Human = conscious jeevan + body (मानव = चैतन्य जीवन और शरीर)

 


प्राणावस्था
, मानव शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव

*स्त्रोत = मानव कर्मदर्शन, संस-२, अध्याय ३, १६ वा भाग  

प्राणावस्था के मूल में यौगिक विधि, प्रवृत्ति स्वंय स्फूर्त विधि से होना पाया जाता है। इसके लिए अनुकूल परिस्थिति के संबंध में अध्ययन किया जाय तो केवल ब्रह्माण्डीय किरण और धरती पर अनेक प्रजाति के परमाणुओं से अपने आप में समृद्घ रहना ही, पृष्ठभूमि में दिखाई पड़ता है। इस धरती पर यौगिक पृष्ठभूमि के बारे में सोचा जाय, तो इससे अधिक कोई कारण नहीं है। ब्रह्माण्डीय अनुकूलता में ब्रह्माण्डीय किरण विकिरण ही एक मात्र स्रोत है। आज भी यह चीज इस धरती के वातावरण तक प्रस्तुत ही है। किरण जो कुछ भी पहुँच पाता है, वह सब धरती की स्वयं के प्रकाश में अधिक प्रमाणित होते हैं। उसी के साथ-साथ, उष्मा का भी संबंध धरती से बना ही है। ऐसे स्थिति में और जो स्रोत हैं, वे विकिरणीय स्रोत ब्रह्माण्डीय क्रिया-कलापों के प्रभाव स्वरूप अनेक धरतीयों से निष्पन्न या प्रसारित विकिरणीयता का संचार ही रहता है। यह अभी भी बना है। इसी के साथ, यह धरती अनेक प्रजाति के परमाणुओं से समृद्घ होने के आधार पर, इस धरती में भी बहुत सारे विकिरणीय द्रव्य काम कर रहे हैं। इस ढंग से किरण, विकिरण, उष्मा के संयोग से ही सम्पूर्ण यौगिक क्रिया होने की पृष्ठभूमि रही है। यौगिक घटनायें, पानी की घटना से चलकर अम्ल और क्षार रूप में यौगिक घटनायें घटित होने की संभावना की पृष्ठ भूमि को स्वीकारा जा सकता है। क्योंकि अभी भी प्रकारान्तर से अम्ल, क्षार, पानी के संयोग से, विभिन्न अनुपात क्रम में, विभिन्न प्रकार के रसायन द्रव्य तैयार हुआ रहना अपने सम्मुख है। इनके अनुपातों में जो कुछ भी परिवर्तन के लिए सहायक होना है, वह कार्बनिक और अन्य प्रजाति के अणु परमाणुओं की सहायता सदा-सदा से रही। इस प्रकार अम्ल, क्षार और पानी के साथ-साथ उक्त अणु-परमाणु, रासायनिक वस्तु की प्रजातियों की संख्या को बढ़ाने में सहायक होता हुआ पाया जाता है।

इस प्रकार से इस धरती पर रसायन द्रव्य समृद्घ होने की क्रियाघटित घटित हो रही है। इन रसायन द्रव्यों के योग-संयोग से पुष्टि तत्वों, रचना तत्वों का निर्माण, इस घटना के लिये विकिरणीय किरण और उष्मा संयोग के बने रहने से प्रसवित होता हुआ, आज के दिन में वैभवित होता हुआ देखने को  मिलता है। पुष्टि तत्व और रचना तत्व के योगफल में प्राण सूत्रों की निर्मिति, प्रस्तुति, कार्यशीलता होता हुआ देखने को मिल रहा है। यही पुष्टि तत्व और रचना तत्व अपने आप में वैभवित होने के रूप में प्राण सूत्र और प्राण सूत्र का निर्मीति यही उष्मा संयोग, विकिरणीय संयोग से कंपन वश, प्राण सूत्रों में श्वसन क्रिया का प्रकाशन होता है। इसके तुरंत बाद ही प्राणकोषाओं का स्वरूप कोषाओं से रचित रचना, ऐसे रचनायें विविध होने के लिए प्राण सूत्रों में रचना विधि की स्वीकृति  समझ में आती है। एक प्रकार की रचना अपने में समृद्घ होने के उपरान्त, दूसरे प्रकार की रचना के लिए प्राण सूत्रों में स्वीकृति, फलस्वरूप दूसरे प्रकार की रचनायें इसी क्रम में अन्य रचनायें इस धरती पर प्रमाणित हो चुके हैं। इसी क्रम में वनस्पतियों का वैभव क्रम, वनस्पतियों की रचना-विरचना होने का क्रम और निरन्तरता यथा स्थिति के रूप में है।

विरचित वनस्पतियों का अवशेष ही स्वेदज संसार का आधार बना। आज भी इस बात का परीक्षण कर सकते हैं। वर्षा ऋतु के पहले पत्ते इकठ्ठे कर के रख लें, वही पत्ते सड़ने के समय में बहुत सारे कीड़े मकोड़े हो जाते हैं। ये कीड़े मकोड़े अण्डज संसार को तैयार करते हैं। ऐसे अण्डज परम्परा में श्रेष्ठता की विधि प्राणकोषाओं में होना स्वभाविक रहा है, अथवा और श्रेष्ठता, और प्रजाति की बात होती रही। अण्डज संसार पुष्ट होता हुआ जलचर, भूचर, नभचर रुप में स्थापित होता ही रहा। अण्डज संसार की प्राणकोषाओं से पिण्डज संसार की प्राणकोषायें विकसित हुई। इन पिण्डज संसार में अधिकांश भूचर हुए, जबकि अण्डज संसार में भूचर, नभचर, खेचर तीनों हुए। इसमें से अण्डज संसार में नभचर अधिक हुए, इसके अनन्तर जैसे ही पिण्डज संसार आया, भूचर अधिक हुए। नभचर और जलचर में पिण्डज न्यून प्रजातियों को मिली। इसके बाद इस क्रम में पिण्डज संसार में बहुत प्रजातियाँ विकसित होते हुए अंतिम प्रजाति के रुप में मानव शरीर रचना की परम्परा विकसित हुई।

जीवन शरीर का संयुक्त रूप में मानव

मानव परम्परा में कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता वश जीवों से भिन्न कार्य गतिविधियाँ मानव से सम्पन्न होना शुरु हुई। जैसे पेड़ काट देना, पत्थर को फोड़ देना, मिट्टी को खोद देना, यहाँ से प्रारंभ कर घर बनाना, कपड़ा बनाना, ब’चों को पालने में जीवों से भिन्न तरीके अपनाना, ये स्वयं स्फूर्त विधि से आता रहा है। उसमें से चिन्हित रुप में, घर बनाना, कपड़ा बनाना, फसल उत्पादन करना, इन चीजों तक सकारात्मक भाग में आ गए। ये तीनों प्रकार के कृत्य जानवरों से सर्वथा भिन्न हो गए।

इसी क्रम में शरीर रचना ज्ञान को पाने का प्रमाण भी साथ-साथ चलता रहा। मूल में बताई गई प्राण सूत्र, प्राणकोष, प्राणसूत्र में रचना विधि क्रम में आदि मानव से अभी मुख्य स्वरुप तक में प्रजाति यथावत् रहते हुए श्रेष्ठता जितना भी होना था, वह होता आया। इसमें मानव प्रवृत्ति का भी योगदान समाया रहना संभावित है। इस विधि से मानव का उत्थान क्रम श्रृंखला बनी। आज की स्थिति में शरीर रचना ज्ञान, उसकी मूलभूत प्रक्रिया, उसका नाप तौल, रोगों की परीक्षण विधि, दवाईयों का संयोजन, ये सबका सब व्यापार से अनुबंधित हुई या व्यापार के चंगुल में फँस गयी। इस विधि से ये पूरा सकारात्मक भाग कुछ लोगों के हाथ में गिरफ्त हो गई। इससे भी सर्वाधिक मानव को असुविधायें बनी हुई है। इस समस्या से मुक्त होने का सोच विचार चल ही रहे हैं।

प्रधान मुद्दा शरीर रचना में प्राणकोषाओं की प्रवृत्ति, शरीर रचना मूलक में दो प्रजाति के प्राणकोषाओं का उत्सव, फलत: भू्रणावस्था से गुजरते हुए शरीर रचना अर्थात् अंग-अवयव, हाथ, पैर आदि की रचना, पाँच महीने पूरा होते तक गर्भाशय में शिशु रचना का पूर्ण होना शिशु रचना पूर्ण होने में समृद्घ मेधस तंत्र का होना, जीव संसार से अधिक समृद्घ पूर्ण मेधस तंत्र तैयार होना समझ में आता है। इन्हीं अवधि में जीवन का शरीर को संचालित करने के लिए तत्पर होना, इसका संकेत मां होने वाली नारी को समझ में आना, शिशु जनन के उपरान्त उसके संवर्धन के लिये 100 वर्ष पहले जैसा ध्यान देते रहे, 50 वर्ष पहले जैसा ध्यान देते रहे, उससे अधिक सटीक ध्यान आज दे पाना, आज की स्थिति में ये सब मानव के अध्ययन में आता है।

इसमें रचना में विविधता के लिए प्राण सूत्रों में प्रवृत्ति के बारे में जिज्ञासा बनती है- क्यों होता है, कैसा होता है ? इस मुद्दे पर सोचने की आवश्यकता मानव में आता ही है। मुख्य मुद्दा रंग और रुप ही है, जिसमें विविधता हो पाता है। अंग अवयवों के कोई खास विविधता नहीं हो पाता। इस तथ्य को परीक्षण, निरीक्षण पूर्वक समझ चुके हैं। कई प्रकार के रस द्रव्यों को आज का मानव सटीकता से पहचान चुका है। इसका अनुपातिक  भिन्न-भिन्न प्रयुक्ति के आधार पर शरीर का रंग होना पाया जाता है। कुल मिला कर रंग, शरीर के ऊपरी हिस्से में अर्ध सूखा हुआ, सूखा हुआ प्राणकोषा की स्थिति में रंग का पता लगता है। चमड़े के अंदर जो रक्त होता है, सबके शरीर में लाल ही होता है। ऊपरी हिस्से से रंग का पता लगता है। प्राणकोषायें शुष्क होने के उपरान्त जो प्रदर्शन करते हैं, इसी को हम रंग के रूप में जान पाते हैं। इसीलिए रंग के आधार पर मनुष्य को पहचानना, मानव को पहचानने के अर्थ में सटीक नहीं हुआ। इसीलिए परस्पर मानव को सटीक पहचानने का प्रयास जारी रहा है। यह भी सोच सकते हैं, बहुत पहले से भी परस्पर पहचानने के लिये रंग प्रधान रहा, और कोई आधार खोजते रहे। इसी के साथ नस्ल भी बहुत प्रधान रह गए। काफी समय तक मानव रंग और नस्ल प्रधान विधि से अपना पहचान बनाये रखने के लिए कोशिश किया। अभी भी इसका गवाही जगह-जगह मिलता है। यद्यपि मानसिक रूप में इस जगह में से अर्थात् वंशानुषंगी पहचान विधि से रंग, नस्ल विचार से विचलित हो चुके हैं।

इस क्रम में मानव कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता को ज्ञान विधा में सार्थक बनाने दौड़ा। तब संसार की विविधता का अध्ययन न होने की कमजोरी के कारण, ज्ञान मीमांसा चाहते हुए, ज्ञानी होना चाहते हुए, ज्ञानी होने के लिए प्रस्तावित सभी तप, साधन, योग, अभ्यास करते रहे, किन्तु प्रमाणित होने की स्थली पर रिक्त रह गए। इसमें सांत्वना पाने के लिए उपाय रूप में शास्त्रों को आधार मान लिया। इस ढंग से धर्म ग्रन्थ, किताब प्रमाण माना गया। आदमी प्रमाण को प्रस्तुत करने वाला है, इसको स्वीकारा नहीं। ध्यान देने की बात यही है कि ज्ञान, विज्ञान, विवेक सम्बन्धी प्रमाणों को कोई प्रस्तुत करेगा तो वह मानव ही होगा। इस तथ्य से ज्ञानाभ्यासी संसार को अथवा आगे पीढ़ी को सार्थक प्रमाण दे नहीं पाया।

सहअस्तित्ववादी नजरिए में ज्ञान संचार, विवेक संचार ही प्रधान मुद्दे के रूप में प्रस्तुत हुई। इसके बिना भ्रम के चंगुल से छुटकारा नहीं पाएगा। इसी के लिए लोकव्यापीकरण करने का प्रयोग का शुरुआत, शुरुआत में ही ज्ञान, विज्ञान, विवेक का सम्पूर्ण अध्ययन, निर्णय लेने का सूत्र, सम्भावना की व्याख्या ये सभी चीज विकल्पात्मक प्रस्ताव में समाहित है। यहाँ उल्लेखनीय मुद्दा यही है चिरकाल से मानव शरीर यात्रा का जिक्र इस धरती पर है ही। जीवन अपने में शाश्वत रूप में, चैतन्य इकाई के रूप में, अक्षय शक्ति, अक्षय बल के रूप में विद्यमान वर्तमान है ही। यह अनुकूल परिस्थिति बने रहते हुए, परिवार में ही क्रमिक संयोग होते आए। सर्व प्रथम मानव ईश्वरीयता, ईश्वर ही कर्त्ता के रूप में शरणागत होने की बात सोची। इसका अंतिम छोर तिरोभाव ही कल्याणमय होने की स्थिति, इसी के लिए सारा ताना-बाना, इसमें मानव भरोसा न पाने के फलस्वरूप ही सुविधा संग्रह की ओर दौड़,यह सबको न मिलने के आधार पर इसमें तृप्ति बिन्दु का अभाव पुन: विकल्पात्मक स्वीकृतियाँ, इसी क्रम में सह अस्तित्व मानव सम्मुख प्रस्तुत हुई।

इसमें विचारणीय बिन्दु यही है प्राणकोषायें, मानव शरीर रचना को बनाने के संबंध में काफी अध्ययन हो चुका है। यह भी मानव स्वीकारने योग्य हो चुका है कि आशा, विचार, इ’छा पूर्वक, प्रमाण और संकल्प पूर्वक जीना ही होगा। यह स्वभाविक प्रक्रिया में आ चुका है। इसी के आधार पर हम इस बात को परिशीलन करने पर तुले हैं कि मानव के शरीर रचना में परिवर्तन हुई अथवा क्रिया कलाप में परिवर्तन हुई  अथवा ज्ञान विधि में।

परिशीलन का आधार मानव होगा और जीता हुआ मानव ही होगा। मानव के मरे हुए शरीर के निरीक्षण परीक्षण से इन हड्डी, नसों, मांसपेशियों का संतुलन कैसे बना रहता है, बिगड़ने पर क्या-क्या परेशानी होती है, इसका अध्ययन होता है। किन्तु मानव संतुलित रहने के लिए मानसिकता और शरीर के तालमेल आवश्यक है। इस बात को हर ज्ञानी, विज्ञानी, विशेषज्ञ और सामान्य मानव स्वीकारते हैं। मानसिकता ही रोग और कष्ट को प्रगट करता है, स्पष्ट करता है। शरीर में जो कुछ परेशानी है, व्यतिरेक है, उसको पहचानने के लिए मानसिकता का प्रयोग आवश्यक है। मानसिकता ही सबको पहचान पाती है। इसके विपरीत, यंत्र पहचानते हैं इसका दावा हम करते हैं। यहीं से स्वास्थ्य संबंधी मामला यंत्र के अधीन हो गया, जबकि यंत्र किसी एक या एक से अधिक मानव से ही योजित-नियोजित, उत्पादित वस्तु है। इसमें मानव की मानसिकता नियोजित रहती ही है। जितने अपेक्षा से नियोजन होता है, उससे कम में ही यंत्र तैयार हो पाता है। इस बात को हम इस ढंग से प्रस्तुत करते हैं, किसी यंत्र के प्रयोजन को हम गणितीय विधि से 100 आंकते हैं तो उसमें से 75 और उससे कम में ही विश्वास रखना चाहिए, उपयोग करना चाहिए। इस भाग को यंत्र की सुरक्षा का भाग भी माना जाता है यंत्रों में जो कुछ भी संकेत मिलता है, इसको पढ़ने वाला भी मानव ही है। जिसको पढ़ना है, अपने मानसिकता सहित ही पढ़ पाता है, आदि काल से यह माना गया कि बेईमानी के बिना व्यापार चलता नहीं। अगर यही सूत्र हो तो इन सब उपक्रमों की क्या हालत होगी, शोध और सोचने का मुद्दा है।

दूसरी विधा में जो आयुर्वेद है, यूनानी विधि है, ये करीब-करीब आधार रूप में एक ही है, नाड़ी और दोष पर धड़कन और धड़कन के ध्वनि को सुनते हुए शरीर की आवाज को सुनने की कोशिश, उसके आधार पर शरीर के कष्ट और व्यतिरेकों का अनुमान, स्वीकृति, उसके आधार पर दवाइयों की योजना, प्रयोग, सफलता पर विश्वास करना होता है।

इस प्रयोग से वांछित परिणाम अर्थात् स्वस्थ होने के स्थिति में रोग स्वरूप का निर्धारण किया गया था, जिसके आधार पर दवा नियोजित की थी, इस प्रक्रिया में विश्वास का उपार्जन, इस क्रम को कर्म अभ्यास का नाम दिया गया।

आयुर्वेद विधि से उसकी कई विधि से रोग के बलाबल को पहचानना, उसी के अनुसार औषधि को पहचानना, वन औषधि के रूप में, खनिजों के रूप में, जीवों से उपलब्ध औषधि के रूप में पहचानना। इनका योग, संयोग, परिपाक विधि से औषधि के बलाबल को पहचानना, रोग से अधिक बलशाली औषधि का प्रयोग करना, यही कर्म अभ्यास रोग को पहचानने से रोग चिकित्सा तक अनुशासित रहना पाया जाता है। इसमें मूल मुद्दा यही है, हर आयुर्वेदज्ञ को परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है। फलस्वरूप-

रोगों को पहचानने                                  औषधियों को पहचानने

रोगों के बलाबल को पहचानने                  औषधियों के बलाबल को पहचानने

पथ्य परहेज को पहचानने                        अनुपान को पहचानने

के सम्मलित रूप में जो प्रयोग कर पाते हैं इसे ही कर्माभ्यास कहते हैं। ये पूरा का पूरा ज्ञान, विज्ञान विधि से चलकर अनुपान, पथ्य परहेज तक पहुँच पाते हैं, इसके फल परिणाम के आधार पर परम्परा के रूप में प्रमाण तक पहुँच पाते हैं।

इसमें मूल मुद्दा यही है, समझदार मानव परम्परा के उपरान्त, जितने भी ज्ञान, विज्ञान, विवेक सहित किया गया कर्म अभ्यास, स्वास्थ्य संयम विधा में लोकव्यापीकरण करने के पक्ष में ही कार्य करता हुआ, परिवर्तित होता हुआ देखने को मिलता है। दूसरे भाषा से, समझदार मानव परम्परा मानवीयता विधि से जीने के उपक्रमों, निष्ठाओं का वैभव ही लोकव्यापीकरण के पक्ष में उदित हो पाता है। समझदार मानव सह अस्तित्व वादी विधि से ज्ञान, विज्ञान, विवेक से सम्पन्न मानव व्यक्तिवादी न होकर परिवार से सार्वभौम व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी से संपन्न हुआ रहता है। इसीलिए अखण्ड समाज के अर्थ में ही कार्य-व्यवहार-विन्यास होना पाया जाता है। अर्थात् ऐसा समझदार मानव सामाजिक होना, सर्व शुभ को चाहना, सर्व शुभ के लिए स्वयं को प्रवर्तित रखना, प्रमाण होने का उम्मीद रखना, इसके लिए अभ्यास करना स्वभाविक होना पाया गया। यहाँ उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि सहअस्तित्ववादी नजरिये से समझदार मानव का बहुमुखी उपयोगी होना देखा गया। ऐसी चाहत हर मानव में है ही। इसीलिए ऐसे वैभव के सार्थक होने की सम्भावना समझ में आती है।

समझदारी के साथ मानव का स्वास्थ्य संयम विधा में भागीदारी करना एक स्वभाविक प्रक्रिया है। इसके साथ ही शिक्षा संस्कार, न्याय सुरक्षा, उत्पादन कार्य, विनिमय कार्यों में भागीदारी करना सभी समझदार मानव का कर्त्तव्य एवं दायित्व हो पाता है। समझदारी के साथ कर्त्तव्य और दायित्व स्वीकृति सहज रूप में प्रमाणित हो जाता है। समझदारी के अनन्तर अर्थात् सहअस्तित्ववादी ज्ञान, विज्ञान, विवेक संपन्नता के उपरान्त दायित्व और कर्त्तव्य को स्वीकारने में देरी होती ही नहीं, यह स्वयं स्फूर्त विधि से प्रमाणित होती, प्रगट होती है। इन सबको भली प्रकार से परीक्षण, निरीक्षण कर निश्चित किया गया है। हर नर-नारी इसको परीक्षण पूर्वक सत्यापित कर सकते हैं, यह मानव परम्परा के लिए महत्वपूर्ण प्रेरणा रही है।

हर मानव जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में प्रकाशमान, विद्यमान है। हर मानव अपने स्वीकृति के आधार पर ही निर्णय लेकर जीता रहता है। ऐसे विचार पूर्वक निर्णय लेने के मूल में ज्ञान, विज्ञान, विवेक के संतुलन को अनुभव करना, स्वीकार करना, प्रमाणित करने के लिए प्रवृत्त होना और प्रमाणित करना। प्रमाणित करने का क्रम और प्रक्रिया समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में ही होना पाया जाता है। ऐसी प्रमाण परम्परा पीढ़ी से पीढ़ी आश्वस्त विश्वस्त होने के लिए प्रेरक होती ही है। ऐसी आवश्यकता सदा-सदा मानव परम्परा में बनी ही रहती है।

उक्त विधि से परीक्षण, निरीक्षण करने पर पता चलता है कि जीवन के आधार पर शरीर का संचालन हो पाता है, न कि जीवन का संचालन शरीर के अनुसार। इसे ऐसा भी स्पष्ट किया जा सकता है कि समझदार मानव अपने समझदारी के अनुसार शरीर को संचालित करता हुआ देखने को मिलता है और समझदारी मानव का वर है, अधिकार है, वर्चस्व है, इसीलिए समझदारी सर्व वांछित लक्ष्य है। समझदार मानव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में ही हर कार्य, व्यवहार, विचारों को प्रस्तुत कर पाता है। इसके फल परिणाम में जीवनापेक्षा, मानवापेक्षा सफल हो पाता है। इसीलिए मानव लक्ष्य को पहचानने के उपरान्त उसकी सार्थकता के अर्थ में जितने ही कार्य विन्यास होते है, कृत, कारित, अनुमोदित भेदों से, कार्यों का फल परिणाम, मानव लक्ष्य को प्रमाणित करने की स्थिति में व्यवस्था में जीना स्वभाविक है। इसीलिए समझदार मानव के अध्ययन से यही स्पष्ट होता है कि समझदार मानव जीवन अनुसार शरीर को चलाता है। दूसरी भाषा में समझ के आधार पर शरीर संचालित होता है। अतएव इस पर हम विश्वास कर सकते हैं, शोध कर सकते हैं, जागृति के उपरान्त जीवन का वैभव, शरीर के द्वारा मानव परम्परा में प्रमाणित हो पाता है। यह परम्परा के लिए समाधान का प्रवाह है, समाधान प्रवाह में ही मानव परम्परा का वैभव मौलिक रूप में प्रमाणित हो जाता है। इसमें हर समझदार मानव भागीदारी करने के लिए इच्छुक है ही। इसलिए हर मानव समझदार होना ही चाहता है। इस प्रकार से हर मानव के समझदार होने का लोकव्यापीकरण की सम्भावना समीचीन है।

इस बात पर हम पहले से स्पष्ट कर चुके हैं कि पदार्थावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से जीवावस्था समृद्घ होने के उपरान्त ही मानव का अवतरण इस धरती पर हुआ। अवतरण के मूल में प्राण सूत्र में रचना विधि का परिवर्तन होना, यह परिवर्तन उत्सव विधि से सम्पन्न होना, फलस्वरूप मानव का अवतरण विभिन्न देश, काल, परिस्थिति के अनुसार भिन्न समृद्घ मेधस सम्पन्न जीव शरीरों से निष्पन्न होने की बात स्पष्ट की। निष्पन्न होने के उपरान्त मानव में मौलिक अभिव्यक्ति, जीवों से भिन्न कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता ही रहा। यह आदि मानव में भी रहा, अभी भी है। इसके प्रयोग क्रम में परम्परा में जो कुछ भी ज्ञान हुआ, उपलब्धि हुई, वह स्वभाविक रूप से परम्परा ने अपनाया है। इस बीच उपयोगिता को स्वीकारा है निरर्थकता को छोड़ दिया है। इसी विधि से मानव की कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता का शोध होता आया है। इस विधि से शरीर रचना का यथावत रहना अर्थात् जितने बार भी दोहराया जा रहा है, अथवा पीढ़ी से पीढ़ी हो रहा है, शरीर रचना स्वरूप और शरीर रचना के मूल में सप्त धातु, इनका तालमेल यथावत बना ही रहा है। इन सभी गवाहियों के आधार पर हजारों वर्ष, लाखों वर्ष बीतने के बाद भी शरीर में समाहित द्रव्य, गुण, रचना विधि, अंग, प्रत्यंग और अवयव भी यथावत् ही हैं। मेधस तंत्र सदा-सदा कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता को पाँचों संवेदनाओं द्वारा, पाँचों प्रकार के कर्म इन्द्रियों द्वारा स्पष्ट करना होता ही आया है। पहले से ही कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता की तृप्ति बिन्दु को पाने की परिकल्पना, प्रयास भी करते ही आया। अब भी वह यथावत् बनी हुई है। इन्हीं स्पष्ट स्थिति के आधार पर मानव अपने में परिभाषा के अनुसार मनाकार को साकार करने में सर्वाधिक सफल हो गया है। मन: स्वस्थता का पक्ष यथावत् रिक्त पड़ा हुआ है। यही आज की शोध का महत्वपूर्ण बिन्दु है। मन: स्वस्थता की वीरानी आबाद हो जाय, यही मुख्य मुद्दा है। सर्व शुभ कल्पना का आधार भी इतना ही है।

इस11 वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक जो मनाकार को साकार करने की विधा सर्वाधिक प्रमाणित हुई है, इसके मूल में जीवन सहज कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता में परिमार्जन होना है, न कि शरीर में। भौतिकवाद के अनुसार, शरीर रचना के अनुसार चेतना निष्पत्ति होती है। ऐसा वास्तव में हुआ नहीं है। इसी आधार पर बड़ी जोड़-तोड़ से शरीर परिवर्तन के बारे में, रचना परिवर्तन के बारे में शोध करते-करते शरीर रचना विशेषता क्षत-विक्षत होकर प्रश्नों की झड़ी से दब गया है। जिसके ऊपर नोबेल पुरस्कार का भी निर्धारण हो चुका है। इस मुद्दे की सार्थकता, प्रमाण, उ’जवल भविष्य की सम्भावना को प्रस्तुत करने में सर्वथा असफल रहा। थोड़े समय पहले से ही शरीर रचना विज्ञान के अनुसार, रक्त की प्रजातियों की संख्या निश्चित हो गई, बाकी सब पहले से निश्चित थी। सभी मानव में मेधस तंत्र सब में समान है, यह भी पता लग गया। इसमें जाति, मत, सम्प्रदाय और रंग, नस्ल, भाषा, देश, काल की कोई दखल अंदाजी नहीं है। ये सभी निष्कर्ष शरीर रचना के अनुसार चेतना बहती है, ऐसा जो सोचते रहे वह गलत सिद्घ हो चुकी है। इसी आधार पर, क्लोनिंग तकनीकी की मूल मान्यता है कि एक मेधावी व्यक्ति जिसको हम मेधावी कहते हैं, के प्राण सूत्रों को परिवर्धित करने पर उनके जैसा ही समान शरीर तैयार हो सकता है, वैसी ही चेतना भी तैयार हो सकती है। यह भी भ्रम सिद्घ हो गया है। इसी के साथ व्यापार विधा में क्लोनिंग तकनीकी में जो विशेषज्ञ हैं, उनकी यह घोषणा ‘अपने प्रतिरूप को प्राप्त कर लो’ भी अर्थहीन हो गई है। पहले ये मान्यता थी कोई अच्छे बुद्घिमान व्यक्ति का एक इन्च चमड़े से हजारों, लाखों, अरबों अच्छे आदमी को तैयार कर लेंगे, जब तैयार कर लेंगे, कोई भी अपना संतान के रूप में अपना लेंगे, क्योंकि सभी अपने संतान को बुद्घिमान बनाना चाहते हैं। इसी क्रम में यत्न, प्रयत्न करके देखा गया, इसमें अभी तक किये प्रयोगों में जिन भेड़, बकरी, जीव-जानवर के साथ प्रयोग किया गया, मानव के साथ प्रयोग किया, वह हुबहू वैसे ही नहीं हो पाया। आंशिक व्यतिरेक बना ही रहा।

इस मुद्दे पर यह कोई बहुत महत्वपूर्ण बात नहीं कि शरीर रचना जैसा प्राकृतिक विधि से दोहरा रहा है, वैसे दोहराया जाये। इतने मात्र से कोई बात सिद्घ नहीं होती। क्योंकि, पंडितों के संतान मूर्ख और मूर्खों के संतान पंडित होता हुआ देखा गया है। इसको ध्यान में रखना अति आवश्यक है।

जीवन ज्ञान जब तक नहीं होता रहा, तब तक  हम यह मानने के लिए तैयार थे, बाध्य थे कि वंश के अनुसार रूप, गुण, संस्कार होते हैं। इस प्रकार की मान्यता के साथ जातिवादी, वंशवादी श्रेष्ठता की बहस और वकालत पहले चली। ये सब आज की स्थिति में टूट चुकी है। ब्रह्मवाद, आत्मवाद, जातिवाद, नस्लवाद ये सभी वाद विवादग्रस्त हो चुके हैं। फलस्वरूप, शंकाओं का घेरा बलवती होता जा रहा है। शरीर रचना के आधार पर चेतना निष्पन्न होने, बहने का जो आश्वासन था, वह भी विवादग्रस्त हो गया। अब आदमी कहाँ जाय, यही मुख्य मुद्दे की बात है। इसी 21वीं शताब्दी के पहले दशक तक 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक से शुरु हुई, एक विकल्पात्मक प्रस्ताव, सहअस्तित्व वादी विश्व दृष्टिकोण, मानव को एक अखण्ड समाज के रूप में, जाति, धर्म समझ अर्थात् ज्ञान, विज्ञान, विवेक और जीवन अर्थात् चैतन्य इकाई में समानता, अक्षय शक्ति, अक्षय बल के समानता और जागृति के स्वरूप में समानता को बोध कराने के लिए अध्ययन विधि प्रस्तुत हो चुकी है।

इसी क्रम में जीवन तृप्ति और मानव तृप्ति की एकरूपता को पहचानने की आवश्यकता है, सार्थक बनाने की आवश्यकता है। इस विधि से अर्थात् सहअस्तित्व वादी नजरिये से मानव शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में विद्यमान है, प्रकाशमान है। ऊपर कही सारी कहानी के तात्पर्य में मानव शरीर में कोई विकास हुआ नहीं और शरीर में कोई विकास होता नहीं। जो कुछ भी महिमा आदि मानव से अत्याधुनिक मानव तक प्रकाशित हुई है, यह सर्वमानव में पाए जाने वाली कर्मस्वतंत्रता, कल्पनाशीलता की अभिव्यक्ति है, यह भी स्पष्ट हो गई है। इसके तृप्ति बिन्दु को शोध, अनुसंधान करते हुए अर्थात् कर्म स्वतंत्रता का शोध अनुसंधान करते हुए, सुखी होने की आकाँक्षा ही है, इसी क्रम में मनाकार को साकार करना सार्थक हो गया। यह कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रता की अभिव्यक्ति जीवन की महिमा है, न कि शरीर की। क्योंकि, शरीर प्राणावस्था की द्रव्य वस्तु, प्रक्रिया से ही सम्पादित हुआ है। ये पूरा रचना प्राणकोषा प्रधान है। ये प्राणकोषाऐं अपने क्षमता से अधिक होना संभव नहीं। मानव शरीर रचना के लिए जितना औकात स्थापित हुई, वह यथावत दोहराता हुआ दिखाई पड़ती है। कर्मस्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, मानसिकता जो सर्व मानव में देखने को मिल रहा है। यह मानसिकता मूल स्वरूप में जीवन जागृति की ही एक प्रक्रिया है।

जीवन में निरन्तर सम्पन्न क्रिया कलापों में से मन एक क्रिया है, दूसरी क्रिया है वृत्ति (विचार), तीसरी क्रिया है साक्षात्कार (चित्त) किसी को समझने के लिए, अर्थ स्वीकृति के लिए, अर्थ पूर्वक वस्तु स्वीकृति के लिए जो प्रायोजित है। जैसे पानी शब्द के साथ ही पानी रुपी वस्तु को अस्तित्व में स्वीकारने की क्रिया यह चित्त क्रिया है। इसी प्रकार बुद्घि में बोध क्रिया, बोध क्रिया निश्चयता, स्थिरता को स्वीकारने की अर्हता, इसी को दूसरी भाषा में सत्य धर्म, न्याय को दृढ़ता  पूर्वक स्वीकारने की क्रिया है। पाँचवीं क्रिया अनुभव क्रिया। अनुभव क्रिया की महिमा नित्य समाधान, नित्य सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द के रूप में सत्य को स्वीकारने, प्रमाणित करने और आनन्द रुपी आश्वासन से परिपूर्ण होने की क्रिया है। ये पाँचों क्रियायें जीवन बल के रूप में कार्य करता हुआ स्पष्ट होता है। अनुभव ही प्रमाण है। इसका फलन आनन्द है। जीवन स्वत्व है, इसको प्रमाणित करने के क्रम में संकल्प, संकल्प को परावर्तित करने के लिए चित्रण, चित्रण को सार्थक बनाने के लिए विश्लेषण, विश्लेषण को क्रियान्वयन करने के लिए चयन (तौर-तरीका का चयन) पूर्वक प्रमाणित करता हुआ मानव को पहचाना जा सकता है। इस विधि से ये पाँचों परावर्तित होने वाली क्रियाओं को शक्ति नाम दिया गया। इसी बल को स्थिति, परावर्तित करने वाले क्रिया को गति नाम दिया है। इस प्रकार मानव का स्थिति, गति, जीवन क्रियाकलाप के आधार पर अर्थात् जीवन के स्थिति गति के आधार पर परस्पर पहचानने में आता है। शरीर रचना के अनुसार मानव का पहचान होता ही नहीं, न कभी होगा। इसीलिए हमें जीवन में परिवर्तन पर ध्यान देना बनता है। परिवर्तन आज तक के प्रधान शोध, अनुसंधान से साकार होने की गतिविधियाँ सुस्पष्ट हो चुकी हैं। शेष भाग मन: स्वस्थता है, उसे सहअस्तित्ववादी दृष्टिकोण से सुस्पष्ट होने वाली ज्ञान, विज्ञान, विवेक सम्पन्नता पूर्वक अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी पूर्वक मानव आँकाक्षा और जीवन आकाँक्षा को सार्थक बना सकते हैं। इसे हर नर-नारी प्रयोग पूर्वक प्रमाण प्रस्तुत कर सकते हैं


en English
X