पर एकाधिकार पाने का प्रयास जारी रहता है।

5.         विकसित देश उन्हीं को कहते हैं जिस देश में निवास करने वाले लोग तकनीकी और विद्वता का भी व्यापार करते है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता हैं कि जो देश अपने लाभोन्मादी व्यापार नीति, सामरिक शक्ति संपन्न राजनीति, सर्वाधिक संग्रहवादी नीति में सफल हो गये हैं, साथ ही उनकी कोटि में और कोई पहुँच नहीं पा रहे हैं, उन्हीं को आज विकसित देश कहते है।

ऊपर कहीं नीतियों और स्वरुप के आधार पर ही विकासशील और अविकसित देश अपना आदर्श स्वीकारने के लिए बाध्य हुए है। प्रधान रूप में सभी देशों के लिए युद्घ और व्यापार भी आदर्श होकर रह गए। जबकि युद्घ, शोषण, लाभोन्माद, भोगोन्माद, कामोन्माद – ये प्रवृत्तियाँ चाहे राज्य की प्रवृत्ति हो, चाहे किसी व्यक्ति, परिवार, समुदाय की प्रवृत्ति क्यों न हो, ये समाज सरंचना और उसके वैभव को बनाये रखने के लिए सहायक नहीं हो पाए। उक्त पाँचों प्रकार की प्रवृत्तियों में, से प्रत्येक प्रवृत्ति शंकाकारक है, यथा व्यापार में शंका सदा लगा रहता है। यह व्यापार के चंगुल में रहने वालों को भी पता हैं। लाभोन्माद, कामोन्माद, भोगोन्माद ये आवेश से ही शुरु होते हैं। आवेश सदा पीड़ादायक होते हैं। चाहे सम्मोहनात्मक आवेश (काम, लोभ, मोह) हो या विरोधात्मक (क्रोध, मद, मत्सर), इन दोनों ही स्थितियों में पीड़ा को देख सकते है। युद्घ सदा ही शंका, कुशंका, अविश्वास, साम, दाम, दण्ड भेद से अनुप्राणित रहा है। इसमें छल-कपट का प्रयोग होता ही है, दम्भ-पाखंड फैलाना पड़ता है। ये सब विश्वासघात के द्योतक है। विश्वासघात, वध, विध्वंस से किसी व्यवस्था की स्थापना अभी तक इस धरती पर नहीं हो पाई। दो बड़े विश्व युद्घ इस धरती पर हुए, तीसरे महायुद्घ के लिए तैयारी कर ही चुके हैं, इस तमाम अतीत को देखने के बाद यही समीक्षा होती हैं कि शोषण, वध, विध्वंस, विश्वासघात, द्रोह, विद्रोह से कोई सार्वभौम व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती। जबकि अस्तित्व में केवल व्यवस्था ही वर्तमान है। मानव ही अपने भ्रमवश अर्थात् अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति दोषों को अपनी कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता वश मोल लिया है। इसी को वरदान मानते हुए विकास की बात की जाती है। भ्रम और विकास का कहीं दूर दूर तक तालमेल नहीं है। परस्पर पूरकता-उपयोगिता विधि पूर्वक विकास सहज गति सार्वभौम है।

सह-अस्तित्व सहज रूप में विकास परमाणु में होने वाली प्रक्रिया है। इसी क्रम में गठन पूर्णता होती हैं। ऐसा गठनपूर्ण परमाणु चैतन्य पद में संक्रमित होता हैं यही जीवन का स्वरुप है। इसमें पहला आशाबन्धन अर्थात् आशा में भ्रम, दूसरा विचार बंधन अर्थात् विचारों में भ्रम तीसरा इच्छाबंधन अर्थात् इच्छाओं में भ्रम पाया जाता है। इन तीनों प्रकार से भ्रमित मानव भ्रम मुक्ति अर्थात् जागृति सुलभता पर्यन्त अव्यवस्था के चक्कर में पीडि़त रहेगा ही। परंपरा स्वयं भ्रमित है। मानव जाति को डूबाने का कार्य लाभोन्मादी अर्थ चिंतन, कामोन्मादी मनोविज्ञान, भोगोन्मादी समाज शास्त्र ने किया है। इसी के पक्ष में संपूर्ण प्रचार तंत्र कार्य करने को मिल रहा हैं। इससे छूटने के लिए ही विकल्प है-आवर्तनशील अर्थचिंतन, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं एवं उनके क्रियाकलापों को जब मानव व्यवस्था के रूप में देख पाता हैं तभी आवर्तनशील अर्थचिंतन सहज रूप में समझ में आता है। आवर्तनशीलता का मूल तत्व रासायनिक वैभव की पूरकता, भौतिक वस्तुओं के लिए और भौतिक वस्तुओं की पूरकता, रासायनिक वैभव के लिए अर्पित है ही; इसमें प्रधान तत्व मानव द्वारा इसे समझ लेना ही है।

मानव जो कुछ भी सोचता हैं उसके मूल में स्वयं समाधानित होने और समृद्घ होने का सूत्र सहज ही विद्यमान रहता हैं । मानव अस्तित्व सहज प्राकृतिक विधियों को यथावत् समझें यही अध्ययन और अनुसंधान का तात्पर्य है। मानव आदि काल से ही शुभ चाहता है, पर अपने ही विभिन्न आयामों में भटकते रहा है। आदि काल से मानव ने अपनी समझदारी को जितना विकसित किया हैं वह सब स्वयं की महिमा को अनदेखी करते हुए वस्तुओं का चयन ह्रïास विधि से कर पाया जबकि अध्ययन यथा स्थिति में यथावत् हो पाता है।

अस्तित्व सहज वैभव पदार्थ, प्राण, जीवों के रूप में दिखाई पड़ रहा है। ये सब मानव की किसी योजना के बिना ही धरती पर संपन्न हो चुका है। अध्ययन का मूल बिंदु है- यथास्थिति से, सम्पूर्ण पद्घति के साथ मानव के साथ तालमेल, संबंध और कत्र्तव्यों को पहचानना। अध्ययन जब कभी मानव कर पाता है, यथार्थ विधि से ही, मानव सहज जागृति को अध्ययन कर पाता है। अभी मुख्य मद्दा यह है कि जो कुछ भी अस्तित्व है वह अंतर्विरोध बाह्य विरोधों से प्रताडि़त रहता हैं या अंत:संगीत बाह्य संगीत संपन्न है। इन्हीं तथ्यों पर ध्यान देना विवेक और विज्ञान सम्मत विधि से परीक्षण करना और तथ्यों को स्वीकार करना -यही अध्ययन का सार रूप है। ऐसी अध्ययन सहज अवधारणाएँ स्वयं संस्कार यथा सह-अस्तित्व सहज नियम से ही जानी जाती है।

रासायनिक-भौतिक वस्तुओं की यर्थाथता को स्वीकारने के उपरान्त यही देखा गया कि ये दोनों स्थितियाँ एक-दूसरे के लिए पूरक विधि से काम कर रही हैं। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं का रचना-विरचना होना स्वाभाविक अर्थ हैं। इन कार्य-कलापों को देखने पर पता चलता है कि रचना-विरचना एक दूसरे के लिए पूरक है। मूलत: वस्तुओं में समाहित मूल तत्वों का तिरोभाव नहीं होता अर्थात् न तो वस्तुओं को समाप्त होना हैं और न ही नया पैदा होना है। पदार्थ की परिभाषा ही हैं- पदभेद से अर्थभेद को व्यक्त करना। जैसे- प्राण कोषाएँ खेतों में अनाज के रूप में, जंगलों में प्राणकोषाएँ पेड़- पौधों के रूप में है। जलचर, नभचर, भूचर जीवों की शरीर रचनाएँ भी प्राणकोषाओं से होना स्पष्ट है। मूल में यह ज्ञान आवश्यक हैं कि प्राण कोषाएँ अपने में मूलत: एक ही प्रजाति की है।  विविध रचना के आकार से प्राण कोषाएँ अपने वैभव को व्यक्त करती हैं। जैसे-एक कोषीय रचना क्रम में कोषाएँ अपनी प्रजाति के दूसरे कोषा को रासायनिक वैभव के संयोग से निर्माण करना देखने को मिलता है। एक कोषिय रचना का मतलब, कोषा में जो सूत्र बना रहता है, उसी के अनुरुप, उसी प्रजाति की कोषा को निर्मित करता है। ऐसी रचनाएँ आरंभिक काल में अर्थात् जब किसी धरती पर प्राण संचार, रासायनिक वैभव, प्राण कोषाओं की अभिव्यक्ति और प्राणकोषाओं से रचित रचना आरंभ होता है, तब से इन प्रक्रियाओं का स्थापित रहना पाया जाता है।

उक्त तथ्य को चौथे व पाँचवें अध्याय में स्पष्ट किया गया है।

1.         अस्तित्व में विकास होता है।

2.         विकसित गठनपूर्ण परमाणु जीवन पद में संक्रमित रहता है।

3.         प्रत्येक गठनपूर्ण परमाणु (तृप्त परमाणु) चैतन्य पद में संक्रमित होता है।

4.         प्रत्येक चैतन्य इकाई अर्थात् ‘‘जीवन’’ भार बंधन व अणु बंधन से मुक्त रहता है।

5.         प्रत्येक जीवन, जागृत होने के क्रम में आशा बंधन, विचार बंधन, इच्छा बंधन से पीडि़त रहता है। ऐसा पीडि़त होना ही भ्रम है। इसके विपरीत जागृति होना मानव में न्याय अर्थात् संबधों का पहचान, मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन क्रियाओं को परम्पराओं में प्रमाणित करना जागृति है।

6.         सर्वतोमुखी समाधान अर्थात् स्वयं व्यवस्था होना एवं समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने का कार्य-कलाप के रूप में प्रमाणित करना जागृति है।

7.         मानव का अस्तित्व में अनुभूत होने के प्रमाणों को प्रमाणित करना और स्वानुशासन रूप में जीने की कला को प्रमाणित करना परम जागृति हैं। इस प्रकार मानव परंपरा जागृति में, से, के लिए है- यह स्पष्ट है।

मानव में जीवन सहज रूप में ही नैसर्गिकता व वातावरण संबंधी वस्तुओं के प्रति जागृत होने की बाध्यता बना ही रहा। इस आशय को ज्ञात करने की इच्छा को व्यक्त किया है। बन्धन मुक्त इच्छा विधि से ही यह प्रमाणित होना संभव हैं, क्योंकि मानव को वातावरण और नैसर्गिकता समान रूप से प्राप्त है। जहाँ तक अस्तित्व सहज वातावरण हैं अर्थात् अस्तित्व नित्य वर्तमान के रूप में अक्षुण्ण है यह सबके लिए समान संप्राप्ति हैं। संप्राप्ति का अर्थ है पूर्णता के लिए प्राप्ति। जहाँ तक मानव कृत वातावरण का सवाल हैं इसे विभिन्न रुपों में विभिन्न देशों में देखा गया है। जिसको विविध रुपों में मानव इतिहास में स्पष्ट किया गया है। यह विविधताक्रम तब तक रहेगा जब तक अस्तित्व सहज संप्राप्ति के अनुरुप मानव पंरपरा जागृत न हो जाये। मानव परंपरा में जागृति का प्रयास न्याय, समाधान और प्रामाणिकता है। जिसका साक्ष्य मानव परंपरा में अखण्ड समाज व सार्वभौम व्यवस्था के रूप में व्यक्त होना ही है।

मानव जागृत होकर ही सुखी, समृद्घ तथा सुन्दरतम रूप में दिखाई पड़ता हैं । प्रत्येक मानव सुखी, समाधानित, समृद्घ और सुन्दर रहना ही चाहता है। परंपरा की अजागृति के कारण ही अथवा जागृति पूर्ण न होने के फलस्वरुप ही मानव कुंठा और अभाव से ग्रसित रहता है। यह मानव परंपरा सहज जागृति क्रम में पाये जाने वाले मानव की स्थिति हैं। मानव व्यक्ति के रूप में सदा शुभ चाहता हैं- यह प्रत्येक व्यक्ति में सर्वेक्षण पूर्वक समझ में आता है। व्यक्ति व्यक्ति में शुभ के रूप में जीने की कला और विचार शैली के संबंध में मतभेद बना रहता है। यही मानव में अंतर्विरोध है अथवा अपेक्षा के खिलाफ बाह्य विरोध हैं। यह मानव सहज यर्थाथ नहीं है अपितु परंपरा का भ्रम है। परम्परा प्रचार और शिक्षा के रूप में सर्वाधिक प्रभावशील होती हैं अथवा प्रत्येक मानव को परंपरा में प्रभावित करने के उक्त दो तरीके समर्थ दिखाई पड़ते हैं। इन दोनों का यथार्थ पर आधारित रहना आवश्यक है। उन्माद, भ्रम, सुविधा, भोग- जैसे सम्मोहन के लिए ही सभी शिक्षा देते हैं और प्रचार करते आए हैं । इसी के साथ रहस्य और आस्था भी बनी रही हैं। इसलिए मानव के लिए आशित सुख, समृद्घि, समाधान और सुन्दरता संभव नहीं हो पाई।

समाधान और व्यवस्था अविभाज्य है। समाधान का धारक-वाहकता प्रत्येक मानव में आवश्यकता के रूप में देखने को मिलता है । व्यवस्था समग्रता के साथ ही प्रमाणित होता है। समाधान जागृति का द्योतक है। हर व्यक्ति जागृत होना चाहता है। जागृति का मार्ग प्रशस्त होना ही इसका एकमात्र उपाय है। परंपरा में जागृति का तात्पर्य -शिक्षा-संस्कार, व्यवस्था, संविधान में जागृत मानव का लक्ष्य, स्वरुप, कार्य और प्रयोजन स्पष्ट हो जाने से है। संस्कारों का मतलब स्वीकृति से ही है, अवधारणा से ही हैं। अस्तित्व में जागृत मानव के उद्देश्य से अवधारणा को देखा गया वह है-

1.         जीवन ज्ञान

2.         अस्तित्व दर्शन ज्ञान

3.         मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान

ये ही स्वीकारने के लिए वस्तुएँ हैं। मानव परंपरा में जागृति पूर्णता की वस्तु भी इतनी ही हैं। इन्हीं तीन बिंदुओं में इंगित परम सत्य वस्तु को स्वीकारने योग्य परम्परा ही मानव संस्कार पंरपरा हैं। उक्त तीनों बिंदुओं में इंगित वस्तु की उपयोगिता विधि, सदुपयोगिता विधि, प्रयोजनशील होने की विधि, अध्ययन की अर्थात् शिक्षा की मूल वस्तुएँ है। मानव परंपरा भी अस्तित्व में अविभाज्य वर्तमान हैं। प्रत्येक मानव जीवन और शरीर के संयुक्त साकार रूप में हैं। मानव स्वयं को शरीर मानने के आधार पर इन्द्रिय सन्निकर्ष (इंद्रियों द्वारा भोग इच्छायें) ही जीवन कार्य में केन्द्र बिन्दु बन जाते हैं। फलस्वरुप अव्यवस्था, समस्या, दरिद्रता, दुष्टता ये सब हाथ लगता है। जबकि शरीर का धारक-वाहक भी जीवन ही हैं । यही प्रक्रिया है। जब तक शरीर और जीवन का सहज ज्ञान नहीं हुआ हैं तब तक मानव भ्रमित रहता हैं। इसी आधार पर जीवन जागृत होने की आवश्यकता और प्रेरणा अस्तित्व सहज रूप में है। दूसरी विधि से-

1.         मानव अस्तित्व में है।

2.         मानव अस्तित्व में अविभाज्य है।

3.         मानव जागृतिपूर्वक ही जानता है, मानता है, पहचानता है, निर्वाह करता है। यही जीवन सहज जागृति प्रक्रिया है।

4.         जागृति प्रक्रिया ही प्रत्येक मानव के प्रमाणित होने का वैभव है।

अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक क्रियाकलापों को सह-अस्तित्व सहज विधि से जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना, जागृति का प्रमाण है। सह-अस्तित्व स्वयं व्यवस्था है या कह सकते हैं कि सह-अस्तित्व के रूप में व्यवस्था नित्य वर्तमान है। वर्तमान ही मानव में, से, के लिए अध्ययन की संपूर्ण वस्तु हैं। इस प्रकार से अस्तित्व ही सह-अस्तित्व है । सह-अस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना एवं विरचनाएँ अध्ययन के लिए संपूर्ण आयाम है। जबकि अस्तित्व समग्र ही अध्ययन के लिए, संस्कार के लिए, व्यवस्था के लिए संपूर्ण संप्राप्ति है। यह सदा ही मानव में, से, के लिए समीचीन रहता ही है। जितना भी परेशानी, व्यतिरेक और समस्याओं को मानव ने झेला है वह सब शिक्षागद्दी, राजगद्दी और धर्मगद्दी की करामात है। आज की स्थिति में शिक्षा गद्दी प्रधान है। शिक्षा के धारक-वाहक के रूप में सभी दिग्गज, बुद्घिजीवी, नेता, साहित्यकार सम्मान पाना चाह रहे हैं जबकि यह हो नहीं पा रहा है।

जब मैं जागृति पूर्वक अस्तित्व सहज अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुआ तब यह पता लगा कि अस्तित्व समग्र ही अध्ययन की वस्तु हैं, तभी यह भी पता लगा कि मानव भी अस्तित्व में अविभाज्य है।  ‘‘मानव जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप है’’ – इसे पहले स्पष्ट किया जा चुका है। इसी क्रम में यह भी देखने को मिला कि जीवन ही सह-अस्तित्व में जागृति पूर्वक दृष्टा पद प्रतिष्ठा पाता हैं। यही जीवन तृप्ति का आधार बिंदु हैं और यही जीवन जागृति परंपरा रूप में प्रमाणित होना-रहना सहज जागृति को प्रमाणित करने का अधिकार है। इस क्रम में मानव ही जागृति पूर्वक दृष्टा पद में है- यह ख्यात होता है। ख्यात होने का तात्पर्य है कि इंगित तथ्य सभी को स्वीकार हो चुका है। इसका लोक व्यापीकरण हो सकता हैं और प्रत्येक व्यक्ति इसे स्वीकारने के लिए बाध्य है। इस बाध्यता का तात्पर्य आवश्यकता, विचार, इच्छा, कल्पना के रूप में सहमति से है। जागृति सहज आवश्यकता के संदर्भ में परीक्षण किया जा सकता है। बच्चे, बूढ़े, ज्ञानी, अज्ञानी, गरीब, अमीर सबसे इस बात की परीक्षा की जा सकती है कि जागृति एक आवश्यक तत्व है या नहीं। सबका निष्कर्ष यही होगा कि जागृति आवश्यक है। इस प्रकार मानव में जागृति की आवश्यकता ख्यात होना प्रमाणित है।

जागृति का परिणाम जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना ही है। यह जागृति प्रत्येक व्यक्ति में प्रमाणित हो सकता है। यह तभी संभव है जब परंपरा जो जागृति का कारक, धारक एवं स्रोत है, स्वयं जागृत रहे। अभी तक परंपरा ही भ्रमित रहा। इसका परिणाम है कि अखण्ड समाज और उसकी निरंतरता प्राप्त नहीं हुई और सार्वभौम व्यवस्था प्राप्त नहीं हुआ। इसका साक्ष्य यही है कि अभी तक अखण्ड समाज का स्वरुप नहीं बन पाया और न ही सार्वभौम व्यवस्था का।

सार्वभौम व्यवस्था को पाने के क्रम में रासायनिक व भौतिक क्रियाकलापों का विधिवत् अध्ययन करना ही होगा। विधिवत् अध्ययन का तात्पर्य है- जो साक्ष्य और वैभव अस्तित्व सहज रूप में ही वर्तमान है उसको वैसे ही जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना। ऐसा करने पर पता चलता है कि रासायनिक रचनाएँ, चैतन्य-प्रकृति के लिए पूरक हैं और विरचनाएँ जड़ प्रकृति के लिए पूरक है। भौतिक वस्तुओं का मूल रूप और व्यवस्था का प्रमाण विकास को व्यक्त करने वाला वस्तु परमाणु है। प्रत्येक परमाणु अपने में व्यवस्था होने का प्रमाण है। अणु और अणु रचित पिण्डों के रूप में वस्तुएँ हैं, इस तथ्य को स्पष्ट किया जा चुका है। अतएव व्यवस्था और विकास को पहचानने का आधार परमाणु है न कि रचना।

जिस रचना में जो वस्तु समाहित है उससे वह रचना अधिक नहीं होता। दूसरी विधि से जो जिस वस्तु से बना रहता है, उस रचना की संपूर्ण मौलिकता उस वस्तु के समान होती है। इसको समझने के क्रम में एक लोहे का परमाणु, अनंत परमाणु, एक लोहे का पिण्ड, अनेक पिण्ड ऐसा देखने को मिलता है। लोहे के एक अणु में जितने भी परमाणु समाहित रहते है, उसका मूल्य मूलत: एक परमाणु में लोहत्व समान ही होता हैं।  इस आधार पर किसी भी एक प्रजाति के परमाणु से रचित रचनाएँ, आकार, आयतन, घन रूप में बढ़ते-घटते अवश्य हैं। इसके आधार पर अर्थात् मानव शरीर के आधार पर नाप-तौल के आधार पर जिसको हम मात्रा कहते हैं उस विधि से घटने-बढऩे मात्र से उन उन वस्तुओं का गुण, स्वभाव जो ‘‘त्व’’ के रूप में प्रमाणित रहती है वह न तो घटती है और न ही बढ़ती हैं । यह इस बात का साक्ष्य है कि विकास क्रम में हर बिन्दु अपने में विकास क्रम में निश्चित है, क्योंकि लोहत्व, स्वर्णत्व, मणित्व ये सब अपनी अपनी प्रजात्यात्मक परमाणुओं से रचित रचना के रूप में स्पष्ट है। यह सब विकास क्रम में निश्चयता का द्योतक है। इसी आधार पर सह-अस्तित्व में प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है। इस सत्य को ख्यात करता है। इसी क्रम में रासायनिक वस्तुएँ अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है। प्राण कोषाओं से ही सम्पूर्ण वनस्पतियाँ रचित हुआ करती हैं। इन्हीं प्राणकोषाओं से ही जलचर, नभचर, भूचर जीवों का भी शरीर रचित रहता है। इनमें से प्राणावस्था की सभी रचनाएँ (अर्थात् पेड़-पौधे) ऋतु संतुलन के आधार पर वैभवित रहता है और जीव तथा मानव के आहार आदि के रूप में पूरक होता है। प्राणावस्था की विरचना पदार्थावस्था के लिए पूरक हैं- यह स्पष्ट हुआ एवं प्रमाणित हुआ है। ये सब उर्वरक के रूप में परिवर्तित होकर धरती की उर्वरा शक्ति को बढ़ा देते हैं। इस प्रकार भौतिक-रासायनिक वस्तुएँ सह-अस्तित्व के रूप में व्यवस्था को प्रमाणित करता है।

अस्तित्व सहज वर्तमान में मानव जब जागृतिपूर्वक दृष्टा पद में होता है-ऐसी स्थिति में भौतिक-रासायनिक व चैतन्य जीवन, ये समस्त वस्तुएँ व्यापक असीम अवकाश रुपी सत्ता में सम्पृक्त और अविभाज्य रूप में होना-रहना स्वीकार होता है- यह समझ में आता है। यही मानव में, से, के लिए जागृत होने के क्रम में मुख्य मुद्दा है। ऐसी अविभाज्यता वर्तमान में अनुभव होना ही निभ्र्रमता का प्रमाण है। इस प्रकार इस अस्तित्व को समझने के उपरान्त प्रत्येक मानव प्रामाणिक होता ही है।

प्रामाणिक होने के लिए सह-अस्तित्व रूपी सत्य में अनुभव करना मानव के लिए संभव है। यह सभी को तभी संभव हैं, जब शिक्षा का मानवीयकरण हो जावे। इन तीनों स्थितियों में मानव के वैभवित होने के लिए जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन (अनुभव) ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान ही प्रधान तत्व है। इस सत्य सहज जागृति को मानव प्रमाणित करें यह एक आवश्यकता है क्योंकि:-

1.         जागृति पूर्वक ही मानव परपंरा सर्वतोमुखी समाधान पूर्वक व्यक्त होता है।

2.         जागृतिपूर्ण मानव परंपरा में ही जागृति पूर्ण शिक्षा-संस्कार सर्व सुलभ होता है।

3.         जागृति पूर्वक ही मानव परंपरा में न्याय और सुरक्षा सर्व सुलभ होता है।

4.         जागृति सहज मानव परम्परा में उत्पादन सुलभता प्रमाणित होता है।

5.         जागृतिपूर्ण मानव पंरपरा में ही आवर्तनशील अर्थ प्रणाली श्रम नियोजन, श्रम विनिमय पद्घति से विनिमय सुलभता होता है।

6.         जागृति पूर्ण मानव परंपरा में ही परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था दस सोपानीय विधि से सर्वसुलभ हो पाता है। ये सभी मानवों को लिए आशित (अपेक्षित), आकंाक्षित और आवश्यकीय उपलब्धियाँ हैं। इसके सफल होने के मूल में मानव परंपरा है। अर्थात् मानवीयतापूर्ण शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था है। यह मानवीयतापूर्ण अथवा जागृतिपूर्ण पद्घति, प्रणाली और नीति से प्रमाणित होता ही है।

परम्परा में जागृति होना तभी संभव हैं जब परिवर्तन की बेला में सच्चाईयों के आधार पर गहराई के साथ व्यवहार में, प्रमाणों को प्रमाणित करने की निष्ठा, कम से कम एक व्यक्ति में हो। एक से अधिक व्यक्ति में प्रमाणित करने की निष्ठा होना और भी अच्छा है।

विविध प्रकार से मानव इतिहास का आज हम अवलोकन कर पा रहे है। उसमें दो स्थल ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिन स्थलों में गहराई, गंभीरता एवं व्यवहार प्रमाण का संयोग हो सकता था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

1.         ऐसा स्थल था, जब आदर्शवाद में आदर्शवादी विचार में, आदर्शवादी व्यवस्था में, आदर्शवादी शिक्षा में, संविधान और संस्कार में लोग अर्पित होने के लिए तैयार हो गए। उस क्षण में व्यवहार प्रमाण को अपरिहार्य रूप में स्वीकार सकते थे। जबकि ऐसा नहीं हुआ, फलत: सार्वभौम व्यवस्था नहीं हो पाई।

2.         ऐसी संभावना अति निकट हुई जब आदर्शवादी विचार से भौतिकवादी विचार में मानव मानस को मोडऩे का मुहूर्त आया। उस समय में भी भौतिकवादी चिंतन ने व्यवहार प्रमाण की आवश्यकता को अनदेखा कर दिया। अब समाधान युग में संक्रिमत होने का समय आ रहा है। अभी कम से कम हम सब संघर्ष से समाधान युग में संक्रमित होना चाह रहे हैं। इससे यह देखने को मिलना बहुत आवश्यक है कि व्यवहार में ‘‘मानवत्व’’ प्रमाणित होता रहे।

‘‘मानवीयता’’ व्यवहार में प्रमाणित होने का तात्पर्य यही है कि –

1.         हम जीवन ज्ञान में पारंगत रहेंगे। स्वयं के प्रति विश्वास करेंगे श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करेंगे।

2.         अस्तित्व दर्शन में निभ्र्रम रहेंगे।

3.         स्वधन, स्वनारी/स्वपुरुष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार करेंगे।

4.         तन, मन, धन रुपी अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा करेंगे।

5.         संबंधों को पहचानेंगे, मूल्यों का निर्वाह करेंगे, मूल्यांकन करेंगे।

यही मानवीयता को व्यवहार में प्रमाणित करने परस्पर तृप्ति और संतुलन का तात्पर्य है।

हर अवस्था की हर इकाई अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था हैं और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करते हुए दिखाई पड़ता है। इस सूत्र के साथ एक सूत्र और हाथ लगता है- भागीदारी को निर्वाह करना अर्थात् पहचानना और निर्वाह करना है। भौतिक-रासायनिक पद्घति में भी यह वैभव देखने को मिलता है, जैसे-

परमाणु में एक से अधिक अंश एक दूसरे को पहचानते हुए निर्वाह करते है- इसलिए व्यवस्था है। अणु रचित पिण्डों के रूप में संग्रहित रहते है। अथवा विट्टल रूप में भी रहते हैं। ये सब एक दूसरे की पूरक विधि से कार्य करते हैं- यह प्रमाणित होता है।इसका साक्ष्य लौह परमाणु से रचित अणु रचित पिण्डों को मानव देखता है। इसी भाँति सोना आदि से भी धातुओं, मणियों, पाषाणों और मिट्टी अपने सहज रूप में एक-एक प्रजाति अपने-अपने में और सभी प्रजातियों के साथ सभी प्रजातियाँ तालमेल बनाए रखती है। इस तरह इस धरती का रूप दिखाई पड़ता है। इसी धरती में रासायनिक सहज वैभव वैभवित हो चुका है अर्थात् रासायनिक द्रव्यों की जो-जो रचनाएँ होनी थी वे सब हो चुकी। ‘‘होनी थी’’ का तात्पर्य यही है कि सह-अस्तित्व में सभी रचना कार्य, परिणाम, प्रयोजन स्वीकृत रहता ही है। इसकी गवाही यही है कि-

1.         पदार्थावस्था की संपूर्ण रचनाएँ, उसका फल सह-अस्तित्व में पूरकता के रूप में स्वीकृत है।

2.         इसी भाँति प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था सहज शरीर रचनाएँ उसका प्रयोजन और कार्य सह-अस्तित्व में स्वीकृत हैं ।

सहअस्तित्व में स्वीकृति का सिद्घांत यही है – ‘त्व’ सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी, यह सह-अस्तित्व सहज अभिव्यक्ति है। इसलिए यह व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी होने का कार्य प्रणाली और फल परिणाम पहले से स्वीकृत है। इसका साक्ष्य यही है कि परमाणु को परमाणु का संघटित विघटित कार्य और परिणाम अस्तित्व में पूरकता विधि से स्वीकृति होना पाया जाता है। इसी प्रकार एक झाड़ और पौधा भी अपने बीजानुषंगीय विधि से रचना-विरचना के रूप में ही अपने कार्य और परिणाम को व्यक्त करता है। यह सह-अस्तित्व में स्वीकृति है। इस संदर्भ में पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि संपूर्ण वनस्पति रचनाओं का सभी जीवों और मानवों के लिए आहार आदि विधि से पूरक रहना पाया जाता है। वही विरचना की स्थिति में पदार्थावस्था के लिए पूरक होना पाया जाता है। जीवों में भी यह देखने को मिलता है कि अधिकतर वंशानुषंगीय परंपरा निश्चित कार्य-व्यवहार विहार करता है- यह स्पष्ट हो चुका है। इन सब का शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना पाया जाता है। शरीर ही अनेक रचनाओं का स्वरुप है। इन रचनाओं में जीव जाति पर्यन्त, प्राणावस्था और पदार्थावस्था के लिए पूरक होना पाया जाता है। सभी वन्य प्राणी जीवित अवस्था में वनस्पतियों के लिए अर्थात् प्राणावस्था के लिए पूरक हैं यह देखने को मिलता है। जीव जानवरों की श्वसन क्रिया से, मलमूत्र से बहुत सारी वनस्पतियों का रोग दूर होता है। शरीर जब विरचित हो जाता है, तब वह खाद गोबर होता ही है। इस प्रकार तीनों अवस्थाओं की परस्पर पूरकता को मानव देखता है। मानव इन तीनों अवस्थाओं के लिए पूरक हैं, यह स्वीकारता है। इसकी आवश्यकता को अनुभव करता है तब पूरकता की कसौटी में ठीक उतरता है। मानव अभी तक कसौटी में ठीक उतरा नहीं है। अभी भी इसकी (मानव का अन्य अवस्थाओं के लिए) पूरक होने की प्रतीक्षा है। इस विधि से जो तथ्य इंगित होता है, वह यह है कि जागृत विधि से मानव भी अन्य प्रकृति अर्थात् जीवावस्था, प्राणावस्था, पदार्थावस्था के लिए और मानव (मानव) के लिए पूरक है। यह अस्तित्व सहज सत्य है, पर परम्पराओं को भ्रम रहा एवं स्वयं उसकी अजागृतिवश मानव के लिए पूरक होने के जितने भी अवसर और आवश्यकताएँ हैं, उतनी पूरकता को मानव प्रणाणित नहीं कर पाया। अब तक कोई कोई लोग मानव कुल के लिए किसी भी अंश में, किन्हीं भी आयामों मे पूरक हुए हो ऐसे लोगों का यहाँ आज भी गीत गाया जाता हैं ।

मानव के बहुआयामी इतिहास में उन सभी आयामों के लिए पूरक होने के प्रमाण को मानव अपने कुल के लिए समर्पित नहीं कर पाया। इसी कारण अब प्रबुद्घ मानवों का यह दायित्व होता है कि सभी आयामों में जो रिक्त और अपेक्षित भाग है उसकी भरपाई कर देवें। उसमें से प्रथम और प्रमुख आयाम यही देखने को मिला-व्यवस्था और समग्र व्यवस्था मे भागीदारी। मानव जागृतिपूर्वक ही इसकी भरपाई कर पायेगा।

जागृति मानव की सर्वकालीन अपेक्षा और आवश्यकता है। अभी यह इस प्रकार से संभव हो गया कि-

अस्तित्व मूलक मानव केंद्रित दर्शन विधि से मानव ही चिंतनशील एक मात्र इकाई हैं। चिंतन का मूल तत्व अथवा मूल वैभव जीवन सहज रूप में होने वाले जानने, मानने के रूप में और उसके तृप्ति बिंदु के रूप में है। यही मानव में दर्शन ज्ञान का वैभव है। सह-अस्तित्व दर्शन ही परम दर्शन हैं क्योंकि यह अस्तित्व ही परम सत्य है और जीवन विद्या ही परम विद्या हैं। इसका साक्षात्कार करने का उपाय है। मानवीय आचरण ही मानव में, से, के लिए परम आचरण हैं क्योंकि मानव मानवत्व सहित ही अपने में व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर सकता है। इसकी आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को है।

अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व में संपूर्ण प्रकृति को भौतिक-रासायनिक एवं चैतन्य रूप में मानव देख, समझ पाता है। चैतन्य रूप में जो जीवन देखने को मिल रहा है, इसे देखने वाला मानव ही है। दिखने वाली चीज मानव के लिए अध्ययनगम्य हो पाती है। जैसे- प्रत्येक मानव में चयन और आस्वादन, विश्लेषण और तुलन, चित्रण और चिंतन, संकल्प और बोध, प्रामाणिकता और अनुभव – ये दस क्रियाएँ जीवन सहज क्रियाएँ हैं। इनके प्रकाशन संप्रेषणा और अभिव्यक्ति क्रम में शरीर को जीवन्त माना जाता हैं। शरीर का जीवित रहना माना जाता हैं। इन क्रियाओं का अध्ययन प्रत्येक मानव में निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक किया जा सकता है। इन दस क्रियाओं में, से कुछ क्रियाएँ व्यवहार में प्रमाणित रहती है। कुछ क्रियाएँ प्रमाणित नहीं रह पा रही हैं, यही मूलत: जीवन सहज अतृप्ति और समस्या है। फलत: अव्यवस्था ही हाथ लगती है। इसलिए अभी वर्तमान में कितनी क्रियाएँ व्यवहार में प्रमाणित होती हैं और व्यवहार में कितनी प्रमाणित नहीं हो पा रही हैं, इसका परिशीलन हम कर सकते हैं। और जितनी क्रियाएँ व्यवहार में प्रमाणित नहीं हो पा रही हैं उसको पहचान सकते हैं। इसके निराकरण के लिए उचित उपायों को प्राप्त कर सकते हैं। क्योंकि प्रत्येक मानव में जीवन सहज कल्पनाशीलता-कर्म स्वतंत्रता नित्य प्रभावी है। इसी आधार पर उपायों को खोजना प्रत्येक मानव में, से, के लिए सहज संभव है। प्रत्येक मानव जागृति पूर्वक जीवन सहज दस क्रियाकलापों को स्वयं में, स्वयं से, स्वयं के लिए पहचान सकता हैं और परस्परता में प्राप्त मानव को भी अध्ययन कर सकता हैं। परस्परता में प्राप्त मानव, स्वाभाविक रूप में प्राप्त परस्परता के साथ व्यवहार करता ही है। व्यवहार में जीवन के वे क्रियाएँ जो जागृत हो चुकी हैं- यही प्रकाशित, संप्रेषित, अभिव्यक्त हो रही है। अन्य क्रियाएँ अर्थात् शेष क्रियाएँ जो जागृत नहीं हैं वे प्रकाशित नहीं होती।

दस क्रियाएँ जो ऊपर बताई गई है, वे जीवन सहज संपूर्ण क्रियाएँ हैं। ये सभी क्रियाएँ अविभाज्य है। अविभाज्यता का तात्पर्य एक दूसरे से अलग न होने से हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जीवन अपनी संपूर्णता में वैभव है और जीवन का भाग-विभाग नहीं होता। किसी भी दवाब, कितने भी दबाव और विखण्डन विधियों से जीवन को भाग-विभाग नहीं किया जा सकता, क्योंकि दबाव और भाग-विभाग की जो कुछ भी परिकल्पना है वह मानव में ही सर्वाधिक रूप से प्रकाशित होती दिखाई पड़ती हैं । इसका तात्पर्य यही हुआ कि मानव जीवन को भाग-विभाग में अर्थात् विखंडन और दबाव से कुछ करना चाह सकता हैं किन्तु कर नहीं पायेगा क्योंकि कल्पनाशीलता में बहुत सारी ऐसी चीजों की कल्पना की जा सकती हैं। इसको मानव देखता हैं पानी बहता है, इसलिए मिट्टी भी बहेगी, पत्थर भी बहेगा ऐसी कल्पना कर सकते हैं जबकि ऐसा होता नहीं। इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि उदाहरणों के आधार पर और अधिक स्पष्ट रूप में जिसकी यथार्थता को अध्ययन करना हैं, उससे भिन्न वस्तु का उदाहरण देकर उस वस्तु का अध्ययन करना संभव नहीं है। जिसको हम उदाहरण से अध्ययन करना चाहते हैं जैसे ऊपर एक उदाहरण और अध्ययन की बात बताई गई। इसमें पत्थर को, मिट्टी को उन-उनके आचरण के अनुसार अध्ययन करना होगा न कि पानी के आचरण के अनुसार। इस प्रकार हमें यह भी समझ में आता है कि अध्ययन का आधार उनका आचरण ही है।

उक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम देखें कि भ्रम में मानव ने अध्ययन का जो तरीका अत्याधुनिक माना है, वह कितना बेतुका है। वह तरीका है- मानव को अध्ययन करना है तो मानव को काटकर देखो, एक झाड़ का अध्ययन करना है तो झाड़ को काटकर देखो; एक अणु का अध्ययन करना है तो अणु को काटो; एक परमाणु का अध्ययन करना है तो एक परमाणु को काटो। इस अध्ययन विधि में खण्ड-विखण्ड अथवा क्षत-विक्षत करने के लिए दबाव विधि को अधिक कारगर माना गया है- जैसे ‘‘चुम्बकीय बल का दबाव डालने से परमाणु में आवेश पैदा होना’’- फलस्वरुप सभी अंशों का अलग-अलग हो जाना पाया जाता है। परमाणु ही सबसे अधिक सूक्ष्म है, इस कारण परमाणु में ही मूल व्यवस्था समाहित हैं, इस कारण दबाव विधि से ही आवेश और विखण्डन पाया गया। इसमें मूलत: ‘‘शक्ति किसकी लगी और क्या लगी’’- यह खोजने पर उत्तर मिलता है कि ‘‘विदेशी शक्ति अर्थात् परमाणु से भिन्न चुम्बकीय विद्युत शक्ति व बल लगा’’- इसकी संप्रेषणा हुई। इसीलिए परमाणु में जो विकार पैदा होना था, वह हुआ। इसी से यह पता चलता है कि अत्याधुनिक अध्ययन विधि में किसी वस्तु को विकृत बनाये बिना अध्ययन नहीं होता-यह माना जाता है। इसके साथ ही एक प्रश्न हम और लगा सकते थे कि ‘‘यह शक्ति किसकी थी?’’ इसका परिशीलन करने पर हम यह पाते हैं कि मानव की कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता रुपी शक्ति और बल इसमें लगा। इसके सहज संबंध को हम देख सकते हैं। मानव की कर्म-स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता वश ही पहचानने-निर्वाह करने का कार्य प्रत्येक मानव से संपादित होता है । कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता के फलस्वरुप ही प्राकृतिक घटना विद्युत को पहचान लिया गया। इसे गति के रूप में देखा गया । इसके मूल में विद्युत का होना मान लिया गया या उसके पहले की घटनाओं से चुम्बकीय तत्वों को पहचान चुके थे। फलस्वरुप चुम्बकीय क्रियाकलापों में मानव में अध्ययन परंपरा बनी। इस अध्ययन परंपरा में मानव की कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता को प्रयोग करने से ही यह चुम्बकीय विद्युत घटनाक्रम समझ में आता हैं। इस संबध को जोड़े बिना ही आज अध्ययन संपन्न कराते हैं। सच यही है कि मानव की कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता के संयोग से ही घटनाओं को पहचाना जा सकता हैं और घटनाओं को घटित किया जा सकता हैं। इसी क्रम में चुम्बकीय विद्युत घटना को मानव ने पहचाना है और उसको घटित किया है। इस प्रकार आज भी यह प्रमाणित है, पहले भी था और सभी दिन ऐसे ही रहेगा। वैज्ञानिक इतिहास के अनुसार भी इस बात को स्वीकार गया है कि किसी निश्चित व्यक्ति, किसी घटना को उसके लिए समुचित उपक्रम ( क्रिया प्रक्रिया) सहित घटना की रुपरेखा को विधिवत् अध्ययन गम्य कराया जाता है । इसके बावजूद इस बात को भुलावा देते हैं कि मानव की ही कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता की यह देन हैं, वैभव है।  इसके कारण में जाने पर पता लगता है कि पहली बार किसी घटना को घटित करने के लिए जो आदमी कारक और प्रेरक हुआ, उसके लिए दूसरे नहीं हो सकते थे। दूसरा, मानव सहज वैभव के अनुसार कोई भी घटना पहचानने में आई और घटना को मानव ने घटित कराया। मानव ने संपूर्ण उपक्रमों को अध्ययनगम्य करा दिया। उस ज्ञान का व्यापार करने के लिए तैयार हो गया। इन्हीं दो कारणों से ऊपर बताई परम्परा, किस तरह गुमराह हो इस तरीके को खोज लिया मानव ने। इस तरीके से आज तकनीकी विज्ञान का व्यापार प्रचलित हुआ। इससे मानव परंपरा क्षतिग्रस्त हुई। इस प्रकार देख सकते है कि:-

1.   यदि एक मनुष्य अनुसंधानित वस्तु को अध्ययन कर मूल व्यक्ति के सदृश्य नहीं हो सकता हैं, तो यह स्वयं के प्रति विश्वासघात का आधार हुआ।

2.  मनुष्य स्वयं अपने साथ विश्वासघात कर लेता हैं (वातावरण में, नैसर्गिकता के साथ विश्वासघात करते ही आया है। इसका प्रमाण है, नैसर्गिकता, वातावरण में असंतुलन बढ़ते आया) जैसे मानव -मानव के बीच अविश्वास, द्रोह, विद्रोह गहराना, शोषण प्रवृति, संग्रह रुपी प्रलोभन का बढऩा, परस्पर समुदायों के बीच शोषण, युद्घ, द्रोह, विद्रोह ही राजनीति का आधार होना- ये सब गवाहियाँ है।

इससे कोई बेहतरीन समाज रचना अभी तक नहीं हो पाई और न ही इस विधि से हो पायेगी। इसका सिद्घांत यही है कि गलतियाँ कितनी ही बार दुहराई जायें उससे कोई सही उत्तर नहीं निकलता। सकारात्मक विधि से हर सही कार्य को कितनी ही बार दुहरायें उसका परिणाम सही और सार्थक समाधान ही निकलेगा। अब इस संसार में मानव से पूछा जाये कि ‘‘आप सही चाहते हैं या गलत?’’ तो हर व्यक्ति सही के पक्ष में ही सहमति प्रदान करता हैं। साथ ही सही और गलत क्या हैं? – यह पूछने पर यह उत्तर निकलता है कि सही गलत का संक्रमण बिंदु या सीमा रेखा स्पष्ट नहीं है। यह पूर्ववर्ती दोनों विचारधाराओं के अनुसार प्राप्त तर्क का स्वरुप हैं।

सही और गलत का संक्रमण बिन्दु अथवा सीमा रेखा जागृत मानव को समझ में आता है। जागृत मानव ही विकसित मानव है। जागृति के लिए प्रयत्नशील मानव ही विकासशील मानव हैं। जागृति के लिए प्रयत्नशील मानव को अल्प जागृत व अद्र्घ जागृत मानव जागृति क्रम कोटि में पहचाना जा सकता है। जागृति का प्रमाण हैं -अस्तित्व दर्शन अर्थात् सह-अस्तित्व के प्रति पूर्ण जागृति अर्थात्:-

1          अस्तित्व कैसा है, इसका संपूर्ण उत्तर जिसके पास हो।

2.         जो जीवन ज्ञान अर्थात् चैतन्य स्वरुप के अध्ययन में पारंगत हो और जिसका मानवीय आचरण वर्तमान में प्रमाणित हो, यही जागृत व्यक्ति का स्वरुप है।

इसका मतलब यही हुआ कि जो जीवन को भले प्रकार से जानता मानता हो; अस्तित्व को भले प्रकार से जानता मानता हो और मानवीयतापूर्ण आचरण अर्थात् स्वधन, स्वनारी, स्वपुरुष और दयापूर्ण कार्य-व्यवहार करता हो; तन, मन, धन रुपी अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा करता हो, संबंधों को पहचानता हो, मूल्यों का निर्वाह करता हो- यही मूल्य, चरित्र, नैतिकतापूर्ण मानवीय आचरण है। इस प्रकार जागृत मानव का स्वरुप, कार्य और प्रमाण स्पष्ट हो जाता है। यह मानव कुल में अध्ययनगम्य होना और व्यवहारिक होना सहज है। जागृत मानव परंपरा का आधार भी इन्हीं तीन तथ्यों का मानव परंपरा में होने मात्र से है। जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान के रूप में मानवीयता प्रमाणित होती है। सह-अस्तित्व दर्शन ज्ञान से वर्तमान रूप में विद्वत्ता प्रमाणित होती है। जीवन ज्ञान ही जीवन विद्या है। अस्तित्व ही विद्वत्ता की संपूर्ण वस्तु है। मानवीयता ही संपूर्ण आचरण हैं। अखण्ड समाज ही विद्वत्तापूर्ण मानवत्व का वैभव है। सार्वभौम व्यवस्था ही अस्तित्व में जागृत मानव के अविभाज्य वर्तमान होने का प्रमाण है। मानव में स्वानुशासन ही जागृति पूर्णता का प्रमाण है। इस प्रकार अच्छाईयों में प्रमाणित, समॢथत मानव में धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करुणा सहज मानवीय स्वभावों से अनुप्राणित, अभिप्रेरित और जीता-जागता स्थिति मिलता है। सही, न्याय, समाधान, अभ्युदय सम्पन्न श्रेष्ठतम मानव परिवार, मानव समाज, मानव व्यवस्था का सहज वैभव है। यही विकसित परिवार अर्थात् जागृत परिवार, जागृत समाज अथवा जागृत मानव अखण्ड समाज के अर्थ में सार्थक हो पाता है।

यह समाधानात्मक भौतिकवाद की सार्थकता और उद्देश्य है।

जागृति के आधार पर ही मानव संबंध, मूल्य और मूल्यांकन विधि से न्याय को प्रमाणित करता है। यह जागृति का प्रमाण है। सह -अस्तित्व में संबध सहज वर्तमान हैं, इसको पहचान लेना जागृति हैं । संबंध को पहचानने का प्रमाण ही हैं मूल्यों का निर्वाह करना। इससे यह सूत्र स्पष्ट हो जाता हैं कि मूल्यों का निर्वाह करना जीवन सहज हैं। संबंधों को पहचानना मानव सहज है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव हैं। मानव सहज रूप में जो-जो पहचान पाता है उसी में जीवन शक्तियाँ और बल अभिव्यक्त होते हैं। इसका प्रमाण मानव इतिहास रुपी विभिन्न आयामों में इसके कार्यकलापों को स्मरण में लाने पर स्वयं स्पष्ट होता है। जैसे-जैसे आदि काल से मानव जिस वस्तु को पहचान कर पाता था उसी में मानव शक्तियाँ अर्थात् आशा, विचार, इच्छा रुपी शक्तियाँ लगता ही रहा है। इसे किसी भी आयाम के साथ विचार कर देखें और वर्तमान में किसी भी एक पहचान के साथ अपना परीक्षण कर देखें। इस धरती के प्रत्येक मानव को देखें तब हम यही पाते हैं कि जो संबंधों को जैसा पहचान लिए हैं उसी में उसकी शक्तियाँ बहती हुई दिखाई देती है। जैसे एक व्यक्ति अपने बच्चे को पहचान लिया उस स्थिति में ममता व वात्सल्य मूल्य अपने आप बहता है। उसी प्रकार जैसे स्वयं के बच्चे को पहचाने और ममता वात्सल्य बहा, वैसे ही किसी भी बच्चे को पहचानने की स्थिति में वैसा ही ममता और वात्सल्य का बहना देखने को मिलता है। एक मित्र का एक मित्र के साथ संबंध पूर्णतया पहचानने के उपरान्त पहचान तथा निर्वाह हो पाता है। वैसे ही प्रत्येक मित्र के साथ पहचान तथा निर्वाह हो पाना स्वाभाविक है। ऐसे ही गहराई से देखें तो प्रत्येक व्यक्ति अपने सम्मुख मित्रता सहित मुलाकातें होने की कामना करता ही है। प्रत्येक व्यक्ति से हर व्यक्ति विश्वास की अपेक्षा रखता है, न कि अविश्वास की। इसका प्रमाण यही है कि अनजान देश, अनजान व्यक्ति, अनजान भाषा आदि की विपरीतता होते हुए भी एक दूसरे से मिलने के लिए जब कोई व्यक्ति मानसिकता बनाता है, तब सामने वाला व्यक्ति विश्वास निर्वाह करने में ही अधिक भरोसा करता है। इसी क्रम में हर संस्था में भागीदारी करने वालों की परस्परता में विश्वास निर्वाह होने की इच्छा बनी रहती है। हर समुदाय, हर देश की परस्परता में भी विश्वास निर्वाह की निश्चित रूप रेखा के साथ निर्वाह करने की स्थिति में परस्पर मित्र राष्ट्र, मित्र समुदाय कहलाते हैं। अर्थात् परस्पर निश्चित अपेक्षाएँ निर्वाह होने की स्थिति में यह परस्पर मित्रता कहलाती हैं। इसका निश्चित न्याय बिन्दु या सार्वभौम न्याय बिन्दु मानवीयता और पांडित्य के साथ ही प्रमाणित हो पाता है।

अस्तित्व सहज मानव में समग्र अस्तित्व के प्रति विश्वास, वर्तमान के प्रति विश्वास, स्वयं के प्रति विश्वास होना, संबंधों को पहचानना, मूल्यों का निर्वाह करना, मूल्यांकन करना बन जाता है। यह जागृत मानव परंपरा में ही सर्व सुलभ सर्वसाध्य हो पाता है। समुदाय परंपराओं में यह संभव नहीं हो पाता । इसका प्रमाण आज तक का बीता हुआ इतिहास है।

विश्वास मूलत: वर्तमान में निष्ठा ही है। निष्ठा के फल में समाधान होने की स्थिति में उसकी (निष्ठा की) निरंतरता होने के लिए प्रयास बना रहता हैं। वर्तमान में समाधान व्यवस्था का ही प्रमाण है। ऐसा सर्वतोमुखी समाधान, सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज परंपरा में प्रमाणित होता है। सर्वतोमुखी समाधान क्रम में प्रत्येक मानव व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित हो पाता है। यही प्रत्येक मानव में समाधान का प्रमाण है।

रासायनिक-भौतिक वस्तुएँ और जीव संसार स्वयं में व्यवस्था संपन्न है। रासायनिक-भौतिक वस्तुएँ पूरकता, उदात्तीकरण विधि से अथवा नियम से व्यवस्थित रहने का प्रमाण नित्य प्रस्तुत करती है। जिसमें दृष्ट रूप में मानव का कोई योगदान नहीं हैं क्योंकि जिस किसी भी धरती में मानव होगा, उसके अवतरण के पहले ही रासायनिक-भौतिक वैभव और जीव कोटि का कार्यकलाप विद्यमान रहा हैं। उक्त तीनों परम्पराओं में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी स्पष्ट हो चुकी है। व्यवस्था का तात्पर्य है वर्तमान में वैभव होना, परम्परा के रूप में अक्षुण्ण होना। मृत (मिट्टी), पाषाण, मणि, धातु, वनस्पति, जीव- ये वर्तमान में अपने वंशानुषंगीय बीजानुषंगीय और परिणामानुषंगीयता से वैभवित रहते हैं, परम्परा के रूप में अक्षुण्ण रहते हैं। मानव अभी तक विभिन्न आयामों के इतिहास सहित घटना क्रम में व्यक्त है। इतिहास में मानव जैसा जीते रहा और वर्तमान में जी रहा है, इसे देखने पर पता चलता है कि सार्वभौम व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के प्रमाण को मानव प्रमाणित नहीं कर पाया है। फलस्वरुप अखण्ड समाज के स्वरुप का सार्थक होना अपेक्षा के ही रूप में रह गया। इसका मतलब यही निकला कि मानव जाति अपने ढंग से जैसे भी जीती आई और वर्तमान में जैसी है उसके अनुसार मानवत्व को न तो पहचाना गया है, न ही उसे व्यवस्था का रूप दिया गया है, न ही इसे अखण्ड समाज का आधार माना गया है। न मानने का प्रमाण है शिक्षा में मानवीयता का अभाव, संस्कार परम्परा में मानवत्व तथा मानवीयता का अभाव, संविधान में मानव मूल्यों और मूल्यांकन का अभाव, व्यवस्था में मानवत्व मानवीयता संंबध और इसके निर्वाहों का अभाव।

राज्य का अर्थ संस्कार और व्यवस्था सहज वैभव है। धर्म का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण ज्ञान ही संस्कार है, शिक्षा बनाम विद्वत्ता है। मानव का संपूर्ण आधार मानवीयता है यह सह-अस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहज विद्वत्ता ही है। प्रमाण भी मानवीयता और विद्वत्ता ही है। शिक्षा भी मानवीयता और विद्वत्ता हैं। संविधान भी मानवीयता और विद्वत्ता है। व्यवस्था भी मानवीयता और विद्वत्ता है। इस प्रकार मानवीयतापूर्ण परम्परा नित्य समीचीन रहते हुए नस्ल, रंग, रहस्य और वस्तु विभिन्न भाषा, पंथ, संप्रदाय अहमतावश अर्थात् अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति, दोषवश विद्वान और ज्ञानी कहलाने वाले राज, धर्म, विज्ञान, स्वास्थ्य, कला और साहित्य शास्त्रियों ने मानव परंपरा के स्थान पर भ्रमित परम्परा की अनुशंसा कर डाली, फलस्वरुप संप्ूर्ण प्रचारतंत्र ही भ्रम के वशीभूत हो गया। इसीलिए बेहतरीन समाज की परिकल्पना ही उभर न पायी। बेहतरीन समाज का तात्पर्य अखण्ड समाज ही है। इसी भ्रमवश, मानव का वैभव प्रमाणित न हो पाया। जो कुछ भी मानव का वर्तमान कहा जावे वह केवल वंशवृद्घि है अर्थात् जनसंख्या वृद्घि ही वर्तमान रह गया है।

मानवीयता अपने स्वरुप में जीवन ज्ञान सहित मानवीयतापूर्ण आचरण ही है। विद्वत्ता का स्वरुप अस्तित्व दर्शन ही है। अस्तित्व को समझना ही अर्थात् जानना, मानना, उसकी तृप्ति बिन्दु का अनुभव करना ही दर्शन है। मानव में पहले बताई हुई दस क्रियाओं के अविभाज्य वैभव को जीवन ज्ञान कहा हैं। इसे स्वयं में पहचानना, जानना, मानना और उसकी तृप्ति बिंदु का अनुभव करना तथा न्याय, धर्म बनाम सर्वतोमुखी समाधान सत्य बनाम अनुभव और प्रामाणिकता पूर्ण विधि से अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित होना जीवन ज्ञान का तात्पर्य है।

जीवन सहज कार्यकलापों में, से बोध और अनुभव हैं। तृप्ति क्रम में सह-अस्तित्व सहज पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था ये सभी अवस्थाएँँ सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य-प्रकृति के रूप में नित्य विद्यमान, नित्य वर्तमान है। इस सहज सत्य को जानना, मानना और तृप्ति बिंदु का अनुभव करना, उसकी निरंतरता बनी ही रहना, उसकी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा को अध्ययन विधि से सार्थक बना देना, साथ ही स्वानुशासन विधि से जीने की कला को प्रमाणित करना ही दर्शन शास्त्र का सार्थक रूप हैं।

सत्य बोध और अनुभव के लिए दर्शक को ज्ञान दृष्टि द्वारा ही दृश्य समझ में आता है। समझ में आने के मूल में जानना, मानना प्रक्रिया है। जानने, मानने का संयुक्त स्वरुप ही अनुभव बोध हैं। इसकी तृप्ति और अक्षुण्णता ही बोध सम्पन्न परंपरा हैं। दृष्टा पद का प्रयोग बोध और अनुभव के रूप में ही हो पाता हैं। इसको देखा, समझा और अनुभव किया गया है। बोध और अनुभव, सत्य सहज रूप में ही हो पाता है। परम सत्य सह-अस्तित्व ही है। अस्तित्व समग्र शाश्वत वर्तमान है। अस्तित्व में इस धरती में दिखने वाली चारों अवस्थाएँँ हैं। इसी का प्रमाण है कि इस धरती पर ये चारों अवस्थाएँँ स्वयं प्रमाणित हैं। अस्तित्व में होना ही कभी भी, कहीं भी प्रमाणित होना है। जैसे अभी हम देख रहे हैं, समझ रहे हैं चन्द्रमा पर कोई जीव -जन्तु, वनस्पति नहीं है। कालान्तर में वहाँ ये सब होने की संभावना बनी है। सूर्य को मानव ज्ञान के अनुसार सर्वाधिक तपे हुए बिंब के रूप में पहचाना जाता है। मानव की कल्पना में यह भी आता हैं कि कालान्तर में यह ठंडा हो सकता है- ऐसा भी सोच सकते हैं। ऐसी स्थिति में इस धरती की स्थिति, गति क्या होगी, इस संदर्भ में कल्पनाओं को दौड़ाया जाता है।

सूर्य यदि ठंडा हो गया तो उसके पहले तरल, ठोस रूप में परिवर्तित होगा यह अवश्यभावी हैं । तब चन्द्रमा जैसी धरती हो गई, यह माना जा सकता हैं । अभी चन्द्रमा में जैसा हम सोचते हैं, आशा रखते हैं, कि भविष्य में रस, उपरस, रासायनिक वैभव वहाँ साकार हो सकता है। उसी प्रकार सूर्य में भी ऐसा हो सकता हैं यह सोचा जा सकता हैं । मानव की कल्पनाशीलता सीमित नहीं हैं, यह कितनी भी हो सकती हैं । मानव सहज कल्पनाशीलता अक्षय है जबकि अस्तित्व स्वयं में व्यापक और अखण्ड है । शब्दों से यथार्थ को व्यक्त करते हंै। इस गवाही से पता लगता हैं कि मानव सहज कल्पना देश कालों का दृष्टा हो जाता है। भले ही वह कल्पना दृश्यों का दृष्टा न हो।

इस तरह प्रकारान्तर से यह हर व्यक्ति में (दृष्टा होना और कल्पनाशील होना) प्रमाणित होता ही है। अस्तित्व अनंत और व्यापक है। देशकाल से मुक्त हैं। इसी आधार पर इसमें देश कालातीत महिमा का होना अवश्यंभावी रहता है। यह दृष्टा पद मानव में सहज सार्थक होता है। अस्तित्व में जागृत मानव ही दृष्टा पद में है। दृष्टा, दृश्य, दर्शन अविभाज्य है, क्योंकि अस्तित्व में चारों अवस्थाएँँ सत्ता में अविभाज्य है। जागृत मानव का अस्तित्व में अविभाज्य प्रमाणित होना ही दृष्टा पद का प्रमाण है। इस तथ्य को ध्यान में लाने पर बहुआयामी कार्य सहित मानव की समीक्षा उनके कार्यों के आधार पर स्पष्ट हो जाती है।

अस्तित्व नित्य वर्तमान है, जागृत मानव दृष्टा पद में है; यह परम सत्य हैं, इस पर आधारित एक नजरिया है। इस नजरिए से विगत को, इतिहास के ढंग से देखने पर पता चलता है कि सभी परम्पराएँ अपने-अपने समुदाय अथवा व्यक्ति के लिए अनेकानेक छल, बल, सम्मोहन, प्रलोभन करती रही और इससे परेशानियाँ बढ़ाता रहा। इसका मूल कारण इतना ही है कि भ्रमित मानव समुदाय परंपरा में अपने ढंग से भ्रमित रहकर भ्रमित परंपरा बनाने के लिए जीवन की शक्तियों को लगाते रहे। आदिकाल से ही मानव जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप हैं, जीव चेतनावश भय प्रलोभन रूप में जीवन शक्तियाँ पहले भी काम करती रही हैं, अभी भी काम कर रही हैं। इस आधार पर वर्तमान में भ्रम-निभ्र्रम संबंधी परीक्षण करने जाते हैं तब पता चलता है कि :-

1.         मानव सर्वप्रथम कल्पनाओं को भ्रमवश सत्य मानता रहा है।

2.         भ्रमित विचारों के आधार पर सत्य मान लेता है।

3.         भ्रमित इच्छाओं के आधार पर सत्य मान लेता है।

4.         सत्य बोध के आधार पर सह-अस्तित्व समझ में आता है।

5.         सह-अस्तित्व रूपी परम सत्य में अनुभव के आधार पर सत्य समझता है, प्रमाणित रहता है।

इस चित्रण में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मानव में दस क्रियाएँ बताई गई है, जिनमें से पाँच क्रियाएँ बल के रूप में तथा पाँच क्रियाएँ शक्ति के रूप में कार्यरत रहती हैं। जागृत मानव में, से, के लिए बल और शक्ति ही, स्थिति और गति के रूप में प्रमाणित होते हैं। स्थिति और गति अविभाज्य है, इसको स्वयं में ऐसा अनुभव किया जा सकता है, निरीक्षण किया जा सकता है। मनोबल आस्वादन-चयन के रूप में, वृत्ति बल तुलन विश्लेषण के रूप में, चित्त बल चिन्तन-चित्रण के रूप में, बुद्घि बल बोध व संकल्प के रूप में, आत्मबल अनुभव प्रामाणिकता के रूप में पहचानने में आता है।  शक्तियाँ क्रमश: मन शक्ति चयन के रूप में, वृत्ति शक्ति विश्लेषण के रूप में, चित्त शक्ति चित्रण के रूप में, बुद्घि शक्ति संकल्प के रूप में, आत्म शक्ति प्रामाणिकता के रूप में प्रमाणित हो पाता है।

भ्रमित मानव का सामाजिक होने का प्रश्न ही नहीं होता। अमानव ही पशुमानव और राक्षस मानव के रूप में व्याख्यायित होते हैं। राक्षस मानव क्रूरता प्रधान होते हैं और पशु मानव दीनता प्रधान रहते हैं, ये दोनों अमानवीय कोटि में आते हैं। इसीलिए अमानवीय परंपरा में अपराधों का पनपना होता ही है।

अस्तु, सार्थक निष्कर्षों को निकालने की आवश्यकता अधिकांश लोग महसूस करते है। निष्कर्ष की ओर कल्पना, विचार, इच्छाओं को दौड़ाने पर परंपराओं की निरर्थकता समझ में आता है। इसके बदले में क्या हो- यह सार बात है। समाधानात्मक भौतिकवाद ने निर्णायक विधियों को पाने के लिए विज्ञान, विवेक और ज्ञान सम्मत तर्क प्रणाली को अपनाया। विज्ञान का तात्पर्य कालवादी, क्रियावादी, निर्णयवादी ज्ञान से हैं। विवेक का तात्पर्य जीवन का अमरत्व अर्थात् जीवन ज्ञान संपन्नता, शरीर का नश्वरत्व और व्यवहार के नियम अर्थात्:-

1.         बौद्घिक नियम

2.         सामाजिक नियम

3.         प्राकृतिक नियम से है।

बौद्घिक नियम का तात्पर्य :-

1.    असंग्रह अर्थात् आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था में भागीदारी।

2.    स्नेह अर्थात् संबंधों को पहचानने में, मूल्यों को निर्वाह करने में विश्वास।

3.    जीवन विद्या में पारंगत रहना, पांरगत होने में विश्वास, प्रतिभा और व्यक्तित्व में सामरस्यता सहज विश्वास। व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबी होने में विश्वास।

4.    सरलता अर्थात् संबंधों को पहचानने में विश्वास मूल्यों को निर्वाह करने में विश्वास और मूल्यांकन करने में विश्वास।

5.    अभय अर्थात् स्वयं मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी होने में विश्वास है।

सामाजिक नियम:-

1.     स्वधन अर्थात् प्रतिफल, पारितोष और पुरस्कार रूप में प्राप्त धन से है।

2.    स्वनारी और स्व पुरुष-विवाह पूर्वक प्राप्त दाम्पत्य संबंध।

3.    दया पूर्ण कार्य-व्यवहार अर्थात् अविकसित के विकास में सहायक होने का संपूर्ण कार्य है।

प्राकृतिक नियम चार सूत्रों से संबंद्घ है:-

1.         पूरकता, उपयोगिता, नियम, नियंत्रण, संतुलन

2.         उदात्तीकरण, संरक्षण

3.         विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति

4.         त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी

प्राकृतिक नियम:- अपने स्वरुप में, प्राकृतिक संपदा के साथ, मानव का अपने को नैसर्गिक संबंध के रूप में पहचान और पहचानने में विश्वास है, क्योंकि मानव के लिए मानवेत्तर प्रकृति नैसर्गिक हैं और मानवेत्तर प्रकृति के लिए मानव नैसर्गिक है। इसमें पूरकता विधि को निर्वाह करना प्राकृतिक नियम है।

1.    संतुलन:- प्राकृतिक संपदा को ऋतु संतुलन के अर्थ में संरक्षित करना व करने में विश्वास; असंतुलन की स्थिति में, संतुलित बनाने में विश्वास। प्राकृतिक संपदा को उसकी अभिवृद्घि के अनुपात में संतुलन को ध्यान में रखते हुए उपयोग, सदुपयोग करने में विश्वास।

2.   संरक्षण:- धरती, जलवायु, वन, खनिज को संरक्षित करने में विश्वास।

3.   मूल्यांकन:- प्राकृतिक ऐश्वर्य को उपयोगिता के आधार पर मूल्यांकन करने में विश्वास। उक्त तीनों नियमों (बौद्घिक, सामाजिक, प्राकृतिक नियम) में इंगित व्यावहारिक प्रमाणों के आधार पर मानव, मानवीय समाज रचना में अर्थात् अखण्ड समाज रचना कार्य में सफल होता है।

इस धरती पर भौतिक क्रियाकलाप, रासायनिक क्रियाकलापों के लिए; रासायनिक क्रियाकलाप, भौतिक क्रियाकलापों के लिए पूरक हैं, यह स्पष्ट है। उदात्तीकरण सिद्घांत का प्रमाण वर्तमान में ही देखने को मिलता हैं कि विभिन्न दो प्रजाति के दो भौतिक ध्रुव जैसे एक जलने वाला – एक जलाने वाला यौगिक विधि से पानी में इस धरती पर अम्ल में, क्षार में एक से अधिक भौतिक तत्व मिलकर तरंगयात होते हैं। इनका संगीत विधि से वर्तमान रहना देखने को मिलता हैं। यही उदात्तीकरण का प्रमाण हैं। ऐसा रासायनिक वैभव क्रम में अनेक प्रकार के रस वैभव ठोस, तरल और विरल रूप में भी फैला दिखता है। जैसे, पानी ठोस रूप में बर्फ, तरल रूप में पानी दिखता ही हैं और वाष्प रूप में अर्थात् विरल रूप में भाप रहता है। इसी प्रकार से संपूर्ण रस और मिश्रित रस होना भी पाया जाता है। अस्तित्व में यह उदात्तीक्रम अपने आप में आनुपातिक होता हैं। इसका तात्पर्य यह है कि, इस धरती पर सभी रसायन द्रव्य का होना, प्रत्येक प्रजाति का रसायन द्रव्य कितने अनुपात में तैयार होना है, इस पूरक विधि क्रम में स्पष्ट हुआ। पूरक विधि की मूल वस्तु भौतिक वस्तु ही हैं। भौतिक वस्तुओं का मूल रूप परमाणु ही है।

अस्तित्व में संपूर्ण रचनाएँ चाहे कोई धरती सम्पूर्ण रचनाओं की रचना से समृद्घ हो या असमृद्घ हों, यही देखने को मिलता है कि भौतिक-रासायनिक रचना क्रम में ही धरती अपने-अपने वातावरण सहित व्यक्त होते दिखाई पड़ती हैं। इन सबमें पूरकता विधि से सभी प्रजाति के परमाणु तैयार हो जाते हैं। भौतिक रचना की मूल समृद्घि विभिन्न प्रजाति के परमाणु हैं। इनके तैयार हो जाने से परमाणुओं की प्रजातियाँ परमाणु में निहित संख्यात्मक अंशों के आधार पर स्पष्ट होती हैं, और वर्तमान में प्रमाणित है। जैसे- इस धरती में जितने भी प्रकार के परमाणु परम्परा के रूप में स्थापित हो चुके हैं, वे सब परस्परता में नैसिर्गक है। ऐसा होने के फलस्वरुप विभिन्न प्रजाति के परमाणु अणु की स्थिति में, अणु रचित पिण्डों की स्थिति में भी परस्पर प्रभावित करने व रहने की प्रक्रिया अनुस्यूत रूप में निष्पन्न होते ही रहता है। विभिन्न परमाणु और अणुओं का परस्परता में प्रतिबिंबित रहना तथा प्रभावों से प्रभावित होना प्रमाणित है। ये सभी प्रकार के प्रभाव उष्मा और गति के रूप में प्रमाणित हो जाते हैं, क्योंकि यह धरती स्वयं उष्मा और गति के रूप में ही स्पष्ट है। इस धरती ने अपने में जो वातावरण बनाया हैं अर्थात् इस धरती की सहज भौतिक-रासायनिक वस्तुएँ, विरल रूप में भी इसी धरती के सभी ओर फैली दिखाई पड़ती है। इस फैले हुए व्यवस्था क्रम से यह तथ्य उजागर होता हैं कि ब्रह्माण्डीय अथवा अनन्त सौरव्यूह की उष्मा, प्रसारण किरण-विकिरण सहज संयोग में, यह धरती भी प्रमाणित हैं । इस धरती के वातावरण ने अपने में सक्षमता को स्थापित किया है। इस धरती के वातावरण से प्रवेशित होकर, इस धरती तक अर्थात् ठोस भाग तक पहुँचने तक उष्मा किरण-विकिरण को यह धरती उपयोग विधि स्वरुप दे देती है। जैसे- यह धरती उष्मा को क्रम से किरणों और रश्मि क्रम में, पूरकता विधि से, अपने में पच जाने की स्थिति को बनाये रखती हैं, ताकि इस धरती का स्वास्थ्य सदा बना रह सके। इस प्रकार धरती का ‘‘संरक्षण वलय’’ ही इस धरती का वातावरण है। यही इस धरती का प्रभाव क्षेत्र भी है। प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित संपूर्ण है। संपूर्णता का तात्पर्य, पूर्णता के अर्थ में भागीदारी है। अस्तित्व में परमाणु में गठन पूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरण पूर्णता ही सम्पूर्णता का प्रयोजन है। यही मूल सिद्घांत पूरकता को निरंतर प्रमाणित करता है। ऐसा पूरकता क्रम प्रवर्तन सह -अस्तित्व सहज प्रभाव विधि से प्रकाशित है। सह-अस्तित्व संपूर्ण वस्तुओं, अनंत वस्तुओं की परस्परता में संपन्न होने वाले क्रियाकलापों का वैभव हैं इसका मूल रूप सत्ता में संपृक्त भौतिक-रासायनिक और चैतन्य रूपी जीवन प्रकृति की संयुक्त अभिव्यक्ति हैं। इन अभिव्यक्तियों का संयुक्त रूप, व्यापक सत्ता में अनंत प्रकृति का वर्तमान होना रहना है, जो स्पष्ट होता है। इसी आधार पर अर्थात् वर्तमान के आधार पर सह-अस्तित्व प्रमाणित है। सह-अस्तित्व वश ही अथवा सह-अस्तित्व ही ‘‘पूरकता’’, ‘‘उदात्तीकरण’’, ‘‘त्व सहित व्यवस्था’’, के रूप में वर्तमान है। इसको जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना मानव में, से, के लिए समाधान है।

पूरकता का स्वरुप कई प्रकार से देखा जा सकता है। परमाणुओं में विविध संख्यात्मक स्थिति है ही, ऐसी विविधता के मूल में दो अंशों के परमाणुओं का अनुपात और सैकड़ों अंशों से संपन्न परमाणुओं का अनुपात स्वयं इस धरती पर प्रमाणित हैं। सह-अस्तित्व सहज फलन ही अनुपातीयता का प्रमाण हैं। इस प्रकार परमाणु प्रजाति उन-उन का अनुपात सहज रूप में उसकी परमावधि का प्रमाण ही है- उदात्तीकरण प्रक्रिया। जब किसी धरती में सभी प्रकार के परमाणु तैयार हो जाते हैं अथवा किसी एक धरती में कितने प्रकार के परमाणुओं की आवश्यकता रहती हैं, इसका निर्धारण भूखे परमाणु व अजीर्ण की कतार में स्प्ष्ट हो जाता हैं । जब तक भूखे रहते हैं, तब तक अंशों की संख्या में घट-बढ़ होती रहती हैं और अजीर्ण की परमावधि तक परमाणु अपनी भूख मिटाने के क्रम में कार्य कर देता है। अजीर्ण के आरंभ और परमावधि के बीच अंशों का क्षरण होना पाया जाता है। क्षरण होते रहता है। इसी प्रक्रिया में और नई संख्यात्मक (नई का तात्पर्य जो बने रहते हैं, उससे भिन्न संख्यात्मक) परमाणु के गठन होने की एक संभावना बनी रहती है, और भूखे परमाणु में क्षरणित परमाणु अंशों के समा जाने की एक संभावना बनी रहती है। इसी क्रम में उदात्तीकरण बिंदु पर्यन्त आवश्यकीय परमाणुओं की प्रजातियाँ स्थापित हो जाती हैं। किसी भी धरती में भौतिक वस्तुओं के समृद्घ होने के उपरान्त ही भौतिक वस्तुएँ रासायनिक क्रियाकलाप में तत्पर होते हैं। तब तक ठोस वस्तु का भी अपना स्वरुप संपन्न हो जाता है। फलस्वरुप रासायनिक द्रव्यों का वैभव ठोस, तरल, विरल प्रक्रिया से वैभवित हो जाता है। रासायनिक वस्तु का ठोस रचना क्रम में कोषाओं की रचना और प्राणसूत्र का स्वरुप रचना ही रासायनिक वैभव के मूल में एक ऐतिहासिक कार्य हैं। उसी बिंदु से रासायनिक उर्मि व वैभव का इतिहास आरंभ होता है। आरंभ होने का मतलब उन-उन धरती में आरंभ होने से अथवा स्थापित होने से हैं । अस्तित्व में ये सभी क्रियाएँ शाश्वत रूप में वर्तमान रहता ही है।

रासायनिक-भौतिक संयुक्त वैभव क्रम में संपूर्ण रचनाएँ साकार हो जाता है और साकार है। इन्हीं रचनाओं में जीव और मानव शरीर रूप में भी स्थापित रहता है, स्थापित होता है। यह विश्लेषण अस्तित्व सहज अभिव्यक्ति हैं। वर्तमान में अस्तित्व ही दृष्ट रूप मानव में, से, के लिए दर्शन की सम्पूर्ण वस्तु हैं। दृष्टा सहज प्रकृति अपने में चैतन्य इकाई के स्वरुप में वर्तमान है। चैतन्य रुपी जागृत जीवन ही दृष्टापद में बोध और अनुभव पूर्वक, अस्तित्व दर्शन और जीवन ज्ञान को व्यक्त, सम्प्रेषित और प्रकाशित कर पाता है।

जीवन जागृति के प्रमाणों को प्रस्तुत करने के क्रम में जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन की एक आवश्यकता निर्मित हो जाता है। यह आवश्यकता और अनिवार्यता सह-अस्तित्व सूत्र में समाहित रहता है, सहअस्तित्व हृदयंगम होता है। हृदयंगम होने का तात्पर्य बोध अवधारणा के रूप में जीवन आश्वस्त होने से हैं। उसकी अभिव्यक्ति अर्थात् उन अवधारणाओं की अभिव्यक्ति सहज प्रक्रिया में विश्वास होना ही अध्ययन है।

ऐसा विश्वास जीवन में तभी हो पाता है, जब मानव व्यवस्था में जीता हो और समग्र व्यवस्था में भागीदारी की प्रक्रिया प्रकट रहता है । अन्यथा भ्रमित रहना पाया जाता है। अव्यवस्था के रूप में उसका व्यक्त होना उस भ्रम का परिणाम हैं। अव्यवस्था मानव जाति की पीड़ा का ही स्वरुप है, क्योंकि अव्यवस्था की समझ बराबर पीड़ा है। मानव जब कभी भी पीडि़त होता है, उसका अध्ययन करने पर पता लगता है कि अव्यवस्था की समझवश ही वह पीडि़त हुआ रहता हैं। व्यवस्था की अपेक्षा में ही अव्यवस्था की समझ और पीड़ा प्रक्रिया बद्घ रहता है।  इसका व्यवहारिक रूप-एक आदमी को ज्वर होने की स्थिति अव्यवस्था है, हाथ पैर टूटने की स्थिति अव्यवस्था हैं। वाद विवाद होने की स्थिति अव्यवस्था है फलस्वरुप पीड़ा है। वाद विवाद मानव में तभी प्रभावशील होता हैं जब दोनों पक्ष गलत हों अथवा एक पक्ष अवश्य गलत हो। इस स्थिति में वाद विवाद हो पाता है। दोनों पक्ष यदि सही हों, उस स्थिति में वाद विवाद होने की घटना नहीं हो पाती। इसके स्थान पर परस्पर विश्वास, समाधान के प्रति एक जुट निष्ठा का होना पाया जाता है। कुछ आयामों में इसके प्रमाण स्थापित हो चुके हैं। इस क्रम में यह भी पता लगता है कि वाद विवाद के मूल में कम से कम एक पक्ष में गलती रहती ही है। गलती का मूल रूप भ्रम ही है। भ्रम का कार्यरुप अधिमूल्यन, अवमूल्यन और किसी एक वस्तु के स्थान पर दूसरी वस्तु समझना ही है। इसके उदाहरण स्वरुप सांप और रस्सी को देखा जा सकता हैं । सांप को रस्सी समझने या रस्सी को सांप समझने से इससे होने वाली परेशानी स्वयं सिद्घ है। लोहा को  सोना समझना और सोना को लोहा समझना यह अधिमूल्यन और अवमूल्यन की परेशानी हैं। इस प्रकार इन तीनों स्थितियों में मानव गलती करता ही है। स्वयं परेशान रहता है, फलस्वरुप वातावरण एवं नैसर्गिकता में परेशानी पैदा करता है। क्योंकि जिसके पास जो रहता हैं उसका बंटन करता है। इस प्रकार देखने पर यह भी तथ्य समझ में आता हैं कि मानव को दो ही स्थिति में देखा जा सकता है- वह है भ्रम और निभ्र्रम स्थिति। भ्रमित मानव ही अव्यवस्था के रूप में प्रकाशित हो पाता है।

अव्यवस्था तीन उन्मादों के रूप में व्याख्यायित होती हैं। मानव में सम्मोहनात्मक उन्माद लाभोन्माद, कामोन्माद तथा भोगोन्माद के रूप में सर्वेक्षित होता है। विरोधात्मक उन्माद द्रोह, विद्रोह और युद्ध के रूप में सर्वेक्षित है। इन्हीं छ: प्रकार के उन्मादों का स्वरुप दिखाई पड़ता है। इसके प्रभाव में कत्र्ता सहित सभी अव्यवस्था के रूप में दिखाई पड़ते है। अव्यवस्था मूलत: भ्रम है। ऐसे सर्वेक्षण को संपन्न करना तभी संभव है, जब मानव निभ्र्रम हो और व्यवस्था का स्वरुप तथा अधिकार कम से कम एक मानव के पास हो। मानव इतिहास के अनुसार इस घटना की तीव्र प्रतीक्षा रही। इस बात को इस प्रकार से समझाया जा सकता है कि उन्मादित होते हुए भी मानव ही, इन उन्मादों के परिणाम स्वरुप जो अव्यवस्थाएँ हुई, उसकी समझ के बराबर में पीडि़त भी होते आया। भले ही यह सबमें न हुआ हो अधिकांश लोगों में अव्यवस्था की पीड़ा है। इस सर्वेक्षण के साथ यह भी देखने को मिलता है कि इन उन्मादों को लिए हमारी कला, शिक्षा और शासन रुपी व्यवस्था तंत्र सहायक हो गया हैं। विकल्प के लिए कोई कल्पना भी नहीं रही है इसलिए विवशता पूर्वक इसे झेलने के अलावा दूसरा रास्ता दिखता नहीं। इसी स्थिति में कराहते हुए अधिकांश व्यक्ति इस धरती पर पाये जाते हैं।

पूर्ववर्ती विचारों के अनुसार उक्त उन्मादों के विपरीत कोई चीज है तो वह है भक्ति और विरक्तिवादी निबंध। ये पावन ग्रंथ माने गये और इनका प्रचार करें। इसकी अंतिम परिणति के रूप में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरिजाघरों के प्रति अथवा पूजा स्थलों के प्रति आस्था केन्द्रीभूत हुई। आस्था के आधार पर बहुत सारे विशिष्ट लोगों को, महापुरुषों को, सामान्य जनों ने अपने आस्था सुमन अर्पित किए। आज भी इस बात को परीक्षण कर देखें, उन्मादों की तुलना में आस्थाएँ राहत सी प्रतीत होती है। इस बात को परीक्षण कर देखा गया है। इसके बावजूद भक्ति और विरक्ति का शिक्षा, व्यवस्था, संविधान और संस्कारों में सार्वभौम होना संभव नहीं हुआ। इसके साथ यह भी देखने को मिला कि विज्ञान शिक्षा अवश्य ही सार्वभौम रूप में शिक्षा क्रम में उतर आया पर यह यंत्र प्रमाण में अटक गया। यह विज्ञान शिक्षा, शिक्षा क्रम में वैभवित होते हुए भी व्यवहार में सार्थक नहीं हो पाया, जैसे- संस्कार, व्यवस्था, संविधानों में और मानव सहज आचरण में सहायक या प्रमाणित नहीं हो पाया। इसमें यही तर्क कर सकते हैं कि शरीर शास्त्रियों के अनुसार मानव को इससे सहायता मिली है। शरीर और स्वास्थ्य संबंधी बातें मानव से ही आरंभित रहीं। इसमें यही अत्याधुनिक तकनीकी, यंत्र और तंत्र सहित किये गये प्रयासों से मानव की औसत आयु बढऩा प्रमुख मुद्दा नहीं है। इसके उत्तर में, अव्यवस्था में प्रभावित होता हुआ मानव दिखता है। अव्यवस्था का प्रधान प्रभाव तीन उन्माद सम्मोहनात्मक और तीन उन्माद विरोधात्मक पाया जाता है जिसका जिक्र ऊपर कर चुके है।

विकल्प के स्वरुप में अर्थात् अव्यवस्था के विकल्प में, व्यवस्था ही है। अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिन्तन व्यवस्था- सार्वभौम व्यवस्था, अस्तित्व सहज व्यवस्था, सह-अस्तित्व सहज व्यवस्था, रासायनिक-भौतिक रचना सहज व्यवस्था, विकास सहज व्यवस्था, जीवन सहज व्यवस्था और जीवन जागृति सहज व्यवस्था को स्पष्ट करता है। इसको अध्ययनगम्य कराना ही सह-अस्तित्ववाद का उद्देश्य है। ‘‘सह-अस्तित्ववाद’’ में ‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’ एक प्रबंध है।

कुल मिलाकर व्यवस्था सूत्रों का सम्मिलित नाम है- समाधान। इसी नाम का वैभव रूप मानव में भी प्रमाणित होता है। इसका स्वरुप पूर्णता के प्रति संपूर्ण अवधारणा है। अवधारणा स्वयं दर्शन और ज्ञान ही है। दर्शन, प्रमाणीकरण में ही ज्ञान सम्मत आचरण हैं। आचरण का वैभव व्यवस्था है। व्यवस्था सहज वैभव ही परम्परा है। परम्परा सहज वैभव स्वयं पूर्णता और उसकी निरंतरता है।

भौतिक और रासायनिक क्रियाकलापों द्वारा सह-अस्तित्व सहज रूप में ही व्यवस्था और समाधान को प्रकाशित करना स्पष्ट हुआ हैं। सम्पूर्ण वस्तुएँ ही अपना अविभाज्यता वश सह-अस्तित्व रूप में स्पष्ट हैं जैसे अनन्त परमाणु, अनंत अणु, अनंत रचना और अनंत जीवन व्यापक सत्ता में संपृक्त हैं। अत: क्रियाशील है, ‘‘त्व सहित व्यवस्था’’ के रूप में सहअस्तित्व सहज वैभवित है। इस क्रम में मानव के अतिरिक्त संपूर्ण प्रकृति ही सह-अस्तित्व में ‘‘त्व सहित व्यवस्था’’ के रूप में व्याख्यायित है। मानव संस्कारानुषंगी व्यवस्था है। इसके फलस्वरुप प्रत्येक मानव को समझदारी के साथ जीने का हक बनता है। परंतु साथ-साथ व्यवस्था को समझने की जिम्मेदारी भी है। समझदारी का स्रोत परंपरा ही है। इस क्रम में लाभोन्मादी, भोगोन्मादी, कामोन्मादी अध्ययन प्रबंधों और उपक्रमों के स्थान पर विकल्प के रूप में ‘‘कामोन्मादी मनोविज्ञान’’ का विकल्प ‘‘मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान’’ भोगोन्मादी समाज चेतना अथवा ‘‘भोगोन्मादी समाज शास्त्र’’ के स्थान पर ‘‘व्यवहारवादी समाजशास्त्र’’ विकल्प है। इसी प्रकार ‘‘लाभोन्मादी अर्थशास्त्र’’  के स्थान पर ‘‘आवर्तनशील अर्थ व्यवस्था’’ का विकल्प के रूप में प्रतिष्ठित होना स्वाभाविक रहा है, क्योंकि उन्मादों से होने वाली पीड़ाओं से अथवा उन्मादों से होने वाली अव्यवस्थाओं की पीड़ा से अधिकांश मानव पीडि़त हो चुके हैं। भ्रम से बेहोशी की ओर जो घनीभूत होंगे, वे ही इस पीड़ा को नहीं समझ पाएँगे, ऐसे लोग भी कम ही होंगे। अस्तु, इन प्रबंधों को शिक्षा में अपना लेने से शिक्षा का मानवीकरण संभव हो सकेगा। ऐसे आवर्तनशील अर्थचिंतन, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान सहज ऐश्वर्य से संपन्न होने के लिए समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद की आवश्यकता, अनिवार्यता हैं ही, जो पहले स्पष्ट की जा चुकी हैं। ये सब उपलब्ध हो गए हैं। इन छ: प्रबंधों को पाने के लिए अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण के प्रतिपादन सहज रूप में, मध्यस्थ दर्शन प्रतिपादित हुआ है। जो स्वयं मानव व्यवहार दर्शन, ‘‘मानव कर्म दर्शन’’ ‘‘मानव अभ्यास दर्शन’’ और ‘‘मानव अनुभव दर्शन’’ की अभिव्यक्ति हैं। इस दर्शन के आधार पर वाद और शास्त्र निर्गमित हुआ। इसे मानव परंपरा में अर्पित करने का संकल्प स्वयं प्रेरित है । इस अनुसंधान के मूल में, अव्यवस्था की समझ में जो पीड़ाएँ थीं, उन्हें दूर करना ही प्रधान कारण रहा है।

व्यवस्था सह-अस्तित्व सहज अभिव्यक्ति हैं। यह अस्तित्व सहज रूप में हैं। अस्तित्व सदा ही सह-अस्तित्व के रूप में वर्तमान है । सह-अस्तित्व ही व्यवस्था के रूप में व्याख्यायित और व्यक्त है। व्यवस्था और उसकी अक्षुण्णता के प्रति मानव भ्रमित रहा, अत: मानव का पीडि़त रहना अवश्यंभावी रहा। इसीलिए अव्यवस्था की समझ मानव को आदि काल से ही पीड़ा के रूप में रही है । मानव व्यवस्था की आशा आकांक्षा के आधार पर ही परिवर्तनों को स्वीकारते आया हैं। मानव का विभिन्न इतिहास इस बात को उजागर करता है। अभी इस समय में अथवा इस संघर्ष युग में मानव ने अपने आप में सुविधा भोग के लिए द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ को निश्चित औजार मान लिया है। आज की स्थिति में सुविधा की परिभाषा यही दिखाई पड़ रही है। मानव जाति जिसको सुविधा मान रही हैं उसका मूल ध्रुव संग्रह है। संग्रह पर ही सुविधा और भोग टिका हुआ है। यह पूर्णतया शहरी जिंदगी में इसी प्रकार दिखाई पड़ता है। शहर में अच्छी सडक़ें, अच्छा घर, अच्छी गाड़ी, अच्छी दवाई, अच्छे खिलौने और घर के अंदर जितने भी आधुनिक, अत्याधुनिक गृहशोभा और उपयोगी मानी गई चीजें, जैसे-फ्रिज, कूलर, वातानुकूलन, मिक्सी, ग्राइन्डर और छत को सजाने के लिए सभी इंतजामात, चमकता हुआ बाथरुम, बेडरुम, ड्रांइग रुम और किचन, इन्हीं प्राप्त सुविधाओं को प्रमाणित करने की स्थली माना गया है। साथ ही घर में मनोरंजन के लिए टीवी, वीसीआर, रेडियो, फोटोग्राफिक कैमरे, टेप रिकार्डर माने गये हैं। सुविधाजनक खुशहाली की अभिव्यक्ति कैमरा, वीडियो कैमरा, बड़े-बड़े एलबम हैं। इनको उपलब्धि माना जाता है। इन सब सुविधाओं को आदर्श मानकर प्राप्त कर लिया गया है।

जो लोग सरकारी सेवा में अर्पित रहते है, उनके अनुसार हम सेवा कुछ भी करें, जैसे भी करें, अगर सेवा नियंत्रण कानून के प्रति कार्यों में वफादार रह सकें, तो किसी भी कार्य का परिणाम, उसकी जिम्मेदारी, किसी शासकीय अधिकारी एवं कर्मचारी पर न हो- यही मुख्य रूप से सुविधाजनक नौकरी की प्रवृत्ति कार्य करती दिखाई पड़ती है। व्यसनों के चंगुल में जो नहीं हैं, उन लोगों का आहार अल्पाहार जैसा ही है। जो पर- पुरुष, पर-नारी, नशाखोरी, जुआखोरी और विविध प्रकार के नृत्यों में लिप्त रहते हैं, उन लोगों के आहार कर्म को देखने पर पता लगता है कि ये कुछ ज्यादा खाते है। पहले वाले आहार में रहने वाले सादगी में रहना मानते हैं। उससे भी अधिक सादगी में रहने वालों को भी देखा गया है। कम से कम घर को चमकाएँ रखें, कम से कम खाएँ और सामान्य रूप में कपड़ा पहनें, टी.वी. रहते हुए उचित कार्यक्रम, जिन्हें वे पावनग्रंथ रचित मानते हैं, ऐसे कार्यक्रम को देखते हैं। इनमें से कोई सुविधावादी सरकारी सेवा में भागीदारी निर्वाह करते हुए दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में सर्वाधिक समानता जैसी कोई चीज हैं, जैसा कुछ ऊपर चित्रण किया गया है, उनका वर्गीकरण करने पर यह स्पष्ट बात दिखती है-

1.         सुविधावादी व्यक्ति जो वस्तुओं, व्यसनों में लिप्त है।

2.         सुविधावादी व्यक्ति जो सुविधा में लिप्त है, व्यसनों में लिप्त नहीं है।

3.         सुविधावादी व्यक्ति संग्रह में लिप्त है।

4.         सुविधावादी वस्तु और व्यसनों में अलिप्त रहने के रूप में दिखाई पड़ते हैं।

आज की स्थिति में व्यसन स्थलों को आकर्षक, सम्मोहकता विधि से, लोगों को व्यसनी बनाने के उद्देश्य से अर्थात् कामोन्माद, भोगोन्माद को जगाने के लिए, तीव्र बनाने के लिए सभी प्रकार के साधन और उपलब्धियाँ लोगों के सम्मुख करवा चुके हैं। आज की स्थिति में व्यसन व्यापार सर्वोपरि लाभोन्मादी व्यापार माना जाता है। कई देश इसकी संवैधानिक मान चुके हैं। कुछ देशों का संविधान इसकी संवैधता को स्वीकारने की सोच रहे हैं। यह आज की स्थिति हैं। व्यसन भी आज के मानव के लिए एक आदर्श सा बन चुका है। इस प्रकार सुविधावादी शहरी जीवन में व्यसनों की स्थापना को देखा गया हैं। इस विधि से अर्थात् सुविधावादी विधि से कोई भी ऐसा स्थान नहीं मिला है जहाँ व्यवस्था में भागीदारी होने का स्थिति रूप दिखाई पड़े।

सुविधा के लिए संपूर्ण स्रोत यह धरती हैं। धरती से प्राप्त पदार्थों को सुविधा योग्य बनाना, उसकी तकनीकी प्रक्रिया के लिए प्रौद्योगिकी अभ्यास इस धरती पर स्थापित हो चुका है। बहुत अधिक तादाद में आज धरती की वस्तुओं को सुविधा योग्य वस्तुओं में परिवर्तित करना है, ऐसी सभी वस्तुएँ सभी मानवों को मिले, ऐसा सोचने पर आज की स्थिति में जितनी सुविधाजनक वस्तुएँ है, ये सभी वस्तुएँ आज जितनी संख्या में इस धरती पर मानव हैं, सबको उतनी तादाद में बनी वस्तुएँ नहीं मिल सकती। इसके दो प्रधान कारण हैं-

1.  इस धरती पर उतनी वस्तुएँ नहीं हैं, जिससे हर व्यक्ति को या हर परिवार को उसकी कल्पना के अनुसार सुविधा मिल सकें। इन कल्पना के अनुकूल वस्तुओं को बनाने के लिए आज जितनी प्रौद्योगिकी है, उससे कम से कम अरबों गुना अधिक आवश्यकता बनती है। ऐसी अरबों गुना प्रौद्योगिकी के लिए धरती से स्रोत पूरा होना संभव नहीं। इसके लिए यह धरती छोटी पड़ेगी। इससे होने वाले प्रदूषण को भी धरती अपने में समाने की स्थिति में नहीं रहेगी। इसीलिए इस पर पुनर्विचार करना आवश्यक है।

2.  सुविधा, संग्रह, भोगवाद व्यवस्था का सूत्र व्याख्या और प्रयोजन का आधार नहीं बन सकता। उक्त दो बिंदुओं में केवल सुविधा की राशि और व्यवस्था की झलक अथवा व्यवस्था की कसौटी मात्र से ही निष्कर्ष निकलता है। इसके अलावा मानव ने धरती के साथ जो अत्याचार किया है, उसके लिए अपराध कार्यों में पारंगत बनाने का धंधा बना रखा है, उसके निराकरण का, उसके समाधान के लिए भी कोई न कोई उपाय चाहिए।

उपाय के रूप में ‘‘समाधानात्मक भौतिकवाद’’ प्रस्तुत है। इस दशक के कार्य रूप के अनुसार सुविधावादी वस्तुएँ जो भोगने के लिए आवश्यक मान ली गई हैं, उसके लिए जितनी वस्तुओं को धरती से निकालकर उपयोग कर रहे हैं, उससे भी अधिक वस्तुओं को युद्घ सामग्रियों के रूप में परिणत कर रहे हैं। किसी देश में इस समय जन सुविधा के लिए वस्तुएँ की तादाद कम हैं, इससे अधिक युद्घ सामग्री के लिए उपयोग करते होंगे। इन स्थितियों पर नजर डालें तब यह पता चलता है कि धरती में स्थित वन, खनिज, साधन अथवा द्रव्य कितने दिन तक पूरा पाते हैं। इन सबसे यह निष्कर्ष हम निकाल सकते हैं कि दो-एक पीढ़ी तक ही धरती में ये सब द्रव्य पूरे पायेंगे। इससे हमें ज्ञात होता है कि भविष्य की पीढि़यों के साथ हम कितना अपराध कर रहे है? खिलवाड़ कर रहे हैं या मदद कर रहे हैं? इस बात का भी आंकलन आवश्यक है। ‘‘नैसर्गिकता के साथ हम क्या करें?’’ नैसर्गिकता का संतुलन इस धरती के लिए ऋतुमान के रूप में प्राप्त हैं। इसको हर मानव देख पा रहा है। अस्तु, मानव की स्वयं व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी आवश्यक है। इस धरती में ऋतु संतुलन को ध्यान में रखते हुए मानव के लिए जीने की कला, विचार शैली और अनुभव बल को विकसित करना अनिवार्य स्थिति बन चुका है। इसका आधार हैं ‘‘सह-अस्तित्ववाद प्रमाणित करना।’’ सह-अस्तित्ववादी विचारों के आधार पर ही अनुभव बल को मानव व्यवहार में प्रमाणित कर सकता हैं। साथ ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी को प्रत्येक मानव व्यवहार में प्रमाणित कर सकता है। तथा समाधान, समृद्घि, अभय और सह-अस्तित्व को वर्तमान में प्रमाणित कर सकता हैं। यही मानव कुल का आशय और अपेक्षा भी रहा है।