Property (Quality) (गुण)

 

गुण

*स्त्रोत =मानव  कर्म दर्शन, संस :२, अध्याय ३, भाग १० 

गुण अपने स्वरूप में सम, विषम, मध्यस्थ क्रिया और प्रवृत्तियाँ है। इनके फल परिणाम के आधार पर यह आंकलित होता है। सृजनकारी संयोजन क्रियाकलाप सम प्रवृत्ति के नाम से इंगित कराया गया है। विभव कार्य के विपरीत विघटन, विध्वंसकारी क्रियाकलाप और प्रवृत्ति को विषम कहा गया। जिस योग-संयोग विधि से जितनी भी रचनायें बनती हैं, उसको बनाये रखने में किया गया प्रवृत्ति और कार्यों को मध्यस्थ नाम दिया गया है। हर क्रिया स्थिति व गति स्वरूप को प्रकट करता ही है। हर क्रिया के मूल में प्रवृत्तियाँ होना स्वभाविक है। हर प्रवर्तन, हर इकाई में परस्पर पहचानने के आधार पर गतिशील है और प्रकट है। इसको हर अवस्था में, हर पद में, हर यथास्थिति में पहचाना जा सकता है। हर इकाई में पहचानने की प्रवृत्ति है। पहचानने और निर्वाह करने के आधार पर प्रवर्तन, विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जानने के आधार पर जागृति घटित होना पाया जाता है। इसी आधार पर हर इकाई का निश्चित आवश्यकता त्व के रूप में स्पष्ट होता है। प्रवर्तन के आधार पर ही आवश्यकता स्पष्ट होना स्वभाविक है। इस प्रकार आवश्यक प्रवर्तन, आवश्यक पहचानना, इस क्रम में परस्पर पहचान होता है। त्व सहित व्यवस्था क्रम में ही पहचान है। एक दूसरे के इस प्रकार पहचान के क्रम में रहस्य से मुक्त होना पाया जाता है। इन इकाईयों के संबंध में अज्ञात नाम की चीज नहीं रह जाती है। अध्ययन काल में इस मुद्दे पर शंका कर सकते हैं कि प्रत्येक एक-एक को कहाँ तक परीक्षण किया जाय। जैसे समुद्री जल को कब तक एक-एक बूंद को परीक्षण करते रहें ? कब तक एक-एक परमाणु को परीक्षण करते रहें ? इसी प्रकार कब तक प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था की एक-एक इकाई का परीक्षण करते रहें ? क्या इस ढंग से कोई पार भी पायेगा। इसके उत्तर में, इन तथ्यों को इस प्रकार समझा चुके हैं कि हर यथास्थिति, अवस्था और पद सोपानवत् एक से एक जुड़ी हुई है। जैसे पदार्थावस्था विकास क्रम में अनेक यथास्थितियों से होते हुए रूप, गुण, स्वभाव, धर्म को व्याख्यायित करना, छोटे से छोटे, बड़े से बड़े भौतिक वस्तु के लिए व्यवस्था सम्पन्न हो गया है। यथा आकार, आयतन, घन से रूप; सम, विषम, मध्यस्थ के रूप में गुण; संगठन-विघटन के रूप में स्वभाव और अस्तित्व रूप में धर्म को समझा चुके हैं। इससे पता चलता है, सिंधु के एक बिन्दु को परीक्षण करने मात्र से संपूर्ण सिंधु के पानी को हम समझ चुके होते हैं। अध्ययन विधि इसी प्रकार सार्थक हो पाता है।

उक्त प्रकार से प्राणावस्था का भी अध्ययन यथा आकार, आयतन, घन से रूप; सम विषम मध्यस्थ के रूप में गुण; सारक मारक के रूप में स्वभाव और अस्तित्व सहित पुष्टि धर्म होना समझा चुके हैं। इसके आगे जीवावस्था में जीवन और शरीर संयुक्त रूप होते हुए कुछ जीवों में यह प्रमाणित हुआ है। इसके स्पष्टीकरण में सप्त धातुओं से रचित शरीर, समृद्घ मेधस तंत्र और मानव के निर्देश संकेतों को ग्रहण करने की क्षमता संपन्न जीवों में जीवन का होना प्रमाणित होता है। ऐसे जीवों में जीवन में भी आकार, आयतन, घन होता है। शरीर में भी होता है। जीवन अति सूक्ष्मतम क्यों न हो। जीवन में भी गुण सम, विषम, मध्यस्थ प्रभावित रहता ही है। मनुष्य में जीवन प्रधान रहता है। इसीलिए, शरीर का सम, विषम, मध्यस्थ गुण गौण हो जाता है। जीवों में स्वभाव, धर्म संयुक्त रूप में होता है। क्रूरता, अक्रूरता शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में स्पष्ट हो पाता है। जीने की आशा धर्म भी संयुक्त रूप में स्पष्ट होता है। सम्पूर्ण जीव वंशानुषंगीय विधि से व्याख्यायित है। इसी प्रकार आगे मानव का भी सम, विषम मध्यस्थ गुणों का स्पष्टीकरण हो पाता है। मानव में भी गुण सर्वाधिक मध्यस्थ के पक्ष में है जो स्वयं के वैभव के रूप में व्यक्त होता है। मानव जब तक भ्रमित रहता है, तब तक स्व का होना सर्वोपरि, अन्य को गौण मानता है। इसी प्रवृत्ति का प्रकटन द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्घ के रूप में सुदूर विगत से ही स्पष्ट होता आया है। इसमें भी स्व वैभव की ही स्वीकृति रहती है। स्व वैभव को शुभ माना रहता है। जागृति पूर्वक सर्व शुभ के साथ ही स्व वैभव के होने के तथ्य को समझ पाता है, भ्रमवश इससे अनभिज्ञ रहता है। जब इसमें निष्ठा हो जाती है, जागृत हो जाता है, तब विषम गुणों से मुक्त हो जाता है। जब तक विषम गुणों से मुक्त नहीं होता, तब तक कुंठा, निराशा, प्रताड़ना प्रभावशील रहता है। इसी को मानव परंपरा में दुख कहते हैं। जागृत मानव का गुण सदा-सदा मध्यस्थ होना पाया जाता है। इसका सार्वभौम स्वरूप जागृत परंपरा को बनाये रखना, सार्वभौम व्यवस्था को बनाये रखना, अध्ययनपूर्वक अखण्ड समाज सूत्र को प्रमाणित किये रखना है। यह परिवार में न्याय को प्रमाणित किये रहने के रूप में प्रकट होता है। इन सभी तथ्यों को अध्ययन करने में संपूर्ण मानव के लिए शुभ, समाधान, सत्य का सुस्पष्ट नजरिया प्रमाणित होता है। इसी की आवश्यकता है। इसी परंपरा विधि से संपूर्ण अध्ययन समझ में आता है। मानवीय गुणों से ही मानव की मौलिकता परस्पर समझ में आती ही है। इसी प्रकार हर अवस्था, हर पद में विद्यमान इकाईयों का उन उनके गुण, स्वभाव, धर्म रूप के साथ अभिव्यक्त रूप में प्रमाणित होती रहती है। इनमें से मनुष्य के अतिरिक्त सभी अवस्था और पदों में हर इकाई अपने में त्व सहित व्यवस्था के रूप में है ही। मानव भी इकाई होने के कारण संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनशीलता में नियंत्रण प्रमाणित होने के पर्यन्त जागृत होने की आवश्यकता है। मानव का तात्पर्य ही है – सहअस्तित्व में संपूर्ण पद, अवस्था में स्थित जड़-चैतन्य प्रकृति को जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना। इस विधि से मानव में अखण्डता, सार्वभौमता, जीवों में सामुदायिकता, वनस्पति में जातियता, प्रजातियता और पदार्थावस्था में विकासक्रम गत अंशों के संख्या भेद से अनेक यथास्थितियाँ पूर्वक प्रमाणित होना पाया जाता है। अस्तित्व में विविधता होते हुए भी राशि विधि उन अवस्था और पद भेद से मानव कुल पहचानने की व्यवस्था, सहअस्तित्व सूत्र व्याख्या से अध्ययनगम्य है।

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