जीवन विद्या

 

मानव मूल्य जब हम चरितार्थ करना शुरू करते है, तभी हम सही करने में समर्थ, पारंगत होते हैं | तब तक किसी न किसी उन्माद में जकडे ही रहते है और हमको सही करने का कोई रास्ता मिलता नहीं | इसे ही नासमझी और भटकना कहा है | यही समस्या और दुःख के रूप में दिखाई देता है | कोई दुखी होना नहीं चाहता इसलिए छटपटाता है | समझदार होने के लिए जीवन तथा अस्तित्व को समझना ही विकल्प है | इसके बिना समझदारी होती नहीं |

यही जीवन विद्या है | विद्या के दो भाग है ज्ञान और दर्शन | इन दोनों का धारक वाहक जीवन ही है | जीवन ज्ञान का मतलब जीवन में, जीवन से, जीवन को समझने कि प्रक्रिया से है | जीवन ही जब अस्तित्व को समझता है तब इस प्रक्रिया को अस्तित्व दर्शन कहा | सभी जीवन समान है और सारे मनुष्यों में जीवन एक समान है | जीवन में, जीवन को समझने कि विधि में, प्रमाणित करने की विधि में, अस्तित्व को समझने की विधि में, सह अस्तित्व को प्रमाणित करने की विधि में यह आया कि सभी जीवन समान है |

 

समझने कि व्यवस्था शरीर में हाथ-पैर, कान, नाक, चक्षु, मेधस, ह्रदय कही भी नहीं है | अभी तक यह भी बड़ी झंझट रही है कि समझनेवाला मस्तिष्क ही होता है, कई लोग इस पर बहस भी करते देखे जाते हैं पर जरा से गहराई से देखने पर ही पता चल जाता है कि यह व्यवस्था जीवन में ही है | जीवन ही जीवन को और अस्तित्व को समझने वाली वास्तु है और दूसरा कोई समझता नहीं |

 

इस प्रकार से निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य समझदारी व्यक्त करने के लिए, समझदारी प्रमाणित करने के लिए, शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में होना जरूरी है | यह केवल शरीर या केवल जीवन रहने पर नहीं होगा | प्रमाणित करने का केंद्र बिंदु हुआ व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना | यही समझदारी कि सार्थकता है | हम सब व्यवस्था में जीना ही चाहते है, यह प्रक्रिया जीवन सहज ही है, यह कोई लादने वाली चीज नहीं है | अस्तित्व को समझने के क्रम में अस्तित्व स्वयं सह अस्तित्व है क्योंकि सत्ता यानि व्यापक में डूबी, भीगी, घिरी प्रकृति ही सम्पूर्ण अस्तित्व है |

ए. नागराज 

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