Awakened jeevan (जागृत जीवन के १२२ आचरण)
जीवन सहज 122 क्रियाओं की परिभाषा इस प्रकार है
*स्त्रोत = मानव व्यवहार दर्शन, संस २००९, अंत में
आत्मा सहज दो क्रियाएँ –
■ अनुभव, ■ प्रमाण
अनुभव :- सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में नित्य वर्तमान ।
प्रमाण :- अनुभव संपन्न अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, प्रकाशन ।
बुद्घि सहज चार क्रियाएँ :-
■ बोध :– अनुभव गामी विधि से अध्ययन पूर्वक अर्थ स्पष्ट होना अर्थात् अस्तित्व में वस्तु का स्पष्ट बोध होना।
अनुभव मूलक विधि से वस्तु बोध होना तथा प्रमाणित होने के लिये संकल्प पूर्वक तत्पर होना। यही
ऋतंभरा है ।
■ संकल्प :- न्याय, धर्म, सत्य सहज निश्चय की निरंतरता प्रमाण व्यक्त होना ।
■ धी :- उत्सवशीलता सहित प्रवर्तन क्रिया (परावर्तन के लिये तत्परता) ज्ञान ग्रहण एवं प्रभावीकरण क्षमता ।
■ धृति :– भय का अभाव । वर्तमान में विश्वास होना ही धृति है ।
– संपूर्ण सह-अस्तित्व सहज सत्य में निष्ठा परावर्तित करने के लिए प्रवृत्ति ।
– सत्य या सत्यता का बोध सहज परावर्तन में निष्ठा ।
● चित्त सहज सोलह क्रियाएँ :- चिंतन व चित्रण रूपी सोलह (16) क्रिया कलाप :-
1. श्रुति 2. स्मृति
श्रुति :– ■ यथार्थ समझदारी का भाषाकरण ।
■ यथार्थ जीवन व दर्शन पूर्ण अभिव्यक्ति।
■ सह-अस्तित्व सहज यथार्थों का भाषा सहज संप्रेषणा, अभिव्यक्ति ।
स्मृति :- बार-बार आवश्यकतानुसार भाषा पूर्वक समझ का प्रस्तुतीकरण।
– भाषा से इंगित वस्तु को साक्षात्कार सहित चित्रण समेत की गई स्वीकृति, जिसको बार-बार दोहराया
जाना प्रमाण है ।
3. मेधा 4. कला
मेधा :– स्मृति का धारक-वाहक क्रिया ।
– कला को साक्षात्कार करने वाली चिंतन क्रिया ।
कला :– उपयोगिता योग्य सुंदर क्रिया ।
– उपयोगिता एवं कला की संयुक्त उपलब्धि (प्रकाशन) एवं योग्यता मेधा अपने में, जीवन क्रियाओं में, से विज्ञान व विवेक सम्मत साक्षात्कार सहित स्वीकार क्रिया है ।
5. कान्ति 6. रूप
कान्ति :- कान्ति का तात्पर्य प्रकाश से है । सार्थकता संभावना के अर्थ में स्पष्ट होना प्रकाश है ।
रूप :- आकार, आयतन, धन ।
7. निरीक्षण 8. गुण
निरीक्षण :- अनुभव मूलक दर्शन व उसके प्रकटन की संयुक्त चिंतन चित्रण क्रिया ।
गुण :- सापेक्ष गतियाँ ।
– सम-विषम- मध्यस्थ गतियाँ, गतियों का आंकलन ।
– स्वभाव गति और अपेक्षित गति का प्रकाशन ।
9. संतोष 10. श्री
संतोष :– अभाव का अभाव ।
आवश्यकता से अधिक उत्पादन सहित विवेक सम्मत विज्ञान पूर्वक प्रमाणित होने की तत्परता ।
श्री :- समृद्घि या समृद्घि की निरंतरता सहज स्वीकृति ।
11. प्रेम 12. अनन्यता
प्रेम :- पूर्णानुभूति ।
– दया, कृपा, करुणा की संयुक्त अभिव्यक्ति ।
– पूर्णता में रति व उसकी निरंतरता ।
अनन्यता :– मानव की परस्परता व नैसर्गिकता में पूरक क्रिया- कलाप ।
– प्रामाणिकता व समाधान में निरंतरता ।
– अजागृत के जागृति में सहायक क्रिया ।
13. वात्सल्य 14. सहजता
वात्सल्य :- अभ्युदय के अर्थ में पोषण, संरक्षण की निरंतरता ।
सहजता :- स्पष्टता व प्रामाणिकता ।
– व्यवहार, रीति विचार एवं अनुभव की एक सूत्रता।
15. श्रद्घा 16. पूज्यता
श्रद्घा :- श्रेय की और गतिशीलता अर्थात् आचरण पूर्णता की ओर गुणात्मक परिवर्तन ।
– जागृति और प्रामाणिकता की ओर गति व उसकी निरंतरता ।
पूज्यता :-गुणात्मक विकास और जागृति के लिए सक्रियता ।
वृत्ति सहज 36 क्रियायें
1. विद्या 2. प्रज्ञा
विद्या :- जो जैसा है, अर्थात् जिस प्रयोजनार्थ है उसे वैसा ही विधिवत् जानने, मानने, स्वीकार करने की क्रिया ।
प्रज्ञा :- परिष्कृति पूर्ण संचेतना ।
– यर्थाथ और यथार्थ सहज अनुमान अनुभव क्रिया ।
– वस्तुगत सत्य, वस्तु स्थिति सत्य के प्रति अवधारणा एवं अनुभव मूलक गति और स्थिति सत्य में बोध
व अनुभव मूलक गति है ।
3. कीर्ति 4. विचार (वस्तु)
कीर्ति :- जागृति की ओर सक्रियता ।
– वर्तमान में विकास और जागृति के संदर्भ में की गई श्रेष्ठता व सुलभता की प्रामाणिक
प्रस्तुति।
विचार :– स्फुरण पूर्वक सत्यता को उद्घाटित करने हेतु की गई क्रिया ।
– सह-अस्तित्व सहज प्रकाशन, संप्रेषणा, अभिव्यक्ति ।
5. निश्चय 6. धैर्य
निश्चय :- सत्यतापूर्ण विचार की निरंतरता ।
-लक्ष्य, दिशा और प्रयोजन की ओर गति ।
– सत्यता पूर्ण विचार की निरंतरता ।
धैर्य :- न्यायपूर्ण विचार की निरंतरता ।
7. शांति 8. दया
शांति :- समाधान पूर्ण विचार का फलन ।
– इच्छा एवं विचार की निर्विरोधिता ।
दया :– दूसरे के विकास में हस्तक्षेप न करना ।
– पात्रता के अनुरूप वस्तु, योग्यता प्रदायी क्षमता।
9. कृपा 10. करुणा
कृपा :– दूसरे के विकास के लिए सहायता अथवा पात्रता अर्जित करने में सहायक होने में अर्हता
सम्पन्न रहना।
– वस्तु के अनुरूप पात्रता प्रमाणित कराने वाली क्षमता योग्यता को स्थापित करने की क्रिया।
करुणा :– विकास के लिए उत्प्रेरित करना ।
– विकास के लिए योग्यता और पात्रता अर्जित करने में सहायक होना ।
11. दम 12. क्षमा
दम :- ह्रास की ओर जो आसक्ति है, उसकी समापन क्रिया ।
– भ्रम, भय और अपव्ययता से मुक्ति और जागृति पूर्ण प्रकृति में निष्ठा ।
क्षमा :- विकास के लिए की जाने वाली सहायता के समय उसके ह्रास पक्ष से अप्रभावित रहना ।
13. तत्परता 14. उत्साह
तत्परता :- जागृति, जागृति क्रम, विकास क्रम में सक्रियता ।
– उत्पादन कार्य-कलाप में लगनशीलता ।
– मानवीय व्यवहार-आचरण में निष्ठा ।
– व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज उदय की ओर परावर्तन क्रिया ।
उत्साह :– उत्थान के लिए साहस ।
– व्यवस्था सहज सजगता ।
15. कृतज्ञता 16. सौम्यता
कृतज्ञता :- जिस किसी की भी सहायता से उन्नति (विकास और जागृति) की प्राप्ति में सहायता मिली
हो, उसकी स्वीकृति ।
सौम्यता :-स्वेच्छा से स्वयं का नियंत्रण ।
– स्वभावगति प्रतिष्ठा अर्थात् शिष्टता ।
17. गौरव 18. सरलता
गौरव :- निर्विरोध पूर्वक अंगीकार किये गये अनुकरण ।
सरलता :- ग्रन्थि व तनाव रहित अगंहार ।
19. विश्वास 20. सौजन्यता
विश्वास:- परस्परता में निहित मूल्य निर्वाह ।
– व्यवस्था की समझ, समाधान की अभिव्यक्ति और संप्रेषणा ।
सौजन्यता:- सहकारिता, सहभागिता, सहयोगिता, पूरकता ।
21. सत्य 22. धर्म
सत्य:- जो तीनों काल में एक सा भासमान, विद्यमान एवं अनुभव गम्य है ।
-अस्तित्व विकास, जीवन, जीवन-जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना-विरचना के प्रति
प्रामाणिकता का नित्य वर्तमान ।
– अस्तित्व सहज स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य नित्य वर्तमान ।
धर्म:- धारणा ही धर्म है ।
– जिससे जिसका विलगीकरण न हो ।
22. न्याय (सौजन्यता) 24. संवेदना
न्याय :- मानवीयता के पोषण, संवर्धन एवं मूल्यांकन के लिए संपादित क्रियाकलाप ।
– संबंधों व मूल्यों की पहचान व निर्वाह तथा मूल्यांकन व उभयतृप्ति क्रिया ।
संवेदना :-पूर्णता के अर्थ में वेगित होना ।
– नियम-त्रय सहित कि या गया कार्य-व्यवहार विचार ।
– विकास व जागृति के प्रति वेदना = जिज्ञासा, अपेक्षा, आशा ।
– जाने हुए को मानने के लिए, पहचाने हुए को निर्वाह करने के लिए स्वयं स्फूर्त जीवन सहज
उद्देश्य और प्रक्रिया ।
– सभी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बाह्य संकेतों को ग्रहण करने की क्रिया ।
– व्यवस्था के प्रति तत्परता ।
25. तादात्मता 26. साहस
तादात्मयता:– नित्यता के अर्थ में स्वीकार सहित किया गया निर्णय।
साहस :– सहनशीलता समेत प्रसन्नता सहित किया गया व्यवहार क्रिया कलाप ।
27. संयम 28. नियम
संयम :– मानवीयता पूर्ण विचार, व्यवहार एवम् व्यवसाय में नियंत्रित होना ।
नियम :- नियंत्रण पूर्ण स्वयंस्फूर्त विधि से, व्यवस्था में जीते हुए, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की
प्रवृत्ति और प्रमाण ।
29. वीरता 30. धीरता
वीरता :- अन्य को न्याय दिलाने में स्व-शक्तियों का नियोजन।
– दूसरों को न्याय उपलब्ध कराने में अपनी भौतिक व बौद्घिक शक्तियों का नियोजन करना ।
धीरता :– न्याय के प्रति निष्ठा एवं दृढ़ता ।
31. भाव 32. संवेग
भाव:- मौलिकता=मूल्य=जिम्मेदारी, भागीदारी ।
संवेग :- संयोग से प्राप्त गति ।
33. जाति 34. काल
जाति :- रूप, गुण, स्वभाव व धर्म की विशिष्टता, भौतिक क्रिया, एकता, विविधता ।
– भौतिक वस्तु में अनेक प्रकार के परमाणु ।
काल :– क्रिया की अवधि ।
35. तुष्टि 36. पुष्टि
तुष्टि :- समझदारी पूर्वक छ: सद्गुणों से संपन्न होना, परिवार में समाधान, समृद्घि को प्रमाणित करना। अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करना निरंतर तुष्टि का स्वरूप है ।
पुष्टि:- तुष्टि का निरंतर मूल्यांकन में निरीक्षण, परीक्षणपूर्वक किया जाना । पूर्णता की निरंतरता ही जीवन सहज संतुष्टि है । मानव परंपरा के रूप में उसका लोकव्यापीकरण होना ही पुष्टि है।
मन सहज चौसठ (64) क्रियाएँ
चयन व आस्वादन रूपी चौसठ (64) क्रियाकलापे
1. भक्ति 2. तन्मयता
भक्ति:- भय से मुक्त होने का क्रियाकलाप और श्रम मुक्ति ।
– भजन और सेवा से संयुक्त अभिव्यक्ति संप्रेषणा, प्रकाशन क्रिया-कलाप ।
– भक्ति संपूर्ण निष्ठा की अभिव्यक्ति है ।
तन्मयता :- सम्यक निष्ठा के लिए निश्चित लक्ष्य एवं दिशा हेतु निर्देशन विधि से जागृति सहज प्रभाव में
अभिभूत होना तन्मयता है ।
3. ममता 4. उदारता
ममता :- अपनत्व की पराकाष्ठा पूर्वक पोषण संरक्षण कार्य ।
– स्वयं की प्रतिरूपता की स्वीकृति, उसकी निरंतरता।
उदारता :-स्वप्रसन्नता पूर्वक, दूसरों की जीवन जागृति, शरीर स्वस्थता व समृद्घि के लिए
आवश्यकतानुसार तन, मन, धन रूपी अर्थ का अर्पण-समर्पण करना ।
– प्राप्त समाधान रूपी सुख सुविधाओं (समृद्घि) का, दूसरोंं के लिए सदुपयोग करना और प्रसन्न होना।
5. सम्मान 6. सौहार्द्र
सम्मान :-व्यक्तित्व, प्रतिभा की स्वीकृति और उसका संतुलन सहज प्रकाशन ।
– व्यक्तित्व, प्रतिभा की श्रेष्ठता की स्वीकृति, निरंतरता व स्पष्टता ।
सौहार्द :-जिस प्रकार से स्वीकृति हो उस अवधारणा, अनुभव, स्मृति और श्रुति को यथावत् प्रस्तुत
करने का क्रियाकलाप ।
7. स्नेह 8. निष्ठा
स्नेह:- न्यायपूर्ण व्यवहार में निर्विरोधिता ।
– संतुष्टि में, से, के लिए स्वयं स्फूर्त मिलन और निरंतरता।
निष्ठा:-जागृति पूर्ण लक्ष्य में निश्चित अवधारणा व स्मरण पूर्वक प्राप्त करने व प्रमाणित करने का निरंतर
प्रयास ।
9. पुत्र-पुत्री 10. अनुराग
पुत्र-पुत्री :– शरीर रचना की कारकता सहज स्वीकृति और जीवन जागृति में पूरकता निर्वाह करने
वाली मानव इकाई ही पिता है ।
– पोषण, सुरक्षा की स्वीकृति ।
– संतानों के पोषण संरक्षण के लिए, उत्पादन हेतू सक्षम बनाने हेतु आधार के रूप में स्वयं को स्वीकारना।
-शिक्षा संस्कार प्रदान करने में स्वयं को सक्षम स्वीकारना ।
-सम्पूर्ण ज्ञान प्रावधानित करने के लिए स्वयं में स्वीकारना ।
अनुराग :– निर्भ्रमता में प्राप्त आप्लावन (अनुपम रसास्वादन संभावना की स्वीकृति)
आप्लावन अर्थात् संबंधो में निहित मूल्यों का निर्वाह करने में सफलता ।
11. साथी 12. दायित्व
साथी:– सर्वतोमुखी समाधान प्राप्त व्यक्ति ।
– स्वयं स्फूर्त विधि से दृष्टा पद में हों ।
– स्वयं को जानकर, मानकर, पहचान कर, निर्वाह करने के क्रम में साथी कहलाता है ।
दायित्व :– परस्पर व्यवहार, व्यवसाय एवं व्यवस्थात्मक संबंधों में निहित, मूल्यानुभूति सहित,
शिष्टतापूर्ण व्यवहार।
13. सहयोगी 14. कर्त्तव्य
सहयोगी :-प्रणेता अथवा अभ्युदय के अर्थ में मार्गदर्शक अथवा प्रेरक के साथ-साथ अनुगमन करना, स्वीकार पूर्वक गतित होना। उत्पादन में सहयोगी होना ।
कर्त्तव्य :- प्रत्येक स्तर में प्राप्त संबंधों एवं सम्पर्कों और उसमें निहित मूल्यों का निर्वाह ।
15. स्वायत्त 16. समृद्घि
स्वायत्त :- समृद्घि का अनुभव ही स्वायत्त है ।
समृद्घि :– आवश्यकता से अधिक उत्पादन का अर्थ समृद्घि है।
17. हित 18. स्वास्थ्य
हित :- शरीर सीमान्तवर्तीय उपयोगिता ।
स्वास्थ्य :-मन एवं प्रवृत्तियों के अनुसार कर्मेन्द्रिय व ज्ञानेन्द्रियों का कार्य करने योग्य स्थिति में होना ।
– स्पन्दन :- स्फुरण योग्य स्थिति में कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय का होना।
19. प्रिय 20. प्रवृत्तियाँ
प्रिय –शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धात्मक ज्ञानेन्द्रियों के लिए शरीर स्वस्थता के अर्थ में अनुकूल योग
संयोग ।
प्रवृत्तियाँ – उपलब्धि एवं प्रयोजन सिद्घि हेतु प्रयुक्त बौद्घिक संवेग ।
– परावर्तन होने के लिए जीवन में होने वाली आशा, विचार, इच्छा, संकल्पों एवं प्रामाणिकता की स्थिति, व्यवहार के अर्थ में मानवीयतापूर्ण मानसिकता ।
21. उल्लास 22. हास
उल्लास :– मुखरण । उत्थान की और पारदर्शक प्रस्तुति और गति ।
हास :– समाधान सहित प्रसन्नता व मुस्कान सहित मानवीय लक्ष्य व दिशा की ओर गति ।
23. शील 24. संकोच
शील :- जागृति सहज वैभव को शिष्टता के रूप में सभी आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्य में प्रामाणिकता को इंगित कर लेना और कराने की क्रिया का नाम शील है ।
– शिष्टता पूर्ण लक्षण ।
संकोच :- अस्वीकृति को शिष्टता से प्रस्तुत करना ।
25. गुरु 26. प्रामाणिक
गुरु :– शिक्षा-संस्कार नियति क्रमानुषंगीय विधि से जिज्ञासाओं और प्रश्नों को समाधान के रूप में
अवधारणा में प्रस्थापित करने वाला मानव गुरु है ।
प्रामाणिक :– प्रमाणों का धारक वाहक-यथा अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण
समुच्चय को प्रयोग, व्यवहार अनुभवपूर्ण विधि से प्रमाणित करना और प्रमाणों के रूप में
जीना।
27. शिष्य 28. जिज्ञासु
शिष्य :- जागृति लक्ष्य की पूर्ति के लिए शिक्षा-संस्कार ग्रहण करने, स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत
व्यक्ति, जिसमें गुरु का सम्बन्ध स्वीकृत हो चुका रहता है ।
जिज्ञासु :-जीवन ज्ञान सहित निर्भ्रम शिक्षा ग्रहण करने के लिए तीव्र इच्छा का प्रकाशन ।
29. भाई-मित्र 30. प्रगति
भाई :- एकोदर (एक उदर (पेट) से होने वाले) को भाई का संबोधन है । भाईवत् स्वीकृतियाँ या मित्र ।
मित्र :- सहोदरवत् (सगे भाई जैसा) जो होते हैं, उन्हें भाई व मित्र का संबोधन है ।
प्रगति :- मानवत्व रूपी सहज व्यवस्था व समग्र व्यवस्था अर्थात् परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में
भागीदारी ।
– समाधान प्रधान समृद्घि सहज अपेक्षा प्रक्रिया और प्रमाण ।
31. बहन 32. उन्नति
बहन :- एकोदरीय (एक पेट से पैदा होने वाली) अथवा एकोदरवत् बहनें होती हैं ।
उन्नति :- समृद्घि प्रधान समाधान सहज अपेक्षा, प्रक्रिया व प्रमाण।
– जागृति और उसकी निरन्तरता की और गति ।
33. स्वीकृति 34. स्वागत
स्वीकृति :– अनुभव मूलक प्रभाव में इंगित होने वाले सम्पूर्ण संकेतों को यथावत् परावर्तन में प्रमाणित
करने की क्रिया।
स्वागत :- अवधारणा अनुभव के लिए स्वीकृत क्रिया
– नियम, न्याय, समाधान, सत्य सहज स्वीकृतियों, अस्वीकृतियों के लिए तैयारियाँ।
– विवेक व विज्ञान सम्मत मानसिक, वैचारिक और ऐ’िछक तैयारियाँ ।
35. रुचि 36. पहचान
रुचि :– रासायनिक द्रव्यों से रचित रचनात्मक व्यवस्था में अनुकूल भौतिक रासायनिक वस्तुओं के
संयोग से योग में प्राप्त परिणामों की पहचान ।
पहचान :- इन्द्रिय सन्निकर्ष में चरितार्थता आवश्यक अथवा अनिवार्य तत्व ।
– वस्तुओं का योग संयोग से प्राप्त कुल परिणाम की स्वीकृति।
37. सुख 38. स्फूर्ति
सुख = समाधान
स्फूर्ति = समाधान सहज प्रमाणों में, से, के लिए प्रवृत्ति ।
39. पति-पत्नि 40. यतीत्व-सतीत्व
यतीत्व : यत्न (प्रयोग) पूर्वक तरने के लिए, जागृति निर्भ्रमता और जागृति सहज निरंतरता के लिए
किया गया सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार; निर्भ्रमता सहित की गई प्रक्रिया एवं प्रयास। यत्न अर्थात्
शोधपूर्वक समझना ही तरना ।
सतीत्व : सत्व (संकल्प) पूर्वक तरने, जागृत होने के लिए किया गया कार्य-व्यवहार, समझ, प्रक्रिया
समुच्चय; भ्रम मुक्ति। सत्व अर्थात् संकल्प निष्ठापूर्वक समझना ही तरना।
41. माता 42. पोषण
पोषण :- इकाई + अनुकूल इकाई ।
43. पिता 44. संरक्षण
संरक्षण :-निर्बाधता । सुगमता के अर्थ में है।
ज्ञानेंद्रिय – कर्मेन्द्रिय क्रियाएं (45 से 64)
45. मृदु-कठोर 46. वहन-संवहन
परिभाषा : छ: प्रकार की रुचियां जीभ के संयोग में आई वस्तु चाहे तरल, विरल, ठोस क्यों न हो, परिणाम स्वरूप ही पहचानना होता है । हर जागृत मानव संदवेदनाओं के प्रयोजनों का स्वस्थ शरीर के प्रयोजनों के लिए पहचाने रहना स्वाभाविक रहता है ।
47. शीत/उष्ण – 48. पोषण
49. खट्टा – 50. पोषण
51. मीठा – 52. पोषण
53. चरपरा – 54.पोषण
55. कड़ुवा। – 56. पोषण
57. कसैला – 58. पोषण
59. खारा – 60. पोषण
61. सुगन्ध/दुर्गन्ध – 62. प्रश्वसन/विश्वसन
63. सुरूप / कुरूप -64. अपनापन/ परायापन
परिभाषा :
संवहन – मृदु :- स्पर्शेंद्रिय से कम भार व दबाव को सहने वाली वस्तुएँ।
संकुचन पूर्वक वहन करने वाली वस्तुएँ ।
कठोर :- स्पर्शेंद्रिय से अधिक भार व दबाव को सहने वाली वस्तुएं ।
पूर्णता के वेदना सहित, गति वहन करना।
पोषण :– इकाई + अनुकूल इकाई ।
शोषण :- इकाई – प्रति अनुकूल इकाई ।
‘‘सर्व शुभ हो”