Atom in Existence (अस्तित्व में परमाणु)

 

अस्तित्व एवं अस्तित्व में परमाणु का विकास

* स्त्रोत = समाधानात्मक भौतिकवाद, संस १९९८, अध्याय ४ 

अस्तित्व को अनादि काल से मानव स्पष्ट और प्रमाण रूप में समझने का प्रयास करता रहा है। इसी क्रम में अधिभौतिकवादी विचारों के अनुसार चेतना से पदार्थ की उत्पत्ति होती हैं ऐसा माना जाता है।

भौतिकवादी विचारों के अनुसार पदार्थ से चेतना निष्पन्न होती है।

ये दोनों विचारधारायें अपने-अपने समर्थन के लिए अनेकानेक तर्कों, अभ्यासों और प्रयोगों को प्रस्तावित करते रहे। अभी तक न तो किसी ने चेतना से पदार्थ को पैदा होते हुए देखा तथा न ही पदार्थ से चेतना पैदा होते हुए देखने को मिला। यही देखने को मिलता हैं कि चेतना व पदार्थ अविभाज्य वर्तमान है। इसके मूल रूप को देखने से पता चलता हैं कि सत्ता (चेतना) में सम्पृक्त प्रकृति (पदार्थ) ही अस्तित्व सर्वस्व है। यहाँ देखने का तात्पर्य समझने से है। सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अविभाज्य वर्तमान होने के कारण अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व के रूप में नित्य प्रकाशित है। इस तथ्य को हृदयंगम करने पर स्पष्ट हो जाता हैं कि चेतना और पदार्थ में नित्य सामरस्यता त्रिकालाबाध सत्य है।

सत्ता अरूप हैं, व्यापक है और सत्ता में प्रकृति रूप गुण स्वभाव धर्म सम्पन्न है और अविभाज्य है । ऐसा कोई स्थान ही नहीं जहाँ सत्ता न हो, इसलिए प्रकृति का सत्ता में होना स्वाभाविक है। सत्ता को साम्य ऊर्जा, शून्य, ज्ञान, चेतना, व्यापक, नित्य, ईश्वर और निरपेक्ष ऊर्जा के नाम से भी जाना जाता है। सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनन्त इकाईयों के रूप में है। प्रत्येक इकाई सत्ता में सम्पृक्त होने के कारण सत्ता में घिरी हुई, डूबी हुई और भीगी हुई है।

सत्ता व्यापक रूपी किसी लंबाई चौड़ाई में सीमित नहीं है, इसका कोई मापदण्ड नहीं बन पाता, इसलिए सत्ता व्यापक है। प्रकृति रूप में जितनी भी इकाईयाँ है उन सबकी गणना नहीं हो पाती इसलिए वे अनंत हैं इस प्रकार अस्तित्व स्वयं व्यापक और अनन्त है।

सत्ता अरूपात्मक और सत्ता में प्रकृत्ति रूपात्मक अस्तित्व है। अस्तित्व का तात्पर्य होने से और अविनाशिता से है। सत्ता गति और दबाव विहीन स्थिति में है। जबकि सत्ता में ही सम्पूर्ण प्रकृति गति और दबाव सहित विद्यमान है। दबाव अर्थात् वातावरणवश (परस्परतावश) आकर्षण विकर्षण के लिए बाध्यता। सत्ता अरूपात्मक होने के कारण आयामों में सीमित नहीं हैं जबकि सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है। साथ ही प्रत्येक इकाई आयामों सहित छ: ओर से सीमित है।

अस्तित्व सह-अस्तित्व होने के कारण पूरकता और पहचान नित्य सिद्घ होती है। जो है, वह निरंतर रहता ही हैं और जो था नहीं वह होता नहीं। इसी कारणवश अस्तित्व जैसा है, वह अनन्त काल तक वैसा रहेगा ही। इसी सत्यतावश सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति की प्रत्येक इकाई अस्तित्व में परस्परता को पहचानने के रूप में व्यवहृत है, क्योंकि प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म अविभाज्य वर्तमान है। सत्ता में प्रकृति सम्पृक्त होने के कारण प्रत्येक इकाई अस्तित्व धर्म सहित होता है, इसका साक्षी ही है किसी इकाई का नाश न होना। जो कुछ भी होता हैं वह केवल परिवर्तन और विकास ही है। धर्म का तात्पर्य जिससे जिसका विलगीकरण न हो। अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व होने के कारण यही परम धर्म का रूप है। अस्तित्व स्वयं सम्पूर्ण भाव होने के कारण प्रत्येक इकाई में भाव सम्पन्नता देखने को मिलती है। मूलत: सह-अस्तित्व ही परमभाव होने के कारण अस्तित्व ही परमधर्म हुआ। इस प्रकार भाव और इकाई अविभाज्य वर्तमान है। सह-अस्तित्व ही अस्तित्व का स्वरुप होने के कारण सम्पूर्ण भाव (मूल्य) परस्परता में पूरकता, पहचान, व्यंजना है और अभिव्यक्ति रूप में आदान-प्रदान है। सम्पूर्ण भाव का तात्पर्य प्रत्येक पद और अवस्था में स्थित इकाईयों की मौलिकता से है। मौलिकता का तात्पर्य मूल्य से है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि परमधर्म (अस्तित्व) प्रत्येक इकाई में समान है इसीलिए यह सार्वभौम और शाश्वत है । मूल्यों का ही आदान-प्रदान और पहचान होती है, क्योंकि परस्परता में ही पूरकता, पहचान और व्यंजनायें होती हैं। साथ ही प्रत्येक व्यंजना व्याख्यायित होने योग्य घटना है। इकाई की मौलिकता (मूल्य) नित्य वर्तमान होने के कारण नियन्त्रित, संरक्षित व सार्वभौम है।

सह-अस्तित्व में परस्परता स्वभाव सिद्घ होने के कारण पूरकता और पहचान आदान-प्रदान के रूप में होना अनवरत स्थिति है। अस्तित्व ही सत्य है। सत्य ही स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य की स्थिति में अध्ययनगम्य है। सह-अस्तित्व में अध्ययन पूर्वक आदान-प्रदान का जो प्रवाह है, उसे देखने पर पता चलता हैं कि सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति ही प्रधान (अथवा सम्पूर्ण) अध्ययन की वस्तु बन जाती हैं । स्थिति पूर्ण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति स्थितिशील दिखाई पड़ती है। स्थिति पूर्ण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति उसके अनन्त इकाईत्व के स्वरुपवश पहचानने में आती है। इसी क्रम में प्रत्येक इकाई दूसरी इकाई को पहचानने की व्यवस्था अस्तित्व में प्रकाशित हुई। स्थिति पूर्ण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति का पूर्ण में गर्भित होने का तात्पर्य है कि पूर्णता का अभीष्ट अथवा ऐसे अभीष्ट का मूल रूप समाये रहना। इसी सत्यतावश प्रत्येक इकाई पूर्णता के अर्थ में होने के लिए एक अनिवार्य स्थिति हुई। इसी क्रम में सम्पूर्ण इकाई का विकास की ओर उन्मुख होना स्वभाविक हुआ। फलस्वरुप, परस्परता में पहचान सहित आदान-प्रदान होना एक स्वाभाविक स्थिति हुई।

स्थितिशील प्रकृति की परस्परता में पूर्णता और अपूर्णता की स्थिति इस प्रकार स्पष्ट होती हैं कि स्थितिर्पूण सत्ता में स्थितिशील प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह होने के कारण परस्परता एक अपरिहार्य स्थिति है। पूर्ण में गर्भित प्रत्येक इकाई पूर्णता के लिए ही क्रियाशील एवं विकासशील है।

स्थितिपूर्ण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति सत्ता में अनुभवपर्यन्त विकास और जागृति के लिए प्रवत्र्त है। विकास का तात्पर्य गठनपूर्णता, क्रियापूर्णता और आचरणपूर्णता और उसकी निरन्तरता से है। जागृति का तात्पर्य समाधान एवं प्रामाणिकता से है। इकाई में नियम और उसकी निरन्तरता इस तथ्य से स्पष्ट है कि इकाई में नियंत्रण और उसकी महिमा स्पष्ट होती हैं। यह इकाई + वातावरण = इकाई संपूर्ण रूप में है। यही उसकी निरन्तरता का द्योतक है।

‘‘पूर्णता के अर्थ में अपूर्णता स्पष्ट है।’’ क्योंकि सह -अस्तित्व में परस्पर उपयोगिता पूरकता है। यह पूरकता पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था में प्रकाशित है। ज्ञानावस्था में मानव ही गण्य होता है। मानव जड़-चैतन्य का संयुक्त साकार रूप होने के कारण एवं ज्ञानावस्था के पद में होने के कारण कर्म करते समय स्वतंत्र, फल भोगते समय परतन्त्र होने की व्यवस्था उनमें ही समाहित है।

विकास और जागृति क्रम में स्वतंत्रता एक मौलिक प्रकाशन है। स्वतंत्रता के लिए इकाई इसीलिए प्रवर्त होती गयी कि वातावरण और नैसर्गिकता के योगफल से प्रवर्तन होना एक अनिवार्य स्थिति रही। इसी क्रम में पूर्णता का अभीष्ट इकाई में होना एक शाश्वत स्थिति रही हैं इसलिए पूर्णता क्रम में विकास स्पष्ट हैं। विकास का पहला चरण अथवा पूर्णता का पहला चरण गठनपूर्णता है। ऐसी गठनपूर्ण इकाई जीवावस्था में केवल जीने की आशा से कार्यरत रही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्णता के अर्थ में विकासक्रम अस्तित्व में नित्य वर्तमान और स्पष्ट है। पूर्णता का दूसरा चरण क्रियापूर्णता के रूप में ज्ञानावस्था का मानव अपने त्व सहित व्यवस्था के रूप में और पूर्णता का तीसरा चरण आचरणपूर्णता अर्थात् प्रामाणिकता के रूप में सर्वाधिक उपकार प्रमाणित होना चिरकालीन अपेक्षा है। यह जड़-चैतन्य के सह-अस्तित्व में ही सार्थक होना पाया गया और यह समझ में आता है।

रूपात्मक अस्तित्व :-

प्रकृति की मूल इकाई परमाणु है। क्योंकि परमाणु में ही विकास होता है। प्रत्येक परमाणु गठनपूर्वक परमाणु हैं । प्रत्येक गठन में एक से अधिक परमाणु अंशों का होना अनिवार्य है। परमाणु के पूर्व रूप(परमाणुअंश) में विकास होता नहीं है। परमाणु के पररुप(अणु) रचनाएँ विकास की लाक्षणिकता को प्रकाशित करते हैं, परन्तु विकास नहीं होता है, क्योंकि विकसित इकाई अर्थात् जीवन शरीर रचना के माध्यम से प्रकाशित और सम्प्रेषित होता है। विकास के क्रम में ही प्रकृति दो वर्ग व चार अवस्थाओं में प्रकाशमान है। प्रकृति के दो वर्ग जड़ और चैतन्य है। प्रकृति की चार अवस्थाएँँ पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था है । प्रकृति में पदचक्र और पदमुक्ति का प्रभेद चार प्रकार से है। जैसे- प्राणपद चक्र, भ्रांति पद चक्र, देवपद चक्र और पदमुक्ति (दिव्यपद या पूर्णपद)। इसी क्रम में अस्तित्व में प्रकृति का विकास और उसका इतिहास नित्य समीचीन है।

अस्तित्व में प्रकृति सहज सम्पूर्ण वैविध्यताएँ विकासक्रम में प्रकाशित है। यह एक अनवरत क्रिया है। अस्तित्व में विकास क्रम शाश्वत प्रणाली है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व होने के कारण परस्पर प्रकृति के आदान-प्रदान एक स्वाभाविक क्रिया है। आदान प्रदान अपनी दोनों स्थितियों में स्वयं व्याख्यायित है। आदान-प्रदान के अनन्तर तुष्टि अथवा स्वभावगति का होना पाया जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस इकाई में आदान होता हैं उसके उपरान्त स्वभाव गति होती ही हैं, साथ ही प्रदान जिससे होता है, उसके उपरान्त उसमें भी स्वभाव गति होती हैं। इस विधि से सह-अस्तित्व प्रमाणित होता है।

अस्तित्व ही सह-अस्तित्व है:-

प्रकृति में वैविध्यता है। वैविध्यता का मूल रूप पदार्थ में अथवा प्रकृति में अनेक स्थितियाँ हैं। प्रकृति में अनेक स्थितियाँ विकास के क्रम में है। अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व होने के कारण प्रकृति की प्रत्येक इकाई की परस्परता में सह-अस्तित्व का सूत्र समाया है। (क्योंकि प्रकृति की अनन्त इकाईयाँ परस्परता में आदान-प्रदान रत है।) सह-अस्तित्व ही पूरकता का सूत्र व स्वरुप हैं। पूरकता विकास के अर्थ में सार्थक होती हैं। अस्तित्व में विकास एक अनवरत स्थिति है। विकास के क्रम में अनेक पद और स्थितियाँ अस्तित्व में देखने को मिलती है। प्रकृति, पदार्थ के नाम से भी अभिहित होती हैं। पदार्थ का तात्पर्य है कि पदभेद से अर्थभेद को प्रकाशित कर सके अथवा पदभेद से अर्थभेद को प्रकाशित करने वाली वस्तुओं से है। वस्तु का तात्पर्य वास्तविकताओं को प्रकाशित करने योग्य क्षमता सम्पन्नता से है। इस प्रकार प्रकृति में वस्तु और पदार्थ की अवधारणा स्पष्ट हो जाती है।

अस्तित्व में प्रकृति नित्य क्रियाशील होने के कारण प्रत्येक क्रिया में श्रम, गति, परिणाम अविभाज्य रूप में वर्तमान रहता है। इसी सत्यतावश प्रकृति में परिणाम और विकास स्पष्ट है। विकासक्रम और विकास ही अस्तित्व में विविधता के रूप में दिखाई पड़ता है। यही स्थिति अध्ययन की मूल वस्तु सिद्घ हो जाती है। अध्ययन करने की क्षमता केवल मानव में ही पायी जाती है। मानव भी अस्तित्व से अभिन्न अथवा अविभाज्य इकाई है। अध्ययन के लिए अस्तित्व से अधिक कोई वस्तु या आधार नहीं है। इसीलिए अस्तित्व में यथार्थता, वास्तविकता और सत्यता के अध्ययन क्रम में निभ्र्रमता होती है।

अस्तित्व में विकास एक अनुस्यूत क्रिया है:-

विकास का मूल स्फूर्ति अथवा स्फुरण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति में निरन्तर निहित है। ‘‘स्व’’ की अभिव्यक्ति में स्वयं स्फूर्त होना ही ‘‘त्व’’ और वातावरण और नैसर्गिकतावश स्फुरण पूर्वक उपयोगिता-पूरकता स्पष्टï होना एक व्यवहारिक प्रक्रिया है। इसको जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति में देखा जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि स्वयं से जो शक्तियों को स्वेच्छापूर्वक अथवा स्वप्रेरणा पूर्वक व्यक्त करे वह स्फूर्ति के रूप में गण्य होता है। इसका साक्ष्य है कि प्रत्येक इकाई स्वयं क्रियाशील रहती है।

स्फुरण को इस प्रकार देखा जाता है कि एक बीज को जब नैसर्गिकता में स्थित पाते हैं तब उसमें अंकुरण होने की क्रिया आरम्भ हो जाती है। बीज होते हुए भी नैसर्गिकता के बिना स्फुरण उसमें नहीं हो पाता। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि स्फुरण नैसर्गिकता के योग से स्वयं में होने वाली क्रिया और स्फूर्ति स्वयं के वैभव को स्वयं प्रेरित पद्घति से अभिव्यक्त करने की क्रिया है। इसका कारण सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति का सत्ता में अनुभव पर्यन्त विकसित जागृत होना ही है। विकास अस्तित्व में निरन्तर प्रकाशमान है। यह चार अवस्थाओं में हैं प्रथम पदार्थावस्था, द्वितीय प्राणावस्था, तृतीय जीवावस्था, चतुर्थ ज्ञानावस्था।

प्राणावस्था और पदार्थावस्था में विविधताएँ रचना और रासायनिक योग-संयोगों के आधार पर है। ऐसी रासायनिक और भौतिक रचना और स्थिति के मूल में परमाणु में विविधता है। परमाणु की विविधता उसमें समाहित अंशों की संख्या पर आधारित है। इन तथ्यों से यह स्पष्ट हुआ कि रचना और रचनाओं की स्थिति के मूल में रासायनिक एवं भौतिक अथवा तात्विक योग है। इससे यह निष्कर्ष निकलता हैं कि सत्ता में सम्पृक्त ऊर्जामय प्रकृति अपने मूल रूप परमाणु की स्थिति में अनेक तत्व संपन्न है। फलस्वरुप अणु और अणुरचित स्वरुपों में अपने आप में वैविध्यता की व्यवस्था है। प्राणकोशिकाओं से जीव व मानव शरीर की रचनाएँ हैं। रचनाएँ विकास जैसी लगती हैं पर विकास नहीं क्योंकि जो जिससे बना रहता हैं वह उससे अधिक नहीं होता। जीवावस्था और ज्ञानावस्था ये जड़-चैतन्य के संयुक्त प्रकाशन है। पदार्थ और प्राणावस्था की रचनाएँ जड़-प्रकृति है। जीवावस्था और ज्ञानावस्था की प्रकृति जड़-चैतन्य का संयुक्त प्रकृति है । जीव और मानव शरीर की रचना भी वंशानुषंगीयता पूर्वक संपन्न होती है। इसीलिए शरीर जड़-प्रकृति के रूप में स्पष्ट है।

चैतन्य इकाई तात्विक रूप में एक गठनपूर्णता प्राप्त परमाणु है। परमाणु में विकास होने पर रूप परिवर्तन के साथ गुण परिवर्तन होता है। गठनपूर्णता का तात्पर्य परमाणु के गठन में जितने परमाणु अंशों के समाने की अस्तित्व सहज व्यवस्था है, उन सभी परमाणु अंशों के समा जाने से है। गठनपूर्ण स्थिति में उस परमाणु में से न तो कोई परमाणु अंश बढ़ता हैं और न ही कोई अंश घटता है। इसी सत्यतावश गठनपूर्ण परमाणु में स्थिरता सहित अक्षयशक्ति और बल संपन्नता है। गठनपूर्ण परमाणु (जीवन) में मात्रात्मक परिवर्तन के बिना ही गुणों में परितर्वन होता हैं। यह भ्रम से जागृति पर्यन्त रहता है।

जीव और मानव प्रकृति जड़-चैतन्य का संयुक्त साकार रूप होने के कारण ही हैं कि जीवन के द्वारा शरीर में जीवन्तता प्रकाशित है। अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व होने के कारण ही प्रकृति परस्पर पूरकता के रूप में नित्य वर्तमान है। यही विकास का प्रधान क्रिया स्वरुप है। इसी क्रम में जड़-चैतन्य का संयुक्त प्रकाशन भी एक स्वाभाविक स्थिति है। यही नियतिक्रम व्यवस्था भी है। प्रकृति में प्रत्येक इकाई सह-अस्तित्वरत है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं सह-अस्तित्व है। इसी सत्यतावश जड़-चैतन्य में सह-अस्तित्व, (जीवन गठनपूर्ण परमाणु) और रचना (प्राणकोशिकाओं की रचना) में सह-अस्तित्व सिद्घ हुआ। सह-अस्तित्व नित्य पूरकता के अर्थ में स्पष्ट है। इस प्रकार अस्तित्व ही विकास, विकास ही क्रम, क्रम ही व्यवस्था, व्यवस्था ही स्वयं नियति है।

अधिक शक्ति और बल, कम शक्ति और बल के माध्यम से प्रकाशित होता है, क्योंकि बल और शक्ति की अधिकता क्षयशील और अक्षयशीलता के अर्थ में भी सार्थक होती है। अक्षयबल और शक्ति प्रत्येक चैतन्य इकाई में समान रूप से विद्यमान है। जबकि जड़ प्रकृति की प्रत्येक इकाई में शक्ति की क्षरणशीलता (परिवर्तनशीलता) स्पष्ट है। इसी सत्यतावश यह सिद्ध हो जाता है कि जड़ प्रकृति की स्थूलता उसकी शक्तियों की क्षरणशीलतावश अनिवार्य स्थिति है, अर्थात् संगठनात्मक बन्धन स्वाभाविक है। जबकि चैतन्य इकाई तात्विक रूप में एक ही परमाणु है, वह गठनपूर्ण परमाणु होने के कारण उसकी सूक्ष्मता अपने आप व्याख्यायित है। इस प्रकार जीवन की सूक्ष्मता और अक्षय महिमा स्पष्ट होने के कारण यह तथ्य असंदिग्ध रूप में सिद्घ हो जाता है कि प्राण कोशिकाओं से रचित शरीर, चैतन्य-प्रकृति की तुलना में कम शक्ति एवं कम बल संपन्न है। साथ ही शरीर स्थूल रूप में है तथा जीवन सूक्ष्म रूप है। इसीलिए कम शक्ति कम बल के माध्यम से अधिक शक्ति व अधिक बल प्रकाशित होना सार्वभौम सिद्घ हुआ।

नियन्त्रण स्वयं नियम के रूप में स्पष्ट होता हैं। फलत: प्रत्येक इकाई में नियमपूवर्क ही एक दूसरे को पहचानने की व्यवस्था हैं । यही नियंत्रण का तात्पर्य है। एक दूसरे को पहचानने के लिए प्रत्येक इकाई का अपने में सम्पूर्णता का होना है। परस्पर पहचानने का मूल तत्व और नियन्त्रण का रूप अपने आप में सत्ता में सम्पृक्तता और ऊर्जामयता ही है। सत्ता में डूबे रहने के फलस्वरुप ही इकाई के सभी ओर शून्य का होना देखा जाता है । यही भीगा रहना स्वयं बल सम्पन्नता है। यह अपने आप में इस बात से स्पष्ट होता है कि सत्ता पारगामी होने के कारण ही भीगा हुआ हैं। इस प्रक्रिया से स्पष्ट हो जाता है कि हम इकाई के कितने भी विभाजन करें उसका प्रत्येक भाग-विभाग यथावत् डूबा हुआ, घिरा हुआ एवं भीगा हुआ दिखाई देता है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि इकाई का नाश नहीं होता तथा इसका साक्ष्य मिलता हैं कि छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी इकाईयाँ सतत क्रियाशील हैं। क्रियाशीलता स्वयं बल का द्योतक है तथा क्रिया स्वयं नियन्त्रित रहने का द्योतक है। इस प्रकार इकाई का सत्ता में घिरे रहने के कारण नियन्त्रण डूबे रहने के कारण क्रियाशीलता एवं भीगे रहने के कारण बल सम्पन्नता को देखा जाता है।

प्रत्येक इकाई में नियन्त्रण बल व क्रियाशीलता अविभाज्य रूप में वर्तमान हैं तथा अपनी स्वाभाविक गति में समान होते है। इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक इकाई अपनी सम्पूर्णता में ध्रुव होती हैं। ध्रुवता से तात्पर्य आचरण की स्थिरता से है। सम्पूर्णता का तात्पर्य नियंत्रण, क्रियाशीलता और बल सम्पन्नता से है। नियंत्रण क्रियाशीलता और बल सम्पन्नता प्रत्येक इकाई का नित्य वैभव हैं । इसका पराभव कभी नहीं होता। अस्तित्व सत्ता में संपृक्त प्रकृति होने के कारण सत्ता में से वस्तु का वियोग नहीं होता। इसी कारण इकाई का वैभव नित्य शाश्वत और स्थिर सिद्घ होता है। स्थिरता का तात्पर्य अस्तित्व की नित्यता और क्रिया की निरन्तरता में है।

प्रत्येक इकाई का स्वभाव गति में वैभव है।

प्रत्येक भौतिक-रासायनिक क्रिया श्रम, गति, परिणाम का अविभाज्य वर्तमान।

श्रम और परिणाम के संयुक्त रूप में गति है।

गति और परिणाम के संयुक्त रूप में श्रम है।

श्रम और गति के संयुक्त रूप में परिणाम है।

चैतन्य परमाणु में –

गति के गंतव्य रूप में आचरण पूर्णता है।

श्रम के विश्राम रूप में क्रिया पूर्णता है।

परिणाम के अमरत्व के रूप में गठनपूर्णता (जीवन परमाणु) है।

प्रत्येक परमाणु क्रिया अपने परमाणु अंशों के गतिपथ सहित वैभवित है। यही गतिपथ उस परमाणु की नियन्त्रण रेखा भी हैं और सीमा भी है। ऐसे गतिपथ की सीमा में प्रत्येक परमाणु अपने में समाहित सम्पूर्ण परमाणु अंशों के अनुशासन समेत परिभाषित होता हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रत्येक परमाणु में समाहित प्रत्येक परमाणु अंश अपनी परस्परता में एक निश्चित दूरी में अपने अस्तित्व को स्पष्ट करते हुए अनुशासन को, गठन के अंगभूत कार्य के रूप में प्रकाशित करते हैं। ऐसे प्रत्येक परमाणु में अंशों का घटना बढऩा देखा जाता है।

इस क्रिया को किसी एक परमाणु से कुछ परमाणु अंशों का क्षरण होना तथा दूसरे किसी परमाणु में समा जाना या अन्य परमाणु में गठित हो जाने के रूप में देखा जाता है। इसी क्रम में गठनपूर्णता गण्य हैं। इसका साक्ष्य अक्षय बल एवं अक्षय शक्ति संपन्नता से होता हैं। चैतन्य-प्रकृति में अक्षय बल एवं अक्षय शक्ति स्पष्ट है। यही तात्विक परिणाम प्रक्रिया है। इसी क्रम में विभिन्न संख्यात्मक अंश संपन्न परमाणु अस्तित्व में दिखाई पड़ते हैं। ऐसे विभिन्न परमाणु अंशों की संख्या से संपन्न परमाणु स्वयं विभिन्न जातियों में गण्य होते हैं। यही तात्विक परिवर्तन, स्थिति, अभिव्यक्ति, प्रकाशन और ज्ञान का तात्पर्य है।

परमाणु के विकास के क्रम में एक ऐसी अवधि आती है, जिसमें उस परमाणु के गठन के लिए जितने अंशों की आवश्यकता रहती हैं, वे सभी समा जाते हैं, उसी समय वह गठनपूर्ण हो जाता है। गठनपूर्णता का तात्पर्य उस गठन में, से, के लिए तृप्ति है। यही परिणाम का अमरत्व है और चैतन्य पद है। इस पद में प्रत्येक इकाई बल और शक्ति के रूप में समान होती हैं। गठनपूर्ण परमाणु सहित सम्पूर्ण प्रजाति के परमाणु अस्तित्व सहज सह-अस्तित्व विधि से नित्य वर्तमान है। जीवन शक्ति अक्षय होने के कारण रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप में रत परमाणुओं के साथ मानव अपने प्रयोग विधि से परिणामों को पहचान पाता है।

गति प्रत्येक इकाई में घूर्णन वर्तुलात्मक एवं कम्पनात्मक रूप से गण्य होता हैं। इसी गति एवं वातावरण के दबाववश स्थानान्तरण सिद्घ हो जाता है। स्थान का तात्पर्य साम्य ऊर्जा अथवा शून्य और ऊर्जामयता ही है। क्योंकि प्रत्येक इकाई छ: ओर से सीमित पदार्थ पिण्ड है। ‘‘ओर’’ का स्वरुप शून्य अथवा सत्तामयता ही है। प्रत्येक इकाई परस्परता में स्वभाव गति अथवा आवेशित गति में अवस्थित होती है। आवेशित गति का प्रधान कारण नैसर्गिकता व वातावरण के योगफल में होने वाले दवाब पर आधारित होता है। साथ ही यह भी देखने को मिलता हैं कि जिस इकाई के लिए जो नैसर्गिक वातावरण चाहिए, वह उस इकाई के स्वरुप में ही होता हैं। इसी कारण प्रत्येक इकाई एक दूसरे के लिए नैसर्गिक सिद्घ हो जाता है। इस प्रकार परस्पर पूरकता स्वयं सिद्घ होती है। पूरकता परस्पर स्वभाव गति की स्थिति में होने वाले आदान-प्रदान (वातावरण) से है। नैसर्गिकता (परस्परता) स्वभाव गति में होने वाली स्थिति से है। इस प्रकार जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति का अपने आप में परस्पर नैसर्गिक और वातावरण होना एक अनुस्यूत प्रक्रिया सिद्घ हुई, यह स्वयं सह-अस्तित्व का द्योतक है।

‘‘कम्पनात्मक गति और वर्तुलात्मक गति प्रत्येक इकाई में वर्तमान है।’’

परमाणु में विकास का क्रम देखें तो पता चलता है कि जैसे-जैसे परमाणु विकसित होता हैं वैसे वैसे उसमें कम्पनात्मक गति बढ़ती जाती है। इसी के साथ उसकी स्थिरता व्याख्यायित होती हैं। इसी क्रम में गठनपूर्णता हो जाती हैं। जैसे ही गठनपूर्णता होती हैं वैसे ही उस परमाणु में कम्पनात्मक गति, वर्तुलात्मक गति की अपेक्षा अधिक हो जाती हैं। यही गति का इतिहास है जो स्वयं इस बात को स्पष्ट कर देता हैं कि जीवन की स्थिरता और उसकी निरतंरता को परिणाम का अमरत्व व्याख्यायित कर देता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्थिरता इकाई की सम्पूर्णता में होते हुए उसकी निरन्तरता को बनाये रखना एक अनिवार्य स्थिति होने के कारण विकास के इतिहास में कम्पनात्मक गति का महत्व अपने आप में स्पष्ट हो जाता है। इसी क्रम में जड़-प्रकृति में केवल परार्वतन होता हैं चैतन्य-प्रकृति में परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन दोनों होता है।

चैतन्य-प्रकृति में विशेषकर ज्ञानावस्था के मानव में परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन प्रक्रिया स्पष्ट रूप से देखने को मिलती हैं। मानव संचेतना में भी पाँचों शक्तियों की अभिव्यक्ति होने की संभावना रहते हुए, संचेतना को पहचानने एवं निर्वाह करने के क्रम में नित्य गतिशील होना पाया जाता है। यही इसका निराकरण है कि प्रत्यावर्तन पूर्वक परावर्तन में समाधान अपेक्षित तथ्य है। यह प्रत्येक व्यक्ति में प्रयोग पूर्वक, व्यवहारपूर्वक और अनुभवपूर्वक तभी सिद्घ हो जाता हैं, जब पहचानने एवं निर्वाह करने में साम्यरस्यता हो जावे। यही समाधान का स्वरुप है तथा इसकी निरन्तरता होती है।

‘‘श्रम मानव जीवन में अविभाज्य आयाम है।’’ श्रम स्वयं बल के बराबर में होता हैं, श्रम विश्राम के अर्थ में ही है।

प्रत्येक स्थिति और अवस्था में प्रत्येक इकाई में बल संपन्नता रहता हैं। यह बल सम्पन्नता विकास के क्रम में आचरण के रूप में मिलती है। फलत: विकास और उसकी निरन्तरता होती हैं। बल सम्पन्नता स्वयं नित्य और स्थिर होने के कारण बल, स्थिति में, शक्ति गति में अविभाज्य होना स्वाभाविक हुआ। इसलिए प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रूप में विद्यमान रहते हैं। श्रम(बल) प्रत्येक इकाई में धर्म और स्वभाव के रूप में; गति स्वभाव और गुण के रूप में और परिणाम रूप तथा अमरत्व सहित वर्तमान है। इकाई में मूलत: बल चुम्बकीय बल ही हैं । यह सत्ता में भीगे रहने का द्योतक है । इकाई के रग-रग में बल सम्पन्नता होने के कारण श्रम की नित्यता अपने आप स्पष्ट हो गयी। इससे व्याख्यायित हो जाता हैं कि प्रत्येक इकाई प्रत्येक स्थिति में श्रमशील है। श्रम निरन्तर विश्राम के अर्थ में ही हुआ करता है। विश्राम का भासाभास इकाई की स्वभावगति में होता हैं। जैसे-जैसे नैसर्गिकता और वातावरण इकाई को अपने स्वाभावगति में रहने में हस्तक्षेप करता गया, वैसे-वैसे ही इकाई वातावरण और नैसर्गिकता के हस्तक्षेप से अथवा हस्तक्षेप के प्रभाव से मुक्त होने की क्षमता योग्यता और पात्रता को उपार्जन करने की आवश्यकता स्वभाव सिद्घ हुई। क्योंकि अस्तित्व में किसी का नाश होता नहीं इस कारण स्वभाव गति में आकर विकसित होना ही है। इस प्रकार श्रम, विश्राम के लिए अविरत प्रयासरत रहना अस्तित्व में अविभाज्य रूप में वर्तमान है। इससे पता चलता हैं कि समाधान की अवधि तक बल का प्रयोग अर्थात् श्रम का प्रयोग होता ही है। क्योंकि वातावरण और नैसर्गिकता के दबाव को सहना है या सहने योग्य क्षमता को उपार्जन करना है। अन्ततोगत्वा स्वभावगति में आकर विकसित होना है, गठनपूर्ण होना है। गठनपूर्णता के अनन्तर श्रम और गति दोनों अक्षय होने के कारण अक्षय शक्ति सम्पन्नता चैतन्य इकाई में एक स्वाभाविक स्थिति हो जाती हैं। ऐसे अक्षय शक्ति सम्पन्नतावश ही ज्ञानावस्था के मानव में संचेतना का परावर्तन और प्रत्यावर्तन क्रिया सम्पादित होना एक स्वाभाविक स्थिति है। इसी परावर्तन, प्रत्यावर्तन क्रम में पहचानने और निर्वाह करने की साम्यरस्यता में, जाने हुए को मानने और माने हुए को जानने की स्थिति में प्रत्येक मानव समाधानित होने और उसकी निरन्तरता की संभावना उदितादित होने की व्यवस्था स्पष्ट है। प्रत्येक इकाई में बल सम्पन्नता ही मूल चेष्टा का कारण है। क्योंकि शक्ति के बिना बल का परिचय, बल के बिना शक्ति का परिचय नहीं होता। इस प्रकार मूल चेष्टïा के बिना ऊर्जा का परिचय और ऊर्जा के बिना मूल चेष्टा नहीं होता। परस्परता में सम्पर्क के साथ हर इकाई नित्य क्रियाशील होने के कारण क्रिया के मूल में निरपेक्ष ऊर्जा, साम्य सत्ता अपने आप नित्य प्राप्त है। इसका कारण यही है कि साम्य ऊर्जा न हो ऐसा कोई स्थान नहीं है। साथ ही साम्य ऊर्जा में सम्पूर्ण प्रकृति ओत-प्रोत है। इसीलिए ऐसी साम्य ऊर्जा में सम्पृक्तता स्वयं बल सम्पन्नता, बल सम्पन्नता स्वयं मूलचेष्टा, मूल चेष्टा स्वयं क्रिया, क्रिया स्वयं श्रम-गति-परिणाम, श्रम-गति-परिणाम स्वयं विकास और इसकी निरन्तरता है। इसी क्रम में प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक इकाई के एक दूसरे को पहचानने की व्यवस्था है।

पदार्थावस्था में तात्विक क्रिया में परस्पर परमाणु अंश की निश्चित दूरियाँ स्वयं उनके परस्परता की पहचान को प्रकाशित करता है। साथ ही भौतिक और रासायनिक वस्तुओं का संगठन भी परस्पर अणुओं की पहचान का द्योतक सिद्घ हो जाता है। प्राणावस्था में रासायनिक अणु संरचनाएँ, प्राणकोशिकाओं की पहचान का द्योतक है। यह बीज वृक्ष नियम पूर्वक सम्पादित होते हैं। जीवावस्था में जड़-चैतन्य-प्रकृति का प्रारंभिक प्रकाशन है, जिसमें से शरीर रचना जड़-प्रकृति स्वरुप होने के कारण वंशानुषंगी सिद्घांत पर आधारित रहता हैं। साथ ही जीवन संचेतना जीवावस्था में अध्यास के रूप में प्रभावित रहता है। अध्यास का तात्पर्य परम्परागत कार्यकलापों और विन्यासों को गर्भावस्था से ही स्वीकारने के क्रम में गुजरते हुए जन्म के अनन्तर उसे अनुकरण करने की प्रक्रिया से है। जैसे गाय की सन्तान गाय जैसे कार्यकलापों को करते हुए देखने को मिलता है। इसी प्रकार सभी प्रजाति के जीवों में स्पष्ट है। ज्ञानावस्था में मानव जड़-चैतन्य का संयुक्त प्रकाशन होते हुए मानव शरीर भी प्रधानत: वंशानुषंगी होता है। साथ ही संचेतना संस्कारानुषंगी होता है। इसका साक्ष्य स्वयं शिक्षा-संस्कार व्यवस्था परम्पराएँ है। इससे सिद्घ हुआ कि मानव संस्कारानुषंगी प्रणाली से पहचानने के कार्यकलाप को सम्पादित करता है।

जीवन संचेतना में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि और आत्मा जैसे अक्षय बल तथा आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाण जैसी अक्षय शक्तियाँ कार्यरत एवं प्रकाशमान है। मानव संचेतना में अनवरत कार्यरत अक्षय शक्तियाँ परार्वतन एवं प्रत्यावर्तन में स्पष्ट हो जाती हैं। जैसे आशा शक्ति की पहचान परार्वतन में चयन तथा प्रत्यावर्तन में आस्वादन के रूप में है। वृत्ति की शक्ति का परिचय परावर्तन में विश्लेषण, प्रत्यावर्तन में तुलन के रूप में होते हैं। इच्छा शक्ति की पहचान परार्वतन में चित्रण के रूप में प्रत्यावर्तन में चिन्तन के रूप में होती हैं। बुद्घि शक्ति की पहचान परावर्तन में संकल्प के रूप में एवं प्रत्यावर्तन में बोध के रूप में है। आत्म शक्ति परावर्तन में प्रामाणिकता एवं प्रत्यावर्तन में अनुभव के रूप में है। शक्तियों का अर्थात् चैतन्य शक्तियों का परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन पहचानने एवं निर्वाह करने के अर्थ में सार्थक सिद्घ होता है। पाँचों अक्षय शक्तियों का परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन जीवन की एक अनुस्यूत क्रिया होने के कारण यह क्रिया स्वयं जीवन संचेतना के नाम से अभिहित है। इसी क्रम में संचेतना अपनी परावर्तन क्रिया में रूप और गुणों को पहचानती है। प्रत्यावर्तन में निर्वाह करती है। इससे स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण भौतिक और रासायनिक संसार परावर्तन के क्रम में इन्द्रिय सन्निकर्षपूर्वक पहचानने को मिलता है। जबकि मूल्य और अस्तित्व अथवा स्वभाव और धर्म प्रत्यावर्तन में ही पहचानने में आता है। फलत: इसे निर्वाह करने की प्रणाली अपने आप समीचीन होती हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भौतिक संसार का निर्वाह, एक बौद्घिक संसार का निर्वाह एवं पहचान संज्ञानशीलता एवं संवेदनाशीलता की सन्तुलित पद्घति से है। पहचानने और निर्वाह करने की स्थिति समाधान के अर्थ में सार्थक होती है।

अस्तित्व में, से, के लिए ही सम्पूर्ण अध्ययन है क्योंकि अस्तित्व समग्र ही स्थिति में नित्य वर्तमान है। अस्तित्व न घटता है न बढ़ता है। इसीलिए अस्तित्व में, से, के लिए मानव अध्ययन करने के लिए बाध्य है। क्योंकि यह अध्ययन मानव को अपने जीवन जागृति का साक्ष्य प्रस्तुत करने के क्रम में अपरिहार्य है। फलत: प्रामाणिकता, प्रमाण और समाधान की स्थिति के लिए तत्पर होना पड़ा। इसी क्रम में निभ्र्रमता की अभिव्यक्ति है। इसकी संप्रेषणा भी होती हैं। यही मानव परम्परा की गरिमा और सामाजिक अखण्डता का सूत्र है। यही शिक्षा व्यवस्था और चरित्र में सामरस्यता के स्वरुप को स्पष्ट करता है। यही अनुभवपूर्ण सह-अस्तित्व ही विचारशैली एवं जीने की कला के लिए आवश्यक है।

सह-अस्तित्व ही अस्तित्व है। सह-अस्तित्व में विकास क्रम, विकास में जीवन घटना और पद, जीवन घटना और पद में जागृति क्रम और जीवन जागृति में परावर्तन व प्रत्यावर्तन, परावर्तन व प्रत्यावर्तन क्रम में अस्तित्व में अनुभूति, अस्तित्व में अनुभूति क्रम में स्थिति सत्य, वस्तुस्थिति सत्य और वस्तुगत सत्य में मानव के निभ्र्रम होने की व्यवस्था है। यही नियतिक्रम व्यवस्था है। अनुभव बल को व्यक्त करने के क्रम में विचारशैली एवं जीने की कला अपने आप में सम्प्रेषित होती है। यही जीवन वैभव एवं जागृति का साक्षी है। जागृति पूर्वक ही मानव मूल्यों को अभिव्यक्त, सम्प्रेषित एवं मूल्यांकित करता है। यह महिमा जीने की कला को श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर के रूप में प्रकाशित करती है।

जीने की कला का स्वरुप जीवन जागृति और उसकी महिमा का स्वरुप, स्वयं संबंधों व मूल्यों को पहचानना ही है। इसकी गरिमा का स्वरुप उसके निर्वाह करने में स्पष्ट होता है। यही मानव कुल के सम्पूर्ण आयामों, कोणों, परिप्रेक्ष्यों और दिशाओं में समाधान और प्रामाणिकता के रूप में जीवन गति है। स्थिति सत्य को सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति के रूप में, वस्तुस्थिति सत्य ही दिशा, काल, देश के रूप में और वस्तुगत सत्य रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को पहचानने व निर्वाह करने की व्यवस्था मानव में जागृति पूर्वक सिद्घ हो जाती है। प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य वर्तमान है। परस्पर इकाई अथवा परस्पर ध्रुवों के आधार पर ही दिशा, देश स्पष्ट होता हैं । साथ ही क्रिया की अवधि में काल गणना होती हैं। वस्तु की पहचान आकार, आयतन, घन के रूप में, गुण की पहचान सम, विषम, मध्यस्थ शक्तियों के रूप में, स्वभाव की पहचान शक्तियों के सद्व्यय के रूप में होती हैं। धर्म की पहचान अस्तित्व, पुष्टि, आशा और आनन्द के रूप में स्पष्ट होती है। अस्तित्व स्थिति और इकाई के किसी आयाम को भुलावा देना स्वयं अज्ञान का ही द्योतक होगा। अज्ञान स्वयं समस्या और क्लेश का द्योतक होता हैं । प्रत्येक मानव जागृति को स्वीकारता है। जागृति परार्वतन व प्रत्यावर्तन का सफल स्वरुप है। अर्थात् समाधान एवं प्रामाणिकता का स्वरुप है । ऐसी सामरस्यता रूप और गुणों की सीमा में परिपूर्ण नहीं होती। इसीलिए मानव को प्रत्येक इकाई के रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रूप में जानने, मानने, पहचानने और निर्वाह करने की आवश्यकता है। इसी क्रम में मनुष्य पहचानने और निर्वाह करने के क्रम को अस्तित्व में विकसित करता आया है। अभी भी कई बिन्दु पहचानने, निर्वाह करने के लिए शेष है। फलत: अस्तित्व समग्र और अस्तित्व में समग्र विकास को पहचानने की आवश्यकता और स्थिति समीचीन हुई। इस प्रकार अस्तित्व समग्र और सम्पूर्ण इकाई नित्य शुभ और सफल है। शुभ और सफलता का तात्पर्य सर्वतोमुखी समाधान और प्रमाणिकता सेे हैै। यह अवसर अथवा ऐसा पावन अवसर प्रत्येक मानव में, से, के लिए समीचीन रहता है, क्योंकि जो था नहीं, वह होता नहीं।

जागृति क्रम में भी प्रत्येक मानव अपनी क्षमता योग्यता पात्रता को सम्प्रेषित एवं अभिव्यक्त करता है। यही प्रकाशमानता का भी तात्पर्य है। प्रत्येक इकाई प्रकाशमान है ही। प्रकाशमानता स्वयं प्रतिबिम्बन -अनुबिम्बन प्रक्रिया और प्रणाली होने के कारण यह प्रत्येक इकाई की स्थिति में वर्तमान रहता है। क्योंकि अस्तित्व में ऐसी कोई इकाई नहीं है जिसका वर्तमान न हो। मानव अस्तित्व में अविभाज्य इकाई होने के कारण इनका वर्तमान स्थिति सहज सिद्घ है। मानव में अपनी गरिमा, महिमा और वैभव को परंपरा का स्रोत बनाये रखने के क्रम में जागृति, उत्प्रेरणा समीचीन रहती ही है। इसलिए जागृति पूर्वक ही मानव में सामाजिकता को पहचानने और मानवीयता को चरितार्थ रूप देने की अनिवार्यता सतत विद्यमान है। अस्तु, मानव सह-अस्तित्व को प्रकाशित करना ही समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद की सूत्र और व्याख्या का स्वरुप है। इसका नित्य स्रोत मध्यस्थ सत्ता, मध्यस्थ क्रिया और मध्यस्थ जीवन की महिमा ही है, जो स्वयं मध्यस्थ दर्शन का स्वरुप है। इससे ही अभ्युदय (सर्वतोमुखी विकास) अध्ययन सुलभ, व्यवहार सुलभ एवं अनुभव सुलभ होने का सम्पूर्ण तथ्य आपके सम्मुख प्रस्तुत है।