Realization & Awakening (अनुभव और जाग्रति)

 

अनुभव और जागृति की स्थिरता और निश्चयता

 * स्त्रोत= कर्म दर्शन, संस २, अध्याय ३, भाग ६ 

निश्चयता, स्थिरता सर्वमानव में चिराकाँक्षा के रूप में बनी ही है। सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व, ज्ञान और स्वीकृति का आधार है। यह सर्वमानव में सर्वेक्षण पूर्वक विदित होने वाला तथ्य है। स्वयं को जाँचने से भी यही स्पष्ट होता है। हम सब स्थिरता व निश्चयता को ही स्वीकार करते रहे हैं, न कि अस्थिरता, अनिश्चयता को। स्थिरता के सहज आधार पर ही निश्चयता का होना स्वभाविक है। विकास सहज निश्चयता, सर्वमानव में जीवन क्रिया के रूप में प्रमाणित है। जीवन की पाँच क्रियायें स्थिति के रूप में और पाँच गति क्रिया के रूप में सर्व मानव में अध्ययन होना स्वभाविक है। अध्ययन करने वाला भी मानव ही है। अध्ययन के उपरान्त प्रमाणित करने वाला भी मानव, प्रमाणित रूप में जीने वाला भी मानव ही है। इस प्रकार मानव ही जागृति का प्रमाण है। जीवन क्रिया सर्वमानव में गति के रूप में चयन, विश्लेषण, इच्छा, संकल्प और प्रमाणों के रूप में होना पाया जाता है, इसे परावर्तन के नाम से भी जाना जाता है। इसी के साथ पाँच स्थिति क्रियायें आस्वादन, तुलन, चिंतन, बोध और अनुभव क्रिया के रूप में पाया जाता है। तभी मानव परम्परा अनुभव प्रमाण प्रमाणित होना पाया जाता है। जीवन की पाँच स्थिति क्रियाओं को बल के रूप में तथा पाँच गति क्रियाओं को शक्ति के रूप में व्यक्त करते हैं।

जागृत जीवन द्वारा संबंध उनके निर्वाह एवं प्रयोजनों के अर्थ में किया गया चयन का नाम – आशा, सुख से जीने की आशा, यह पहली जीवन शक्ति है। दूसरा, आशा के अनुरूप, अर्थात् जागृत जीवन सहज आशाओं के आधार पर विश्लेषण सम्पन्न होना ही विचार है। तीसरा, जागृत जीवन के विश्लेषण के अनुरूप चित्रण होते रहना ही इच्छा है। चौथा, जागृत जीवन के न्याय, धर्म, सत्यता को प्रयोजित,  और व्यवहारित करने का नाम है ऋतम्भरा। पाँचवां, अनुभव सहज प्रमाणों का प्रमाणिकता नाम है। इस प्रकार पाँच शक्तियों का होना मानव को समझ में आता है। इसी प्रकार पाँच बलों की भी प्रमाणिकता है –

  1. जागृत जीवन में अनुभव एवं उसकी निरंतरता क्रिया का नाम है आत्मा।
  2. अनुभव के यथावत् बोध करने वाली अर्थात् पूर्णतया स्वीकार करने वाली क्रिया का नाम है बुद्घि।
  3. अनुभव अनुसार न्याय, धर्म, सत्य को स्वीकार करने की निरंतरता को बनाए रखने वाली क्रिया चिंतन का नाम है चित्त।
  4. साक्षात्कार किया गया न्याय धर्म सत्य को अनुभव मूलक विधि से तुलन करने वाली क्रिया का नाम है वृत्ति।
  5. तुलन के अनुसार संपूर्ण मूल्य, चरित्र, नैतिकता की अपेक्षा अथवा आस्वादन करने वाली क्रिया का नाम है मन।

इस प्रकार पांच बल एवं पाँच शक्तियों का स्पष्टीकरण जीवन में होने वाली क्रिया के रूप में है।

जागृत मानव में प्रमाण अथवा सम्पूर्ण प्रमाण सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में अनुभव का ही प्रकाश है। अनुभव के प्रकाश में प्रमाण के अतिरिक्त कोई दूसरा वस्तु समाहित रहता ही नहीं। इसलिए प्रमाणों को परम, पावन, पूर्ण नामों से भी इंगित करते हैं। दूसरे क्रम में अनुभव प्रमाणों की परम स्वीकृति संकल्पों में, संकल्प का चित्रण इच्छाओं में, ऐसी चित्रणों का विश्लेषण विचारों में, ऐसे विचारों का आस्वादन मूलक विधि से चयन क्रिया आशाओं में सम्पादित होना समझ में आता है। अनुभवमूलक विधि से ये सभी दस क्रियाओं में निश्चयता स्पष्ट होती है।

जीवन ज्ञान सम्पन्नता विधा में यह अध्ययनगम्य वस्तु है। स्थिति क्रियायें अनुभवगामी और अनुभवमूलक विधि से अभिव्यक्त होना, और अनुभवमूलक विधि से प्रमाणित होना सार्थक है। मानव परम्परा में, से, के लिये तीसरा कोई सार्थक प्रक्रिया, विधि अस्तित्व में नहीं है। मानव सहज विधि से आवश्यकता के आधार पर यही परम होना पाया जाता है। मानव लक्ष्य ही परम आवश्यकता के रूप में पहचानने में आता है, समझ में आता है। फलत: मानव सचेष्ट होता हुआ भी देखने को मिलता है।

मानव लक्ष्य समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व है, यह अनुभवमूलक विधि से ही प्रमाणित होना पाया जाता है। अनुभव, जीवन सहज प्रमाण एवं वैभव क्रिया है। इसके आधार पर ही प्रमाण परम्परा मानव कुल में चरितार्थ होना समीचीन है। इसी क्रम में हमें निश्चयता को प्रमाणित करने का सौभाग्य स्पष्ट हो जाता है। यह हर नर नारी के लिए समीचीन है।

अनुभव ही जागृति और जीवन की परम अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन है। परम का तात्पर्य अनुभव से ज्यादा होता नहीं, जीवन उससे कम में अधूरा रहता है। अनुभव पूर्वक जीवन में तृप्ति होना पाया जाता है। जीवन तृप्ति अपने आप में मानव परम्परा में समाधान, समृद्घि, अभय के आधार पर सुख, शांति, संतोष के रूप में पहचानना होता है। सहअस्तित्व में अनुभव ही परम है, यही आनन्द है। इसका प्रमाण, मानव परम्परा में, से, के लिये परम है। इनका अर्थात् मानव लक्ष्य का मूल्यांकन प्रणाली, व्यवस्था में समाहित रहता है, यही न्याय सुरक्षा व्यवस्था है। न्याय सुरक्षा विधि से मानव हर स्थिति गति में विश्वस्त रहना, आश्वस्त रहना पाया जाता है। फलस्वरूप, जीवन सहज सम्पूर्ण वैभव मानव परम्परा में प्रमाणित होने का मार्ग प्रशस्त रहता है। यही जागृति परम्परा है। जीवन तृप्ति का प्रमाण मानव का अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदार होना है। मानव परम्परा में व्यवस्था होना, व्यवस्था विधि से ही समाधान, समृद्घि, अभय सहअस्तित्व प्रमाणित होना स्वभाविक रहता है। यही जागृति का भी प्रमाण है, सम्पूर्ण मानव जीवन का भी प्रमाण है। मानव परम्परा का परम वैभव है। प्रयोजन रूपी व्यवस्था ही मानव परम्परा की सर्वोच्च उपलब्धि है। इन्हीं उपलब्धियों में स्थिरता, निश्चयता स्पष्ट है।

मानव परम्परा जागृत होने में स्थिरता, अस्तित्व सहज विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है। निश्चयता मानवीयता पूर्ण आचरण विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है। इसकी अपेक्षा मानव में पीढ़ी से पीढ़ी में रहा आया है। इस प्रकार मानव का विकास और जागृति को प्रमाणित करने में समर्थ होना ही, मानव का उत्थान, वैभव, राज्य होना पाया जाता है। राज्य का परिभाषा भी वैभव ही है। उत्थान का तात्पर्य मौलिकता रूपी ऊँचाई में पहुँचने से या पहुँचने के क्रम से है। वैभव अपने स्वरूप में परिवार व्यवस्था और विश्व परिवार व्यवस्था ही है। ऐसी व्यवस्था में भागीदारी मानव का सौभाग्य है। इस क्रम में अध्ययन, शिक्षा संस्कार के रूप में उपलब्ध होते रहना भी व्यवस्था का बुनियादी वैभव है। वैभव ही राज्य और स्वराज्य के रूप में सुस्पष्ट होता है। स्वराज्य का मतलब भी मानव के वैभव से ही है। यह वैभव समझदारी पूर्वक ही हर मानव में पहुँच पाता है। यह शिक्षा पूर्वक लोकव्यापीकरण हो पाता है। ऐसी व्यवस्था अपने आप में द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ मुक्त रहना इसके स्थान पर समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक रहना पाया जाता है। यही सार्वभौम व्यवस्था का तात्पर्य है।

युद्घ और संघर्ष मुक्त जागृति और प्रमाण युक्त परंपरा ही व्यवस्था का सूत्र और व्याख्या है। समझदारी पूर्वक हर मानव अर्थात् नर-नारी का अपने जागृति को प्रमाणित करना स्वयंस्फूर्त प्रवृत्ति है। इन प्रवृत्तियों के आधार पर मानव का वर्तमान में विश्वास को प्रमाणित कर पाना होता है। यही कड़ी है। वर्तमान में विश्वास के आधार पर ही सहअस्तित्व प्रमाणित हो पाता है।

जागृत मानव परंपरा में ही स्थिरता सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व विधि से प्रमाणित होता है और निश्चयता मानवीयतापूर्ण आचरण विधि से प्रमाणित होता है।

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