Heat and the Earths Balance (उष्मा एवं धरती का ताप)

 

उष्मा और धरती का संतुलन

*स्त्रोत = कर्मदर्शन संस २००४, भाग२, अध्याय ७

मनुष्येत्तर प्रकृति को खनिज सम्पदा से भरपूर धरती पर फैली हुई हरियाली, जीव संसार के रूप में देखते हैं। यह धरती पहाड़, जंगल, नदी, नाला, जीव जानवर से सम्पन्न है। सम्पन्नता का अर्थ है इस धरती पर ये सब विद्यमान हैं ही। धरती अपने में खनिजों को ठोस और विरल के रूप में समायी हुई है और इस पर फैली हुई रसायन संसार ठोस, तरल, विरल के रूप में होना देखने को मिल रहा है। ठोस रूप में बहुत सी वस्तुयें अपने को देखने को मिलती ही हैं। जैसे शरीर में बनी हुई हड्डियाँ ठोस रूप में रहती ही हैं। ऐसी वस्तुयें ठोस होने के पूर्व तरल रूप में रहती ही है। रसायन द्रव उष्मा संयोग से विघटन विधि से संयोजित होकर विरल रूप में विद्यमान रहती है। इसका मतलब उष्मा विधि से वस्तु फैलना शुरु करता है। किसी ठोस वस्तु में उष्मा को प्रवेशित कराया जाए तब वह वस्तु अपने निश्चित आयतन स्वरूप से अधिक जगह में फैलने लगता है। यह तब तक फैलता है, जब तक तरल हो जाए, विरल हो जाए।

ऊष्मा को हम इस विधि से पहचानते हैं कि वस्तु जलकर या जलाकर जो प्रभाव होता है, इसे हम ऊष्मा नाम दे रहे हैं। इसको दूसरे विधि से ऐसे पहचान पा रहे हैं, वस्तु जो ज्यादा आवेशित हो गई वह सदा उष्मित होती है। अर्थात् उसका ताप बढ़ जाता है। ताप को पहचानने वाला आदमी है। अन्य प्रकृति ताप से प्रभावित होते हैं। मानव को अलग करके ताप को मापदंड में पहचानना नहीं होता। ताप को प्रयोगों में प्रयोजित कर फल परिणामों को आंकलित कर पाना मानव से ही सम्पन्न होता है अर्थात् मानव ही सम्पादित करता है।

पहचानना जड़-चैतन्य प्रकृति दोनों में होता है, जबकि जानना, मानना केवल चैतन्य प्रकृति में ही होता है। मानव जड़-चैतन्य के संयुक्त रूप में होते हुए जानने-मानने की क्षमता से युक्त है। मूल मुद्दे में पहचानना भी एक क्रिया है। एक पदार्थ, दूसरे के लिए ताप को परावर्तित करते हैं, अपने में से ताप को जो व्यक्त करते हैं, उसके आसपास के अणु परमाणु ताप को स्वीकारते हैं। इसे हम पहचानना कह रहे हैं। फलस्वरूप परिणतियाँ हो जाती हैं। जैसे लोहे को पिघलने के लिये जितने भी ऊष्मा को नियोजित किया जाता है, उसको लोहा स्वीकारता है, लोहे का अणु परमाणु स्वीकार करता है। फलस्वरूप पिघलता है। इस क्रिया को हम मानव ऐसी व्याख्या करते हैं – पहचान लेता है, निर्वाह करता है, तभी पिघलता है। मानव ही एक ऐसी इकाई है जो तप्त लोहे को विविध आकारों में बदल देता है, इसी को सांचे में ढालना हम मानते हैं। इसमें लोहा पुन: जमते तक, ठंडा होने तक ऊष्मा को परावर्तित करते ही रहता है। इसके साथ जुड़ी हुई सभी द्रव्य, लोहे के ताप को आबंटित कर लेता है। अन्ततोगत्वा लोहा ठंडा हो जाता है।

ताप उद्दीप्त करने के प्रयास से, अर्थात् ताप को प्रकट करने और बढ़ाने की क्रिया में एक जलने वाला और एक जलाने वाला का संयोग रहता ही है। जैसे कोयला जलने वाला है, हवा जलाता रहता है। उसके मूल में जाए तो कोयले को आरंभिक रूप में जलाने के लिये कोई न कोई जलने वाला, जलाने वाला के रूप में होता है। जैसे, जलता हुआ आग। इन विधियों से चलकर कोयला, लकड़ी, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम गैस अथवा विकिरणीय प्रक्रिया से ताप उद्दीपन क्रिया को मानव सम्पादित करता हुआ देखने को मिलता है। साथ में विस्फोटक द्रव्यों की पहचान, उसका संयोजन और दबाव विधि से तापोद्दीपन होता हुआ भी देखनेे को मिल रहा है।

ऐसे ताप को नियोजित कर मानव आवश्यक प्रयोजनों को सिद्घ करते ही हैं। जैसे पानी गरम करना, खाना बनाना, कमरा गरम करना, दवाई को सूखाना आदि। इसी प्रकार अनेक क्रियाओं को ताप संयोजन से, नियन्त्रण से सम्पादित करता ही है। यह मानव परम्परा में अभ्यस्त हो चुकी है। ताप कहीं भी हो, वह उस वातावरण के ताप से अधिक होना आवश्यक है तभी ताप है। दूसरे विधि से, जहाँ ताप हो उसके आस-पास उससे कम ताप हो, तभी अधिक ताप कम ताप की ओर परावर्तित होता है। जैसा कहीं भी हम आग जलाते हैं, वहाँ अधिक ताप हो जाता है। कम ताप की ओर परावर्तित होने की क्रिया को ऐसा देखा  जाता है कि ताप जहाँ प्रकट रहता है, उसके आस-पास के अणु  परमाणुओं के तप्त होने से फैल जाता है। इसका मतलब यह हुआ, तप्त अणुयें अपने प्रभाव क्षेत्र, वातावरण में ताप फैलाकर अणुओं को तप्त बनाता है, जो इसके ताप से कम रहता है। वातावरण के अणु-परमाणु इसको स्वीकार कर इस क्रम को आगे बढ़ाते हैं। इस प्रकार ताप परावर्तित होकर कम होते जाता है, अन्ततोगत्वा सामान्य ताप तक पहुँचते हैं। सामान्य ताप से आशय स्वभाव गति में होने से है (स्वभाव गति का तात्पर्य है विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति में जो यथास्थितियाँ होती हैं अर्थात् त्व सहित व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी ही स्वभाव गति है)।

इसका प्रयोग इस प्रकार से किया जा सकता है कि किसी भी कमरे के एक कोने में एक मोमबत्ती जलाकर रख दें, अथवा मिट्टी का तेल का दिया अथवा हीटर जलाये, स्टोव जलाये अथवा ज्यादा से ज्यादा प्रकाश देने वाले बल्व जलाये, उसको छूने से हमको जितना ताप महसूस होगा, उससे कुछ दूर में उससे कम महसूस होगा, ज्यादा दूर में और कम होगा, दूसरे कोने में सबसे कम होगा, इसका निरीक्षण, परीक्षण हर विद्यार्थी कर सकता है। कमरे के बीच में रखकर यही प्रयोग करें तो पता लगता है कि ऊष्मा सभी ओर समान रूप से परावर्तित होता है।

इसी प्रकार हम उक्त प्रयोग विधि से यह भी स्वीकार सकते हैं कि सूर्य का ताप सभी ओर समान रूप से परावर्तित हो रहा है। सूर्य बिम्ब से परावर्तित ताप धरती को छूता है सूर्य की ससम्मुखता में। इसी के साथ यह भी समझ में आता है कि धरती घूमते हुए जो भाग सूर्य के सम्मुख रहता है, वह तप्त होता है। इसी कारणवश सूर्योदय और अस्त होता है। अस्त होते समय भी न्यूनतम ताप धरती को स्पर्श किये रहता है। इन दोनों के मध्यांश में, बीच में, अधिकतम ताप स्पर्श किये रहता है। इसको हर व्यक्ति परीक्षण, निरीक्षण कर सकता है।

धरती के घूर्णन गतिवश ही सूर्य के सम्मुख, विमुख होने का विन्यास स्पष्ट होता है। इसी घूर्णन गति के नर्तन के समान में होने वाली कंपनात्मक गति ही सूर्य के चारों ओर वर्तुलात्मक गति में प्रमाणित होने का स्वरूप है। इसके मूल में त्व सहित व्यवस्था प्रवृत्ति ही है। यह प्रवृत्ति परस्पर अच्छी दूरी में रहते हुए व्यवस्था को प्रमाणित करने के रूप में है। इस अर्थ में निश्चित निर्वाह हर परस्परता में वर्तमान है, अर्थात् प्रमाणित है। इस प्रकार से यह धरती, इस सौर्य व्यूह में जितने भी ग्रह-गोल भागीदारी कर रहे हैं, इन सबके साथ तालमेल रखते हुए, सूर्य के सम्मुख-विमुख होते हुए, सूर्य से निश्चित अच्छी दूरी में रहते हुए सभी ओर चक्कर काटता हुआ देखने को मिल रहा है। इस प्रकार से यह चक्राकार गति पथ पूर्णतया गोल न होकर अण्डाकार में होना, इस बात की प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति का प्रधान आशय धरती में ऋतु परिवर्तन की स्वयं स्फूर्त प्रवृत्ति है। अंतत: इस धरती पर विकास क्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति प्रमाणित होना ही आशय है। इस आशय को कैसे हम मानव समझें।

उक्त मुद्दे को इस प्रकार समझना बन जाता है कि इस धरती पर चारों अवस्थायें प्रकाशित है। जो थी नहीं, वह होती नहीं। इस तथ्य को विश्लेषित करने पर पता लगता है कि इन चारों अवस्थाओं की मूल प्रवृत्ति पदार्थावस्था में समाहित रहा ही। अगर ऐसा नहीं होता, तब यौगिक और हरियाली का उदय होना संभव ही नहीं था, जबकि इस धरती पर यौगिक क्रिया सम्पादित हो चुकी है, हरियालियाँ फैल चुकी हैं। इसी के साथ-साथ भुनगी-कीड़े से लेकर अनेक पशु-पक्षी, जीव-जानवरों का प्रगटन व परम्परा स्थापित हो चुकी है। इतना ही नहीं, मानव शरीर परम्परा भी स्थापित हो चुकी है। इन में से किसी को नकारने का कोई तर्क या स्थिति मानव के पास नहीं है। दूसरा मानव का हैसियत यही है कि मानव ‘है’ का अध्ययन करता है। चारों अवस्थायें मनुष्य के लिए अध्ययन करने की वस्तु है। अध्ययन करने से हमें इस तथ्य का सूत्र मिलता है कि धरती में ऋतु क्रम व्यवस्था से ही अथवा प्रभाव से ही, पूरकता से ही, भौतिक क्रिया व्यवस्था से ही रासायनिक क्रिया व्यवस्था का प्रकटन इस धरती पर हो चुका है। इसी क्रम में से चारों अवस्थाओं की रचनाएं सुस्पष्ट हो चुकी हैं। सभी खनिज भी ठोस रूप में ही अपने-अपने प्रजाति के अणु रचना अथवा मिश्रित रचना के रूप में प्रस्तुत है। इन्हीं की विविध प्रजातियों के आधार पर यौगिक घटना, रासायनिक उर्मि और वैभव अर्थात् नृत्य घटित है। रासायनिक द्रव्य के आधार पर संपूर्ण प्राणकोषा, प्राणकोषा संरचित रचनाएं, छोटे से बड़े वनस्पति प्रजातियाँ, जीवावस्था प्रजातियाँ, मानव शरीर प्रजाति का रचना इस धरती पर ही प्रमाणित है। इससे स्पष्ट हुआ कि ऊर्जा सम्पन्नता, बल सम्पन्नता, क्रियाशीलता के साथ-साथ विकास क्रम और विकास की प्रवृत्तियाँ समाई रहती है।

जीवन, विकसित पद में होना पहले स्पष्ट किया जा चुका है। यह गठनपूर्ण पद को प्राप्त किया रहता है। इस गठनपूर्ण परमाणु में ही आशानुरूप गतित होने की व्यवस्था बनी रहती है। यह स्वयं स्फूर्त है कि ऐसा आशानुरूप गतित रहने वाला जीवन आशावश किसी न किसी जीवावस्था अथवा ज्ञानावस्था के शरीरों को संचालित करता है। ऐसे जीवन किसी भी एक धरती से दूसरे धरती तक पहुँचने की सम्भावना समीचीन रहती है। कुल मिलाकर हर धरती पर विकासक्रम, रासायनिक-भौतिक रचनाओं और उनके परम्परा के रूप में प्रमाणित होना मानव को समझ में आता है। इससे स्पष्ट हो गया है कि हर धरती, किसी समृद्घ धरती के साथ किसी निश्चित दूरी को बनाये रखते हुए, व्यवस्था में भागीदारी के रूप में कार्य करते हुए स्वयं में विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति को प्रमाणित किये रहता है। इन सबका दृष्टा जागृत मानव ही है न कि भ्रमित मानव। इस क्रम में कई धरती किसी न किसी अवस्था में कार्यरत हैं ही। सभी अविकसित धरतियाँ विकास को प्रमाणित करने की ओर प्रवर्तनशील है। यह भी इस बात का संकेत है कि जितनी भी धरतियाँ अविकसित अवस्था में है अर्थात् जिन धरती में विकास क्रम ही प्रगट नहीं हुआ है, ऐसी सभी धरतियाँ विकास क्रम को सजाने की ओर अपने प्रवृत्ति को बनाये हुए हैं। इसी क्रम में सूर्य ग्रह जो ह्रास की परम स्थिति में है, वह भी कालान्तर में विकास क्रम में होने की कल्पना मानव परम्परा में प्रचलित है। यह सब स्थितियाँ विकास और जागृति होने के पक्ष में स्पष्ट हुई है। धरती कोई भी अवस्था में हो उसमें विकासक्रम, विकास को प्रमाणित करने का मूल बीज समाहित ही रहता है। क्योंकि, हर आवेश सामान्य गति की ओर, स्वभाव गति की ओर; स्वभाव गति विकास क्रम की ओर; विकासक्रम विकास को प्रमाणित करने की ओर; विकास जागृतिक्रम को प्रमाणित करने की ओर; जागृतिक्रम जागृति को प्रमाणित करने की ओर एवं जागृति की निरन्तरता को प्रमाणित करने की ओर कार्य करता हुआ समझ में आता है। इस विधि से इस बात पर विश्वास कर सकते हैं कि सम्पूर्ण अस्तित्व विकास और जागृति को प्रकाशित करने के अर्थ में ही क्रियाशील है। इसी क्रम में कई ग्रह-गोल में अधिकतम ताप जैसा सूर्य में है का होना एवं सम्मुख जितने भी ग्रह गोल होते हैं जिनमें कम ताप रहता है, उनमें ताप का समाहित हो जाना दिखाई पड़ता है। इस क्रम में यह धरती अपने में कितना श्रम किया है, यह हर जागृत मानव को बोध होता है।

इस धरती के ऊपरी सतह में जंगल, समुद्र और थोड़े भाग में मरूस्थली होना पाया जाता है। यह जंगल कैसा भी हो, जंगल के सर्वाधिक पेड़-पौधे, लता-गुल अपान वायु (कार्बन डाई आक्साइड) नाम से जाने वाले द्रव्य को अपना खाद्य पदार्थ बनाते हुए अथवा पाचन पदार्थ बनाते हुए प्राण वायु को अर्थात् ऑक्सीजन को प्रदान करता है। जबकि, कोयला और खनिज कोयले से निष्पन्न तेल-पेट्रोलियम को जितने भी यंत्रों में ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं अथवा प्रौद्योगिकी विधि से यंत्र संचालन में प्रयोग किया जाता है, इन सब के विसर्जित ईंधनावशेष में पाई जाने वाली प्राण घातक वायु (कार्बन मोनोआक्साईड) पर्यावरण के लिए अत्यंत घातक मानी जा रही है। इससे पता लगता है, ऐसे खनिज कोयला के मूल में जो बड़े-बड़े जंगल धरती में दबकर कोयले के रूप में आज प्रकट हैं, ऐसे दबने के पहले के जंगल वही द्रव्य अपने में पचा रखा है, इसी को अपना खाद्य पदार्थ बनाकर आकाशचुंबी वृक्ष बने रहे होंगे। ऐसी आकाशचुंबीयता की परिकल्पना को धरती में बनी हुई खनिज कोयले की मोटाई के आधार पर किया जाना स्वाभाविक है। वर्तमान में कहीं-कहीं, कोयले की 150 से 180 मीटर मोटाई की परत बिछी है। इससे अन्दाज लगाया जा सकता है कि कितने बड़े-बड़े वृक्ष रहे होंगे। एक मीटर कोयला होने के लिए कम से कम दस मीटर वृक्ष की लम्बाई की आवश्यकता पड़ती है, इसकी सघनता गणितीय विधि से सभी समझ सकते हैं। इस प्रकार अथक कोयला बनाने के लिए कितने बड़े वृक्षों का जंगल रहा होगा, गणितीय विधि से ही इसको निकाला जा सकता है। सामान्य परिकल्पना में समाना ही बहुत मुश्किल है, परिकल्पना में यही लाया जा सकता है कि आकाशचुंबी सघन जंगल रहे होंगे। ऐसे जंगल भूमि के अंदर दबकर सैकड़ों हजारों वर्षों में कोयला हुआ होगा, वही जंगल प्राणघातक वायु (कार्बन मोनो ऑक्साईड) को पचाता रहा होगा, अब वही कार्बन मोनोऑक्साईड को पैदा करता है। अभी पौधे कार्बनडाईऑक्साईड पचाते हैं, ऑक्सीजन को पैदा करते हैं। यह सभी ज्ञानियों-विज्ञानियों को विदित हो चुकी है। इस बात का जिक्र यहाँ इसलिए कर रहे हैं कि इस धरती के लिए इसका प्रयोजन क्या है ?

हम इस बात को समझ चुके हैं कि कोयला, कार्बन उष्मा को शोषित करता है। वातावरणीय ऊष्मा को अपने में ज्यादा से ज्यादा समा लेता है। इसका प्रयोग इस प्रकार कर सकते हैं कि एक समान स्थली में कोयला को पोते, एक दूसरे समान स्थली में सफेद को पोत दें। कड़ी धूप के समय कोयला जहाँ पोता रहता है, वहाँ पैर रखने से गरम लगता है, सफेद जहाँ पोता रहता है वहीं कम गरम लगता है। इस दोनों के बीच की स्थितियों को भी अन्य जगहों में देखा जा सकता है। इससे यह पता लगता है कि कोयला ज्यादा से ज्यादा ताप को अपने में पचा लेता है। धीरे-धीरे वितरित करता है। इस प्रमाण से हमें यह समझ में आता है कि इस धरती पर पहुँचने वाली ब्रह्माण्डीय उष्मा, इसमें सबसे अधिक सूर्य ऊष्मा, इस धरती पर पचाने की आवश्यकता रही। क्योंकि धरती अपने ऊष्मा संतुलन को बनाये रखने के उपरान्त ही धरती के सतह पर हरियाली सुरक्षित रही। हरियाली सुरक्षित रहने के उपरान्त ही कृमि, कीट, जीव, जानवरों का प्रकटन, उसके उपरान्त ही मानव का प्रकटन होना क्रमिक रचना वैभव के रूप में हम मानव को समझ में आता है। इस वैभव के मूल में धरती अपने में ऊष्मा संतुलन बनाये रखना एक प्रमुख उपलब्धि रही है। इसमें मानव का कोई योगदान नहीं रहा। इसी कोयले में समाहित तेल ही धरती में खनिज द्रव्यों के साथ परिपक्व हो कर खनिज तेल के रूप में उपलब्ध हुआ है। इसका भी संरक्षण धरती के अन्दर उचित वातावरण के रक्षा कवच के साथ बना ही रहा। सुरक्षित रखने का तात्पर्य तेल तक प्राणवायु अर्थात् आक्सीजन के न पहुँचने देने के लिए वातावरण को बनाये रखना ही है।

इस प्रकार से हम इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि धरती की कम्पनात्मक गति के समान रूप में सम्पूर्ण खनिज में कम्पन और स्पन्दन, उससे अधिक रासायनिक द्रव्यों में स्पन्दन, उससे अधिक प्राण वायु में स्पन्दन, फलस्वरूप रचनाएं इस धरती पर प्रकट हैं। ये सब ऐसी संतुलित रचनाओं को प्रकट करने के अर्थ में, इसके पूर्व भूमि में सम्पन्न सम्पूर्ण क्रियाकलाप है, अतएव ये सब नियम पूर्वक ही सम्पादित हुई हैं, नियंत्रण और संतुलन पूर्वक अवस्थायें प्रकट हैं। इसे हम मानव को अच्छी तरह से समझने की आवश्यकता है और अनुशीलन पूर्वक संरक्षण, संवर्धन विधि से स्वयं को व्यस्थित कर लेने की आवश्यकता है। मानव के व्यवस्थित होने के मूल में ज्ञान, विज्ञान, विवेक का एक संगीतमय कार्यकलाप स्पष्ट रहने से है। यही कार्य-कलाप भाषा, कार्य-व्यवहार में नियोजित होकर प्रयोजनों को प्रतिपादित करता है। मानव का प्रयोजन समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करना ही है।

इस क्रम में मानव अपने तर्क से ऐसा सोचते हैं – सूर्य विकसित होने पर (स्वभावगति) धरती के लिए ऊष्मा कहाँ से मिलेगा, इस धरती पर यह हरियालियाँ कैसे रहेंगी, ये सब हरियालियाँ सूर्य प्रकाश के कारण है। इसमें समाधान का सूत्र हम स्वयं मानव में ही पहले कदम में ही मिल जाता है। मानव देह की निश्चित ऊष्मा (तापमान) विधि बनी हुई है। उसे हम अपने मापदंड के अनुसार 98-990 फारेनहाइट रखते हैं। मापदंड का नाम थर्मामीटर माना जा रहा है। इस तथ्य को धरती पर जीता जागता मानव में देखा गया है कि जहाँ 00 फारेनहाइट से नीचे तापमान है, वहाँ भी मानव रहता है, वहाँ के मानव शरीर की तापमान भी उसी सामान्य तापमान के रूप में नापा जाता है। इस धरती पर 1200 फारेनहाइट से अधिक ताप प्रभावित है, वहाँ भी मानव शरीर का वही सामान्य तापमान मापा जा रहा है, तभी मानव को स्वस्थ कहा जा रहा है। वातावरण के अनुसार ताप यदि बदल जाता है तो रोगी कहलाता है अथवा मर गया कहा जाता है। इस प्रमाण के आधार पर धरती का स्वास्थ्य भी विचार किया जा सकता है। धरती के वातावरण में जो ब्रह्माण्डीय किरण और ताप परावर्तित होकर धरती को स्पर्श करता है, इससे धरती का तापमान न बढ़ने, न घटने के लिए ताप पाचन व्यवस्था को धरती अपने स्वयं में से संतुलन बनाये रखना पहले वर्णित हो चुकी है। यह कोयले के परत के रूप में धरती में समायी हुई है। मानव अपने अविवेक वश और प्रलोभन वश धरती का पेट फाड़ दिया, कोयले को निकाल लिया, धरती तापग्रस्त हो गयी। कोई भी विज्ञानी और प्रौद्योगिकी संसार इस जिम्मेदारी को स्वीकारने को तैयार नहीं है। इसका उपचार दर किनार रहा। इस विधि से हम कहाँ पहुँचेंगे, क्या हो सकता है ? पहले दुष्परिणाम का स्वरूप है कि धरती किसी तादात् से तप्त होने के उपरान्त इस धरती पर हरियाली जीव-जानवर, मनुष्य रह नहीं पायेंगे। दूसरी स्थिति में धरती के ताप ग्रस्त होने के उपरान्त उत्तर, दक्षिणी ध्रुव में जितनी भी बर्फ संग्रहीत हैं उस सबके पिघलने के स्थिति में ऊँचे-ऊँचे पर्वत शिखरों को छोड़कर सभी जगहों में जल मग्न की स्थिति हो सकती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य की क्या हालत हो सकती है, सभी सोच सकते हैं। तीसरे दुष्परिणाम की स्थिति यह भी हो सकती है कि इस धरती पर जब कभी पानी के रूप में यौगिक क्रिया संपादित हुआ, तब एक जलने वाले, एक जलाने वाले द्रव्य के सहज रूप में जुड़ने की स्थिति बनी ही होगी। उस समय जलने वाले, जलाने वाले उप द्रव्य दोनों को सामान्य बनाये रखने के लिए एकमात्र ब्रह्माण्डीय किरण ही उपादेय रहा है। ऐसे ब्रह्माण्डीय किरण बनाम विकिरण और विकिरणीयता के संसार को आज का मानव पहचान चुका है। इस बात को ध्यान में रखने पर निम्न वर्णित कल्पना ध्यान में आती है, भले ही उक्त घटना घटित न हो। आज हम अपने ही अविवेक और प्रलोभन वश धरती को ताप ग्रस्त करते जा रहे हैं, परिणाम में धरती की सुरक्षा की संभावना न्यून हो गयी हैं। प्राणवायु की मात्रायें शनै:-शनै: घटने लगी हैं, प्राणवायु विरोधी द्रव्य बढ़ने लगा है, इसी को हम प्रदूषण कह रहे हैं।

ऐसी स्थिति में ब्रह्माण्डीय किरण जो पानी बनने के लिए संयोजक रहा है, ऐसे प्रदूषण के संयोजन वश इसके विपरीत घटना का कारण (पानी के विघटन का कारण) बन सकता है। ऐसी स्थिति में मानव का क्या हाल होगा ? इस भीषण दुर्घटना का धरती के छाती पर हम जितने भी विज्ञानी कहलाते हैं, प्रौद्योगिकी संसार के कर्णधार कहलाते हैं, क्या इनके पास इसका कोई उत्तर है। इस बात का उत्तर देने वाला कोई दिखता नहीं। क्योंकि, जिम्मेदारी कोई स्वीकारता नहीं। यही इसका गवाही है। जिम्मेदारी स्वीकारने में परेशानी है, क्योंकि व्यक्ति प्रायश्चित के लिए उत्तर दायी हो जाता है। इसलिए इसके सुधार के लिए प्रयास ही एकमात्र कर्त्तव्य लगता है। इसकी औचित्यता अधिकाधिक लोगों को स्वीकार होता है।

चौथी विपदा धरती के ताप ग्रस्त होने के आधार पर धरती के चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र का विचलित हो जाना है। इस धरती में उत्तर और दक्षिणी ध्रुव के बीच, स्वयं स्फूर्त विधि से चुम्बकीय धारा अथवा चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र बना हुआ है। इस बात को भी स्वीकारा गया है। इसी आधार पर दिशा सूचक यंत्र तंत्र बनाकर प्रयोग कर चुके हैं। इस विधि से जो ध्रुव से ध्रुव अपने संबद्घता को बनाये रखा है, इसके आधार पर ही धरती के ठोस होने का अविरल कार्य संपादित होता रहा। इससे धरती के परत से परत ऊष्मा संग्रहण, पाचन, संतुलनीकरण संपादित होती रही। इससे धरती का स्वास्थ्य, ताप के रूप में संतुलित रहने की व्यवस्था बनी रही है। अभी धरती के असंतुलित होने की घोषणा तो मानव करता है, किन्तु उसके दायित्व को स्वीकारता नहीं, इसलिए उपायों को खोजना बनता नहीं, फलस्वरूप निराकरण होना बनता नहीं। इस क्रम में आगे और धरती में ताप बढ़ने की संभावना को स्वीकारा जा रहा है यह इस बात के लिए आगाह करता है – ध्रुव से ध्रुव तक संबद्घ चुम्बकीय धारा, किसी ताप तक पहुँचने के बाद, विचलित हो सकती है, इससे यह धरती अपने आप में ठोस होने के स्थान पर बिखरने लग जाना स्वभाविक है। यह बिखर जाने के बाद धूल के रूप में मानव की कल्पना में आता है। इसके उपरान्त मानव कहाँ रहेगा, जीव जानवर कहाँ रहेंगे, हरियाली कहाँ रहेगी, पानी कहाँ रहेगा, पानी की आवर्तनशीलता की व्यवस्था कहाँ रहेगा। ये सब विलोम घटनायें मानव के मानस को काफी घायल करने के स्थिति में तो हैं।

इसके उपचार का उपक्रम यही है कि कोयले और खनिज तेल से जो-जो काम होना है, उसका विकल्प पहचानना होगा। कोयला और खनिज तेल के प्रयोग को रोक देना ही एकमात्र उपाय है। इसी के साथ विकिरणीय ईंधन प्रणाली भी धरती और धरती के वातावरण के लिए घातक होना, हम स्वीकार चुके हैं। विकिरण विधि से ईंधन घातक है, कोयला, खनिज विधि से ईंधन भी घातक है। इनके उपयोग को रोक देना मानव का पहला कर्त्तव्य है। दूसरा कर्त्तव्य है मानव सुविधा को बनाये रखने के लिए ईंधन व्यवस्था के विकल्प को प्राप्त कर लेना। यह विकल्प स्वभाविक रूप में दिखाई पड़ता है – प्रवाह बल को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित कर लेना। इस अकेले स्रोत के प्रावधान से, प्रदूषण रहित प्रणाली से, विद्युत ऊर्जा आवश्यकता से अधिक उपलब्ध हो सकती है। इसी के साथ समृद्घ होने के लिए हवा का दबाव, समुद्र तरंगों का दबाव, गोबर गैस, प्राकृतिक गैस जो स्वभाविक रूप में धरती के भीतर से आकाश की ओर गमन करती रहती है, ऐसे सभी स्रोतों का भरपूर उपयोग करना मानव के हित में है, मानव के सुख समृद्घि के अर्थ में है। कुछ ऐसे यंत्र जो तेल से ही चलने वाले हैं, उनके लिए खाद्य, अखाद्य तेलों (वनस्पति, पेड़ों से प्राप्त) को विभिन्न संयोगों से यंत्रोपयोगी बनाने के शोध को पूरा कर लेना चाहिए। तभी मानव यंत्रों से प्राप्त सुविधाओं को बनाये भी रख सकता है। ईंधन समृद्घि बना रह सकता है। तैलीय प्रयोजनों के लिए जंगलों में तैलीय वृक्षों का प्रवर्तन किया जाना संभव है ही, सड़क, बाग बगीचों में भी यह हो सकता है। किसानों के खेत के मेंड़ पर भी हो सकता है, यह केवल मानव में सद्बुद्घि के आधार पर संपन्न होने वाला कार्यक्रम है। धरती के ऊपरी सतह में विशाल संभावनायें है, ऊर्जा स्रोत बनाने की, ईंधन स्रोत बनाने की। दबाव स्रोत, प्रवाह स्रोत, सौर्य ऊर्जा स्रोत, ये सब स्वभाविक रूप में प्रचुर मात्रा में हैं ही। इनके साथ ही तैलीय वृक्षों के विपुलीकरण की संभावना धरती पर ही है। धरती के भीतर ऐसा कुछ भी स्रोत नहीं है।  जो है केवल धरती को स्वस्थ रखने के लिए है। यदि सही परीक्षण, निरीक्षण करें तो धरती के सतह पर ही संपूर्ण सौभाग्य स्रोत है। धरती के भीतर, ऊपरी हिस्से के समान या सदृश्य कोई स्रोत दिखाई नहीं पड़ती।

इसी क्रम में और भी एक तथ्य याद रखने योग्य है। धरती के पाताली जल स्रोत के ओर दृष्टि गयी, कुल 25-30 वर्ष में ही सर्वाधिक जगह में पाताली जल स्रोत क्षीण हो गया। फलस्वरूप, ऊपरी जल स्रोत सूख गया तालाब, बावड़ी सूख गये। मनुष्य बर्बादी की ओर चल दिया। इस मुद्दे पर थोड़ा सा ध्यान दें। धरती के ऊपरी हिस्से में जितनी विशालता है, हरेक 10 फुट में विशालता घटती जाती है। इसको परीक्षण, निरीक्षण हर विद्यार्थी कर सकता है। जैसे एक गोल वृत्त बनायें, यह आसानी से हाथ से भी बनता है, कम्पास से भी बनता है। उसके बाद आधे-आधे में एक-एक वृत्त भीतर बनायें, भीतर बना वृत्त छोटा होता जाता है, इस प्रकार धरती का भीतरी सतह ऊपरी सतह से छोटा ही होता जाता है। हम मानव भ्रमवश पाताली स्रोतों में ऊपरी सतह से ज्यादा मिलने के उम्मीद से जूझ गये। इससे भी अपूर्व क्षति घटित हो चुकी है। इस मुद्दे पर सार्थक विचार किया जाय तो यह निश्चित होता है कि पाताली जल का स्रोत धरती की ऊपरी सतह पर बहता हुआ जल ही है। इस धरती के ऊपरी हिस्से में जल फैला है, बह रहा है, इनकी आवर्तनशीलता बनी ही रहती है। यह सीधा सूर्य ऊष्मा के सम्पर्क में होने के फलस्वरूप, धरती पर जल का वाष्पित होना, यही वाष्प सघन होकर बादल के रूप में परिणित होना, ऐसे बना हुआ बादल किसी अवधि तक समृद्घ होना, ऐसे समृद्घ होने का फलन में पुन: धरती पर बूंद-बूंद के रूप में वर्षा होना, यह आवर्तनशीलता देखने को मिलता है। इसमें यही सार्थक होना सुनिश्चित होता है, धरती पर जल को ज्यादा जगह में फैला कर रोका जाय, रखा जाय। इसी से मानव का भविष्य सुरक्षित हो सकता है।

इसके साथ-साथ और भी ध्यान देने पर पता लगता है कि प्राणावस्था का वैभव, जीवावस्था और ज्ञानावस्था का वैभव, कार्यकलाप, कार्य-व्यवहार की शुभ स्थली धरती के ऊपरी सतह पर ही प्रमाणित है। ये तीनों अवस्थायें धरती के भीतर कहीं भी वैभवित नहीं हो पाती। इसी के साथ यह भी देखने को मिलता है, खगोलीय प्रकाश ऊपरी हिस्से में ही प्रतिबिम्बित होती है। धरती अपारदर्शी होने के आधार पर खगोलीय प्रकाश धरती में पारगामी होना संभव नहीं है। इन सभी तथ्यों पर मानव को ही ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि मानव ही धरती के भीतरी हिस्से में हस्तक्षेप किया है, इसका परिणाम अशुभ हो चुका है। इसका स्पष्टीकरण हो चुका है। मनुष्य शुभ ही चाहता है। शुभ सूत्र और व्याख्या में पारंगत होने की आवश्यकता है। ऐसे शुभ सूत्र और व्याख्या अथवा सर्व शुभ सूत्र और व्याख्या के आधार पर सह अस्तित्व विधि अर्थात् नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तितव को प्रमाणित करता हुआ जीता है। सार्वभौमता शुभ का सूत्र और व्याख्या है। इस बात को हम अच्छी तरह समझ चुके हैं। पहले व्याख्या कर चुके हैं, अखंडता सूत्र है सार्वभौमता व्याख्या है, इसका धारक-वाहक मानव ही है। यही जागृति का प्रमाण है, सौभाग्य का वैभव है। यही मानव की चाहत भी है, इसीलिए सभी अनुचित, अनावश्यक, अनर्थ प्रवृत्तियाँ, कार्य-व्यवहार, विन्यास, मानव के द्वारा भ्रमवश घटित हो चुकी, उसे सुधार लेना ही मानव का सम्मान है, साथ में सौभाग्य है।

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