Development of the Atom (परमाणु में विकास)
अस्तित्व में परमाणु का विकास
(* स्त्रोत = समाधानात्मक भौतिकवाद, संस १९९८, अध्याय 5)
मानव अस्तित्व में ही कार्य-व्यवहार, विचार और अनुभव करना चाहता है। अस्तित्व में, अस्तित्व के अतिरिक्त समझने, सोचने, कार्य-व्यवहार अथवा अनुभव करने का कोई आधार नहीं होता, क्योंकि अस्तित्व से अधिक और कम सभी कल्पनायें भ्रम ही होती हैं।
भ्रम का तात्पर्य सत्य सा प्रतीत होते हुए सत्य न होना है। अस्तित्व सत्ता में अर्थात्, अरूपात्मक अस्तित्व में सम्पृक्त प्रकृति (रूपात्मक अस्तित्व) है। इसलिए अध्ययन के लिए सम्पूर्ण वस्तु अस्तित्व ही है।
अरूपात्मक अस्तित्व की पहचान
अरूपात्मक अस्तित्व स्वयं में निरपेक्ष ऊर्जा के रूप में वैभवित है। यह गति, तरंग, दबाव विहीन नित्य वर्तमान स्थिति में है। साथ ही सर्वकाल में एक सा विद्यमान भासमान और बोध व अनुभवगम्य है। इसी सत्यतावश अरूपात्मक अस्तित्व मूल रूप में साम्य ऊर्जा, परम ऊर्जा अथवा निरपेक्ष ऊर्जा के अर्थ में नित्य विद्यमान है। यही निरपेक्ष सत्ता हैं । इसे हर एक-एक की परस्परता के मध्य में होना पाया जाता है।
‘‘सत्ता स्थितिपूर्ण है। सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति स्थितिशील है।’’ सत्ता स्थितिपूर्ण होने की सत्यता उसकी व्यापकता से सिद्घ होती है क्योंकि अरूपात्मक अस्तित्व न हो, ऐसा कोई स्थान और काल सिद्घ नहीं होता।
सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है। इकाई का तात्पर्य छ: ओर से सीमित पदार्थ पिण्ड से है। प्रकृति की मूल इकाई परमाणु हैं क्योंकि परमाणु में ही विकास और ह्रïास सिद्घ होती है। परमाणुओं का निश्चित गतिपथ सहित अस्तित्व में होना पाया जाता है। ऐसे गति पथ और परमाणु अंशों के सभी ओर अरूपात्मक अस्तित्व दिखाई पड़ता हैं। इससे स्पष्ट होता है कि अरूपात्मक अस्तित्व में ही सम्पूर्ण रूपात्मक अस्तित्व सम्पृक्त एवं ऊर्जा सम्पन्न है। प्रत्येक इकाई में ऊर्जामयता का साक्ष्य परमाणु के पूर्व रूप में और परमाणु के पर रूप में क्रियाशीलता से स्पष्ट है।
रूपात्मक अस्तित्व की पहचान:-
प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है। प्रकृति की मूल इकाई परमाणु है। प्रत्येक इकाई अपनी परमाण्विक अवस्था में व्यवस्था सहित सचेष्ट है, क्योंकि सत्ता में सम्पृक्त होने के कारण उसे ऊर्जा प्राप्त हैं। प्रकृति में ऐसी कोई इकाई या अंश नहीं हैं जो ऊर्जा संपन्न न हो। इसी कारणवश प्रत्येक इकाई क्रियाशील है। यह क्रियाशील प्रत्येक इकाई में श्रम, गति और परिणाम के रूप में दिखाई देती है।
इकाईत्व + ऊर्जा सम्पन्नता = क्रियाशीलता
जड़ इकाई से तात्पर्य छ: ओर से सीमित पदार्थ पिंड की प्रकाशमानता+परावर्तन से है। परावर्तन ही प्रकाशमानता है।
इकाई और ऊर्जा सम्पन्नता का वियोग कभी नहीं होता। इसी सत्यतावश क्रियाशीलता निरन्तर देखने को मिलती हैं । इसीलिये सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति सत्ता में स्वाभाविक रूप से गर्भित होने के कारण, सत्ता में अनुभव पर्यन्त विकास के लिए नित्य प्रवर्तित है। क्योंकि सत्ता स्थिति पूर्ण है। प्रकृति पूर्ण में गर्भित हैं। इसीलिए पूर्णता के लिए प्रवर्तन होना अस्तित्व सहज सिद्घ हुआ।
क्रियाशीलता स्वयं सम, विषम एवं मध्यस्थ शक्तियों के रूप में गण्य होती है। सम, विषम शक्तियाँ परस्परता में आवेश के रूप में देखी जाती है। उसे सामान्य बनाना मध्यस्थ क्रिया का कार्य हैं। इसे हम छिपी हुई ऊर्जा के नाम से जानते हैं। इस प्रकार यह सिद्घ होता है कि सम, विषम शक्तियाँ कार्य ऊर्जा के रूप में मध्यस्थ शक्ति छिपी हुई ऊर्जा के रूप में प्रकृति में नित्य वर्तमान है।
स्वभाव गति प्रतिष्ठा ही इकाई की सम्पूर्णता व इकाई की निरंतरता है। आवेशित गति को अधिकतम आवेशित कर किसी प्रणाली के द्वारा स्वेच्छात्मक रूप मे क्रिया कराना ही आज विज्ञान का आधार है। ऐसी घटना अर्थात् आवेशों पर आधारित होने की मानसिकता इसीलिए हुई कि मध्यस्थ क्रिया और उसकी महिमा को आज तक पहचाना नहीं गया। धन-ऋणात्मक आवेशों में ही सापेक्षता सिद्घ होती हैं। यही अधिक और कम का भी अर्थ है। अधिक और कम, दोनों पूर्ण नहीं होते और इसी कारण स्थिर नहीं होते। फलत: मध्यस्थ शक्ति ऋण एवं धन आवेशों (शक्तियों) को सामान्य बनाने के लिए सतत कार्य करती रहती हैं क्योंकि मध्यस्थ शक्ति (क्रिया) का लक्ष्य पूर्णता है। इसका साक्ष्य पूर्णता और उसकी निरन्तरता है। इसी कारण प्रत्येक इकाई (परमाणु) का वर्तमान पूर्ण होने के क्रम में ही व्यवस्था अथवा नियति क्रम स्पष्ट है। यही अस्तित्व में विकासक्रम और विकास का प्रकाशन है।
‘‘विकास परमाणु में होता है।’’
प्रत्येक परमाणु गठनपूर्वक परमाणु हैं । प्रत्येक गठन में एक से अधिक अंश होते हैं। प्रत्येक परमाणु अपने गतिपथ सहित इकाई है। ऐसा गतिपथ स्वयं गठन और गति के आकार को स्पष्ट करता है। प्रत्येक परमाणु में तब तक प्रस्थापन और विस्थापन होता रहता हैं जब तक गठनपूर्णता न हो जाये। क्योंकि प्रत्येक परमाणु का क्रिया के रूप में होना प्रत्येक क्रिया में श्रम, गति, परिणाम अविभाज्य वर्तमान होता हैं। परिणाम अमरत्व के अर्थ में, श्रम विश्राम के अर्थ में, गति गन्तव्य के अर्थ में अपने आप विकास का लक्ष्य होता हैं। यही लक्ष्य विकास के क्रम और विकास के रूप में स्पष्ट करता है। जैसे प्रत्येक परमाणु अपने ऋण धनात्मक स्थिति में आवेशित होना और मध्यांश में छिपी हुई ऊर्जा द्वारा उन आवेशों को सामान्य बनाना निरन्तर इस लीला को देखा गया हैं। भौतिक-रासायनिक परमाणु अपने ऋण-धनात्मक स्थिति में आवेशित होने का आशय परिवेशीय अंशों के मध्यांश से दूरी बढऩे या घटने की स्थिति को कहा है, ऐसी दोनों ही स्थिति में मध्यांश में छिपी हुई ऊर्जा परिवेशीय अंशों को एक निश्चित दूरी पर रखती है। जिसको आवेशों का सामान्य बनाना कहा है। यह इस बात का द्योतक है कि आवेश से मुक्त स्थिति ही स्वयं स्वभाव गति के रूप में गण्य होती है। ऐसी स्वभाव गति की स्थिति में ही प्रत्येक परमाणु में विकास की संभावना निहित होती है। इस उदाहरण से यह समझ सकते हैं कि जब किसी भी वस्तु को तात्विक परिवर्तन (परमाणु में निहित परमाणु अंशों की संख्या में परिवर्तन) के लिए बाध्य किया जाता है तब उस स्थिति में हमें यह देखने को मिलता हैं कि जिस परमाणु में प्रस्थापन होता हैं वह अपनी स्वभाव गति में रहता हैं और जिस परमाणु से विस्थापन होता है वह आवेशित गति में रहता है। परमाणु आवेशित गति में रहने का कारण उसमें समाहित अंशों की संख्या की अजीर्णता है। अजीर्ण परमाणु ही अंशों को बहिर्गमित करके स्वभावगति में हो जाता है। विकास का तात्पर्य अपरिणामिता के ओर से है। अपरिणामिता की स्थिति तक द्रुत परिणाम, शीघ्र परिणाम, दीर्घ परिणाम के पदों में परमाणुओं को देखा जाता है। तात्विक स्थिति व ज्ञान यही है । इस प्रकार परमाणु में एक से अधिक परमाणु अंशों अर्थात् कम से कम दो अंशों से गठित परमाणुओं का योग प्रारंभ होकर कई अंशों से गठित परमाणुओं का होना सिद्घ हो चुका हैं। प्रकृति में व्यवस्था सहज मूल इकाई परमाणु होने के कारण परमाणु में मात्रा, बल और शक्ति का अविभाज्य वर्तमान होना पाया जाता है।
परमाणु की पूर्वावस्था (परमाणु अंश) में व्यवस्था प्रमाणित नहीं है। व्यवस्था प्रमाणित होने के लिए कम से कम दो परमाणु अंश का होना आवश्यक है क्योंकि सह-अस्तित्व में ही व्यवस्था है। जैसे ही एक से अधिक परमाणु एकत्रित होते हैं वे अणु का पद पाते हैं। वे स्वजातीय व विजातीय भेद से गण्य है। विजातीय परमाणुओं के योग से जो अणु अस्तित्व में होते हैं वे रासायनिक रूप में जाने जाते हैं। ऐसे रासायनिक अणुओं की विभिन्न प्रजातियाँ होती हैं। ऐसी विभिन्न प्रजातियों के रासायनिक अणु मिलकर विभिन्न रचना तथा रस, उपरस आदि के रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार एक पौधा अंकुर के रूप में आरंभ होता हैं, बढ़ता है और एक दिन विरचित हो जाता हैं। उसे ठीक से देखने पर यह विदित होता हैं कि अंकुरण के समय से ही उसके बढऩे में भी मात्रा की कोई स्थिरता नहीं है। इसी के साथ एक व्यक्ति के जन्म को देेखें तो यह पता चलता हैं कि जिस समय शरीर गर्भ में रूप धारण करता है, उसी समय से उसका बढऩा आरंभ हो जाता हैं। यह स्वयं में मात्रा के अर्थ में अस्थिरता का द्योतक है। जब गर्भ से शिशु बाहर आता हैं, उसी क्षण से उसमें परिवर्तन का क्रम देखने को मिलता है। यह परिवर्तन शिशु, किशोर, कौमार्य, युवा, प्रौढ़ और वृद्घावस्थाओं में गण्य होते है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रचनायें स्थिर नहीं हैं। इससे स्पष्ट है कि रचनाएँ रासायनिक एवं भौतिक सीमावर्ती है। यद्यपि रचनाओं में विकास की लाक्षणिकता अवश्य ही दिखाई पड़ती है तथापि विकासशील और विकास केवल परमाणुओं में ही होता हैं। इसीलिए रचना में विकास सिद्घ नहीं होता। मात्रा में स्थिरता होना ही विकास है इसका प्रमाण अस्तित्व में जीवन (चैतन्य इकाई) है। रचनाएँ विकास क्रम में है। विकास क्रम में प्रस्थापन-विस्थापन संभावित रहता हैं। वह अंश जो उस परमाणु में स्वभाव गति में रहता है। उसमें प्रस्थापित होता हैं। फलत: जिसमें विस्थापन होता हैं उसमें ह्रïास की गणना होती हैं और जिसमें प्रस्थापन होता है, उसमें विकास होता है अथवा समृद्ध होता चला जाता है। इसी क्रम में, परमाणु के गठन में जितने भी अंशों के समाने की आवश्यकता है, अथवा संभावना है, वह पूर्ण होते तक, उसमें प्रस्थापन के साथ विस्थापन की संभावना भी बनी रहती हैं। इस प्रकार यह सिद्घ हो जाता है कि गठनपूर्णता के अर्थ में प्रत्येक परमाणु में प्रस्थापन और विस्थापन अवश्यम्भावी है। यहीं विकास क्रम की सार्थकता भौतिक-रासायनिक वैभव के रूप में स्पष्ट है। अपरिणामिता तब सिद्घ होती है जब गठनपूर्णता हो जाती है। यही परिणाम (रूप) के अमरत्व का तात्पर्य है। परमाणु के विकास के अन्तर संबंध क्रम में यह प्रथम सफलता है। इस स्थिति में इस परमाणु में किसी भी अंश का प्रस्थापन या विस्थापन किसी भी प्रक्रिया द्वारा नहीं हो पाता। इस सत्यतावश वह परमाणु अक्षय शक्ति संपन्न हो जाता है। यही चैतन्य पद अथवा चैतन्य-प्रकृति है। इस प्रकार यह अपने आप में स्पष्ट हो जाता है कि गठनपूर्णता पर्यन्त जड़ प्रकृति एवं गठनपूर्णता के अनन्तर चैतन्य-प्रकृति का स्वरुप वैभवित होता है।
‘‘सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है।’’ प्रकृति की मूल इकाई परमाणु के रूप में जानी जाती है। क्योंकि जड़-चैतन्य-प्रकृति की मूल इकाई परमाणु में ही व्यवस्था स्पष्ट है।
वातावरण और नैसर्गिकता प्रत्येक इकाई के लिए अविभाज्य होने के कारण निष्प्राण और सप्राण कोशिकाएँ परिवर्तन के लिए प्रवत्र्त है। सप्राण कोशिकाओं का इतिहास देखने से पता चलता हैं कि मूलत: पूर्व में कहे गये वातावरण और नैसर्गिकता के पूरकता में आये हुए एक रासायनिक अणु का सप्राण कोशिका के रूप में अवतरित होना पुन: उसी का स्वयं दो भागों में विभक्त होना तथा फिर दोनों मिलकर उनके जैसे और कोशिकाओं का निर्माण करने की क्रिया रचनाओं के रूप में प्रकाशित हुई। इसको देखने पर वास्तविकता समझ में आती है कि मूलत: एक ही कोशिका एक ही प्रजाति की होते हुए, इस एक कोशिका के लिए वातावरण और नैसर्गिकता के अनुकूल सिद्घ हुआ।
बीज के मूल में एक ही प्रजाति की प्राण कोशिका की गवाही मिलती है। सप्राण कोशिका और निष्प्राण कोशिकाओं में देखने से यही पता चलता है कि निष्प्राण कोशिकाओं में श्वसन क्रिया नहीं होती जबकि सप्राण कोशिकाओं मे श्वसन क्रिया होती है। इसी श्वसन क्रिया के आधार पर ही सप्राण कोशिकाओं की रचना को पहचाना जाता हैं। वही रसायन जिसे प्राण कोशिकाओं में देखा गया, दोनों में समान होते हुए भी निष्प्राण में श्वसन क्रिया नहीं पायी जाती । इस प्रकार सप्राण कोशिकाओं और निष्प्राण कोशिकाओं की रचना और क्रिया को स्वयं मौलिक रूप में अस्तित्व में पाया जाता हैं। इसके तीन प्रधान कारक तत्व सिद्घ होते है। प्रथम – वे अणु, जो प्राण कोशिकाओं के रूप में कार्यरत है जिसका मूल द्रव्य रूप (रासायनिक गठन) है, द्वितीय – वातावरण और तृतीय – नैसर्गिकता है। नैसर्गिकता का तात्पर्य जिस विधि से उस इकाई पर दवाब पड़ा हो उससे है। वातवारण का तात्पर्य इकाई पर प्रभावित दवाब से है। इस प्रकार तीनों कारक तत्व स्वयं स्पष्ट है। वंशानुषंगीयता के क्रम में बीजों के आधार पर रचना (वृक्ष) को और रचनाओं (वृक्षों) के आधार पर बीजों को पहचानने का विश्वास किया जाता हैं। बीजों के ऊपर ध्यान दें तो पता चलता हैं कि उसके स्तूषी (अंकुर का मूल रूप) में सम्पूर्ण रचना (वृक्ष) का स्वरुप नियम और संगति बद्घ रूप में होना पाया जाता है। नियम बद्घ होने का तात्पर्य यह है कि पूर्व रचनाक्रम का अनुकरण करने की क्षमता का होना। संगति-बद्घ का तात्पर्य योग संयोग को पाकर अंकुरण में प्रवृत्त होने की योग्यता से है। इसी तथ्यवश प्रत्येक बीज में अनुकूल भूमि और वातावरण को पाकर रचना होने की व्यवस्था रहती हैं। इस क्रम में इसी पृथ्वी पर अनेक बीज और रचनाएँ देखने में आती हैं। इससे स्पष्ट होता हैं कि सर्वप्रथम एक कोशिका ही अनके कोशिकाओं में परिवर्तित हुई, वह एक ही प्रजाति की रही है। पुन: विभिन्न मापदण्डों के आधार पर अर्थात् प्राण सूत्र में पाये जाने वाले अनुसंधान प्रवृत्ति, वातावरण और नैसर्गिक दवाब के क्रम में अनेकानेक प्रकार की रचनाएँ और बीज इस वर्तमान में धरती पर समृद्घ हुई। ‘‘रचना सम्पूर्ण विकास नहीं’’ क्योंकि ‘‘जो जिससे बना होता हैं वह उससे अधिक नहीं होता।’’ सम्पूर्ण प्रकृति में भौतिक, रासायनिक, अणु और प्राण कोशिकाओं की रचना प्रसिद्घ है। इन कोशिकाओं की संयुक्त रचना में भी उतने ही गुण विद्यमान रहते हैं। जैसे लोहे से बनी हुई छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी रचना लोहे से न कम और न अधिक होती है। अधिक-कम का मतलब उनके ‘‘त्व’’ (जैसे लोहे में लौहत्व) से हैं। इसी प्रकार वृक्षत्व, लौहत्व, मानवत्व इत्यादि। ‘‘त्व’’ का तात्पर्य इकाई की मौलिकता है। मौलिकता स्वभाव होती हैं। प्रत्येक इकाई में जैसा पहले कहा गया-गाय, घोड़ा आदि में उन के स्वभाव को कम से कम उन-उन रचनाओं को शरीर आयु पर्यन्त स्थिर रखने के क्रम में ही वंशानुषंगीयता स्पष्ट होती गयी। यह एक विलक्षण स्थिति सम्मुख होती हैं कि इस धरती पर मानव के अतिरिक्त सभी रचनाओं (अवस्थाओं) यथा पदार्थावस्था, प्राणावस्था एवं जीवावस्था में देखने पर पता चलता हैं कि लोहा जब तक रहता है तब तक उसके त्व में अर्थात् लोहत्व में वैपरीत्यता नहीं होती। उसी भाँति आम, बाघ, भालू, गाय आदि में भी वैविध्यता नहीं होती। जबकि मानव को देखें तो पता चलता है कि इसके विपरीत अर्थात् मानवत्व के विपरीत स्थिति में अधिकतम व्यक्ति प्रकाशित है। तात्पर्य यह कि मानव ही इस धरती पर ऐसी एक इकाई है जो मानवत्व के विपरीत कार्य, व्यवहार-विन्यास करते हुए भी अपने को श्रेष्ठ और विकसित होने का दावा करता है। जैसे अधिकतम शोषण एवं युद्घ में समर्थ व्यक्ति, परिवार, समाज अथवा राष्ट्र को विकसित समझा जा रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मानव अपने त्व को वंशानुषंगीयता में खोजने के अरण्य में भटक गया है या मिटने की तैयारी में आ गया है। मानव का वर्चस्व वंशानुषंगीयता में उज्जवल एवं अनुकरण होने की व्यवस्था होती तब क्या होता ? या तो वंशानुषंगीयता के समर्थक कहलाने वालों के अनुसार मानव के पूर्वज जैसे बन्दर थे वे मानव क्यों बन गये? बदल क्यों गये? या तो बदलना को विकास समझ लें। इसी प्रकार, पू्र्व पीढ़ी का ज्ञान दूसरी पीढ़ी को बिना समझे व सीखे क्यों नहीं आता? यह उन मनीषियों के लिए विचार करने का एक मुद्दा है। पदार्थावस्था परिणामकारिता के साथ अथवा परिणाम बीज के रूप में देखी जाती हैं क्योंकि पदार्थ में मात्रात्मक परिवर्तन के बिना गुणात्मक परिवर्तन नहीं होता और पदार्थावस्था में जो कुछ भी तात्विक परिवर्तन है, वह सब किसी न किसी पद के अर्थ को स्पष्ट करता हैं । ऐसा प्रत्येक पद विकास के क्रम में कड़ी के रूप में दृष्टव्य है यह कड़ी स्वयं ही विकास का साक्ष्य है। इस प्रकार पदार्थावस्था में जितनी भी संख्या में तात्विक रूप की व्यवहारिक व्यवस्था है, वह स्वयं में स्थिर और निश्चित है। जब वह पदार्थ प्राणावस्था में होता हैं उसे हम विकास की संज्ञा देते हैं। अपेक्षाकृत अर्थात् पदार्थावस्था की अपेक्षा में प्राण कोशिकाओं की जाति प्रजाति कम होने से हैं। दूसरी, परिणामानुषंगीय बीजानुषंगीयता में गण्य हो जाती हैं। पदार्थावस्था में से प्राणावस्था अपनी मौलिकता सहित वैभवित होने के पश्चात पुन: पदार्थावस्था में परिवर्तित होने की व्यवस्था है।
इसी कारणवश प्राणावस्था, पदार्थावस्था की अपेक्षा विकसित हुई सी दिखते हुए भी पदार्थावस्था की अपेक्षा में उसकी स्थिरता और निश्चयता घट जाती हैं, जबकि संक्रमित विकास यदि होता तो पदार्थावस्था से प्राणावस्था में स्थिरता और निश्चयता अधिक उजागर होनी थी, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। अपितु पदार्थावस्था की अपेक्षा में प्राणावस्था की वैविध्यता घट गयी। धरती पर प्राणावस्था और जीवावस्ता का प्रगटन ही ज्ञानावस्था के प्रगटन का आधार बना है। पदार्थावस्था में संगठन-विघटन की अपेक्षा प्राणावस्था में रचना की गति तेज है। पदार्थावस्था ही उदात्तीकरण होकर प्राणावस्था के रूप प्रगट होती है। अर्थात् प्रकृति में मनुष्येत्तर प्रकृति के प्रगटन का प्रयोजन ज्ञानावस्था का प्रकटन ही है। जो जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में है। इसको समझने से मानव को धरती पर अपराध करना बनता नहीं है।
जीवावस्था को देखें तो प्राणावस्था में उसमें कम वैविध्यता दिखाई पड़ती हैं साथ ही यह देखने को मिलता हैं कि नैसर्गिकता और वातावरण के दबाव में आकर जो वंशानुषंगीयता की स्थिरता रही हैं, उसको वह बदल देता हैं। जैसे कुत्ता, बिल्ली, गाय आदि पशु मानव के नैसर्गिक दबाव में आकर अपने वंशानुषंगी कार्यकलाप से भिन्न कार्यकलाप करने लगते हैं इससे पता चलता है कि प्राणावस्था से जीवावस्था में वंशानुषंगीयता की अस्थिरता अथवा अनिश्चयता बढ़ गई तथा वैविध्यता घट गई।
मानव को देखें तो पता चलता हैं कि मानव में वैविध्यता नहीं के बराबर रह गई। किन्तु इनमें वंशानुषंगीय अस्थिरता चरमावस्था में पहुँच गई। जैसे चोर का बेटा चोर हो ऐसा आवश्यक नहीं। विद्वान की संतान ने विद्वता का अनुकरण नहीं किया, जबकि मूर्ख की संतान विद्वान भी होती है। आश्चर्य की बात है कि मानव फिर भी स्वयं को वंशानुषंगीयता का दावेदार, प्रणेता मान रहा है। यह कितनी दयनीय स्थिति है? जिन वंशानुषंगीयता के आधार पर प्रतिवर्ष ही अनेक निबंध, प्रबंध तैयार हो रहा हैं ये कहाँ तक मानवोपयोगी है?
‘‘विकास के क्रम में ही पदों की गणना है।’’
पदार्थावस्था एक पद है, जिसमें परमाणुओं का तथा विभिन्न प्रजातियों के परमाणुओं के कार्य विन्यास को देखा जाता है जो भौतिक और रासायनिक रूप में परिगणित होते हैं। यही संपूर्ण पदार्थों की वैविध्यता के मूल में तथ्य हैं। संपूर्ण पदार्थों में सजातीय विजातीय परमाणुओं का योग (मिलन) होता है। ऐसे योग के मूल में प्रत्येक परमाणु में अपने आप में एक दूसरे से मिलने का अथवा जुडऩे का बल समाहित रहता हैं। ऐसे परमाणु में होने वाले गठन के मूल में भी यही तथ्य सिद्घ होता हैं। अरूपात्मक अस्तित्व (सत्ता, व्यापक) में रूपात्मक अस्तित्व सम्पृक्त रहने के फलस्वरुप ही बल सम्पन्नता अभिव्यक्त है। अस्तित्व स्वयं रूप-अरूप की अविभाज्य स्थिति होने के कारण इस बात का प्रमाण है कि सम्पूर्ण रूपात्मक अस्तित्व, अरूपात्मक अस्तित्व में घिरा हुआ दिखाई पड़ता है। यह घिरा हुआ स्वयं प्रत्येक इकाई के नियंत्रण को स्पष्टï कर रहा है, क्योंकि प्रत्येक इकाई अर्थात् अणु-परमाणु और परमाणु में निहित अंश भी परस्पर निश्चित दूरी, जो अरूपात्मक अस्तित्व ही है, में नियन्त्रित रहते हैं। अर्थात् नियन्त्रण की अवस्था में प्रत्येक इकाई आवेश में नहीं होती है, यही स्वभाव गति है। आवेश में ह्रïास होने की संभावना अपने आप समीचीन होती हैं। यही आवेश का साक्ष्य है।
जड़-प्रकृति और चैतन्य-प्रकृति इस धरती पर गण्य होते हैं। जड़-प्रकृति में पदार्थावस्था प्राणावस्था गण्य है। चैतन्य-प्रकृति में जीवावस्था तथा ज्ञानावस्था गण्य है। पदार्थावस्था में परमाणु की पहचान होती है। इन परमाणुओं की स्थिति ही स्वयं विकास की अभिव्यक्ति हैं। इसी क्रम में परमाणु विकसित होकर अविकसित परणाणुओं को पहचानने की योग्यता से संपन्न होता हैं। ऐसे परमाणु चैतन्य पद में होते हैं। यही विकास की महिमा हैं। इसी क्रम में चैतन्य-प्रकृति अर्थात् गणनपूर्णता प्राप्त परमाणु में पाँचों शक्तियाँ और पाँचों बल अक्षय रूप में समाहित रहते हैं। उसकी जागृति पूर्ण अभिव्यक्ति पर्यन्त गुणात्मक विकास के लिए चैतन्य इकाई प्रवत्र्त है। नियंत्रण जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति के लिए समान रूप में वर्तमान है। वर्तमान का तात्पर्य अस्तित्व सहित स्थिति और प्रभाव से हैं। अरूपात्मक अस्तित्व का प्रभाव नियन्त्रण के रूप में प्रत्येक इकाई में प्रभावशील होना ही साक्ष्य है। परमाणु गठनपूर्णता पर्यन्त एक दूसरे से मिलकर अणु और रचना के रूप में प्रकाशित है।
गठनपूर्णता के अनन्तर परमाणु अपनी गति में होता हैं जो स्वयं में एक गति पथ को स्थापित करता है। जबकि जड़ परमाणु में परमाणु अंशों का गतिपथ स्वयं उसके गठन को गठनपूर्णता पर्यन्त प्रकाशित करता है। गठनपूर्णता के अनन्तर परणामु अंशों के गतिपथ सहित परमाणु अपनी विशालता को प्रकाशित करने के क्रम में एक पुर्नगतिपथ की स्थापना करता हैं जो स्वयं में एक पुंजाकर होता है। जैसे एक रस्सी के छोर में आग लगाकर घुमाने से एक अलातचक्र दिखाई पड़ता है, वैसा ही गठनपूर्ण परमाणु जितने स्थान पर अपना गति चक्र बना लेता हैं, वह एक पुंज रूप में प्रकाशित होता हंै। ऐसी चैतन्य इकाई अर्थात् गठनपूर्णता प्राप्त परमाणु में ये विशेषताएँ हैं कि वह अक्षय बल और अक्षय शक्ति संपन्न होता है।
अक्षय शक्ति और बल संपन्नता का तात्पर्य यह है कि गठनपूर्णता के अनन्तर परमाणु में अमरत्व सिद्घ होने के फलस्वरुप उसमें श्रम और गति दोनों अक्षय हो जाती हैं। यही स्वाभाविक स्थिति हैं। इसी सत्यावश गठनपूर्ण परमाणु में अभिव्यक्त होने वाले पाँचों बल पाँचों शक्तियाँ अक्षय सिद्घ होती हैं। अक्षयता का अर्थ हैं क्षय न होना, अक्षुण्ण होना।
चैतन्य-प्रकृति के कार्यकलापों में इस अक्षयता का साक्ष्य सिद्घ होता हैं । आशा और विचार को देखें तो कितनी ही आशाओं और विचारों का उपयोग करने पर वे किसी भी प्रकार घटती नहीं है। इसके विपरीत यह देखने को मिलता हैं कि आशा और विचारों का उपयोग सन्निकर्ष और नियोजन के रूप में करते-करते उनकी प्रखरता और श्रेष्ठता उजागर होती जाती है। आशा जब किसी वस्तु का चयन करती हैं अर्थात् उसमें आस्वादनीयता को पहचानती है, तब चयन क्रिया में प्रवृत्त होती हैं। आस्वादनीयता को जब तक आशा पहचानती नहीं तब तक चयन करने की क्रिया प्रमाणित नहीं होती। आशायें कितनी भी दूर तक और पास तक क्रियाशील रहती हैं। वहाँ तक सम्पूर्ण क्रियायें आस्वादन को पहचानने के आधार पर ही स्पष्ट है। इससे यह निष्कर्ष निकलता हैं कि जड़ प्रकृति में आस्वादन की पहचान जो प्रकाशित नहीं हो पाती थी वह चैतन्य-प्रकृति में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई। चैतन्य-प्रकृति में मनोबल, आशा-शक्ति के रूप में स्वयं को प्रकाशित करता हैं। वे चयन और आस्वादन की क्रियायें हैं। मनोबल, चैतन्य-प्रकृति जीवन अथवा चैतन्य इकाई का एक अविभाज्य वर्तमान है। चैतन्य इकाई से पाँचों बल और पाँचों शक्तियों को अलग करके देखा नहीं जा सकता। इसी प्रकार जड़ प्रकृति तथा परमाणु में भी पाँच बल अविभाज्य वर्तमान है। चैतन्य-प्रकृति अर्थात् चैतन्य इकाई का दूसरा बल वृत्ति बल है। इसकी शक्तियाँ विचार और तुलन के रूप में प्रभावशील होती हैं । तीसरा बल चित्त बल = इच्छा शक्ति है जिसकी बल एवम् शक्तियाँ चिन्तन और चित्रण के रूप में प्रभावशील होती हैं । चौथा बल बुद्घि बल है जिसकी बल एवं शक्तियाँ बोध और संकल्प में प्रभावशील होती हैं। पाँचवां बल आत्मबल है जिसकी बल एवं शक्तियाँ अनुभव प्रामाणिकता और व्यवहार में समाधान के रूप में हैं।
आत्मबल, स्वभावत: अनुभव का वैभव है। अनुभव ही अभिव्यक्ति में शक्ति अर्थात् आत्म शक्ति कहलाता है। आत्मशक्ति की पहचान प्रामाणिकता में ही होती हैं। प्रामाणिकता ही चैतन्य इकाई की जागृति और तृप्ति का साक्ष्य है। विकास का लक्ष्य सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति का सत्ता में अनुभूत होने से हैं। अनुभूति स्वयं जागृति का स्वरुप हैं। जागृतिपूर्वक ही पहचान और निर्वाह करने की व्यवस्था है। पहचान और निर्वाह ही प्रामाणिकता है यही अनुभूति की अभिव्यक्ति है।
प्रत्येक परमाणु में कम्पनात्मक गति होती हैं। इसका प्रमाण अणु और अणुरचित पिण्डों में संकोचन-प्रसारण के रूप में दृष्टव्य है। पदार्थावस्था के अणुओं में बाह्य दबाव के बिना संकोचन अथवा प्रसारण सिद्घ नहीं होता है जबकि प्राणावस्था की प्रत्येक प्राण कोशिका में संकोचन, प्रसारण, स्पन्दन स्वभाव के रूप में होना पाया जाता है। यह अणुओं में होने वाली स्पंदनशीलता ही प्राणावस्था की स्पष्ट पहचान है। पदार्थावस्था से प्राणावस्था, रचना के अर्थ में विकास सा प्रतीत होता है। जब तक उस अवस्था में रहता हैं तब तक उसका प्रयोजन भी सिद्घ हो जाता है, जैसे प्राणावस्था की प्रत्येक कोशिका जितनी भी बड़ी रचनाएँ होती हैं प्रतिरुप में होती हैं। तात्पर्य यह है कि रचना में जो कोशिका का अस्तित्व है, वह उस रचना के सम्पूर्ण आकार का सूक्ष्म रूप है। इस प्रकार देखने पर पता चलता है कि प्रत्येक कोशिका जिस रचना में भागीदारी निभा रही हैं उसकी प्रत्येक कोशिकायें उसी स्थान में होने वाली क्रिया को सम्पादित करती है। यही साक्ष्य है कि कोशिकाएँ रचना के सम्पूर्ण रूप का प्रतिरुप है। मूल कोशिका जब पदार्थावस्था से प्राणावस्था में परिवर्तित होती हैं तब उसमें यह देखने को मिलता हैं कि पदार्थावस्था की वह कोशिका जो प्राणावस्था में परिवर्तित होनी है, रासायनिक जल के योग में आप्लावित रहती है। ऐसी आप्लावन स्थिति में किसी एक उष्मा का दबाव और नैसर्गिकता के प्रभाव के योगफल में उसमें स्पन्दनशीलता आरंभ हो जाती हैं। यह विधि पुन: कोशिका से कोशिकाएँ निॢमत होने की विधि में भी दिखाई पड़ती हैं। इससे यह स्पष्टï हो जाता हैं कि स्पन्दनशीलता के समय में पवित्र रासायिनक जल, निश्चित रासायनिक अणु, वातावरण और नैसर्गिकता (ऊष्मा) के दबाव के योगफल में प्रत्येक प्राणकोशिका का निर्मित होना अर्थात् स्पन्दनशीलता में बदल जाना सिद्घ हुआ।
कोशिकाएँ रचना में, अपने-अपने स्थान में, अपने अपने स्थान पर रहकर अपनी-अपनी निश्चित क्रियाएँ करती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक पौधे की जड़ में जो प्राण कोशिका कार्यरत है, वह उस स्थान के अनुरुप कार्य करती है। पत्ते में, तने में, फूल में अवस्थित कोशिकाएँ उन-उन स्थानों की निश्चित क्रियाएँ करती हुई मिलती हैं। इस प्रकार प्राण कोशिकाएँ मूलत: एक ही प्रजाति की होते हुए, उस रचना के तालमेल की महिमा में ही अपने कार्य को समर्पित किये रहती है। इनमें अपने आप में कोई व्यतिरेक नहीं होता। व्यतिरेक न होने मात्र से इनकी स्थिरता सिद्घ नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक क्षण में एक पौधे में कई कोशिकाएँ मर जाती हैं और इसी क्षति पूर्ति के लिए संवेदन के लिए और भी समानधर्मी कोशिकाएँ निर्मित होती हैं । इसी क्रम में संपूर्ण प्राणावस्था की रचनाएँ सम्पादित होते रहती है। इनकी परस्पता का तालमेल और सामरस्यता इनका स्पन्दन ही है। यही स्पन्दन एक दूसरे के कार्य के साथ जुड़े रहने की व्यवस्था है। ये संकोचन-प्रसारण ही तरंग और दबाव का कार्य करते हुए एक दूसरे के साथ व्यवस्था बनाये रखती है। इस समस्त प्रक्रिया में प्राण कोशिका में होने वाली स्वय संकोचन की स्थिति में दबाव, प्रसारण की स्थिति में तरंग के रूप में प्रभावशील रहती हैं। इसी सत्यतावश संपूर्ण प्राणावस्था की इकाई विद्युतग्राही सिद्घ हुई।
* नोट: इस अध्याय के शेष भाग में कुछ तैल्काएं यहाँ नहीं दीये हैं, सम्पूर्ण के लिए पुस्तक को देखें
मात्रा और उसका स्वरुप
मात्रा रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य वर्तमान है। कोई ऐसी इकाई नहीं है जिसमें रूप, गुण, स्वभाव, धर्म न हो। मात्रा का मूल रूप परमाणु में ही आंकलित होता है क्योंकि परमाणु ही तात्विक रूप में अस्तित्व में निश्चित आचरण सहित व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी प्रकाशमान है। उसके पूर्वरुप और पर-रूप में मात्रा की अस्थिरता तात्विकता (परमाणु) के अपेक्षाकृत बढ़ जाती हैं। सिद्घांत है कि तात्विक रूप में जो परमाणु अपनी स्थिति में जितने समय तक रह पाता हैं, वह उतने समय तक अणु के अथवा परमाणु के पूर्व रूप में नहीं रह पाता। प्रकृति में परमाणु के अंशों के रूप में, पदार्थ की स्थिति नगण्य रूप में हैं। कोई भी पदार्थ अधिकतम संख्या में अणु और अणुओं की रचना के रूप में ही मिलता हैं। इनमें से मात्रा का अध्ययन परमाणु का अपने स्वरुप में सम-विषम-मध्यस्थ शक्तियों से संपन्न रहने की नियति क्रम व्यवस्था हैं। परमाणु में ही सम्पूर्ण बल व्यवहृत होता हुआ देखने को मिलता हैं। पर-रूप अर्थात् अणु अथवा अणु रचित पिण्डों में मध्यस्थ बल दिखाई नहीं पड़ता। इसी कारणवश परमाणु में ही पाँचों बलों का अध्ययन-अध्यापन सुलभ हुआ है। मध्यस्थ क्रिया अपने-आप में मध्यस्थ बल और शक्ति के रूप में है। इसकी स्थिति परमाणु के केन्द्र में होती हैं। यह अविरत रूप में सम-विषम शक्तियों पर नियन्त्रण किये रहता है। चैतन्य-प्रकृति और जड़ प्रकृति में मौलिक रूप से यह अन्तर पाया जाता है कि जड़ प्रकृति में परमाणु अणु और अणु रचित पिण्डों के रूप में प्राप्त होते हैं जबकि चैतन्य-प्रकृति परमाणु के रूप में ही वर्तमान रहती है। चैतन्य परमाणु में ही अक्षय शक्तियाँ होने के कारण प्रत्येक इकाई अपने में जीवन वैभव और महिमा का अनवरत प्रकाशन करती है। जड़ शक्तियाँ क्षरणशील होती है और चैतन्य शक्तियाँ अक्षय होती है। इसी तथ्यवश चैतन्य इकाई में परावर्तन और प्रत्यावर्तन स्वाभाविक रूप में होता है।
मध्यस्थ क्रिया के अनुरुप में ही प्रत्येक इकाई में स्वभाव गति का होना पाया जाता है। परिणामत: उसमें अग्रिम विकास की संभावना और विकास क्रम में भागीदारी सुलभ हो जाता है।
प्रत्येक परमाणु में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म वर्तने के कारण ही उनमें ऊर्जा का परिचय होता है। ऊर्जा जब कार्य ऊर्जा के रूप में होता हैं तभी बलों का परिचय हो पाता है। ऐसी स्थिति के लिए एक से अधिक इकाईयों की परस्परता अनिवार्य सिद्घ होती हैं। परमाणु अपनी स्थिति में क्रियारत होते हुए मिलता है। परमाणु में निहित बल का परिचय उसकी अपनी ही स्थिति में उसी के अन्तर्गत होने वाली क्रिया की ही अभिव्यक्ति है। प्रत्येक इकाई किसी का वातावरण और प्रत्येक इकाई के लिए अन्य का वातावरण नित्यभावी होने की सत्यता को ध्यान रखते हुए परस्पर बलों का परिचय पाने की व्यवस्था है। इसी क्रम में विकास की व्यवस्था एवं विकासक्रम में भागीदारी है। गठनपूर्णता पर्यन्त परमाणु में मात्रात्मक परिवर्तन के साथ ही अर्थात् अंशों की संख्या में परिवर्तन होने के साथ ही उनमें गुण परिवर्तन होते हुए देखा जाता हैं। इस प्रकार मात्रा की गणना मूलत: परमाणु में आंकलित होना सिद्घ हुआ और अणु तथा अणुरचित मात्राएँ इन्हीं परमाणु के आधार पर होने वाली घटना होने के कारण परमाणु मूल मात्रा होना एवं रहने को समझ लेने मात्र से सम्पूर्ण पिण्डों का मात्रा के रूप में समझने का सूत्र अपने आप में निकल जाता हैं। परमाणु से रचित पिण्डों में होने वाले चारों आयामों का प्रकाशन इस प्रकार होना पाया जाता है:-
1. आकार, आयतन, घन के अर्थ में रुप।
2. सम, विषम, मध्यस्थ के अर्थ में गुण (शक्तियाँ)।
3. रचना, रचना की परंपरा, विरचना के रूप में स्वभाव (मौलिकता)।
4. स्वभाव-
- पदार्थावस्था में – संगठन-विघटन
- प्राणावस्था में – सारक-मारक
- जीवावस्था में – क्रूर-अक्रूर
- ज्ञानावस्था में – धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा, करूणा।
4. अस्तित्व, पुष्टि, आशा और अनुभूति सुख, शांति, संतोष, आनंद सहज अर्थ में धर्म है।
इस प्रकार जड़ प्रकृति में रूप और गुण, गणित एवं गुण के द्वारा समझ आता हैं । स्वभाव व धर्म अस्तित्व में गुण और कारण द्वारा समझ में आते है। धर्म अस्तित्व में ही नित्य वैभवित रहता है। अस्तु, अस्तित्व में मात्रा की समझ के लिए केवल गणित की भाषा पर्याप्त सिद्घ नहीं हुई क्योंकि ‘‘गणित आंखों से अधिक एवं समझ से कम होता है।’’ इसीलिए चैतन्य-प्रकृति गणितीय भाषा से व्याख्यायित नहीं हो पाती। इसीलिए हम गुण और कारणात्मक भाषा को भी सीखने के लिए बाध्य है। गुण, घटनाओं के रूप में परस्पर वर्तमान होता हुआ देखा जाता है। जड़ प्रकृति में समविषमात्मक प्रभाव परस्पर इकाईयों में पड़ता है और स्वयं के समविषमात्क आवेशों को सामान्य बनाने के क्रम में मध्यस्थ शक्ति को कार्यरत होना देखा जाता है। कार्य ऊर्जा बढऩा ही सम-विषम आवेश है इसी आवेश को सामान्य बनाने के लिए छिपी हुई ऊर्जा प्रभावशील रहती हैं, जबकि चैतन्य-प्रकृति में समाधान और प्रमाणिकता के रूप में मध्यस्थ क्रिया प्रभावशील होती है। समाधान और प्रमाणिकता ही मानव परम्परा के रूप में स्वीकार है। इससे पता चलता है कि चैतन्य-प्रकृति में ही मध्यस्थ क्रिया की पूर्ण प्रभावशाली परम्परा होने की व्यवस्था है। इसीलिए विकास होता है। स्वभाव और धर्म को कारण-कार्य एवं कार्य-कारण पद्घति से समझने की व्यवस्था हैं। स्वभाव प्रत्येक इकाई में अर्थात् जड़-चैतन्यात्मक इकाई में मूल्यों के रूप में वर्तता है। मूल्य प्रत्येक इकाई में स्थिर होता हैं। धर्म अविभाज्य होता हैं। इसी कारणवश मानव में समझने की व्यवस्था है। किसी घटना के मूल के लिए सब आवश्यकीय सघन कारक तत्वों को स्पष्ट कर देना ही गुणात्मक भाषा हुई, जैसे:-
अव्यवस्था = दर्द = समस्या = गुणात्मक भाषा।
अव्यवस्था के कारक तत्व की समझ = घटना का अध्ययन
समस्या का कारण = कारणात्मक भाषा।
इसी तरह,
व्यवस्था की समझ = सुख = समाधान = गुणात्मक भाषा।
व्यवस्था के कारक तत्व की समझ = घटना का अवयव = नियतिक्रम = समाधान का कारक = कारणात्मक भाषा।
इस गवाही के साथ ही विकास का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है।
समाधान ही विभव का आधार हैं। समाधान पूर्वक ही प्रत्येक विकास की कड़ी अपने आप में प्रकाशित होती हैं। यही समाधान नित्य परम्परा और त्राण तथा प्राण होने के कारण यह स्पष्ट हो जाता हैं कि समाधान के पद में ही विकास और उसकी निरन्तरता का वैभव है । इस प्रकार मध्यस्थ क्रिया का स्वयं व्यवहारिक समाधान के रूप में नित्य प्रभावशील होना ही स्थिति के अर्थ को स्पष्ट कर देता है। समविषमात्मक आवेश निरन्तर समस्या का ही प्रकाशन हैं इस तथ्य को हृदयंगम करने पर असंदिग्ध रूप में स्पष्ट हो जाता है कि सम्पूर्ण प्रकृति स्थिति में स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही रहती हैं जो मध्यस्थ क्रिया ‘‘आत्मा’’ के अनुशासन में होने वाली क्रिया है। यही अनुशासन मध्यस्थ क्रिया बल के रूप में अनुभव, शक्ति के रूप में प्रामाणिकता होती है। यह चैतन्य क्रिया की अभिव्यक्ति में होने वाला वैभव है। प्रत्येक चैतन्य क्रिया की प्रामाणिकता प्रकाशित होने की संभावना रहती हैं। उन संभावनाओं को सर्व सुलभ, सहज सुलभ बना लेना ही पुरुषार्थ का तात्पर्य है। शिक्षा पूर्वक अथवा प्रबोधन पूर्वक प्रामाणिकता आदान-प्रदान करने की वस्तु है। चैतन्य-प्रकृति में ही समाधान की नित्य तृषा का होना एवं समाधानपूर्वक नित्य तृप्ति होना पाया जाता है। समाधान और उसकी निरन्तरता के अर्थ में ही सम्पूर्ण पदार्थ और संबंध का निर्वाह हो पाता है। समाधान ही जीवन सन्तुष्टि का स्रोत होने के कारण समाधान और प्रामाणिकता की परम्परा में ही चैतन्य-प्रकृति की परम्परा अथवा सम्पूर्ण चैतन्य-प्रकृति के तृप्त होने की व्यवस्था है । इस निष्कर्ष पर आते हैं कि चैतन्य-प्रकृति में आदान-प्रदान होने वाली, पहचानने और निर्वाह करने की संयुक्त संप्रेषणा की स्वीकृति ही बोध के नाम से जानी जाती हैं। इसी को हृदयंगम कहा जाता हैं और ऐसा बोध ही अवधारणा है।
चैतन्य इकाईयों में पाया जाने वाला अक्षय बल और शक्तियों की सामरस्यता (प्रामाणिकता और समाधान) स्वयं की परस्परता में और परस्पर इकाईयों में त्रिकालाबाधित साम्य हैं। ऐसी सामरस्यता सार्वभौम रूप में, हम मानवों में प्रामाणिकता और समाधान संपन्न होने की व्यवस्था समीचीन है। यही सम्पूर्ण अनुसंधान, शिक्षा, व्यवस्था, चरित्र और उसकी निरन्तरता का अक्षय स्रोत हैं। मात्रा विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान, व्यवस्था विज्ञान और व्यवहार विज्ञान के मूल रूप में यही प्रमाणिकता और समाधान ही अक्षय स्रोत अक्षय त्राण और अक्षय प्राण है।
शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य-प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। जड़ प्रकृति में अंशों का आदान-प्रदान होता हैं। परमाणुओं के स्तर में जिसमें प्रस्थापन होता है वह पहले से ही सामान्य गति में रहता है, जिसमें विस्थापन होता हैं उसके अनन्तर वह भी सामान्य गति में होना पाया जाता है। सामान्य गति में होने के लिए निरन्तर मध्यस्थ क्रिया में बल समाहित रहता हैं जिसे हम छिपी हुई ऊर्जा कहते है।
स्वनियंत्रण के अर्थ में ही मध्यस्थ शक्ति क्रियाशील होती है। नियन्त्रण में ही प्रत्येक जड़-चैतन्यात्मक इकाई सुरक्षित रह पाती हैं। अर्थात् उसका अस्तित्व यथावत् बना रहता है। चैतन्य-प्रकृति में नियन्त्रण को समाधान और उसकी निरन्तरता के अर्थ में देखा जाता है। इसी बिन्दु में भौतिकता, बौद्घिकता और अध्यात्मिकता का अविभाज्य वैभव दिखाई पड़ता है क्योंकि चैतन्य परमाणु अनुभव पूर्वक ही जागृत होता है। फलत: समाधान का प्रेणता, उद्गाता और प्रबोधक हो पाता है। इसी के परिणाम स्वरुप प्रबोधनपूर्वक, बोध के रूप में दूसरे में इंगित होना भी व्यवहार में देखा जाता है। इसीलिए पदार्थ ही निश्चित विकास के पद में जागृत होने, मध्यस्थ क्रिया से ‘‘स्व’’ का नियन्त्रित होने और मध्यस्थ सत्ता में परस्पर निश्चित दूरी के रूप में संरक्षित रहने की सत्यता अपने आप स्पष्ट होती है। चैतन्य इकाई में मध्यस्थ बल स्वयं आत्मबल और मध्यस्थ शक्ति ही अनुभव और प्रामाणिकता है। जीवन जागृति की स्थिति में बोध, जीवन की अविभाज्य उपलब्धि हो जाती है और अध्यात्मिकता अर्थात् अरूपात्मक अस्तित्व में ओत-प्रोत रहने का बोध परस्पर अच्छी दूरी और ज्ञानमयता अर्थात् चेतनामयता के रूप में स्पष्ट होता हैं। इस प्रकार बौद्घिक, भौतिक और अध्यात्मिकता अविभाज्य वर्तमान है।
जागृत जीवन संचेतना अर्थात् संज्ञानीयता में नियंत्रित संवेदनायें प्रकाशित होने वाला अनुभव बल ही बोधपूर्वक विचार शैली में, विचार शैली जीने की कला के रूप में परावर्तित होता है। संचेतना में पाँचों अक्षय बल तथा शक्तियाँ निरन्तर कार्यरत रहती हैं। संचेतना शरीर के माध्यम से प्रकाशमान होने मात्र से शरीर जीवन नहीं होता। संचेतना की अभिव्यक्ति प्रत्येक मानव में होती हैं। संचेतना पहचानने व निर्वाह करने के रूप में परिलक्षित है। पहचानने तथा निर्वाह करने के क्रम में ही जागृति के क्रम में अर्थात् अस्तित्व और विकास को पहचानना बुनियादी आवश्यकता हैं। जागृति, विकास की परम अवस्था हैं। परमाणु में विकास होने की व्यवस्था हैं। जागृति का तात्पर्य अस्तित्व में अनुभूत होना ही हैं। सत्ता में संपृक्त प्रकृति का सत्ता में अनुभूत होना ही अस्तित्व का उद्देश्य हैं। इस को समझने पर ही विकास की यात्रा भी समझ में आती हैं। अस्तित्व के संबंध में जितना भ्रमित रहेंगे उतना ही लक्ष्य के संबध में भ्रमित रहेंगे। इसी को दूसरी प्रकार से देखें तो अस्तित्व में निभ्र्रमता ही लक्ष्य के प्रति निभ्र्रम होने का आधार है। इस प्रकार अस्तित्व, लक्ष्य और विकास के संबंध में निभ्र्रम हो जाना ही विवेक और विज्ञान का प्रयोजन है। इस क्रम में यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता में संपृक्त प्रकृति का सत्ता में अनुभूत होने पर्यन्त विकास के लिए बाध्य होना ‘‘अस्तित्व सिद्घ सत्य’’ हुआ। यह स्वयं जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति का लक्ष्य है। पदार्थ अवस्था से प्राणावस्था बिना दिग्भ्रम के विकसित हुई। जीवावस्था से ज्ञानावस्था के निभ्र्रम होने के क्रम में ही मानव अपने को भ्रमित पाता है। इसका संपूर्ण कारण शरीर को जीवन समझना ही हैं । अक्षय बल एवं अक्षय शक्ति संपन्न होने के कारण प्रत्येक मानव जीवन क्षमता की स्थिति में समान हैं। यह समानता हर स्तर में समन्वय होने पर्यन्त लक्ष्य विहीन होने के कारण विरोधाभासी प्रतीत होती हैं, तब विरोध का विरोध और विरोध के दमनकारी कार्यकलापों में प्रवृत्त हो जाता है। जबकि विरोध का विजय ही जागृति का साक्षी है। सम्पूर्ण विरोधाभास केवल अस्तित्व, अस्तित्व में विकास और जीवन के भूलाने का परिणाम है।
जीवन के भुलावेवश ही अथवा जीवन विद्या का भुलावा अथवा अज्ञात रह जाना ही शरीर को जीवन समझने की विवशता है। तभी हम सोचने के लिए बाध्य हो जाते है शरीर में होने वाली क्रिया को जीवन का सोना (निद्रा) मान लेते है। जबकि ऐसा होता नहीं है। इसका साक्ष्य है कि जड़-चैतन्यात्मक कोई परमाणु निष्क्रिय नहीं होता अर्थात् सतत क्रियारत रहता है। चैतन्य क्रिया शरीर की अक्षमता को जानकर इसे चलाने और दौड़ाने की प्रेरणा की अक्षयता स्वभाव सिद्घ होते हुए शरीर द्वारा जितना कार्य कराना हैं अथवा शरीर जितना कार्य करने योग्य हैं उतना ही कराता है। इस प्रकार शरीर का सो जाना जीवन का सो जाना नहीं हुआ। शरीर के लिए आहार, निद्रा आदि क्रियाओं का प्रयोजन सिद्घ होता हैं। जीवन के लिए मूल्य और मूल्यांकन ही व्यवहारिक प्रयोजन सिद्घ होता है। शरीर निर्वाह ही जीवन तृप्ति नहीं है। जीवन की अनुग्रह बुद्घि से ही शरीर निर्वाह की व्यवस्था हो पाती हैं। अस्तु, हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि शरीर जीवन नहीं है, जीवन शरीर नहीं है। जीवन नित्य हैं, जीवन के लिए शरीर एक साधन है और माध्यम है।
जीवन में संचेतना का वैभव प्रकाशमान होता है। विकास के क्रम में जितने भी पद देखने को मिलते हैं जैसे- प्राण पद, भ्रांति पद, देव पद और दिव्य पद- इन पदों में जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति क्रियारत है। इनमें जीवन, संचेतना के रूप में अथवा क्रिया के रूप में अभिव्यक्त रहता ही है। जीवन एक परमाणु के रूप में होते हुए गठनपूर्ण होने के कारण उसका वैभव गठनशील परमाणुओं के सदृश नहीं होता। अस्तु, हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि अस्तित्व स्थिर होने के कारण जड़ परमाणु ही विकसित होकर चैतन्य पद में संक्रमित हो जाता हैं जो किसी भी कारण से पुन: जड़ परमाणु में नहीं बदलता। यही चैतन्य परमाणु, अक्षय बल अक्षय शक्ति संपन्न होने के कारण अपनी अक्षयता को गुणात्मक विकास और जागृति ही अस्तित्व में अनुभव पूर्वक स्वयं की अक्षयता को सिद्घ कर देता है। यही अस्तित्व में परमाणु का विकास और जागृति ही उसकी निश्चयता है।